बिरजू महराज
एक दिन भी नहीं होता था जब सितारा का रियाज नहीं होता था :बिरजू महाराज
सितारा देवी ने कथक की ताउम्र पूजा की. मैंने अपनी जिंदगी में उसके जैसी शिष्या नहीं देखा. सितारा इस बात से शुरुआती दौर से ही वाकिफ थी कि बिना रियाज के वह इसे हासिल नहीं कर पायेगी. सो, मेरी याद में एक भी ऐसा दिन नहीं रहा होगा जिस दिन उसने रियाज नहीं किया हो. सितारा को इस बात का अफसोस हमेशा रहा कि मैंने कभी उसके साथ स्टेज शेयर नहीं किया. सितारा कथक को लेकर इस कदर समर्पित थी कि वह सिर्फ खुद नहीं, बल्कि किसी भी परफॉरमेंस से पहले अपनी पूरी टीम, अपने म्यूजिशियन सभी को पूरी पूरी प्रैक्टिस कराती थी और अगर कुछ भी गलतियां हो जाये तो वह बहुत नाराज होती थी. उसके चेहरे पर जो तेज था. और उसकी आंखें इतनी बड़ी बड़ी थीं कि जब वह गुस्से से लाल होती थीं. कोई उसके करीब जाने की कोशिश नहीं करता था. वह हमेशा मुझसे यह कहती थी कि गुरुजी इस बात की चिंता है कि हमारे बाद इस परंपरा को जीवित कौन रखेगा. उसके मन में यह चिंता हमेशा होती थी. लेकिन जब वह देखती थी कि कई शिष्य कथक सीखने में दिलचस्पी ले रहे हैं तो उसके चेहरे का तेज वापस आ जाता था. यह दर्शाता था कि उसे कितनी ललक है कि कथक का मान बरकरार रहे. सितारा ने अपनी अगली पीढ़ी को अपनी कला दी. और इसे बढ़ाने की कोशिश की है. मुझे सितारा की यह बात भी हमेशा प्रेरित करती रही कि सितारा ने शुरुआती दौर में कभी कथक की फॉर्मल ट्रेनिंग नहीं ली. जो सिखा अपने पिता से सिखा और क्या खूब सिखा. सितारा की यह भी खूबी थी कि वह सिर्फ मंच पर ही नहीं, जब मंच पर नहीं भी होती थी तब भी इस बात का मान रखती थीं कि वह एक कथक डांसर हैं, सो उन्हें हमेशा प्रेजेंटेबल होना चाहिए. वह अपने परिधान, अपने आभूषण का पूरा ख्याल रखती थीं कि वह उसके व्यक्तित्व से मेल खा रहा या नहीं. यह उसका दिखावा नहीं, बल्कि एक कलाकार का अपनी कला को सम्मान देना है. जिसे हर वक्त सिर्फ अपनी कला की ही फिक्र है और वह उसके इर्द गिर्द ही अपनी दुनिया बसा लेता है. यही एक कलाकार का अहम योगदान है कि वह अपने परिवार से ही कला को जीवित रखने की कोशिश करे और मुझे पूरी उम्मीद है कि कथक का सम्मान करने वाले लोग उसे व उसके योगदान को जाया नहीं होने देंगे.
सेकेंड स्टोरी
ओझिल हुआ कथक का सितारा
तो कथक का द एंड होना तय है : सितारा देवी
कुछ काम नहीं देता. वह कला ही है जो तुम्हें ताउम्र इज्जत दिलाती है और इसे ही बरकरार रखना. उन्होंने कथक को अपनी जिंदगी दी और कथक ने उन्हें सम्मान दिलाया. किसी दौर में कथक को जब सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता था. उस वक्त भी सितारा देवी ने कथक को ही अपनी जिंदगी का सितारा माना और कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. 1920 में कोलकाता में जन्मी सितारा देवी को कई सम्मानित पुरस्कारों से नवाजा गया. पद्दम श्री, संगीत नाटक अकादमी व कालिदास सम्मान से सम्मानित सितारा देवी आज हमारे बीच नहीं. कुछ वर्ष पहले सितारा देवी से एक मुलाकात हुई थी. उम्र भले ही उनके कैलेंडर का हिस्सा बना हो. लेकिन उनके चेहरे का तेज आज भी आपको उत्साहित व चकित करने वाला था. कथक उनके पैरों में नहीं, उनकी जुबां पर कायम थी. उनकी आंखें नृत्य करती हैं. उनके हाथ बात करते वक्त उठ भी रहे थे तो उसमें एक लय नजर आ रही थी. पेश है उस पुरानी बातचीत के मुख्य अंश. पिछले कुछ सालों से उन्हें यह बात सालती रही कि वे कथक के रियाज को जारी नहीं रख पायीं. चूंकि उनके पैरों में परेशानी आ गयी थी. उन्हें इस बात का भी अफसोस रहा कि उन्होंने कला को जो समर्पण दिया, उसे भारत में उस फक्र की नजर से नहीं देखा गया. जिस तरह से उसे देखा जाता है. उनका मानना था कि उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया जाना चाहिए था.
दिलीप कुमार की फैन हूं मैं
बातचीत की शुरुआत उन्होंने जिंदगी के अहम शख्सियत दिलीप कुमार से शुरू की. बकौल सितारा देवी(मजाकिया अंदाज में )मैं दिलीप कुमार साहब को हमेशा से बेहद प्यार करती थी. और यह मेरा विश्वास है कि उनसे मिलने वाली हर लड़की उनकी भक्त हो जायेगी. तो प्यार तो मैं भी करती थी. यह बात मैंने सायरा से भी कहा था. लेकिन मुझे लगा कि प्यार ऐसा करो कि ताउम्र बरकरार रहे. अब सायरा को छोड़ कर वह मेरे पास तो आ नहीं जाते. सो, उन्हें राखी की ही बांध दी कि चलो झंझट ही खत्म. अब तो जिंदगी भर का रिश्ता जुड़ गया. जब तक जिंदगी है रिश्ता बरकरार रहेगा.
शादी कर ली कथक से ही
मेरी पहली शादी 8 साल की उम्र में हो गयी थी. लेकिन ससुराल वालों ने शादी तोड़ दी क्योंकि मैंने कहा था कि मैं स्कूल जाऊंगी. लेकिन मुझे इस बात का कोई अफसोस नहीं. मेरा मानना है कि शादी का मतलब है कमिटमेंट. और मुझे लगता है कि मैं कथक से ही शादी कर ली है. चूंकि इस कला के अलावा मुझे जिंदगी में कुछ और नजर ही नहीं आता था. सो, मुझे इस बात का अफसोस नहीं कि मैंने कथित तौर पर कही जाने वाली शादी में सफलता हासिल नहीं की. हालांकि मुझे इस बात का अफसोस है कि भारत में कथक को उतना सम्मान नहीं दिया गया. जितना उसे मिलना चाहिए था. लेकिन इस बात की खुशी है कि रवींद्रनाथ टैगोर ने मुझे नृत्य साम्राज्ञी माना और वह मेरे लिए बहुत बड़ा सम्मान है. रवींद्रनाथ टैगोर के सामने मैंने 11 साल की उम्र में नृत्य पेश किया था. वे मेरे नृत्य के कद्रदान बने और उन्होंने इनाम के रूप में शॉल और 50 रुपये दिये. मैंने उनसे कहा इनाम नहीं आपका आशीर्वाद चाहिए.
राजकपूर ने दी इज्जत
मैं खुशनसीब हूं कि राजकपूर साहब ने हमेशा सम्मान दिया मुझे. आरके स्टूडियो में जब तक होली मनायी गयी. सितारा देवी वहां आमंत्रित की जाती रहीं. और मैंने हमेशा उनका मान रखा. उफ्फ क्या होली होती थी वह आरके स्टूडियो में. राज कपूर स्वयं रंग में सराबोर हो जाते थे. डूब कर मस्ती क्या होती है.कोई उनसे सीखे. उनकी होली में नाच गाना सबकुछ होता था. लोक संगीत नृत्य को वह तवज्जो देते थे.
पीटी डांस है
मुझे इस बात की खोफ्त होती है कि लोग इन दिनों हिंदी फिल्म के हर गाने पर किये गये नृत्य को कथक का नाम दे देते हैं. कथक किसी को यूं ही बिना समर्पण और रियाज के हासिल नहीं हो सकता. इन दिनों तो हिंदी फिल्मों में पीटी डांस होता है. और कुछ नहीं. सब यूं यूं हिलेंगे... और कहेंगे भईया ये है कथक़. भला डांस कोई खेल है. स्पोर्ट्स है क्या जो कमर हिला ली और हो गयी कथक़.
तबायफ के घूंघरू
मेरे पिताजी ने कथक को अपनी जिंदगी समर्पित की और इसलिए आज कथक जिंदा है. मेरे पिताजी को जब आस पड़ोस के लोग कहा करते थे कि आपकी बेटी तबायफ बनेंगी तो वह साफ कहते थे कि वे कथक ही करेंगी. जिसे जो कहना है कहें.मेरे पिताजी को उनके पिता ने यानी मेरे दादाजी ने लोहे की छड़ से मार लगा कर घर से निकाल दिया था. घर से तो उन्होंने निकाल दिया. लेकिन पिताजी के जेहन से न तो कथक निकली. न ही पैरों से घूंघरू.
कथक का पतन
मैं मानती हूं कि कथक का पतन हो रहा है. मैं मानती हूं कि अगर मैं नहीं रही और खुदा द खास्ता बिरजू महाराज नहीं रहे तो कथक का फिल्मी अंदाज में कहूं तो द एंड होना तय है. चूंकि कथक को अब तक घराने के रूप में और उस शिद्दत से जिस शिद्दत से हमने जीवंत करने की कोशिश की. अब वह नजर नहीं आता. फिल्मों में भी अब वैसे गाने नहीं बनते. जिनका पिक्चराइजेशन कथक को ध्यान में रख कर बनाये जाये. अब कथक को लेकर वह दिलचस्पी. वह उत्साह नजर नहीं आता.
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एक दिन भी नहीं होता था जब सितारा का रियाज नहीं होता था :बिरजू महाराज
सितारा देवी ने कथक की ताउम्र पूजा की. मैंने अपनी जिंदगी में उसके जैसी शिष्या नहीं देखा. सितारा इस बात से शुरुआती दौर से ही वाकिफ थी कि बिना रियाज के वह इसे हासिल नहीं कर पायेगी. सो, मेरी याद में एक भी ऐसा दिन नहीं रहा होगा जिस दिन उसने रियाज नहीं किया हो. सितारा को इस बात का अफसोस हमेशा रहा कि मैंने कभी उसके साथ स्टेज शेयर नहीं किया. सितारा कथक को लेकर इस कदर समर्पित थी कि वह सिर्फ खुद नहीं, बल्कि किसी भी परफॉरमेंस से पहले अपनी पूरी टीम, अपने म्यूजिशियन सभी को पूरी पूरी प्रैक्टिस कराती थी और अगर कुछ भी गलतियां हो जाये तो वह बहुत नाराज होती थी. उसके चेहरे पर जो तेज था. और उसकी आंखें इतनी बड़ी बड़ी थीं कि जब वह गुस्से से लाल होती थीं. कोई उसके करीब जाने की कोशिश नहीं करता था. वह हमेशा मुझसे यह कहती थी कि गुरुजी इस बात की चिंता है कि हमारे बाद इस परंपरा को जीवित कौन रखेगा. उसके मन में यह चिंता हमेशा होती थी. लेकिन जब वह देखती थी कि कई शिष्य कथक सीखने में दिलचस्पी ले रहे हैं तो उसके चेहरे का तेज वापस आ जाता था. यह दर्शाता था कि उसे कितनी ललक है कि कथक का मान बरकरार रहे. सितारा ने अपनी अगली पीढ़ी को अपनी कला दी. और इसे बढ़ाने की कोशिश की है. मुझे सितारा की यह बात भी हमेशा प्रेरित करती रही कि सितारा ने शुरुआती दौर में कभी कथक की फॉर्मल ट्रेनिंग नहीं ली. जो सिखा अपने पिता से सिखा और क्या खूब सिखा. सितारा की यह भी खूबी थी कि वह सिर्फ मंच पर ही नहीं, जब मंच पर नहीं भी होती थी तब भी इस बात का मान रखती थीं कि वह एक कथक डांसर हैं, सो उन्हें हमेशा प्रेजेंटेबल होना चाहिए. वह अपने परिधान, अपने आभूषण का पूरा ख्याल रखती थीं कि वह उसके व्यक्तित्व से मेल खा रहा या नहीं. यह उसका दिखावा नहीं, बल्कि एक कलाकार का अपनी कला को सम्मान देना है. जिसे हर वक्त सिर्फ अपनी कला की ही फिक्र है और वह उसके इर्द गिर्द ही अपनी दुनिया बसा लेता है. यही एक कलाकार का अहम योगदान है कि वह अपने परिवार से ही कला को जीवित रखने की कोशिश करे और मुझे पूरी उम्मीद है कि कथक का सम्मान करने वाले लोग उसे व उसके योगदान को जाया नहीं होने देंगे.
सेकेंड स्टोरी
ओझिल हुआ कथक का सितारा
तो कथक का द एंड होना तय है : सितारा देवी
कुछ काम नहीं देता. वह कला ही है जो तुम्हें ताउम्र इज्जत दिलाती है और इसे ही बरकरार रखना. उन्होंने कथक को अपनी जिंदगी दी और कथक ने उन्हें सम्मान दिलाया. किसी दौर में कथक को जब सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता था. उस वक्त भी सितारा देवी ने कथक को ही अपनी जिंदगी का सितारा माना और कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. 1920 में कोलकाता में जन्मी सितारा देवी को कई सम्मानित पुरस्कारों से नवाजा गया. पद्दम श्री, संगीत नाटक अकादमी व कालिदास सम्मान से सम्मानित सितारा देवी आज हमारे बीच नहीं. कुछ वर्ष पहले सितारा देवी से एक मुलाकात हुई थी. उम्र भले ही उनके कैलेंडर का हिस्सा बना हो. लेकिन उनके चेहरे का तेज आज भी आपको उत्साहित व चकित करने वाला था. कथक उनके पैरों में नहीं, उनकी जुबां पर कायम थी. उनकी आंखें नृत्य करती हैं. उनके हाथ बात करते वक्त उठ भी रहे थे तो उसमें एक लय नजर आ रही थी. पेश है उस पुरानी बातचीत के मुख्य अंश. पिछले कुछ सालों से उन्हें यह बात सालती रही कि वे कथक के रियाज को जारी नहीं रख पायीं. चूंकि उनके पैरों में परेशानी आ गयी थी. उन्हें इस बात का भी अफसोस रहा कि उन्होंने कला को जो समर्पण दिया, उसे भारत में उस फक्र की नजर से नहीं देखा गया. जिस तरह से उसे देखा जाता है. उनका मानना था कि उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया जाना चाहिए था.
दिलीप कुमार की फैन हूं मैं
बातचीत की शुरुआत उन्होंने जिंदगी के अहम शख्सियत दिलीप कुमार से शुरू की. बकौल सितारा देवी(मजाकिया अंदाज में )मैं दिलीप कुमार साहब को हमेशा से बेहद प्यार करती थी. और यह मेरा विश्वास है कि उनसे मिलने वाली हर लड़की उनकी भक्त हो जायेगी. तो प्यार तो मैं भी करती थी. यह बात मैंने सायरा से भी कहा था. लेकिन मुझे लगा कि प्यार ऐसा करो कि ताउम्र बरकरार रहे. अब सायरा को छोड़ कर वह मेरे पास तो आ नहीं जाते. सो, उन्हें राखी की ही बांध दी कि चलो झंझट ही खत्म. अब तो जिंदगी भर का रिश्ता जुड़ गया. जब तक जिंदगी है रिश्ता बरकरार रहेगा.
शादी कर ली कथक से ही
मेरी पहली शादी 8 साल की उम्र में हो गयी थी. लेकिन ससुराल वालों ने शादी तोड़ दी क्योंकि मैंने कहा था कि मैं स्कूल जाऊंगी. लेकिन मुझे इस बात का कोई अफसोस नहीं. मेरा मानना है कि शादी का मतलब है कमिटमेंट. और मुझे लगता है कि मैं कथक से ही शादी कर ली है. चूंकि इस कला के अलावा मुझे जिंदगी में कुछ और नजर ही नहीं आता था. सो, मुझे इस बात का अफसोस नहीं कि मैंने कथित तौर पर कही जाने वाली शादी में सफलता हासिल नहीं की. हालांकि मुझे इस बात का अफसोस है कि भारत में कथक को उतना सम्मान नहीं दिया गया. जितना उसे मिलना चाहिए था. लेकिन इस बात की खुशी है कि रवींद्रनाथ टैगोर ने मुझे नृत्य साम्राज्ञी माना और वह मेरे लिए बहुत बड़ा सम्मान है. रवींद्रनाथ टैगोर के सामने मैंने 11 साल की उम्र में नृत्य पेश किया था. वे मेरे नृत्य के कद्रदान बने और उन्होंने इनाम के रूप में शॉल और 50 रुपये दिये. मैंने उनसे कहा इनाम नहीं आपका आशीर्वाद चाहिए.
राजकपूर ने दी इज्जत
मैं खुशनसीब हूं कि राजकपूर साहब ने हमेशा सम्मान दिया मुझे. आरके स्टूडियो में जब तक होली मनायी गयी. सितारा देवी वहां आमंत्रित की जाती रहीं. और मैंने हमेशा उनका मान रखा. उफ्फ क्या होली होती थी वह आरके स्टूडियो में. राज कपूर स्वयं रंग में सराबोर हो जाते थे. डूब कर मस्ती क्या होती है.कोई उनसे सीखे. उनकी होली में नाच गाना सबकुछ होता था. लोक संगीत नृत्य को वह तवज्जो देते थे.
पीटी डांस है
मुझे इस बात की खोफ्त होती है कि लोग इन दिनों हिंदी फिल्म के हर गाने पर किये गये नृत्य को कथक का नाम दे देते हैं. कथक किसी को यूं ही बिना समर्पण और रियाज के हासिल नहीं हो सकता. इन दिनों तो हिंदी फिल्मों में पीटी डांस होता है. और कुछ नहीं. सब यूं यूं हिलेंगे... और कहेंगे भईया ये है कथक़. भला डांस कोई खेल है. स्पोर्ट्स है क्या जो कमर हिला ली और हो गयी कथक़.
तबायफ के घूंघरू
मेरे पिताजी ने कथक को अपनी जिंदगी समर्पित की और इसलिए आज कथक जिंदा है. मेरे पिताजी को जब आस पड़ोस के लोग कहा करते थे कि आपकी बेटी तबायफ बनेंगी तो वह साफ कहते थे कि वे कथक ही करेंगी. जिसे जो कहना है कहें.मेरे पिताजी को उनके पिता ने यानी मेरे दादाजी ने लोहे की छड़ से मार लगा कर घर से निकाल दिया था. घर से तो उन्होंने निकाल दिया. लेकिन पिताजी के जेहन से न तो कथक निकली. न ही पैरों से घूंघरू.
कथक का पतन
मैं मानती हूं कि कथक का पतन हो रहा है. मैं मानती हूं कि अगर मैं नहीं रही और खुदा द खास्ता बिरजू महाराज नहीं रहे तो कथक का फिल्मी अंदाज में कहूं तो द एंड होना तय है. चूंकि कथक को अब तक घराने के रूप में और उस शिद्दत से जिस शिद्दत से हमने जीवंत करने की कोशिश की. अब वह नजर नहीं आता. फिल्मों में भी अब वैसे गाने नहीं बनते. जिनका पिक्चराइजेशन कथक को ध्यान में रख कर बनाये जाये. अब कथक को लेकर वह दिलचस्पी. वह उत्साह नजर नहीं आता.
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