20110218

किरदार मायने रखता है न कि यह कि स्टार कितना बड़ा है....



एक बेहद ही कम उम्र की फैशन डिजाइनर नंदिता साहू से. नंदिता रांची की रहनेवाली हैं. खास बात यह है कि महज चार साल के करियर में उन्हें डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी जैसे निदर्ेशक की फिल्म मोहल्ला अस्सी में स्वतंत्र कॉस्टयूम डिजाइनिंग करने का मौका मिला है. बातचीत नंदिता से.

संक्षिप्त परिचय ः पिता बैंक में कार्यरत थे. रांची के डोरंडा स्कूल व वीमेंस कॉलेज से शिक्षा. फिर स्कूल ऑफ डिजाइनिंग पुणे से डिजाइनिंग का कोर्स किया. 29 वर्षीय नंदिता ने बतौर अस्टिटेंट अपनी मेंटर पायल सलूजा को अब तक पांच फिल्मों में अस्टिट किया है.

किरदार मायने रखता है न कि यह कि स्टार कितना बड़ा है....

डॉ चंद्र प्रकाश द्विवेदी की फिल्म मोहल्ला अस्सी काशीनाथ सिंह के उपन्यास काशी के अस्सी पर बन रही है. गौरतलब है कि अस्सी मोहल्ला के उसी तर्ज पर निदर्ेशक ने उन्हीं किरदारों की परिकल्पना के साथ पूरी कहानी गढ़ी है. जाहिर है ऐसे में उन किरदारों के व्यक्तित्व को निखारने में कॉस्टयूम की अहम भूमिका होती है. किरदार अधिक से अधिक वास्तविक नजर आयें कैमरे पर. निदर्ेशक के साथ साथ यह जिम्मेदारी कॉस्टयूम डिजाइनर की भी होती है. खास तौर फिल्म अगर किसी व्यक्ति विशेष या स्थान को ध्यान में रख कर बनाई गयी है तो यह बातें अधिक महत्वपूर्ण हो जाती हैं. इस भूमिका को बखूबी निभा रही हैं 29 वर्षीय नंदिता साहू ने. नंदिता रांची की रहनेवाली हैं. सेट पर पहुंचते ही अगर कोई निदर्ेशक यह कह ेकि मेरा नहीं नंदिता से बात करो. इसने मेहनत की है. अच्छा काम किया है. वाकई, यह गौरव की बात है.साथ ही यह रांची के लिए भी हर्ष की बात है कि यहां के सामान्य परिवार से संबध्द रखनेवाली नंदिता ने किसी बड़े इंस्टीटयूट में ट्रेनिंग न लेने के बावजूद फिल्म कॉस्टयूम डिजाइनिंग में बेहतरीन कर रही हैं. काशी के अस्सी में जिस रूप में उन्होंने सनी देओल व साक्षी तंवर को सजाया है. वह आपको पुराने अस्सी मोहल्ला के पांडेजी की याद जरूर दिला देंगे. बतौर नंदिता बताती हैं कि उन्होंने महज चार सालों में यह मुकाम हासिल किया है. पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने अपनी मेंटर पायल सलूजा के साथ पांच फिल्मों में बतौर सहायक कॉस्टयूम डिजाइनर का काम किया. िफर काशी का अस्सी में पहली बार स्वतंत्र रूप से काम करने का मौका मिला रहा है. नंदिता बताती हैं कि निस्संदेह जब आप इतिहास के विषय पर काम कर रहे हो तो आपको बहुत बारीकियों पर ध्यान रखना पड़ता है. मैं बनारस गयी थी. वहां के लोगों से मिली. लोकेशन देखे.फिर किरदार के अनुसार कॉस्टयूम तय किया. मैं काम करते वक्त इस बात का खास ख्याल रखती हूं कि किरदार कौन है. न कि स्टार कितना बड़ा है. अस्सी के किरदारों को ध्यान में रखते हुए मैंने यह कल्पना की थी कि घाट पर बैठनेवाला कैसा दिखेगा. उस अनुसार कपड़े तैयार किये. मैं अपने युवा दोस्तों जो इस क्षेत्र में पहचान बनाना चाहते हैं बस यही कहना चाहती हूं कि तय करके आइए कि मुंबई क्यों जाना है. फोक्सड काम करें. मौके मिलते जायेंगे.


नो रीमेक दूरदर्शन का सीधा प्रसारण


आज न तो वर्ल्ड टेलीविजन डे है और न ही दूरदर्शन की वर्षगाठ. इसके बावजूद आज दूरदर्शन के शोज या उनके किरदारों पर बातचीत क्यों? इसकी प्रासंगिकता क्या है. दरअसल, वर्तमान में जबकि देश में कई एंटरटेनमेंट चैनलों की शुरुआत हो चुकी है. इसके बावजूद दूरदर्शन के कुछ ऐसे खास किरदार, सीरियल व शोज हैं, जिन्हें लोग आज भी नहीं भूले. भले ही अब बमुश्किल कभी हमारा रिमोट का बटन दूरदर्शन चैनल पर आकर ठहर जाता हो. लेकिन आज भी दर्शक, खासतौर से युवा दर्शकों के दिलों में भी कुछ ऐसी स्थापित छवियां व लोग हैं, जो हमेशा उनके दिलों के करीब रहेंगे. वे युवा जिनका जन्म दूरदर्शन के हमलोग धारावाहिक के बाद हुआ है. वे मानते हैं कि इनका रीमेक नहीं हो सकता. फिर चाहे वह युवा मेट्रो का हो, किसी छोटे शहर का या गांव का. कुछ ऐसे ही किरदारों व शोज के पर "अनुप्रिया अनंत" प्रस्तुत कर रही हैं सीधा प्रसारण.

स्थान ः पृथ्वी थियेटर. रात के आठ बजे. एक प्ले खत्म होने के बाद सभी कॉफी पर वही बैठ कर बातें करते हैं. दोस्तों की इस टोली में हाइ-फाइ, ब्रिटिश एक्सेंट में बात करनेवाले लड़के-लड़कियां हैं. कुछ आर्टिस्ट हैं और कुछ बेफिक्र मिजाज व धुएं का छल्ला उड़ानेवाले नौजवान युवा भी हैं., अचानक बैकग्राउंड में दूरदर्शन का वह टयून बजता है. दोस्तों की टोली में से एक कहता है. लिसेन. लिसेन. यह दूरदर्शन का टयून है न. दूसरा हां. अरे जब दूरदर्शन शुरू हुआ था. यू रिमेंबर दैट शो सुरभि. सिध्दार्थ काक एंड रेणुका वाज फैबुलस. दूसरे ने बीच में बात काटते हुए कहा. या, रिमेंबर. बट माइ फेवरिट वन वाज ब्योमकेश बख्शी. माइ इज तहकीकात. माइ सिध्दार्थ बसु. इसके बाद एक एक कर सभी अपने पसंदीदा कलाकार व शोज की बातें करने लगे. कुछ देर बाद सभी आपस में ही कहते हैं बट दैट्स टाइम नेवर रिटर्न. दूसरी आवाज एक्चुअली दूरदर्शन के इन सारे शोज का रीमेक पॉसिब्ल ही नहीं है. उन शोज की बात ही कुछ और थी. गौरतलब है कि ये उन युवाओं की टोली थी जो महानगर में नाइट क्लब में भी जाती है. मस्ती भी करती है. और बोले तो बिंदास लाइफ जीती है. उच्च वर्ग के ये युवा जिनके बारे में प्रायः यह बात होती है कि वे सिर्फ अंगरेजी शोज ही देखते हैं. उन्हें दूरदर्शन के वे शोज, किरदार आज भी याद हैं और वे सभी इससे प्रभावित है. कुछ ऐसा ही दूसरा दृश्य. टेलीफोनिक बातचीत के दौरान एक दोस्त से बातों-बातों में यूं ही दूरदर्शन का जिक्र. दूसरी तरफ से आवाज. हां, यार अब वो बात कहां. कितना मजा आता था. घर पर सुरभि में रेणुका जी की हंसी का इंतजार रहता था. उर्पयुक्त सभी बातों से इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है कि वाकई, आज भी चकाचौंध के बावजूद अब भी ऐसे कई शोज व किरदार हैं. जो युवाओं के जेहन में जिंदा हैं. ऐसे में एंटरटेनमेंट चैनलों का यह कहना कि युवा पसंद नहीं करते. हम उन्हें सीधी, सादगी भरी चीज नहीं दिखा सकते. अगर ऐसा है तो फिर उर्पयुक्त बातें कुछ और ही दृश्य क्यों दर्शा रहे हैं. मशहूर फिल्म समीक्षक जय प्रकाश चौकसे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि कोई चैनल अगर यह कहता है कि दर्शक यही देखना चाहते हैं इसलिए हम दिखाते हैं तो दरअसल, सच्चाई यह है कि दर्शकों को उन लोगों ने बदला है. अपनी कमियों को हम दर्शकों के सिर पर मढ़ने की कोशिश करते हैं. अगर ऐसा है तो क्यों आज भी लोग ब्योमकेश बख्शी, सुरभि , शांति ऐसे कई शोज को याद करते हैं. हम किसी भी दौर में चले जायें. कुछ ऐसी चीजें हैं जिन्हें कभी नहीं भूलते. वे हमारे सांस्कृतिक धरोहर हो जाते हैं. कुछ ऐसा ही दूरदर्शन भी था हमारे लिए.

सुरभि यानी सुगंध

दूरदर्शन पर लंबे समय तक प्रसारित होनेवाला कार्यक्रम सुरभि एक लोकप्रिय कार्यक्रम. यूटयूब पर आज भी इसके कई एपिसोड अपलोड हैं. और जिसके व्यूर्स आज भी लाखों में हैं. उस दौर में भी सिध्दार्थ काक व रेणुका सहाणे की जोड़ी के साथ-साथ सुरभि के प्रस्तुतिकरण में खूबसूरत एनिमेशन का इस्तेमाल किया गया था. जबकि उस वक्त तकनीक उतनी उम्दा नहीं थी. पहला एपिसोड और सिध्दार्थ दर्शकों से रूबरू होते हैं. नमस्कार. सुरभि कार्यक्रम यानी सुगंध. सुगंध हमारी संस्कृति की कला की. और सबसे अहम इंसानी जुनून की. एक शो में उस दौर में पूरे भारत की कला-संस्कृति की अदभुत झलक सिर्फ यही देखने को मिलती थी.

कई लोगों ने अपनी बेटियों का नाम सुरभि और रेणुका रखा ः रेणुका सहाणे

सिध्दार्थ काक के साथ रेणुका सहाणे की जोड़ी ने उस दौर में सुरभि को एक लोकप्रिय धारावाहिक बना दिया था. वे सुरभि से जुड़ी यादों के बारे में बताती हैं कि मेरे लिए सुरभि हमेशा खास रहेगा. इसने मुझे एक अलग ही पहचान दिलायी. आज भी लोग मुझे सुरभि की वजह से ही प्यार करते थे. मुझे चिट्ठियां आती थीं. रेणुका जी आपकी हंसी बहुत खूबसूरत है. दरअसल, हकीकत भी यही है कि मेरी मुस्कान की वजह से ही मुझे सुरभि में काम करने का मौका मिला था. सिध्दार्थजी की पत्नी के पास जब मैं ऑडिशन देने गयी थी. तो मैंने संवाद हंसते हंसते कहा था. उन्होंने बस इसी बात पर रजामंदी दे दी थी कि रेणुका ही शो में होस्ट करेंगी. मुझे याद है मुझे सुरभि के माध्यम से शादी के कितने प्रस्ताव भी आते थे. कई लोग कहते हैं कि आप सिध्दार्थजी से दूर रहिए. हमें जलन होती है. वे समझते थे कि हम दोनों पति-पत्नी हैं. मुझे याद है लाखों में चिट्ठियां आती थीं. और इसी वजह से डाक विभाग ने कंपटीशन पोर्स्ट कार्ड का मूल्य भी बढ़ाया और उसे अलग श्रेणी में डाला. ट्रक के ट्रक चिट्ठियां आती थीं. सबसे अच्छा लगता था कि जब हम चिट्ठियों के टिले सजाते थे. और बच्चे आकर चिट्ठी चुनते थे. आज भी मुझे कितनी चिट्ठियां आती रहती हैं. सुरभि के माध्यम से ही मुझे पहली बार कच्छ जाने का मौका मिला. मुंबई से दूर मैंने वास्तविक जिंदगी जी थी वहां. खुले आसमान के नीचे आकाश में पूरा तारामंडल नजर आता था. क्या एहसास था वह. मुझे याद है इसी माध्यम से मुझे वहां के बॉर्डर पर जाने का मौका मिला था. वहां की वास्तविकता देखने का मौका मिला था. जिसे मैं कभी नहीं भूल सकती.

एक दिन में 110 बैग आये थे पत्रों के ः सिध्दार्थ काक

सुरभि जैसे खूबसूरत शो की नींव रखनेवाले सिध्दार्थ काक निर्माण के साथ-साथ शो के होस्ट भी थे. वे सुरभि के बारे में अपनी यादों को ताजा करते हुए बताते हैं कि एक दिन शूटिंग हो रही थी. तभी फोन आया कि भई अपने बैग यहां से ले जाइए. हम पहुंचे तो देखा 110 बैग में भर कर चिट्ठियां आयी थीं. हमें फौरन सामियाना बना कर उन चिट्ठियों को इक्ट्ठा करना पड़ा था. सुरभि वह शो था, जिसमें पूरी टीम काम करती थी. हम भारत की ऐसी छोटी छोटी चीजें एकत्रित करते थे, जो विलुप्त हो रही थी या रोचक होते भी लोग उसके बारे में जानते नहीं थे. परिवार था हमारे लिए. रेणुका इस शो के लिए इतनी सजग रहती थी कि 10 साल लंबे समय तक चलने के बावजूद वे शो से जुड़ी रही. देर करने का तो सवाल ही नहीं उठता था. उन्होंने इस शो में अपनी ज्वेलरी, साड़ी सबकुछ बिल्कुल लीन होकर करती थीं. उन्होंने अपने फिल्मों के निर्माता से कह रखा था कि कुछ भी हो जाये ऐसा वक्त दें ताकि सुरभि की शूटिंग में परेशानी न हो. सुरभि की सफलता का यही कारण था. मैं मानता हूं कि सुरभि वह लम्हा था जिसका रीमेक नहीं बनाया जा सकता. इसके बावजूद जब भी लोग उस लम्हे को याद करेंगे. चेहरे पर मुस्कान आ जायेगी.

ब्योमकेश बख्शी ः रजीत कपूर

शरनेंद्रू बंदोपाध्याय के उपन्यास पर आधारित धारावाहिक ब्योमकेश बख्शी उस दौर का लोकप्रिय धारावाहिक था. धारावाहिक की हर कड़ी में नये चौंका देनेवाली कहानियां होती थीं. साथ ही सफेद धोती, आंखों में चश्मा व खादी के कुतर्े में रजीत कपूर पूरी तरह ब्योमकेश बख्शी के किरदार में ही नजर आते थे. ब्योमकेश बख्शी उर्फ रजीत कपूर बताते हैं कि आज भी लोग उन्हें ब्योमकेश बख्शी के रूप में ही याद करते हैं. हाल ही में जब वे लखनऊ किसी कार्यक्रम के सिलसिले में गये थे. तो कई लोगंो ने उनसे आकर कहा आप ब्योमकेश बख्शी हैं न. बकौल रजीत मुझे बेहद खुशी होती है कि 15 साल के बाद भी लोगों कपे जेहन में ब्योमकेश बख्शी जिंदा है. उस

वक्त कुछ शूटिंग तो मुंबई के चांदिवली स्टूडियो में होती थी और कुछ कोलकाता में. हम पूरा काम बिल्कुल सिलसिलेवार तरीके से करते थे. मुझे याद है एक किचन का सीन हमने शूट किया था. उसमें मुझे पहले 25 वर्ष फिर तुरंत 40 वर्ष का किरदार निभाना था. उस वक तुरंत मेकअप बदलना, फिर पूरे भाव में आने में बेहद वक्त लग जाता था. लेकिन रोमांचित था वह समय. हम कंटीन्यूटी का विशेष ध्यान रखते थे. मुझे धोती पहननी होती थी. जिसमें वक्त भी लगता था. लेकिन बावजूद इसके पूरी प्लानिंग से काम होता था. बासु साहब ने मुझे 33 कहानियां दे दी थी और फिर इस पर काम करने को कहा था.

सबका दुलारा है कृष्णा ः स्वनिल जोशी

सात साल की उम्र में मुझे पहली बार टेलीविजन पर उत्तर रामायण में किरदार निभाने का मौका मिला था. इसके बाद मुझे रामानंद सागर जी ने कृष्णा का किरदार दिया था. आज मैं मराठी व हिंदी दोनों में कई शोज करता हूं. लेकिन आज भी मेरा पसंदीदा किरदार वही कृष्णा का किरदार है. मुझे याद है दर्शक किस तरह मुझे कृष्ण के रूप में प्यार करते थे. जैसे कृष्णा गोखुल का प्यारा था. वैसे ही दर्शकों के लिए भी वह दुलारा था. आज भी महिला दर्शक मुझे कृष्णा कह कर बुलाती हैं. मुझे इसकी खबर मिलती रहती थी कि कई बुजुर्ग महिलाएं जब श्री कृष्णा देखती थीं तो मुझे हाथ जोड़कर अपने टीवी सेट को प्रणाम करती थीं. चूंकि उन्हें लगता था कि मैं कृष्ण का अवतार हूं. वाकई, मैं मानता हूं कि कुछ चीजों का रीमेक कभी नहीं हो सकता. कृष्णा ने मुझे कलाकार बनाया.

सिध्दार्थ बसु ः क्वीज टाइम

दूरदर्शन पर उस दौर में हर तरह के शोज आ रहे थे. लेकिन कोई भी ऐसा शो नहीं था, जो क्वीज या करेंट अफेयर्स पर आधारित हो. मुझे लगा कि मैं ऐसी शुरुआत कर सकता हूं. मैंने प्रपोजल भेजा. उसे रजामंदी मिली और काम शुरू हुआ. धीरे-धीरे पूरे देश से बच्चों का भागीदारी बढ़ने लगी. क्वीज टाइम लोकप्रिय हो चुका है. यह एहसास उस वक्त हुआ जब दिल्ली में मैं अपनी बजाज स्कूटर से सब्जी खरीदने गया था. एक दिन. वहां लोगों ने मुझे पहचान लिया और आकर कहने लगे आप क्वीज मास्टर हैं न. मुझे लगा कि आम लोगंो ने पहचानना शुरू किया है. यह उपलब्धि है. इसके बाद कई क्वीज शो आते रहे. लेकिन हमें जो चिट्ठियां आती थीं. उससे हम अनुमान लगाते थे कि दर्शकों की इसमें कितनी रुचि है. हालांकि अब वैसे शोज की रूपरेखा तैयार करना मुश्किल है. चूंकि अब तो इंटरनेट का जमाना है, सारी जानकारी वही मिल जाती है.

तहकीकात के सैम डिसल्वा व गोपी

मशहूर कहानीकार व फिल्मकार विजय आनंद ने पहली बार टेलीविजन में अभिनय की दुनिया में कदम रखा था. दूरदर्शन के लोकप्रिय धारावाहिकों में से एक था तहकीकात. सैम डिसल्वा व गोपी की जोड़ियां कई रोचक व अचंभित कर देनेवाली मामलों का पर्दाफाश करते थे. गोपी का किरदार सौरभ शुक्ला ने निभाया था. सैम डिसल्वा की ब्लैक टोपी, कोर्ट व गोपी अपनी गेलिस टू पीस में अलग तरीके से धमाल मचाते थे. तहकीकात से जुड़ी यादों के बारे में सौरभ बताते हैं कि तहकीकात के प्रसारण के वक्त कई प्रशंसक अपनी तसवीरें हमें भेजते थे.हमारे गेटअप में. वाकई वह शो हमारे लिए यादगार शो था. और फिर उसे हम कभी दोहरा नहीं सकते. चूंकि विजय सर अब हमारे साथ नहीं.

इनके अलावा दूरदर्शन के कुछ और शोज व किरदार थे, जिन्हें लोग हमेशा याद करते हैं और चाहते हैं कि उन शोज का रीमेक न बने. लेकिन उन पुराने एपिसोड का ही फिर से प्रसारण किया जाये.

माल्गुड़ी डेज, हमलोग, आरोहण, उड़ान, बुनियाद, मिट्टी के रंग, सर्कस, फौजी, दादी-नानी की कहानियां, छुट्टी-छुट्टी, जंगल बुक, अल्लीबाबा चालीस चोर, एलिस इन वंडरलैंड,

20110215

मुंबई से आया मेरा जगिया...


मुंबई से आया मेरा जगिया. बेहद खुश है आनंदी. कितने दिनों के बाद उसका बिंद घर लौटा है. दौड़ती भागती. बस इस ललक में कि बस एक नजर अपने बिंद को देख ले. जैसे दुनिया की सारी खुशियां उसे मिल जायेगी. कमरे में पहुंची. नजरे जगिया पर. दौड़ कर गले लगा लिया. आनंदी को उस वक्त वैसा ही एहसास हो रहा था जैसा उसे पांच साल बाद अपने गौने के बाद जगिया से मिलने पर हुआ था. लेकिन जगिया की आंखों में न तो वह बेचैनी नजर आयी, न ही वह प्यार और न ही वह उतावलापन. इस हफ्ते बालिका वधू में वाकई बेहतरीन तरीके से इस बात को दर्शाया गया है कि कैसे नये शहर, नये लोग पुराने लोगों व पुराने रिश्तों पर हावी हो जाते हैं. हम बेहद राजी खुशी से उन नये रिश्तों की गुथी में गुथते चले जाते हैं. बिना इस बात की फिक्र किये कि पुराने रिश्तों की डोर ही जिंदगी को हमेशा बांधे रख सकती है. दरअसल, सच्चाई भी यही है. जब हम किसी छोटे से शहर से बड़े शहर जाते हैं. और फिर वहां से वापस अपने घर लौटते हैं तो हमारी नजर और दृष्टिकोण बिल्कुल बदल गया सा लगता है. हमें अपने घर की वह सारी चीजें आउटडेटेड लगने लगती है. कभी शौक से नाश्ते में आलू के पराठे के साथ घी खानेवाले व्यक्ति को अचानक घी से एलर्जी सी हो जाती है. अचानक घी से उसे अपने कोलेस्ट्रोल बढ़ने की चिंता सताने लगती है. जबकि हम यह भूल जाते हैं कि दरअसल वह घी में डुबोई गयी रोटियां परिवारवालों का स्नेह है. कुछ ऐसा ही हो रहा है जगिया व आनंदी के साथ भी. बड़े शहर की चकाचौंध में जगिया अपनी आनंदी के प्यार को ठुकरा रहा है. कभी मेले व हाट की गलियों व सड़क की दुकानों से चहक कर चश्मे खरीदनेवाले जगिया की नजर में उसकी पत्नी आनंदी द्वारा दिये गये चश्मे की कीमत नजर आती है. यह नहीं कि किस प्रेम से उसने उसे खरीदा है. वह डांट कर कह देता है कि यह बीस रुपये का चश्मा मैं लगाऊंगा. तुम और तुम्हारे गांववाले कभी आगे नहीं बढ़ेंगे. गौर करें तो हकीकत में भी यही खास वजह है कि हमारे गांव आगे नहीं बढ़ पाते. कुछ लोगों को छोड़ दें तो बड़े शहर जाने के बाद कोई अपने घर लौटना नहीं चाहता. वह वापस नहीं जाना चाहता. वहां के लिए कुछ करना नहीं चाहता. अगर गलत है तो उसे सही तरीके में बदलना नहीं चाहता. क्या वाकई किसी युवा की सिर्फ यही जिम्मेदारी है कि वह शहर वह गांव जिसने उसे इतना सबकुछ दिया है वह उसके लिए कुछ न करे. बल्कि उसे कोसे कि यहां के लोग और वहां की सोच कभी आगे नहीं बढ़ सकती.लेकिन धीरे-धीरे अब इस सोच में बी बदलाव हो रहा है तभी बिहार, झारखंड व अन्य राज्यों में भी एंटरप्रेनरशीप के लिए युवा आगे आ रहे हैं. चाहे जो भी हो गांव गांव होता है अपना देश. अपनी माटि. हम खुद को माटी से अलग नहीं कर सकते. हो सकता है आनेवाले कुछ दिनों में जगिया भी यह सच जान ले. या फिर अब उसे अपने माता-पिता के प्यार से जगदिसिया बुलाने पर भी एतराज हो जाये.

दादी सा और सिनेमा का सम्मोहन


वर्षों बाद इस हफ्ते बालिका वधू में दादी सा के परिवार में खुशहाली नजर आयी. दादी सा पहली बार अपनी बहुओं को लेकर सिनेमा हॉल गयी हैं. जय संतोषी मां देखने. सिनेमा हॉल के बाहर जय मां संतोषी का बैनर लगा देख कर वे खुद मां संतोषी को प्रणाम करती हैं और अपनी बहुओं से भी ऐसा करने को कहती हैं. अकड़ू दादी सा के सिनेमा हॉल में प्रवेश करते ही संतोषी मां की फिल्म का पोस्टर हटा कर फिल्म दबंग का पोस्टर लगा दिया जाता है. चूंकि वह दिन शुक्रवार है. चूंकि दादी सा पहली बार सिनेमा हॉल आयी हैं. उन्हें पता नहीं है कि सिनेमा हॉल में होता क्या है. उनके सामने पॉपकॉर्न आते हैं. वे बड़ी मासूमियत से पूछती हैं कि ये क्या है. आनंदी बताती है कि वह मकई के फुले हैं दादी सा. सिर्फ सिनेमा हॉल में ही मिलते हैं. फिर दबंग परदे पर जारी है. अचानक दादी सा को लगता है कि आखिर विज्ञापन कब खत्म होगा. पूछने पर पता चलता है कि वहां दबंग दिखाई जा रही है. पहले तो वह आनंदी पर नाराज होती है. फिर चुलबुल पांडे की चुलबुली अदा का जादू दादीसा पर भी चल जाता है. और वे मुन्नी बदनाम के गीत पर भी मस्ती करती हैं. बालिका वधू के इस खास एपिसोड में वाकई दबंग का प्रमोशन नहीं बल्कि दादी सा की मासूमियत नजर आयी है. उनका बचपना नजर आया है. किसी बच्चे को जब पहली बार किसी बोलनेवाली गुड़िया दे दी जाती है तो जैसे हाव भाव उसे बच्चे के होंगे कुछ ऐसे ही भाव दादी-सा के चेहरे पर भी नजर आये. आमतौर पर खड़ूस दिखनेवाली दादी सा का नरम दिल सिनेमा हॉल में नजर आता है. उनकी मासूमियत और उनके चेहरे पर खुशी देख कर वाकई कहा जा सकता है सिनेमा में एक अलग तरीके की आकर्षण शक्ति है. या यूं कह लें कि सम्मोहन विधा है सिनेमा. तभी तो दादी सा जैसे सख्त मिजाज इंसान को भी उसने मुन्नी बदनाम के गीत देखने पर मजबूर कर दिया. जरा गौर करें तो कुछ ऐसा ही आम जिंदगी में भी तो होता है. हमारे माता-पिता शुरू से हमें सिनेमा देखने से रोकते हैं, चूंकि वह जानते हैं कि सिनेमा वह कीड़ा है जो अच्छे अच्छे लोगों को अपना दीवाना बना देती है. हमें रोकने की पीछे एक खास वजह यह भी थी कि वे खुद उस उम्र में सिनेमा देखने की लत नहीं छोड़ पाते थे. शायद यही वजह है कि बड़े शहरों से लेकर छोटे शहरों तक में सिनेमा का करिशमाई जादू आज भी बरकरार है. लोग सिनेमा की कहानी उससे जुड़े किरदार को देखने के लिए हमेशा आतुर होते हैं. उनके लिए हर किरदार, कलाकार भगवान हैं. भारत में फैन द्वारा दिखाये गये कारनामे यूं ही नहीं होते. हर शुक्रवार यूं ही फिल्में रिलीज नहीं होतीं. यह सिनेमा का जादू ही है जिसने गांव में तंबू सिनेमा का उदय कराया. तंबू गाड़ कर ही सही लेकिन लोगों ने सिनेमा देखना नहीं छोड़ा. देव आनंद को सदाबहार हीरो, सदी का महानायक अमिताभ, ड्रीम गर्ल सबकुछ इस मन मोहिनी सिनेमा की ही तो देन है.

20110214

प्यार में कुछ भी सही गलत नहीं होता. प्यार तो बस प्यार होता है....



तुमको पता है मैं कौन हूं. कौन. मैं आदित्य कश्यप हूं. आदित्य कश्यप. अच्छा अच्छा जिसकी मां भाग गयी थी. सौरी सौरी हां, मैंने मैंने टीवी पर देखा था. नहीं नहीं सौरी मत कहो , जिसकी मां ने इतनी चीप हरकत की है. उसे तो यह सब सुनना ही होगा. ऐ मिस्टर अपनी मम्मी के बारे में ऐसा मत कहो. क्यों क्यों न कहूं. क्योंकि तुम्हारी मां प्रेम में थी और प्यार में कुछ भी सही गलत नहीं होता. प्यार-प्यार होता है. फिल्म जब वी मेट में आदित्य कश्यप को गीत ढिल्लन ने अपने बिंदास अंदाज में प्यार की यह परिभाषा कह डाली थी. एक ऐसी परिभाषा जिसमें ढाई आखर प्रेम का एक गहरा रहस्य छुपा है कि प्यार तो बस प्यार होता है. प्यार में कुछ भी सही गलत नहीं होता. प्यार जीवन में उस पवित्र भाव का नाम है, जिसमें आदित्य कश्यप की मां का शादी के बाद भी किसी और के साथ भाग जाना भी नाजायज नहीं, क्योंकि वह तो प्यार है न. गीत ढ़िल्लन के इस एक वाक्य ने प्यार की सार्थकता को बयां कर दिया. दरअसल, सिनेमाई कैमरे ने कई रूपों में, कई कलेवरों में एक बड़े कैनवास पर प्यार के विभिन्न रंगों की झलकियां प्रस्तुत की है. दार्शनिक रूप से जिस तरह अब तक प्यार आज भी दार्शनिकों व बुध्दिजीवियों के लिए शोध व चर्चा का विषय है. एक ऐसा विषय जिस पर आज तक कभी भी एकमत राय नहीं बन पायी. सिनेमा ने भी हर दौर में प्यार को अलग-अलग रूपों में परिभाषित किया है. ब्लैक एंड ह्वाइट के दौर से लेकर अब तक प्यार को लेकर हर बार सिनेमाई सोच बदलती रही है. लेकिन चाहे बात किसी भी दौर की जाये. सिनेमा में प्रेम के रूपों को दर्शाने के लिए हर बार. बार-बार भाषा बदली है. संवाद बदले हैं. किरदार बदले हैं. पोषाक बदले हैं. अंदाज बदले हैं. भूमिका बदली है. लेकिन आज भी प्यार का वह सार नहीं बदला. आज भी दिल ही दिमाग पर हावी है. फिर चाहे आज के सिनेमोस्कोपिक नायक-नायिका कितना भी शोर मचा ले. लव आजकल के जय सिंह की तरह अपनी गर्लफ्रेंड मीरा पंडित के साथ ब्रेकअप कर ले. या फिर खुशी खुशी दिल्ली के इंडिया गेट पर आजाद पंक्षी की तरह आजाद है तू मुझसे आजाद हूं मैं तुझसे गीत गुनगुना ले. लेकिन शाम में थक हारने के बाद उस आजाद पंक्षी की तरह ही वह अपने घोंसले में आने की चाहत रखता है. अपने परिवार अपने प्रेम के साथ. आज जब भी करियर की बात होती है. युवा की बात होती है. करियर के प्रति आज के युवा निःसंदेह सजग हुए हैं. वे करियर के आड़े किसी को नहीं आने देते. खासतौर से प्यार को तो वह अपने उज्जवल भविष्य का सबसे बड़ा द्योतक मानते हैं. ऐसे में अगर उन्हें लव आज कल के जय सिंह की तरह करियर बनाने के लिए विदेश भी जाना पड़े, अपने सामने अपनी गर्ल फ्रेंड की शादी देखनी पड़े, तो वह सबकुछ सहने के लिए तैयार है. प्यार से मुंह फेर कर अपने करियर के लिए आगे बढ़ना. और यह सोचना कि प्यार व्यार कुछ नहीं होता. सिर्फ टाइम पास है. दरअसल, यह सतही भाव है. प्यार का वास्तविक रस तो यह है कि तमाम बातों के बावजूद दिमाग पर दिल आज भी उसी कदर हावी है. जिस तरह कभी 60-70 के दौर में हुआ करता था. सच तो यह है कि जिंदगी का असली सार यही है कि हमें जीवन में प्यार चाहिए. भले ही हम करियर की कितनी ही ऊंचाईयों को न छू लें. आपको हर मोड़ पर किसी न किसी ऐसे इंसान की जरूरत है. जो प्यारा है. सिनेमाई निदर्ेशक के रूप में प्यार की उलझी-सी गुत्थी को बहुत हद तक सुलझाने की कामयाब कोशिश है इम्तियाज अली की लवआजकल. जिसमें जय वर्ध्दन सिंह (सैफ अली खान ) व 20 साल पहले का वीर सिंह( ऋषि कपूर) के प्रेम करने के तरीके में विभिन्नताएं तो दिखाई गयी हैं. लेकिन दोनों की ही प्रेम कहानियों में टि्वस्ट आता है. और अपने प्यार को पाने में सफल हो जाते हैं. जय सबकुछ भूल कर बस एक बार मीरा को अपने गले लगाता है. और उसे लगता है कि उसे पूरी कायनात मिल गयी. दरअसल, कायनात ने भी प्यार को बड़े प्यार से रचा है . इतने प्यार से कि वी शांताराम की फिल्म गीत गाया पत्थरों में भी पत्थर प्रेम से जाग जाते हैं. बैजूबावरा की संगीत के प्रेम से बारिश को भी हार मान कर जमीं पर आना ही होता है. इस प्यार का वह दिलकश जादू है कि फिल्म गुजारिश में इथान अपाहिज सोफिया के निस्वार्थ प्रेम से अपने जीवन के 12 अपाहिज व निहत्था जीवन भी खुशी खुशी गुजार लेता है. और सोफिया. 12 साल बिना किसी स्वार्थ. बिना कुछ कहे. बस दिल ही दिल में इथान से प्रेम करती है. सोफिया का प्रेम एक अपाहिज को मौत की गुजारिश करने के साथ इस कदर लोभी बना देता है कि वह गुजारिश तो मौत की करता है, लेकिन सोफिया के प्रेम की वजह से उसे इश्क जिंदगी से हो जाती है. संजय लीला ने बड़े ही खूबसूरत तरीके से एक ही कमरे में पड़े एक मायूस, निराश इंसान को भी प्यार की घुट्टी से फिर से जीने की आस जगाने की कोशिश की है. यह सहजय लीला भंसाली की सिनेमाई सोच व प्रेम का ही स्वपनीला जादू है कि सोफिया का समर्पण प्रेम दर्शकों को बिना किसी संवाद के सब कह जाता है. दरअसल, प्यार की कोई निर्धारित भाषा है भी नहीं. जब वी मेट के आदित्य व गीत की तरह प्यार राह चलते सफर में भी दो अनजाने लोगों को एक कर देता है. तो फिल्म दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे के राहुल व सिमरन को सफर में कई दिनों तक साथ रहने के बाद, एक दूसरे से बिछड़ने के बाद प्यार का एहसास कराता है. प्यार की कई परिभाषाएं गढ़नेवाले यश राज फिल्म्स के फिल्मकार आज भी प्यार क्या है? इस सवाल की तलाश में लगातार प्रयोग कर रहे हैं. अगर गौर करें, तो निदर्ेशकों ने अपनी कल्पनाशीलता से हर बार प्यार को आधार मान कर प्रयोग करने की भी कोशिश की है. फिर चाहे वह दिल तो पागल है में ट्रैंगुलर लव स्टोरी बनाना या फिर उसी ट्रैक पर कुछ कुछ होता है की कहानी गढ़ना. दिल तो पागल में राहुल प्रश्न पूछता है कि प्यार क्या है, उसकी दोस्त निशा कहती है प्यार दोस्ती है. और पूजा कहती है कि प्यार जिंदगी है. कुछ सालों के बाद फिर वही प्रश्न कुछ कुछ होता के क्लास में प्रोफेसर राहुल से करती हैं. उसके पास होता है कि प्यार दोस्ती है. अगर वो मेरी सबसे अच्छी दोस्त नहीं बन सकती है तो मैं उससे प्यार कर ही नहीं सकता. ठीक उसी वक्त उसकी बेस्ट फ्रेंड अंजलि को एहसास होता है कि दरअसल, राहुल उसका सिर्फ दोस्त नहीं. दोस्त से बढ़ कर है. अगर इन दो फिल्मों का ही तुलनात्मक अध्ययन करें तो गौरतलब बात यह होगी कि जिस दौर में दिल तो पागल है बनाई गयी थी. उस दौर में वास्तविक जिंदगी में प्रेमी युगल की नजर में प्यार जिंदगी थी. उस दौर में जीने मरने की कस्में. वायदे किये जाते थे. जिंदगी में प्यार सबसे महत्वपूर्ण अहमियत रखती थी. इसलिए उस दौर में प्यार जिंदगी थी. लेकिन कुछ सालों के बाद सवाल वही है. मगर जवाब बदल जाते हैं, क्योंकि समाज की प्रेम के प्रति सोच बदलती है. प्यार दोस्ती का रूप ले लेती है. कॉलेज में लड़के-लड़कियां आपस में अच्छे दोस्त बन जाते हैं. एक साथ अधिक से अधिक वक्त गुजारते हैं. एक दूसरे को समझने लगते हैं. और प्यार दोस्ती में बदल जाती है. लेकिन फिर धीरे-धीरे यही दोस्ती और आगे बढ़ती है. नजदीकियां बढ़ती है. प्यार में धीरे-धीरे खुलापन आ जाता है. चूंकि अब प्यार में कोई हिचक नहीं. शर्म नहीं हया नहीं. प्यार दोस्ती जो है. यही दोस्ती व नजदीकियां रिश्तों को धीरे-धीरे सलाम नमस्ते करने से भी नहीं हिचकिचातीं. और कैमरे का जूम इन होता है सलाम नमस्ते पर. जहां दो प्यार करनेवालों के लिए शादी जरूरी नहीं. बल्कि उनके लिए साथ में वक्त गुजारना अहमियत रखता है. उन्हें इस बात से भी कोई हर्ज नहीं कि वे बिना शादी के एक साथ एक ही छत के नीचे बिना किसी बेड़ियों के बिताएं. उनके लिए यह प्यार की मांग है. फिर चाहे उन्हें इसके लिए प्यार की परिभाषा लीव इन रिलेशनशिप में ही क्यों न बदलनी पड़े. लेकिन प्यार का असर व जादू तो देखिए, वाकई जब बड़े-बड़े ज्ञानी महापुरुष इस प्यार की माया को समझ नहीं पाये तो सलाम नमस्ते के नीक व जय अरोड़ा क्या समझ पाते. आखिर कार दोनों के मन मुटाव होने के बावजूद दोनों एक होते हैं. हालांकि उन्हें आपस में शादी करने में हर्ज है. लेकिन अपने प्यार की निशानी को बिना किसी शादी के बंधन इस धरती पर लाने में कोई हर्ज नहीं. यश राज के बैनर तले बनी इस फिल्म में वाकई सिध्दार्थ मल्होत्रा ने प्रेम की एक बोल्ड छवि प्रस्तुत की. जिसमें प्यार व प्यार की निशानी को इस दुनिया में लाने के लिए उन्हें किसी एग्रीमेंट या शादी जैसे बंधन की जरूरत नहीं. हां, यह सच है कि एक दौर ऐसा भी आया है जब प्यार को शादी का नाम देना प्रेमी युगलों के लिए एक बंधन बन चुका था. यानी यहां उन प्रेमी युगलों के विचार से प्यार की एक और परिभाषा उभरकर सामने आयी कि प्यार आजादी का नाम है. शादी के किसी बंधन का नहीं. लेकिन हर दौर में व खासतौर सिनेमाई प्रेम इस कदर लचीला है. व अस्थाई कि समय व दौर बदलने के साथ एक और नयी परिभाषा के सामने दर्शकों के सामने प्रस्तुत हो जाता है. किसी न किसी रूप में. अब सिनेमा के परदे पर हम किसी को पहली नजर में प्यार करते नहीं देखते. एक दूसरे के साथ लंबे समय तक रहने के बाह ही यह समझ में आता है कि वे बेहतरीन जीवनसाथी बन सकते हैं या नहीं. पहले फिल्मों में एक तिहाई फिल्म की कहानी पूरी होने के बाद होते-होते प्यार होता था, फिर गलतफहमी, फिर सुलह, फिर जमाना दुश्मन बनता था. फिर साथ मरने कौ तैयार हो जाते थे. फिर एक सुखद अंत. लेकिन अब प्रेम के पहले तीन शब्द कहते-कहते अक्सर क्लाइमेक्स आ जाता है. हां,यह कह सकते हैं कि अब प्यार में कोई दिखावटीपन नहीं है. कोई भाषणबाजी या लाग लपेट नहीं. बिल्कुल स्पष्ट हुआ है प्रेम. अगर प्यार है तो है. नहीं है तो शादी के कमिटमेंट के बावजूद अगर कोई और पसंद है तो स्पष्ट रूप से उसे छोड़ने में देर नहीं लगाते. फिल्म आइ हेट लव स्टोरीज में जब नायिका को यह अहसास होता है कि दरअसल, वह धीरे-धीरे ह्वाइट गुलाब नहीं बल्कि रंगों से भरे गुलाब को पसंद करती थी. उसकी पसंद कोई और है. जिसकी कोई भी बात उससे मेल नहीं खाती. न रहने का ढंग, न तौर तरीके. न ही पसंद नापसंद. इन तमाम असमानताओं के बावजूद उसे अंततः लव स्टोरिज से नफरत करनेवाला नायक ही प्यारा लगने लगता है. वही दूसरी तरफ कभी दिल चाहता में नायक द्वारा यह सवाल की जाने क्यों लोग प्यार करते हैं के प्रश्न पर नायिका का उसे प्यार को किसी लयमय कविता की तरह लयबध्द करना दिखाता है कैमरा तो दूसरी तरफ कुछ सालों के बाद आइ हेट लव स्टोरीज के किरदारों की तरह बिना एक दूसरे को प्यार की अहमियत समझाए एक दूसरे से पहले अलग फिर एक होते दर्शाता है कैमरा. पहले के मुकाबले अब की प्रेम कहानियां बोल्ड हुई हैं. वे खुलेपन को सहज स्वीकार रहे हैं. उन्हें इससे हर्ज नहीं कि किसी टैक्सी में बैठ कर इंडिया गेट में वे आराम से एक दूसरे को आलिंगन करने से नहीं कतराते. उन्हें जमाने की फिक्र नहीं होती. अब की प्रेम कहानियों की लड़कियां छुई-मुई या शरमाई हुई नहीं है, वे काफी तेज तर्रार होती हैं. मीरा पंडित, आल्या या नील अरोड़ा की तरह. पहले की शोखी अब शार्पनेस में बदल गयी है. शारीरिक संबंध अब टैबू नहीं है. यह संभव है कि प्रेम उसके बाद हो जाये. अब जो फिल्में बन रही हैं, वे ख्याली रूमानियत नहीं दिखाती, बल्कि थोड़ा सरकास्टिक तरीके से कहानी कहती है. रोमांटिक फिल्मों के निदर्ेशक माने जानेवाले इम्तियाज अली मानते हैं कि सिनेमा के प्रेमी किरदार दरअसल, वास्तविक जिंदगी से ही उठाये गये किरदार होते हैं. वह बनावटी नहीं होते. आप जिंदगी को गहराई व गंभीरता से देखें तो आपको फिल्मी प्रेम कहानियां हकीकत बयां करती नजर आयेंगी. आपको अपने बीच में ही कहीं कोई आल्या, गीत, आदित्य, वीर, मीरा नजर आयेगी. मेरा मानना है कि सिनेमा ने समाज में प्रेम के मायने नहीं बदले. बल्कि खासतौर से अगर मैं व्यक्तिगत तौर पर बात करूं तो मैं मानता हूं कि मेरी फिल्मों के किरदार वास्तविक जिंदगी से उठाये गये हैं. गीत व आदित्य का सफर पर मिलना बेहद स्वभाविक वाक्या है. आम जिंदगी में भी हमें किसी भी मोड़ पर किसी से भी प्यार हो सकता है. मेरे लिए प्यार मैजिक है. और मानता हूं कि यह बहुत हद तक सही भी है. अपनी दो फिल्मों में प्यार की बिंदास छवि प्रस्तुत करनेवाली दीपिका पादुकोण का मानना है कि वास्तविक जिंदगी के प्रेम प्रसंग व सिनेमाई प्रेम के किरदार एक दूसरे के पूरक हैं. हमें वहां से प्रेरणा मिलती है. और वास्तविक प्रेम युगल सिनेमा में प्रेम के स्वरूप को देख कर अपने आस-पास प्रेम की तलाश करते हैं. खासतौर से उस प्रेम की. जो उनके साथ तो होती है लेकिन उन्हें उनका आभास नहीं होता है कि वही प्रेम है. सिनेमा इस दृष्टिकोण से दो प्र्रेमियों को जोड़ने का ही काम करता है. फिल्म ब्रेक के बाद में भी आल्या ऐसी ही लड़की की कहानी है, जहां आल्या को करियर बनाना है इसलिए उसे प्रेम से ब्रेक चाहिए. जबकि वह जानती ही नहीं कि प्यार की भरपाई उसका चमकता करियर भी नहीं कर सकता. थक हारने के बाद वेक अप सीड की नेहा, फैशन की प्रियंका भी प्रेम के दो बोल के लिए तरसती है. जिंदगी के कई सफल पायदान को पार करने के बावजूद हर किसी को किसी न किसी मोड़ में प्यार की जरूरत है. फिर चाहे वह प्यार किसी भी रूप में हो. एक प्यार के लिए प्यार का समर्पण भी एक कहानी कह जाता है. तभी तो कैमरे पर यंग दिखनेवाले प्रीति व शाहरुख भी जब वीरा जारा के बुढ़े बुजुर्ग के रूप में लोगों के सामने आते हैं तो दर्शकों का उन्हें उतना ही प्यार मिलता है. ये प्यार का करिश्माई जादू ही तो है जिसने वन्स अपन इन टाइम इन इंडिया में सुल्तान मिर्जा जैसे गैंगस्टर को भी चार रुपये के पेरु को 400 रुपये बदलने में मजबूर कर देता है और अपनी महबूबा के प्रेम में लगातार आलू गोभी खाने के बावजूद चेहरे पर बोरियत महसूस नहीं होने देता. ये प्यार का ही तो करिश्मा है जो हम तुम में लड़का-लड़की की नोंक-झोंक के बावजूद लड़की की शादी होने के बावजूद. उसके विधवा होने के बावजूद उसे प्यार करने पर मजबूर कर देता है. यह प्यार का एहसास ही तो है जो फिल्म रब ने बना दी जोड़ी में सुरिंदर सोनी जैसे आउटडेटेड इंसान के साथ डांस पे चांस मारनेवाली तानी के मन में भी भाव उत्पन्न कर देता है. यह प्यार का ही एहसास है जो हमेशा साथ रहने के बाद दूर जाने पर उस साथ का एहसास कराता है और फिल्म जाने तू या जाने ना में अपनी महबूबा को जाने से रोकने के लिए एयरपोर्ट के सारे रूल्स व रेगुलेशन तोड़ने में भी गुरेज नहीं करता.वाकई जिस तरह जिंदगी में सात रंग होते हैं. लेकिन बाकी रंगों को मिला कर उनसे और भी कई रंग तैयार किये जाते हैं. हिंदी सिनेमा जगत में भी पिछले कई सालों से प्यार के उन्हीं सात रंगों को प्यार के अन्य रंगों से मिला कर प्यार के नये रंग गढ़े जा रहे हैं. वह सात रंग हैं प्यार की नजर में हमें समर्पण, समझौता, दोस्ती, आजादी, आपसी समझ, स्पष्ट संवाद और सबसे अहम एक एहसास के रूप में नजर आता है. प्यार के इन्हीं सात रंगों से रुपहले परदे पर हर दौर में कहानी गढ़ी जाती रही है. गढ़ी जाती रहेगी. जिस तरह वास्तविक जिंदगी में ढाई आखर प्रेम के असल रूप का दर्शन किसी ने नहीं किया है. वैसे ही सिनेमा में भी लगातार प्यार के स्वरूप नजर आते रहेंगे. कभी राह चलते, कभी ऐरोप्लेन में एक दूसरे से टकराते, कभी कॉलेज की गलियारों में तो, कभी टैक्सी की बैकसीट पर, कभी पड़ोस में तो कभी टेबल के नीचे, कभी सीसीडी कैमरे से बचती निगाहों में तो कभी चार रुपये के अमरूद में, कभी घड़ी की टिक-टिक में तो कभी दिल के छोटे से हिस्से में. कभी सब्जी बाजार में. लफंगे परिंदों की तरह हमेशा प्यार नये किरदार, नये कैमरे एंगल, नये एहसास, नयी कहानियां, नयी तलाश व नये आशियाने के साथ एक डाल से दूसरे डाल की तलाश में घूमता रहेगा प्यार. क्योंकि प्यार तो बस प्यार है. इसे अच्छे बुरे की परिभाषा नहीं आती, क्योंकि सिनेमाई कैमरे ने ही कभी दर्शकों को इस बात से रूबरू कराया था कि प्यार अंधा भी होता है. प्यार उम्र की सीमा नहीं देखता, क्योंकि प्यार अंधा होता है. प्यार खूबसूरती बदसूरती नहीं देखता, क्योंकि प्यार अंधा होता है. लेकिन प्यार का पूरा सार और रस इसी में है कि चाहे जो भी हो प्यार प्यार है. हर एहसास प्यार है. प्यार की खोज कहीं भी किसी भी इंसान में कभी भी मिल जाती है. क्योंकि प्यार अंधा होता है. लेकिन सबसे अहम सवाल यह है कि हम जिसे अहसास को प्यार का नाम दे रहे हैं. बशतर्े वह एहसास प्यार ही हो.

20110211

सूर्योदय से सूर्योदय तक तू ही तू...

इन दिनों स्टार प्लस के धारावाहिकों व शोज के अंतराल पर स्टार प्लस एंथम प्रस्तुत किया जा रहा है, जिसमें एक घर की महिला को सूर्यास्त तक पूरे घर की जिम्मेदारी व साथ ही बाहर की जिम्मेदारियों का निर्वाह करते दिखाया गया है. वह सुबह उठने के साथ बच्चे व पति के नाश्ते बनाने में जुट जाती है. फिर अपने परिवारवालों की सारी जरूरतों को पूरा कर बाहर निकल जाती है. सड़क पर भी वह अपना सशक्तिकरण दिखाने से गुरेज नहीं करती. जरूरत पड़ने पर वह खुद अव्यवस्था को सुधारने के लिए उतर जाती है. वह गोटी भी खेलती है और टीवी के न्यूज के लिए एंकरिंग भी करती है. उसे घर भी पहुंचना है वक्त पर, क्योंकि उसका परिवार उसका घर पर इंतजार कर रहा होता है. दरअसल, स्टार प्लस ने वाकई इस हफ्ते से एक नयी शुरुआत की है. महिला सशक्तिकरण को दर्शाने की यह एक खूबसूरत पेशकश है. इसके बोल तू ही तू हर तरफ बस तू ही तू इस बात की पुष्टि करते हैं कि आप कितनी भी ऊंचाईयों पर पहुंच जायें आपको मानना ही होगा कि आपके पीछे एक मजबूत स्तंभ के रूप में आपके परिवार की महिला खड़ी हैं. अभी हाल में ही फेसबुक पर विभा रानी के स्टेटस पर नजर गयीं.उन्होंने अपने स्टेटस पर अपने परिवार की कुक फातिमा की तसवीर बाइज्जत लगा रखी थी. सिर्फ चंद शब्दों में उन्होंने अपने सफलता का पूरा श्रेय उन्हें दे दिया कि हमारे घर की सफलता के पीछे है हमारी कुक फातिमा का बड़ा हाथ. वाकई यहां भी सफलता के पीछे एक महिला हैं. हकीकत भी यही है कि किसी न किसी रूप में कहीं न कहीं महिलाएं हर व्यक्ति के सफलता के पीछे है. स्टार प्लस के इस एंथम ने इस माध्यम से वाकई महिलाओं को सलाम किया है और बेहतरीन तरीके से उन्हें दर्शकों तक पहुंचाया है. दरअसल, सच भी यही है कि 24 घंटे घड़ी की टिक टिक से साथ घर की महिलाएं भी कदमताल करती हैं. लेकिन शिकायत नहीं करती. इतने वर्षों बाद भी हम अगर सिर्फ दावा करेंगे कि महिलाएं ही हमारी सफलता की मूलसूत्र हैं तो शायद यह सिर्फ कहने की बातें लगे.वास्तविकता तो यह है कि और जरूरी भी कि हम वाकई महिलाओं को उनके हाउस वाइफ की जिम्मेदारी संभालने का भी श्रेय दें. बहुत खुशी होती है वैसे पुरुषों से मिल कर जो यह कहते हैं कि घर संभालना भी कोई आसान काम नहीं है. यहां तो भावनाओं की फाइल का भी ख्याल रखना पड़ता है वह अधिक कठिन है. मेरी पत्नी ने तो वह सारी जिम्मेदारी निभाई. मैं तो गर्व से कहता हूं कि मेरी पत्नी हाउस वाइफ है.

अनुप्रिया

20110210

भोजपुरी सिनेमा के लागल ५० साल के डेग((लाठी से चौपाटी तक के सफरनामा )




16 फरवरी 1961 में पटना का ऐतिहासिक शहीद स्मारक पहली बार जब एक फिल्म की मुहूर्त का साक्षी बना, तो आज से 50 वर्ष पहले शायद ही किसी ने यह कल्पना की होगी कि गांव की गलियों की मिट्टी की भाषा फिल्म के माध्यम से दर्शकों के दिलों तक पहुंचेगी. गंगा मईया तोहे पियरी चढ़इबो के रूप में भोजपुरी सिनेमा की नीव रखी गयी. उस लिहाज से यह वर्ष उसके 50वें वसंत का वर्ष है. किसी भी सफलता के पीछे एक लंबे संघर्ष की गाथा जुड़ी होती है. इन 50 सालों में भोजपुरी सिनेमा ने भी कई उतार चढ़ाव देखे हैं. भोजपुरी फिल्मों पर छींटाकशी हुई, ताने भी दिये गये, इसके बावजूद भी वह डटी रही. इन तमाम बातों के बावजूद हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह वर्ष उसके स्वर्ण जंयती का है. उसके सम्मान का है. उसकी सराहना का है. निःसंदेह कमियां रहीं, लेकिन साथ ही साथ उसने रुकावटों की मार झेलते हुए हजारों लोगों को रोजगार भी दिया. दरअसल, भोजपुरी को सही नेतृत्व की जरूरत है. संभावनाओं को तराशने व संवारने की जरूरत है. गांव की लाठी से मुंबई की चौपाटी तक (मुंबई में फिल्म इंडस्ट्री के रूप में स्थापित) के सफर को पूरा करने के जश्न पर अनुप्रिया अनंत व उर्मिला कोरी का यह विशेष संयोजन. तसवीरः टीना की


स्वर्ण जयंती के विशेष अवसर पर भोजपुरी सिनेमा के सबसे वरिष्ठ कलाकार राकेश पांडे से हमने अनुरोध किया कि वह इस बार रंग के इस विशेष अंक के अतिथि संपादक बनें, उन्होंने इसे सहज स्वीकार भी किया.




ताकि हमनी सब गर्व से इ कह सकी कि इ सिनेमा हमनी सब खातिर, हमनिए के लोग बना रहल बाड़ें.

sampadkiya

बिहार के गोपालगंज इलाके से ताल्लुक रखनेवाले राकेश पांडेय भोजपुरी सिनेमा के फिलवक्त सबसे वरिष्ठ कलाकार हैं. 65 वर्षीय राकेश पांडेय का बचपन भले ही हिमाचल प्रदेश में बीता हो, लेकिन अपने राज्य बिहार से वे हमेशा जुड़े रहे हैं. जब भी मौका मिलता है, वे अपने राज्य में योगदान देने में हमेशा तत्पर रहते हैं. भोजपुरी सिनेमा से उनका जुड़ाव भले ही थोड़ा विलंब से फिल्म बलम परदेसिया से हुआ, लेकिन उन्होंने व पद्दमा खन्ना ने कई ऐसी फिल्मों में काम किया, जिसने रजत जंयती मनायी. धरती मईया व भईया दूज उनमें से प्रमुख हैं.

आपन लोगन द्वारा आपन लोग खातिर सिनेमा बा

सोच रहा हूं. अगर चेन्नई में नसीर साहब उसी फिल्म में मेरे पिता का किरदार न निभा रहे होते, तो उनसे कैसे मिलता. और उनसे न मिलता, तो कैसे आज यह सौभाग्य मिलता कि भोजपुरी के स्वर्ण जयंती अवसर के पूरे होने पर मुझे यह जिम्मेदारी दी गयी है कि मैं दो शब्द कह सकूं. खुश हूं यह सोच कर कि नसीर हुसैन व असीम कुमार के सार्थक संयोजन ने एक ऐसा करिश्मा कर दिखाया, जिसे आज हम भोजपुरी फिल्मोद्योग के रूप में जानते हैं. अच्छी तरह याद है मुझे किस मेहनत, लगन व जज्बे के साथ नसीर साहब ने भोजपुरी सिनेमा व भोजुपरी भाषा, साहित्य को राष्ट्रीय स्तर पर फिल्मों के माध्यम से पहचान दिलायी थी. लंबे अंतराल तक फिनांसर की तलाश पूरी न हो सकी थी. कितनी मशक्कत से बनी थी पहली फिल्म. इंडस्ट्री का जन्म हुआ. कितने लोगों को रोजगार मिला. कितने लोग स्टार बने. हिंदी के सहायक कलाकार को भोजपुरी का स्टार बनने का मौका मिला. मैं भी उनमें से एक था. खुश होता हूंं यह सोचकर कि कितनी ईमानदार कोशिश थी वह. जब नींव पड़ी थी भोजपुरी सिनेमा की गंगा मईया के रूप में, लेकिन अफसोस होता है उसकी दुर्गति देख कर. जिस भाषा, साहित्य, मिट्टी की खुशबू, गंवई बोलचाल, गंवई लिबास को इसके जनक ने महत्व दिया था, उसका तो आज नामोनिशान नहीं. फिल्में भोजपुरी उद्योग में बनती हैं, लेकिन भोजपुर के लोकेशन पर नहीं. नसीर साहब पर उस दौर में भी ऐसा जुनून सवार रहता था जब कहीं जाते थे. फिल्म रूस गईले सईया हमार में तो वे अपने गांव से तांगा बनवा कर मुंबई लाये, फिर घोड़े मंगा कर सेट पर ही उसे खोला. सभी दंग थे, लेकिन वे संतुष्ट थे, क्योंकि उन्हें वही फील चाहिए होता था. निःसंदेह आज के दौर में तकनीकी स्तर पर सिनेमा में कई तकनीकों को जोड़ लिया गया है, इसलिए आंचलिकता उसमें नजर नहीं आती. साहित्य से जुड़ाव तो दूर की बात है. भिखारी ठाकुर, महेंद्र मिसिर को तो हम भूल ही चुके हैं. भोजपुरी सिनेमा ने जब बाजारू रूप इख्तियार किया, तो सब धराशायी हो गया. लोगों को लगने लगा अरे वाह! यह तो व्यवसाय है. 20 लाख लगाओ करोड़ों कमाओ. यानी दो फिल्म 2 करोड़. कला ने धंधे का रूप इख्तियार कर लिया. अब फिल्में महाराष्ट्र के गांव में बनने लगी हैं और हिंदी का रिमेक भोजपुरी में. अश्लीलता की कोई सीमा नहीं. हां, यह हर्ष का मौका है कि हमें एक बड़ा पड़ाव हासिल किया. लेकिन साथ ही यह उतने ही दुख की बात है. हम कैसे पूरी तरह गर्व करें 50 साल पर, जब हमने इस कला के साथ पूरा न्याय ही नहीं किया. उसे उसका सम्मान ही नहीं दिया. हां, यह सच है कि आज 400 फिल्में बन रही हैं, लेकिन 400 में 4 भी देखने लायक नहीं. गाने हैं रिमोट से उठा देंगे लहंगा. शर्म आती है कि उन लोगों पर भी जो हमारी छवि खराब कर रहे हैं. मैंने कम फिल्में की. चूंकि मैं अश्लीलता से दोस्ती नहीं कर सकता था. दर्शकों को बदल दिया गया है. उन्हें सिर्फ बुरा परोसा जा रहा है, लेकिन हकीकत यही है कि वे बेवकूफ नहीं है. अच्छी फिल्में बनायें और देखें कैसे लोग उससे जुड़ जाते हैं. मैं नहीं कहता कि गांव बदला नहीं है. उसका पहनावा नहीं बदला है. आप भी शर्ट पहनाएं, हाथों में मोबाइल दें. लेकिन इसका मतलब बदतमीजी परोसना नहीं. ललक कहां है अब. कहां गायब हो गयी उन गीतों की मिठास. शैलेंद, रफी, लता सभी माइलस्टोन ने तो भोजपुरी की ओर कदम बढ़ाया था. मीठा साहित्य है हमारे पास. मिथिलेश्वर का साहित्य भी था. रवींद्रनाथ टैगोर ने भागलपुर में साहित्य रचा. शरदचंद्र को मुजफ्फरपुर से लगाव रहा. बिदेशिया, हमारा संसार जैसी फिल्मों की पृष्ठभूमि साहित्य ही थी न. उस दौर में जब मीडिया का इतना विस्तार नहीं था, फिर भी फिल्में सुपरहिट हो रही थीं. फिर कैसे आज हम यह दावा कर सकते हैं कि गंभीर चीजें, विषयपरक चीजें दर्शकों को पसंद नहीं आयेंगी. पहल तो कीजिए. उस गर्व व सम्मान से पूरी ईमानदारी से मेहनत कीजिए. वहां की समस्या उठाइये. रोजगार, नक्सल और भी समस्याएं हैं, मुद्दे हैं. उन्हें जोड़ें और फिर सम्मान के साथ उस वर्ग को यह फिल्म दिखाएं, जिसकी जरूरत भोजपुरी सिनेमा को है. और जो इससे कट-से गये हैं. ऐसी फिल्में बने, जो पूरे परिवार के साथ मल्टीप्लेक्स में भी देखी जाये और गांव की महिलाएं भी बिना शर्म के देख पायें. क्यों नहीं हो सकता ऐसा? जरूर हो सकता है. बंगाल ने आज तक बिना नकल किये विश्वव्यापी सम्मान हासिल किया न. हम कम से कम कुछ हद तक भोजपुरी को उस मापदंड तक ला तो सकते हैं न. दरअसल, वीजन की जरूरत है. यह वर्ष हर्षोल्लास का है कि हम स्वर्ण जयंती वर्ष में प्रवेश कर चुके हैं, लेकिन साथ ही मंथन की जरूरत है. कहां कमी है, क्यों कमी है. युवा आगे आयें. चूंकि यहां संभावनाएं हैं. बस स्तर बढ़ाएं फिल्मों का, ताकि भविष्य में कुछ तो हो हमें अपनी अगली पीढ़ी को बताने के लिए, जिसे धरोहर के रूप में संजोया जा सके. और यह संभव है. 50 साल पूरे किये तो और भी आगे बढ़ेंगे. सस्नेह ः राकेश पांडेय

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2. आलोक रंजन : ऐसे बनी गंगा मईया तोहरे पियरी चढ़इबो

विश्वनाथ शाहबादी इस बात से बेहद प्रश्न रहते थे कि डॉ राजेंद्र प्रसाद अपने लोगों से भोजपुरी में ही बात करते थे. उस दौर में जब नजीर हुसैन व असीम कुमार फिल्म की कहानी लेकर तैयार थे. लेकिन उन्हें कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिल रहा था, जो पूंजी लगाये. ऐसे में विश्वनाथ शाहबादीजी ने दिलचस्पी दिखायी. उन्होंने पहले निवेशक के रूप में भोजपुरी भाषा पर भरोसा दिखाया. उस दौर में वह फिल्म ढाई लाख रुपये में बनी. फिल्म सुपर हिट हुई और फिर आगे चल कर इस क्षेत्र में कई फिल्मों का निर्माण होने लगा. निस्संदेह भोजपुरी सिनेमा के पहले दौर में आंचलिक भाषा व वहां के परिवेश को आधार मान कर जितनी भी कहानियां गढ़ी गयीं. वे सभी दर्शकों को दिल तक पहुंची. हिंदी सिनेमा में विख्यात हो चुकीं कुमकुम भोजपुरी सिनेमा की दुनिया की पहली तारिका व लोकप्रिय अभिनेत्रियों में से एक बनीं. इसके बाद देश के विभिन्न इलाके खासतौर से मुंबई व हिंदी फिल्मों में सक्रिय वे कलाकार जो बनारस, बिहार, यूपी या भोजपुर इलाके से ताल्लुक रखते हैं. सबने दिलचस्पी दिखानी शुरू की. इस तरह धीरे-धीरे भोजपुरी सिनेमा ने बढ़ना शुरू किया. सुजीत कुमार, कुणाल सिंह, असीम कुमार, राकेश पांडेय जैसे कलाकार भोजपुरी सिनेमा के धरोहर भी हैं परिचायक भी. जब भी भोजपुरी में अच्छे सिनेमा की दौर की बात की जायेगी. गंगा मईया से ही हिंदी के कई जाने माने संगीतज्ञों ने भोजपुरी में अपना योगदान दिया. मोहम्मद रफी, लता मंगेशकर जैसे महान गायकों ने भी भोजपुरी गाने गाये. शैलेंद्र व संगीतकार चित्रगुप्त की अनोखी टयूनिंग से सजी गंगा मईया ने ऐतिहासिक सफलता हासिल की. इसके बाद बलम परदेसिया, तुलसी सोहे तोहार अंगन, बिदेसिया, लागी नाही छूटे राम, भौजी व गंगा. नहियर छूटे जाय, कब होई गवनवा हमार, भौजी, इतना नाच नचावे, आइब बसंत बहार, सईया से नेहा लगइवे, गंगा, लोहा सिंह जैसी फिल्मों ने भोजपुरी सिनेमा को खास पहचान दिलायी. मैं मानता हूं कि भोजपुरी सिनेमा का पहला दौर बेहद खूबसूरत व जड़ से जुड़ा था. दूसरे दौर में भी कुछ हद तक सुजीत कुमार व कुणाल सिंह जैसे नायकों ने उस महिमा को बचाने की कोशिश की. लेकिन भोजपुरी के तीसरे दौर को देख कर बहुत आशा नजर नहीं आती. जहां लगातार फिल्में बन तो रही हैं लेकिन स्तरीय नहीं. जहां लगातार काम तो हो रहा है. तकनीकी स्तर पर. लेकिन भाषाई व वैचारिक स्तर पर अब भी सोच की कमी है.

(लेखक भोजपुरी सिनेमा के विषयों के जानकार हैं)

3. भले ही युग कोई भी रहा हो. सिनेमा का करिश्माई जादू हमेशा दर्शकों पर छाया रहा है. फिर चाहे वह बात सिल्वर स्क्रिन पर दिखनेवाले किरदार हों या फिर परदे के पीछे. दर्शकों की दिलचस्पी हमेशा ही कलाकारों के परदे के पीछे से जुड़ी बातों में रही है. भोजपुरी सिनेमा के कलाकारों व सिनेमा से जुड़ी कुछ ऐसी ही परदे की पीछे के संस्मरण पर एक नजर

काहे तु लूल लांगर के

पाठ कर तर ..

कुणाल सिंह : कुणाल सिंह भोजपुरी सिनेमा के एक ऐसे कलाकार हैं, जिन्होंने भोजपुरी सिनेमा के तीनों दौर में सक्रिय रहे हैं. भोजपुरी सिनेमा से जुड़ी कुछ वैसे ही संस्मरण सांझा करते हुए कुणाल बताते हैं कि दर्शक कलाकारों को हमेशा किरदारों के रूप में ही याद करते हैं. मुझे याद है वह दिन. फिल्म राम जइसन भईया हमार बेहद पसंद की गयी थी. उस दौर की हिट फिल्मों में से एक थी. फिल्म हिट हो चुकी थी और मैं दूसरे फिल्म के प्रोजेक्ट में व्यस्त हो चुका था. उसी सिलसिले में गंगा-ज्वाला की शूटिंग के लिए बिहार के डेहरी ओन सोन में थे. वही एक मंदिर में बैठा था. कुर्सी पर. दूर से एक बुजुर्ग महिला अपनी पोती के साथ आयी और कुणाल बबूआ कुणाल बबूआ कह कर मुझे खोजने लगी. मैं उठा. उन्हें बैठने के लिए कुर्सी थी. दरअसल मैंने राम जइसन में एक अपाहिज का किरदार निभाया था. वह मेरे पास आयीं. मेरे सिर पर हाथ फेरा पूछा. तोहार गोर ठीक बा नु अब. मैंने कहा हां, वह तो सिर्फ फिल्म थी. तो उस महिला ने बड़े ही स्नेह से हाथ फेरते हुए कहा ऐ बबुआ तू नाच गान , मारपीट करेला त बहुत नीक लागेगा इ कहां लूल लांगर के पाठ कर तर...किसी दर्शक से मिला ऐसा स्नेह मुझे आज तक याद है. एक और संस्मरण मुझे याद है. वर्ष 2004 में हम शूटिंग करने जौनपुर गये थे. वहां मैं लंच ब्रेक में बैठा आराम कर रहा था. कुछ नौजवान लड़के आये. आकर पास बैठ गये. मैंने पूछा क्या बात है. कहने लगे आपसे बात करनी है. मैंने कहा मैं हीरो नहीं हूं भई. उन्होंने कहा अरे नहीं भईया आप ही हमारे हीरो हैं. उस फिल्म में आपने क्या खूबसूरत कपड़े पहने थे. आप जब हीरोइन को आइलवयू कहते हैं तो हमें लगता है कि आप सच में कह रहे हैं. उस वक्त मुझे यह एहसास हुआ कि अगर आपने अच्छा काम किया है और दर्शकों के दिलों को छू पाये हैं तो दर्शक आपको आपके कपड़ों से भी याद रखते हैं.

प्लीज आप डबल मिनिंगवाले संवाद मत बोलियेगा

राकेश पांडेय ः पटना मेरा अपना शहर है. मुझे बेहद लगाव भी है अपने प्रदेश, अपनी माटी और वहां के लोगों से. लेकिन हां, यह भी सच था कि मेरा बचपन हिमाचल प्रदेश में बीता तो मैं शुरुआती दौर में भोजपुरी सिनेमा में आने के पक्ष में नहीं था. लगा. कि नहीं कर पाऊंगा तो न करूं. लेकिन नाजिर साहब ने मना लिया और बलम परदेसिया से शुरुआत हुई. इसके बाद दर्शकों का इतना प्यार मिला कि एक के बाद एक फिल्म बनती चली गयी और दर्शकों को खूब पसंद भी आयी. आज सोचता हूं तो आश्चर्य होता है कि उस दौर में भी जब मीडिया की पहुंच उतनी नहीं थी. लोगों से सीधा-संपर्क कर पाना मुश्किल होता था. उस दौर में भी मेरी फिल्म धरती मईया, भईया दूज ने रजत जंयती मनाई थी. दर्शकों के इसी लगाव की वजह से मुजफ्फरपुर के लोगों व श्ृंाखला से जुड़े लोगों ने भिखारी ठाकुर सम्मान देने के लिए आमंत्रित किया. मैं गया. तो सम्मान लेने के बाद. आम लोगों का पूरा समूह मेरे पास आया.और मुझसे अनुरोध करते हुए उन्होंने कहा कि प्लीज आप कभी भी अपनी फिल्मों में डबल मिनिंगवाले संवाद मत बोलिएगा. हम आपसे बहुत प्यार करते हैं और आपको इसी तरह देखना चाहते हैं. यह हम सबकी गुजारिश है.

4. ...ताकि बिहार के स्थानीय कलाकारों को मिले रोजगार के विकल्प ः नितिन चंद्रा

मीडिया समाज को शक्ल देती है और समाज मीडिया को. यह एक ऐसी व्यवस्था है, जो मीडिया के श्ािक्षा ग्रहण करनेवाले अपने पहले अध्याय में पढ़ते हैं. इस बात से बिल्कुल नकारा नहीं जा सकता कि आज के समय में मीडिया चाहे वह टीवी, सिनेमा, अखबार, रेडियो, इत्यादि हो वहर् दशकों के मत, छवि, व्यक्तित्व, लक्षण, पूर्वाग्रह और अनेको विचारों को प्रभावित करता है. सिनेमा 21वीं शाताब्दी का सबसे प्रख्यात मीडिया है और इसने हर दशक में अपनेर् दशको पर छाप छोड़ी है. चाहे वह सत्यजित रे की पाथेर पांचाली हो या, जंजीर, शोले या रंग दे बसंती, अंगरेजी फिल्म द मेटि्रक्स देखने के बाद लोग जरूरत से ज्यादा र्दाशनिक हो गये थे और सोचने लगे थे कि मेटि्रक्स जैसी चीज में ही वह जी रहे हैं.अगर कोई ये कहे कि टीवी या फिल्म का असर समाज पर नहीं है, तब तो हमें यह भी मान लेना चाहिए कि करोड़ों रुपये लगा कर बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां विज्ञापन फिल्में बनवा रही हैं और अपने उत्पाद बेच रही हैं, वह करोड़ों रुपये व्यर्थ हैं, लेकिन ऐसा है नहीं. जब हम भोजपुरी फिल्मों की बात करते हैं, तो ठीक वही असर भोजपुरी फिल्मों के दर्शक पर भी होता है. फिल्में भी अपनेर् दशकाें पर असर छोड़ती है, जो बाकी मीडिया छोड़ती है. आज का भोजपुरिया युवार् वग भी भोजपुरी सिनेमा कार् दशक बना है, उसपर भी इन फिल्माें का असर है. बुरा है यह या अच्छा ये तो हमें ही सोचना होगा. 1961 में भोजपुरी सिनेमा की शुरुआत हुई. पटना में पूरे ताम-झाम के साथ मुहूर्त किया गया. 1962 में पिछले करीब पचास सालों को मुड़ कर देखें, तो यह कहना गलत नहीं होगा कि, भोजपुरी सिनेमा का स्तर सिर्फ ग्ािरा है. यह एक कड़वा सच है. भोजपुरी सिनेमा की स्वर्ण जयंती पर मेरे जैसा भोजपुरी के लिए भावुक व संवेदनशील इंसान भोजपुरी सिनेमा के संबंध में यह बातें कह रहा है. बिहार भोजपुरी सिनेमा का सबसे बड़ा मार्केट है, सबसे ज्यादा लोग भोजपुरी फिल्में बिहार में देखते हैं. आखिरी पीढ़ी तक बिहार में यहां के लोग अपनी मातृभाषा भोजपुरी, मैथिली, मगही का इस्तेमाल गर्व से करते हैं. 80 और 90 के दशक में अधिक संख्या में हुए पलायन और दूसरी तरह बिहार की संस्कृति की अवहेलना ने आज के युवार् वग को अपनी भाषा और साहित्य से दूर कर दिया है. अब तक इसे सरकार की तरफ से भी किसी तरह का राजनीति सरंक्षण नहीं मिला है. आज भी भोजपुरी, मैथिली इत्यादि साहित्य की किताबें पुराने पुस्तकालयों में धुल चाट रही हैं. आज का युवार् वग किसी भी तरह से भोजपुरी सिनेमा से अपने आपको जोड़ नहीं पा रहा है. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में लाखों की संख्या में भोजपुरी बोलनेवाले लोग रहते हैं, लेकिन वे ये फिल्में नहीं देखते. भोजपुरी ने प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद, बिस्मिल्लाह खान, श्ािव सागर रामगुलाम, राहुल सांकृत्यायन जैसे लोगों को जन्म दिया, लेकिन इसके बावजूद भी भोजपुरी की हत्या हो रही है. आज भोजपुरी सिनेमा ने भोजपुरिया लोगों को दो वर्गों में बांट दिया है, एक वह है जो पटना के पाटलीपुत्र कॉलोनी में रहता है और भोजपुरी में घर पर बात करता है, लेकिन कभी भी भोजपुरी फिल्में नहीं देखता है, क्योंकि उसको लगता है कि भोजपुरी अश्लील है. इसके कलाकार भोजपुरी भी नहीं बोल पाते हैं. दूसरी तरफ वे लोग हैं, जो आर्थिक तंगी में रहते हैं, अश्ािक्षित हैं, तमाम तरह की सुविधाओं से वंचित हैं, इन्हीं लोगों को ही भोजपुरी फिल्मों कार् दशक बनाया गया है. ये भोजपुरी फिल्में उनका मानसिक विकास नहीं होने दे रही हैं और बहुत ही सूक्ष्म तरीके से इनकीसंवेदनशीलता और बोध की निर्मम हत्या कर रही हैं. मजे की बात यह है कि इन्हीं के पैसों पर भोजपुरी फिल्मों का व्यवसाय चल रहा है. आखिरी 5 सालों में भोजपुरी फिल्मों के निर्माण के क्षेत्र में बहुत काम हुआ, बहुत पैसे लगे, लोगों ने घाटा सहा. वहीं बहुत कमाई भी हुई, नये सितारे आये, तारीकाएं आयीं, आइटम गर्ल्स आयीं, सब कुछ मिला. बस नहीं मिली तो भोजपुरी को इज्जत. जब तक पढ़ा-लिखा और मध्यमर्-वग के लोगों को भोजपुरी फिल्मों से जोड़ने का प्रयास नहीं किया जायेगा, भोजपुरी फिल्मों का स्तर नहीं बढ़ेगा और युवार् वग इसका श्ािकार होता ही रहेगा.

युवाओं व शिक्षित वर्ग को जोड़ना होगा भोजपुरी सिनेमा से

मीडिया समाज को शक्ल देती है और समाज मीडिया को. यह एक ऐसी व्यवस्था है, जो मीडिया के श्ािक्षा ग्रहण करनेवाले अपने पहले अध्याय में पढ़ते हैं. इस बात से बिल्कुल नकारा नहीं जा सकता कि आज के समय में मीडिया चाहे वह टीवी, सिनेमा, अखबार, रेडियो, इत्यादि हो वहर् दशकों के मत, छवि, व्यक्तित्व, लक्षण, पूर्वाग्रह और अनेको विचारों को प्रभावित करता है. सिनेमा 21वीं शाताब्दी का सबसे प्रख्यात मीडिया है और इसने हर दशक में अपनेर् दशको पर छाप छोड़ी है. चाहे वह सत्यजित रे की पाथेर पांचाली हो या, जंजीर, शोले या रंग दे बसंती, अंगरेजी फिल्म द मेटि्रक्स देखने के बाद लोग जरूरत से ज्यादा र्दाशनिक हो गये थे और सोचने लगे थे कि मेटि्रक्स जैसी चीज में ही वह जी रहे हैं.अगर कोई ये कहे कि टीवी या फिल्म का असर समाज पर नहीं है, तब तो हमें यह भी मान लेना चाहिए कि करोड़ों रुपये लगा कर बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां विज्ञापन फिल्में बनवा रही हैं और अपने उत्पाद बेच रही हैं, वह करोड़ों रुपये व्यर्थ हैं, लेकिन ऐसा है नहीं. जब हम भोजपुरी फिल्मों की बात करते हैं, तो ठीक वही असर भोजपुरी फिल्मों के दर्शक पर भी होता है. फिल्में भी अपनेर् दशकाें पर असर छोड़ती है, जो बाकी मीडिया छोड़ती है. आज का भोजपुरिया युवार् वग भी भोजपुरी सिनेमा कार् दशक बना है, उसपर भी इन फिल्माें का असर है. बुरा है यह या अच्छा ये तो हमें ही सोचना होगा. 1961 में भोजपुरी सिनेमा की शुरुआत हुई. पटना में पूरे ताम-झाम के साथ मुहूर्त किया गया. 1962 में पिछले करीब पचास सालों को मुड़ कर देखें, तो यह कहना गलत नहीं होगा कि, भोजपुरी सिनेमा का स्तर सिर्फ ग्ािरा है. यह एक कड़वा सच है. भोजपुरी सिनेमा की स्वर्ण जयंती पर मेरे जैसा भोजपुरी के लिए भावुक व संवेदनशील इंसान भोजपुरी सिनेमा के संबंध में यह बातें कह रहा है. बिहार भोजपुरी सिनेमा का सबसे बड़ा मार्केट है, सबसे ज्यादा लोग भोजपुरी फिल्में बिहार में देखते हैं. आखिरी पीढ़ी तक बिहार में यहां के लोग अपनी मातृभाषा भोजपुरी, मैथिली, मगही का इस्तेमाल गर्व से करते हैं. 80 और 90 के दशक में अधिक संख्या में हुए पलायन और दूसरी तरह बिहार की संस्कृति की अवहेलना ने आज के युवार् वग को अपनी भाषा और साहित्य से दूर कर दिया है. अब तक इसे सरकार की तरफ से भी किसी तरह का राजनीति सरंक्षण नहीं मिला है. आज भी भोजपुरी, मैथिली इत्यादि साहित्य की किताबें पुराने पुस्तकालयों में धुल चाट रही हैं. आज का युवार् वग किसी भी तरह से भोजपुरी सिनेमा से अपने आपको जोड़ नहीं पा रहा है. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में लाखों की संख्या में भोजपुरी बोलनेवाले लोग रहते हैं, लेकिन वे ये फिल्में नहीं देखते. भोजपुरी ने प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद, बिस्मिल्लाह खान, श्ािव सागर रामगुलाम, राहुल सांकृत्यायन जैसे लोगों को जन्म दिया, लेकिन इसके बावजूद भी भोजपुरी की हत्या हो रही है. आज भोजपुरी सिनेमा ने भोजपुरिया लोगों को दो वर्गों में बांट दिया है, एक वह है जो पटना के पाटलीपुत्र कॉलोनी में रहता है और भोजपुरी में घर पर बात करता है, लेकिन कभी भी भोजपुरी फिल्में नहीं देखता है, क्योंकि उसको लगता है कि भोजपुरी अश्लील है. इसके कलाकार भोजपुरी भी नहीं बोल पाते हैं. दूसरी तरफ वे लोग हैं, जो आर्थिक तंगी में रहते हैं, अश्ािक्षित हैं, तमाम तरह की सुविधाओं से वंचित हैं, इन्हीं लोगों को ही भोजपुरी फिल्मों कार् दशक बनाया गया है. ये भोजपुरी फिल्में उनका मानसिक विकास नहीं होने दे रही हैं और बहुत ही सूक्ष्म तरीके से इनकीसंवेदनशीलता और बोध की निर्मम हत्या कर रही हैं. मजे की बात यह है कि इन्हीं के पैसों पर भोजपुरी फिल्मों का व्यवसाय चल रहा है. आखिरी 5 सालों में भोजपुरी फिल्मों के निर्माण के क्षेत्र में बहुत काम हुआ, बहुत पैसे लगे, लोगों ने घाटा सहा. वहीं बहुत कमाई भी हुई, नये सितारे आये, तारीकाएं आयीं, आइटम गर्ल्स आयीं, सब कुछ मिला. बस नहीं मिली तो भोजपुरी को इज्जत. जब तक पढ़ा-लिखा और मध्यमर्-वग के लोगों को भोजपुरी फिल्मों से जोड़ने का प्रयास नहीं किया जायेगा, भोजपुरी फिल्मों का स्तर नहीं बढ़ेगा और युवार् वग इसका श्ािकार होता ही रहेगा.

5. जब बॉलीवुड चला गांव की डगर

हिंदी फिल्मों की कहानी चुराने का इल्जाम झेलने वाली भोजपुरिया इंडस्ट्री ने हिंदी सिनेमा के कई दिग्गज कलाकारों का दिल भी चुराया है. अगर ऐसा नहीं होता, तो अमिताभ बच्चन, शत्रुध्न सिंहा, अजय देवगन, हेमा मालिनी, रति अग्निहोत्री और मिथुन चक्रवर्ती जैसे कलाकार समय-समय पर भोजपुरिया अंदाज में भोजपुरी सिनेमा में नजर नहीं आते. राजा ठाकुर में नजर आये शत्रुघ्न सिन्हा का कहना है कि मैं उस फिल्म से इसलिए जुड़ा, क्योंकि वह मेरी मातृ भाषा की फिल्म थी, लेकिन यह कहना भी जरूरी है कि उस फिल्म ने एक अभिनेता के तौर पर मुझे एक्साइटेड किया था. आगे भी अगर ऐसे प्रोजेक्ट्स मिलते रहे, तो मैं भोजपुरी सिनेमा में काम करता रहूंगा. भोजपुरी सिनेमा ने सिर्फ बालीवुड सितारे ही नहीं बल्कि हिंदी सिनेमा के दिग्गज निर्माताओं को भी अपनी ओर आकर्षित किया है. सुभाष घई की मुक्ता आर्ट्स, धर्मात्मा और इंद्र कुमार की मारूति इंटरप्राइजेज ने सब गोलमाल ह और डी रामानायडू ने शिवा जैसी भोजपुरी फिल्मों का निर्माण किया है. आनेवाले समय में अभिनेत्री और निर्मात्री जुही चावला भी एक भोजपुरी फिल्म का निर्माण करना चाहती हैं. इस सिलसिले में वे जल्द ही प्रकाश झा से मिलने वाली हैं.

6. भोजपुरी गीतों ने हमेशा आकर्षित किया है ः नवीन भोजपुरिया

भोजपुरी सिनेमा का मेरुदंड हमेशा से उसका गीत-संगीत रहा है. शुरुआती दौर में भोजपुरी सिनेमा में परंपराओं, रीति-रिवाजों, संस्कारों पर गीत-संगीत को केंद्र में रखा गया था. साथ ही समाज के हर पहलु को केंद्र में रख कर भोजपुरी गीत-संगीत को श्रोताओं और दर्शकों के लिए अभूतपूर्व प्रस्तुति दी जाती थी. शुरुआती दौर में जब चित्रगुप्त का संगीत और तलत महमूद, मो रफी, लता मंगेशकर, आशा भोंसले और उषा मंगेशकर की आवाज में भोजपुरी गीत सुनने को मिलते थे, उस समय लोगों के जुबान पर वे गीत रहते थे. आज भी किसी प्रौढ़ महिला या पुरुष से मिलिए, तो आपको उस दौर की एक सुखद अनुभूति का बेबाक परिचय मिल जायेगा. गीतों की मांग कुछ ऐसी है कि जुग-जुग जिअसु ललनवा की भाग जागल हो... सोहर के रूप में आज भी गाया जाता है. फिर चाहे वह मेट्रो का कोई घर क्यों न हो. पारिवारिक, सांस्कारिक, सामाजिक मूल्यों पर आधारित गीतों ने हमेशा दर्शकों को आकर्षित किया है. संगीतमय फिल्मों की मांग कुछ इतनी थी कि मिनरवा जैसे सिनेमा हॉल में उस समय भोजपुरी फिल्में अक्सर हाउसफुल रहती थीं और इसका कारण भोजपुरी फिल्मों का मेरुदंड उसका गीत-संगीत होता था, जिसमें देसी माटी की खुशबू, संस्कार के साथ साज-बाज होते थे. वह ढोलक, झाल, हारमोनियम का जमाना था, जिसके सुमधुर आवाजों ने इन गीतों के लिए एक बेहतरीन मिश्रण का काम किया. उन गीतों और फिल्मों की सफलता ही थी कि हिंदी सिनेमा 80 के दशक में अपनी कहानियों को भोजपुरिया क्षेत्र के सुगंध से सराबोर रखता था. भोजपुरी गीत संगीत का स्वर्णिम दौर शुरुआती दौर

ही था.

7. नदिया के पार का चमत्कार

गुंजा-चंदर के अवधी प्रेम का चला

भोजपुर पर जादू

भोजपुरी फिल्म न होते हुए भी मिला भोजपुरी दर्शकों का अपार प्यार

वर्ष 1982 में राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म आयी नदिया के पार. गोविंद मूनीस के निदर्ेशन में बनी इस फिल्म के किरदार थे गुंजा व चंदर. इस फिल्म की शुटिंग जौनपुर के इलाके में हुई थी. मुख्य कलाकार सचिन पिलगावकर व साधना सिंह थे. गौरतलब है कि यह फिल्म भोजपुरी भाषा की फिल्म नहीं थी, बल्कि अवधी भाषा में बनी थी. लेकिन आज तक दर्शकों की जेहन में फिल्म नदिया के पार भोजपुरी सिनेमा के रूप में ही लोकप्रिय है. इसकी खास वजह यह थी कि फिल्म की पृष्ठभूमि भोजपुरी परिवेश की थी, लेकिन फिल्म की भाषा भोजपुरी नहीं थी. आज भी दर्शक नदिया के पार की गुंजा और चंदर को नहीं भूले. हम आपके हैं कौन की देवर व जीजाजी की साली के प्रेम प्रसंग का सिलसिला वहीं से शुरू हुआ था. साधना सिंह बताती हैं कि कैसे जौनपुर इलाके में सभी महिलाएं आकर उन्हें भोजपुरी में कहती थीं- ऐ दुल्हिन आज सिंदुर काहे न लगइले बाड़ू. भोजपुरी भाषा का असर सिर्फ भोजपुरी पर ही नहीं, बल्कि हिंदी की कई फिल्मों पर भी पड़ा. अमिताभ बच्चन ने अपनी कई हिंदी फिल्मों में ठेंठ भोजपुरी बोलकर दर्शकों की वाहवाही बंटोरी और फिल्म को सुपरहिट करा दिया. फिल्म लाल बादशाह इसकी एक मिसाल है. अजय देवगन और रेखा की फिल्म लज्जा में भी अजय देवगन और रेखा ने भी अपने भोजपुरी से मिलती-जुलती संवादों से फिल्म को एक नई पहचान दिलायी.

8. रवि किशन

हमारी भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री ने इस साल पूरे 50 साल पूरे कर लिये हैं. यह बहुत गर्व की बात हैं. 16 फरवरी सन 1961 में पहली फिल्म गंगा मईया तोहे पियरी चढ़ईबो का मुर्हूत के साथ इस इंडस्ट्री की नींव पड़ी थी. इन पचास सालों में इस इंडस्ट्री ने बहुत से उतार-चढ़ाव देखे हैं. एक समय तो ऐसा लगा कि यह इंडस्ट्री नहीं बचेगी, लेकिन सारी धाराणाओं को गलत करते हुए हम एक बार फिर उठे और उसके बाद हमने पीछे मुड़कर नहीं देखा. मूलरूप से यह इंडस्ट्री तीन चरणों में विभाजित रही है. बॉक्स ऑफिस कलेक्शन के हिसाब से देखें, तो 2001 से लेकर अब तक का समय इंडस्ट्री के लिए सर्वश्रेष्ठ रहा है. मुझे उम्मीद है कि आनेवाला समय इससे भी ज्यादा बेहतर होगा. हर फिल्म इंडस्ट्री में कुछ अच्छाईयां होती हैं, तो कुछ बुराईयां भी होती हैं. इससे हमारी यह इंडस्ट्री भी अछूती नहीं है. अक्सर हमारी फिल्मों पर ऐसे आरोप लगते रहे हैं कि हम जमकर इसमें अश्लीलता परोसते हैं. जिस पर हमारे फिल्मकारों की दलील होती है कि छेड़छाड़ भरे शब्द हमारी संस्कृति का एक हिस्सा हैं. इससे हमारे शादी ब्याह तक अछूते नहीं रहते, तो फिल्में कैसी रह पाएंगी. मैं खुद इस बात को मानता हूं कि अश्लीलता थोड़ी ज्यादा हो गयी है, लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि हम अपनी फिल्मों के गीतों से छेड़छाड़ भरे शब्दों का प्रयोग एकदम बंद कर दें, क्योंकि ये हमारी संस्कृति का एक हिस्सा हैं. जहां तक अश्लीलता की बात है, तो मुझे लगता है कि हम किसी चीज को किस तरह से पेश कर रहे हैं. ये सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है. पिछले वर्ष हिंदी सिनेमा के दो गीतों मुन्नी बदनाम और शीला की जवानी ने लोगों का जमकर मनोरंजन किया था. अगर गौर करें तो इन गीतों में भी बोल्ड शब्दों का प्रयोग जमकर हुआ है, लेकिन जिस तरह से ये गीत परदे पर फिल्माया गया. इसमें अश्लीलता नजर नहीं आयी. यही काम हमारी इंडस्ट्री को भी करना चाहिए. अब मैं सिर्फ एक्टर ही नहीं रहा, निर्माता भी बन चुका हूं. सो मेरी कोशिश होगी कि मैं अच्छी फिल्में बनाऊं. मेरी ख्वाहिश ऐसी भोजपुरी फिल्म बनाने की है, जो फिल्म फेस्टिवल में जाने का दम खम रखती हों. मुझे पता है कि यह काम मुश्किल है, लेकिन नामुमकिन नहीं है. भोजपुरिया सिनेमा में योगदान के लिये मैं अपनी फिल्म बिदाई, सत्यमेव जयते , बिहारी माफिया और राष्टि्रय एवार्ड से पुरस्कृत कब होई गवना हमार का नाम लेना चाहूंगा.

9. मनोज तिवारी

यह सिर्फ हम कलाकारों के लिये ही नहीं, बल्कि यूपी और बिहार से जुड़े हर शख्स के लिये सम्मान की बात है कि भोजपुरिया सिनेमा को पूरे पचास साल हो गये हैं. जहां तक भोजपुरिया इंडस्ट्री के भविष्य की बात करें, तो मुझे लगता है कि भविष्य हमेशा ही अतीत से सुनहरा ही होता है. खासकर जब हम जमकर मेहनत करेंगे. मुझे उम्मीद है कि इंडस्ट्री से जुड़ा हर शख्स इस इंडस्ट्री को और बेहतरीन बनाना चाहता है. इन पचास सालों में इंडस्ट्री ने बहुत से बदलाव देखें हैं. कुछ इसे अच्छा तो कुछ बुरा मानते हैं. अक्सर सुनने में आता है कि हमारी फिल्मों के विषय अब देसी नहीं रहे. इसमें बुराई भी क्या है. जब यूपी बिहार की एक बड़ी आबादी दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में रहती है, तो हमें उनका भी ध्यान रखना पड़ता है. डॉन जैसी एडवांस फिल्मों के साथ-साथ नक्सलवाद की समस्या पर आधारित फिल्म रणभूमि का भी मैं हिस्सा रहा हूं. हर तरह का सिनेमा बनाना चाहिए. यही एक अच्छे इंडस्ट्री की पहचान होती है. अश्लीलता की जहां तक बात सुनने में आती है, तो मुझे नहीं लगता कि हमारी इंडस्ट्री में इतनी अश्लीलता है. एक एक्टर के तौर पर मेरा हमेशा से ऐसा प्रयास रहा है कि मैं ऐसी फिल्में कर सकूं, जिसे पूरा परिवार साथ में देख सके. मुझे नहीं लगता कि मैंने परदे पर ऐसा कुछ किया है जिसे देखने में मुझे शर्मिंदगी हो. हिंदी सिनेमा में योगदान के लिहाज से मैं अपनी फिल्म ससुरा बड़ा पइसा वाला का नाम लेना चाहूंगा.

10. विनय आनंद

हमारे भोजपुरिया सिनेमा ने पचास साल पूरे कर लिये हैं, यह बात सुनकर ही बहुत अच्छा लग रहा है. मैं अपनी तरफ से इस सिनेमा से जुड़े निर्माता, निदर्ेशक, तकनीशियन, कलाकार और हर छोटे-बड़े सदस्य को यही कहना चाहूंगा कि ये तो बस शुरुआत भर है. हमें इस इंडस्ट्री को बहुत आगे ले जाना है. हम सभी को जमकर मेहनत करनी होगी. मैं युवाओं से अपील करना चाहूंगा कि वे इस इंडस्ट्री से जुड़े और अपने नये-नये आइडियाज के जरिये इस क्षेत्रीय सिनेमा को एक अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहुंचायें. हमारे सिनेमा पर अक्सर अश्लील होने का इल्जाम भी लगाया जाता है. मुझे लगता है कि जिस तरह बॉलीवुड में अच्छी और बुरी फिल्में दोनों बनती हैं. उसी तरह हमारे सिनेमा में भी दोनों ही तरह की फिल्मों का निर्माण होता है. बस चर्चा सिर्फ अश्लील फिल्मों की ही ज्यादा होती है. अच्छी फिल्मों की कहीं भी चर्चा नहीं होती है. बैरी कंगना, दामिनी, त्रिनेत्र, बिदाई, ससुरा बड़ा पइसा वाला इसी दौर की ही फिल्में हैं. हां, हमें आत्ममंथन करना होगा और अच्छा करने के लिये और ऐसी फिल्में बनाने के लिये, जो लंबे समय तक लोगों को याद रह सके. मुझे एक और जो परेशानी नजर आती है, वह यह कि हम भोजपुरी फिल्मों के स्टार अपनी फिल्मों की अच्छी तरह से पब्लिसिटी नहीं करते हैं. हिंदी सिनेमा में शूटिंग के साथ साथ सितारे फिल्म की पब्लिसिटी के लिए भी 20 से 25 दिन देते हैं, जबकि हमारी फिल्मों में एक्टर काम करने के बाद अपनी शक्ल तक नहीं दिखाता. जैसे फिल्म से पैसे भर कमाना ही उसका काम है. जबकि अभिनय को जुनून की तरह लेना चाहिए. हमें गांव तबके में जाकर अपनी फिल्म का प्रमोशन करना चाहिए और महिलाओं को भी दर्शक वर्ग का हिस्सा बनाना चाहिए. मुझे लगता है कि जिस दिन महिलाएं हमारे दर्शक वर्ग से जुड़ गयीं, उस दिन हमारी इंडस्ट्री से अश्लीलता का नामोनिशान मिट जाएगा.

11. क्या कहते हैंं दर्शक

भोजपुरी सिनेमा से जुड़े विशेषज्ञ, आलोचक व खुद इस जगत से जुड़े वरिष्ठ कलाकारों का मानना है कि भोजुपरी की वास्तविकता खो गयी है और सिर्फ इसे अश्लीलता की चादर ओढ़ा दी गयी है. वहीं वर्तमान में सक्रिय कलाकारों व भोजपुरी जगत से जुड़े लोगों का मानना है कि दर्शक यही देखना चाहते हैं. दर्शक सिनेमा का सबसे बड़ा मुद्दा रहे हैं. इसलिए हमने सोचा कि किसी की बात पर न जाकर सीधे दर्शकों से ही पूछें कि वे भोजपुरी सिनेमा के बारे में क्या सोचते हैं और ऐसी कौन-कौन सी चीजें हैं जो वे नहीं देखना चाहते.

20 प्रतिशत ः

आइटम सांग देखना चाहते हैं

शिक्षित और युवा वर्ग ः भोजपुरी का मतलब अश्लीलता व फुहड़ता समझते हैं.

महिलाओं की नजर में औरतों का मजाक उड़ाने का जरिया बन चुका है भोजपुरी सिनेमा

क्या है सुझाव ः

निदर्ेशकों को सकारात्मक व विषयपरक चीजें दिखानी होगी. अश्लील शब्दों का इस्तेमाल न हो. औरतों पर आधारित अपशब्द गाने के बोल न बने. पारिवारिक फिल्में बनाई जायें. लोक संस्कृति को बढ़ावा मिले.

. लेखा-जोखा

1.वर्ष 1962 में रिलीज हुई थी. इसका निर्माण विश्वनाथ शाहबादी ने किया. मुख्य कलाकार कुमकुम, असीम कुमार, हेलेन, लीला मिश्रा, नसीर हुसैन. डॉ राजेंद्र प्रसाद से मिली थी प्रेरणा. ढाई से पांच लाख की पूंजी से बनी फिल्म ने करीब उस दौर 75 लाख का कारोबार किया था.

2. भोजपुरी की कुछ प्रमुख फिल्में

लागी नाहीं छूठे रामा (1963), गंगा (1965), बिदेशिया (1963), भौजी (1965), लोहा सिंह (1966),ढेर चालाकी जिन करा (1971),डाकू रानी गंगा (1976),अमरा सुहागिन (1978)

बलम परदेसिया (1979), धरती मईया, भईया दूज, तुलसी सोहे तोहार अंगना.

3.सदाबहार गाने

सोनवा के पिंजरवा में बंद भईल हे राम...,बनी जाय बन बन जोगनिया रामा...,हमे दुनिया करेला बदनाम बलमुआ तोहरे बदे...,निक सईयां बिना भवनवा नाहीं लागे सखिया...जुग जुग जिये हो ललनवा...

जल्दी जल्दी चला रे कहारवा...गोरखी पतरकी रे...

4.इतिहास के आईने में

भोजपुरी की पहली रंगीन फिल्म बनी दंगल. वर्ष 1977 में यह फिल्म बच्चू भाई शाह ने बनाई थी.

5. ससुरा बड़ा पैइसावाला से भोजपुरी के तीसरे दौर की शुरुआत. फिल्म को अपार सफलता मिली. दरोगा बाबू व आइलव यू ने चार करोड़ का व्यापार किया. धीरे -धीरे एक से डेढ़ करोड़ की बजट की फिल्में बनने लगीं.

6.1964 में फिल्म बिदेसिया में भोजपुरी के सर्वाधिक प्रतिष्ठित नाटकार व कवि भिखारी ठाकुर को गाते हुए दिखाया गया. यह एक दुर्लभ ऐतिहासिक दस्तावेज है.

7.भोजपुरी के पहले दौर में प्रेम व परिवार प्रमुख विषय थे. साथ ही सामाजिक मुद्दों पर आधारित थीं. फिल्म में स्थानीय लोकसंगीत शामिल था.

8. 1967 तक यह सिलसिला चला. फिर दस साल के बाद फिल्म बिदेसिया का निर्माण हुआ.

20110209

बनावटी लोकेशन होते तो ईमानदारी नहीं झलकती फिल्म में



भोर का सांझ का लाल है रंग

लेखक भी, निदर्ेशक भी, एडिटर भी ः बेला नेगी

उत्तराखंड की खूबसूरत पहाड़ियों के बीच से निकल कर एफटीआइ जैसे संस्थान से कोर्स पूरा करने के बाद भी उन्होंने महसूस किया कि अपनी पहली फिल्म वह अपने होम टाउन में बनायेंगी और दाएं या बाएं के रूप में एक ईमानदार कहानी लोगों के सामने आयी. बात हो रही है बेला नेगी, जिन्होंने परदे के पीछे एक लेखक, निदर्ेशक व एडिटर की भूमिका एक साथ निभायी.

उत्तराखंड के खूबसूरत पहाड़ों के बीच एक लाल रंग की कार आती है और आम सी जिंदगी जीनेवाले एक परिवार की कहानी बदल जाती है. अब सूर्योदय से सूर्योदय तक वह कार उस परिवार का हिस्सा बन जाती है. जरा सोचिए, कैसा होगा वह दृश्य. पथरीली पहाड़ी व संकड़ी सड़कें जहां आमतौर पर गाड़ियां नहीं पहुंच पातीं. वहां अगर किसी को लॉटरी में कार मिल जाये. बेला नेगी ने अपनी कल्पनाशीलता की कूची से निकलते उसी रंग से अपने होम टाउन उत्तराखंड की कहानी दाएं या बाएं फिल्म के माध्यम से प्रस्तुत की है. फिल्म में भावना, परिवार, नादानी व किरदारों की मासूमियत इसके बिल्कुल ईमानदार सिनेमा बनाते हैं. बेला नेगी ने बतौर निदर्ेशिका इसी फिल्म से पहली शुरुआत की है. उन्होंने इस खूबसूरती कहानी कहने के लिए परदे के पीछे वह सारी जिम्मेदारी निभाई, जो आमतौर पर कई व्यक्तियों द्वारा निभाई जाती है. उन्होंने फिल्म की कहानी स्वयं लिखी. निदर्ेशन का जिम्मा उठाया. साथ ही खुद फिल्म का संपादन भी किया. इसके अलावा उन्होंने बिना किसी संकोच फिल्म की माकर्ेटिंग में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. बेहद सहज शब्दों में बेला कहती हैं कि फिल्ममेकर की जिम्मेदारी तभी पूरी हो सकती है जब वह सही तरीके से अपनी कहानी लोगों तक पहुंचा सके. वे जल्द ही एक महत्वपूर्ण विषय पर कहानी लिखने जा रही हैं. वे मानती हैं कि वैसी फिल्में जरूर बननी चाहिए, जो वाकई में ईमानदारी से आम लोगों की कहानी कहे. बेला बताती हैं कि उन्होंने कभी सीरियल के लिए काम नहीं किया. लेकिन विज्ञापनों के काम से जुड़ी रही हैं. एफटीआइआइइ से पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने रेणु सलुजा के साथ किया. हिंदी फिल्म जगत में रेणु सलुजा बेहतरीन फिल्म संपादकों में से एक मानी जाती हैं. इसके बाद उन्होंने अपना प्रोडक्शन हाउस शुरू किया.बतौर बेला हां, यह मुश्किल था कि हमने वैसे कई कलाकारों को फिल्म में शामिल किया जिन्होंने वाकई कभी कैमरा फेस नहीं किया था. लेकिन फिल्म की वास्तविकता दर्शाने के लिए उनका चयन जरूरी था. मुझे खुशी है कि मैंने किसी बनावटी किरदारों के साथ किसी बनावटी गांव की कहानी किसी सेट पर जाकर नहीं बल्कि वास्तविक लोकेशन पर जाकर बनाई है. मैं खुश हूं. निस्संदेह इसमें कई परेशानियां हुईं. लेकिन एक फिल्म मेकर के रूप में आपको ऐसी परिस्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए. बेला मानती हैं कि उत्तराखंड में कई खूबसूरत लोकेशन हैं और वहां पर बनाई गयी फिल्मों को देख कर बाकी निदर्ेशक भी वहां जाकर शूटिंग करेंगे और इससे उत्तराखंड के पर्यटन को और भी बढ़ावा मिलेगा.

20110208

काशी की आत्मा को समझा द्विवेदी ने



काशीनाथ सिंह के बहुचर्चित उपन्यास मोहल्ला अस्सी का फिल्माकन

डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी बना रहे हैं फिल्म

सनी देओल हैं मुख्य किरदार में

निकेला नामक इतालवी महिला ने किया इटली भाषा में काशी का अस्सी का अनुवाद

हिंदी साहित्य के बहुचर्चित उपन्यासकार माने जानेवाले काशीनाथ सिंह पिछले दिनों मुंबई में थे. उनकी लोकप्रिय उपन्यास काशी का अस्सी पर फिल्मांकन किया जा रहा है. चंद्र प्रकाश द्विवेदी फिल्म के निदर्ेशक हैं और सनी मुख्य भूमिका में हैं. काशीनाथ सिंह से प्रभात खबर से विशेष बातचीत में बताया कि न सिर्फ इस किताब पर फिल्माकंन हो रहा है बल्कि विदेशों से आये कई शोधकर्ता इस किताब का अपनी भाषा में अनुवाद भी कर रहे हैं. काशीनाथ सिंह ने क्यों फिल्म के लिए हां कहा और फिल्म से जुड़ी अन्य बातें हमसे सांझा कर रहे हैं.

अनुप्रिया अनंत

काशी का अस्सी, अपना मोर्चा व कई लोकप्रिय उपन्यास व कहानी के रचियेता काशीनाथ सिंह उम्र के 82 के पड़ाव पर हैं. लेकिन इसके बावजूद उनके विचार व चेहरे पर मुस्कान किसी नये युवा से कम नहीं हैं. वे आज भी धोती व खादी का कुर्ता पहनते हैं. लेकिन वह नये विचारों व कहानीकारों का भी प्रोत्साहन करते हैं. उनके चेहरे पर आज भी वह तेज है. काशी का अस्सी में प्रयोग की गयी भाषा पर मचे बवाल के बारे में वह कहते हैं कि बवाल तो मचा था लेकिन लोग जेरोक्स भी करा रहे थे. अब वही भाषा बोलते सनी देओल सिल्वर स्क्रीन पर नजर आयेंगे. काशीनाथ बातचीत को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि इस किताब में बनारस का ऐसा गुर रहस्य छुपा है कि सभी मंत्रमुग्ध हो जाते हैं.

पिछले दिनों इटली से आयी एक निकेला नाम की महिला मिली और महिला ने इतालवी में उसका अनुवाद भी किया है. जो काशी की आत्मा को जानना चाहता है. बनारस को जानना चाहता है. उसके लिए यह किताब रिकंम्ड की जाती है. मैं यहां मुंबई आया. मैंने कम ही ऐसे निर्माता को देखा है तो बौध्दिक स्तर पर भी जानकारी रखते हों. लेकिन निर्माता विनय तिवारी ने भी किताब पढ़ी और समझ दिखायी. द्विवेदीजी से पहले मेरे पास कई ऑफर आये थे. अभी भी आ रहे थे. कई निर्माताओं ने मुझसे संपर्क किया था. लेकिन मैंने तय कर लिया था. कि निदर्ेशक यहीं होंगे. मैं मानता हूं कि लेखक कलम से लिखता है और फिल्मकार कैमरे से दिखाता है. तो निश्चित तौर पर फिल्म विजुअल माध्यम है तो उसमें थोड़ा विजुअल बदलाव करना तो स्वाभाविक है. और मैं मानता हूं कि द्विवेदी जी की अच्छी समझ है. मुझे अपनी शर्त रखने की जरूरत ही नहीं. वे कहानी के साथ पूरा न्याय कर रहे हैं. मैंने स्वयं मुंबई आकर फिल्मसिटी पर इसका सेट देखा. मुझे लगा ही नहीं कि मैं दो दिनों से बनारस में नहीं अस्सी में नहीं मुंबई में हूं. द्विवेदी ने सेट पर वह हर छोटी चीजें, लोकेशन का ध्यान रखा है जो वास्तविकता में किताब के काशी का अस्सी में वर्णित है. मैं मानता हूं कि द्विवेदी की फिल्म इस मिथक को तोड़ेगी कि हिंदी साहित्य की किताब पर आधारित फिल्में नहीं चलतीं. यह फिल्म जरूर सराही जायेगी. चूंकि काशी का अस्सी जानना चाहते हैं. अगर विदेश से आकर लोग काशी का अस्सी में दिलचस्पी दिखा सकते हैं तो यहां के लोग क्यों नहीं. दूसरी बात मैं मानता हूं कि किताब में जो भाषा प्रयोग की गयी है वह बनारस की भाषा है. तो हम क्या कर सकते हैं. द्विवेदी की फिल्म में भी सनी वही भाषा बोलते नजर आयेंगे.

काशी की आत्मा को समझा द्विवेदी ने

"मैं मानता हूं कि काशी का अस्सी बनारस की आत्मा है. और डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी से मिलने के बाद उनसे बातचीत करने के बाद मुझे लगा कि फिल्मी दुनिया में मुश्किल से ऐसे लोग मिलते हैं जिन्हें इतिहास का ज्ञान हो. चंद्रप्रकाश ने मेरी किताब की आत्मा को पकड़ा. मैं मंत्रमुग्ध हो गया और मैंने हां कर दी"काशीनाथ सिंह , उपन्यासकार.

20110207

आइने ने सच कह िदया कि एक्टर की तरह नहीं दिखता मैंः वीके मूर्ति



दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित हिंदी सिनेमा जगत के एकमात्र सिनेमेट्रोग्राफर वीके मूर्ति पिछले दिनों गोवा में आयोजित फिल्मोत्सव में शामिल हुए. अपने स्वभाव से विपरीत वे बिल्कुल सरल व सहज नजर आये. प्रस्तुत है बातचीत के मुख्य अंश

वह पत्रकारों से बात नहीं करते. बेहद सख्त हैं. और नयी पीढ़ी के पत्रकारों से तो वह मिलना भी नहीं चाहते. उन्हें अपने काम के बारे में चर्चा करना पसंद नहीं. इसलिए उनसे बातचीत का ख्याल तो मन से निकाल ही दो. कुछ ऐसी ही बातें बताई गयी थीं दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित हिंदी सिनेमा के एकमात्र सिनेमेटोग्राफर वीके मूर्ति के बारे में. लेकिन गोवा में आयोजित 41 वें इंटरनेशनल फिल्मोत्सव में उनसे मिलने के बाद व हिंदी सिनेमा व वर्तमान के सिनेमा के बारे में विस्तार से बातचीत करने के बाद वह सारी गलतफहमियां दूर हो गयीं. अक्सर हम हिंदी सिनेमा जगत के गुजरे जमाने के शख्सियत के बारे में यही बातें करते हैं कि वे नये लोगों से न तो बात करना चाहते हैं और न ही पुराने जमाने की यादें याद करना चाहते हैं, क्योंकि वे वर्तमान जगत की चीजों को पसंद नहीं करते. लेकिन वीके मूर्ति से मिलने व उनके खुले विचारों को जानने के बाद यह सारी अवधारणाएं निराधार साबित हुईं. बल्कि उन्होंने फिल्मोत्सव में अपने सिनेमाई जीवन के कई अनछुए पहलुओं व अनुभवों को साझा किया.

क्योंकि अब वैसे काम नहीं कर सकता

कागज के फूल व प्यासा जैसी क्लासिक फिल्मों को अपने कैमरे में कैद करनेवाले वीके मूर्ति निस्संदेह अब बॉलीवुड इंडस्ट्री से अलग हो चुके हैं. उन्होंने खुद इससे खुद को अलग किया है, क्योंकि वह मानते हैं कि जिस तरह के काम वह कभी उस दौर में किया करते थे. अब नहीं हो सकता. लेकिन वह इसके लिए किसी को दोष नहीं देते. वह मानते हैंं कि उस दौर में और अब के दौर में बहुत विभिन्नताएं आ चुकी हैं. तकनीकों के लिहाज से. लोगों के लिहाज. लोगों के पसंद की लिहाज से.

गुरुदत्त मेंटर

बतौर वीके मूर्ति का मानना है कि गुरुदत्त ने ही उन्हें खास पहचान दिलायी. उन्होंने अपनी फिल्मों के दृश्यों के फिल्मांकन में कई नये प्रयोग किये थे. खासतौर से लाइटिंग के साथ कैमरे के एंगल के प्रति उनका दृष्टिकोण बिल्कुल अलग था. कागज के फूल व प्यासा अगर आपने देखी होगी तो आपको उसमें कई अदभुत तरीके के शेड्स नजर आयेंगे.

क्या आप ही वीके मूर्ति हैं...

मुझे किसी ने सूचना व प्रसारण विभाग से फोन किया और पूछा कि वीके मूर्ति से बात करनी है. किसी पुरस्कार के बारे में. मुझे लगा कि उस व्यक्ति ने गलती से मुझे फोन लगा दिया है. वह जरूर नारायण मूर्ति से बात करना चाह रहा होगा, क्योंकि पुरस्कार . इस उम्र में. कौन इस बुजुर्ग को याद करेगा. अभी. मैंने उनसे कहा शायद आप नाम में कंफ्यूज्ड हों. आपको नारायण मूर्ति से बात करनी होगी? उन्होंने कहा नहीं हम सिनेमेटोग्राफर वीके मूर्ति से बात करना चाहते हैं. उन्होंने कहा कि हां, वह तो मैं ही हूं. फिर उन्होंने बताया कि मुझे दादा साहेब फाल्के पुरस्कार के लिए चुना गया है. मैं अचंभित था. क्योंकि अब तक यह पुरस्कार सिर्फ निदर्ेशकों व कलाकारों को ही मिला था. यह पहली बार था जब किसी तकनीशियन को यह पुरस्कार प्राप्त हुआ.

हर सीन पर पैनी नजर

उस दौर में काम छोटा बड़ा नहीं होता था. मैं और गुरुदत्त लैब तकनीशियन के साथ घंटों बैठा करते थे.एक-एक शॉट को हम बार-बार देखा करते थे. एक फिल्म में उस दौर में लगभग 5000 हजार शॉट्स तो होते ही थे. कई लोग हर सीन न देखें. लेकिन गुरुदत्त जरूर देखते थे. पैनी नजर थी उनकी. कमाल के क्रियेटिव निदर्ेशक थे वह.

दोनों अच्छे दोस्त भी थे

निस्संदेह हम दोनों बेहद अच्छे दोस्त थे. गुरुदत्त और मैं जब काम खत्म कर लेते. नये नये कैमरे एंगल्स व शॉट्स को खूबसूरत बनाने के बारे में चर्चा करते थे. लेकिन बात जब काम की आती थी. तो सिर्फ काम ही काम होता था.

एक्टर बनने गया था मुंबई

मुझे एक्टर बनना था. क्योंकि मैं बड़ा आदमी बनना चाहता था. इसलिए मैं मुंबई चला गया. वहां जाने के बाद जब वहां के कलाकारों को देखा तो एक दिन आइने के सामने आकर खुद को देखा. हर एंगल से. तब आइने ने मुझसे सच कह दिया कि मैं एक्टर की तरह तो दिखता ही नहीं हूं. मैं जब 15-16 साल का था. तब लगभग 5 फिल्में एक दिन में देख लेता था. वही से प्रेम उत्पन्न हुआ था मुझे फिल्मों के प्रति.

बॉक्स में

फिल्मोग्राफी

दीदार, खुलेआम, कलयुग और रामायण, नास्तक, जुगनू, नया जमाना, सूरज, लव इन टोक्यो, जिद्दी, साहिब बीबी और गुलाम,चांदवी का चांद, प्यासा, 12 ओक्लोक, सीआइडी, आर-पार, जाल, बाजी.

उपलब्धि ः फिल्मफेयर बेस्ट सिनेमेट्रोग्राफर अवार्ड- कागज के फूल

फिल्मफेयर बेस्ट सिनेमेट्राफ्राफर अवार्ड साहिब, बीबी और गुलाम

आइफा लाइफ टाइम अचिवमेंट अवार्ड

दादा साहेब फाल्के पुरस्कार