20160225

ऐसी कहानियां निडर बनाती हैं मुझे : हंसल मेहता


हंसल मेहता ने शुरुआती दौर में जो फिल्में बनायीं. उन्होंने महसूस किया कि वे उनमें अपना दिल नहीं दे पा रहे हैं. वे वैसी फिल्में नहीं हैं, जैसी वे बनाना चाहते थे और वे पीछे मुड़े. स्थिर हुए. मंथन किया कि आखिर वजह क्या है. इस आत्ममंथन में वे इस बात से अवगत हो गये कि उन्हें ऐसी नहीं शाहिद, सिटीलाइट्स जैसी फिल्में बनानी हैं. चूंकि वे ऐसी ही कहानियों को पसंद करते हैं. सो, एक बार फिर वे अलीगढ़ के माध्यम से समलैंगिकों को लेकर समाज का नजरिया दिखा रहे हैं.

 इस विषय को चुनने की खास वजह क्या रही?
मुझे इस फिल्म में एक कहानी दिखी. एक नया कैरेक्टर दिखा. जिसको हम दुनिया के सामने पेश कर सकते थे.जैसे कहानी डेवलप करते गये तो न सिर्फ प्रोफेसर सीरास का बल्कि उनका एक जर्नलिस्ट से अटूट रिश्ता भी दिखा. तो उस कैरेक्टर को भी तय किया कि दिखाऊंगा. हमने ऐसी बहुत कम फिल्में बनायी हैं, जिसमें इतना रियलिस्टिक चीजों को एक्सप्लोर कर पाते हैं. इस फिल्म के बारे में मुझे एक मेल आया था. ईशानी बनर्जी का इमेल था. उन्होंने मुझे कहानी के साथ एक इमेल भेजा था. तो मैंने अपने एडिटर से शेयर किया और अपूर्वा ने पढ़ा तो उन्होंने कहा कि मैं इस कहानी के बारे में जानता हूं. तो मैंने पूछा कि क्या तुम इस कहानी के बारे में लिखोगे. तो वह तैयार हो गये, इसके 6 महीने के बाद हमने फिल्म बनानी शुरू कर दी. मैं हमेशा कहता हूं कि कहानी को मैं नहीं ढूंढता. कहानी मुझे ढूंढ लेती है.
फिल्म इंडस्ट्री में आमतौर पर किसी निर्देशक में इतनी पारदर्शिता नहीं दिखती, कि वह अपनी बात दावे से कर सकें. और अपना नजरिया बिना किसी पक्षपात के रख पाये. आप उनमें से एक हैं, तो कितनी मुश्किलें आती हैं कि आप अलग राय रखते हैं?
मेरे लिए मुश्किल है अपनी राय न रख पाना. मैं दो इंसान बन कर तो नहीं घूम सकता. मेरी पिछली फिल्मों में जो मेरी नाकामयाबी रही. वह  शायद इसलिए हुई थीं, क्योंकि वहां मैं दो अलग इंसान के रूप में काम कर रहा था. एक इंसान जो निजी तौर पर बहुत लिबरल था. जिसकी पॉलिटिकल थिंकिंग एक तरफ झूकती थी.जो जस्टिस जैसी चीजों को लेकर सोचता था. वह इंसान जब फिल्में बना रहा था. तो कोई ऐसी बात ही नहीं थी. इसलिए वे फिल्में भी नाकामयाब रहीं, क्योंकि वहां मैं था नहीं. फिर मुझे महसूस हुआ और हालात ने सोचने पर मजबूर किया कि आखिर क्यों फिल्में नहीं चल रहीं. तो मुझे लगा कि मुझे अपने अंदर झांकना होगा.मंथन करनी होगी. आत्मा में झांकना होगा कि आखिर मैं फिल्म क्यों बना रहा हूं. किसके लिए बना रहा हूं. वही से लगा कि मैं जो हूं, वह मेरी फिल्में नहीं हैं. तो अब मैं कोशिश करता हूं. कि अब मैं अपनी सच्चाई अपनी फिल्मों में दिखाऊं. इसके जरिये में अब मैं खुद को संतुष्ट करता हूं.
तो सिटीलाइट्स और शाहिद जैसी फिल्मों से अपने अंदर के निर्देशक को संतुष्ट कर पाये?
हां, यह हकीकत है कि सफलता आपको आगे बढ़ने का हौसला देती है, चूंकि मेरी फिल्में नहीं चलीं. तभी मैंने खुद पर मंथन किया. मुझे लगता है कि अगर मैं नाकामयाब नहीं होता तो मैं शाहिद नहीं बना पाता. मैं अपनी नाकामयाबी को ही श्रेय देता हूं कि यह फिल्म बना पाया. शाहिद लेकिन अगर लोगों को पसंद नहीं आती तो मैं वाकई असमंझस में फंस जाता कि आखिर लोगों को क्या चाहिए. तो मैं रिटायर हो जाता. छोड़ देता फिल्में बनाना.
ऐसी फिल्में जैसी आप बनाते हैं. आपको एक इंसान के रूप में, एक निर्देशक के रूप में कितना सिखाती है?
मेरा मानना है कि हर फिल्म से आप ग्रो करते  हैं. शाहिद की वजह से मेरी जिंदगी में डर खत्म हुआ. मैं फीयरलेस हो गया. निडर होकर सोचने लगा. अपनी बात कहने में मैं निडर हो गया. शाहिद आजिमी के कैरेक्टर ने मुझे बहुत प्रेरणा दी. आज भी मैं उससे बहुत प्रेरित होता हूं.  मेरी कोशिश हर बार यही होती है कि मैं मार्जिनलाइज्ड लोगों की कहानी पर काम करूं. क्योंकि मैं सोचता हूं कि जिस देश की माइनॉरोटी खुश न हो. जिनके अधिकार देश की सरकार संभाल न पाये, तो वह देश कभी भी सुखी नहीं हो सकता. तो, वह मानवधिकार के बारे में  सोचता हूं. वह लोगों तक कहानी के माध्यम से कहना चाहता. दिखाना चाहता कि ये आपके हक हैं.ये आपसे छीने जा रहे हैं, आपको इनके बारे में जानना जरूरी है.
समलैंगिकता को  प्राय: फिल्मों में मजाकिया अंदाज में दिखाया जाता रहा है. आप इसे किस नजरिये से देखते हैं?
मुझे लगता है कि फनी दिखाने में दिक्कत नहीं हैं. लेकिन गलती यह है कि आप उसको स्टिरियो टाइप मत दिखाइये. समलैंगिकता को एक ही तरह से दिखाना कि मुसलीम हैं तो नाम रहीम चाचा ही होगा. कुत्ता है तो टॉमी ही होगा. तो इस तरह दिखाना गलत है.स्टिरियोटाइपिंग दिखाने से उस कॉम को दिक्कत होती है. उनका नुकसान होता है. फिर लोग उन्हें एक ही नजरिये से देखने लगते हैं.जबकि वह हकीकत नहीं है. उसे हर तरह से दिखायें. खुद पर हंसना जरूरी है. हंस कर सीखना जरूरी है. मुझे लगता है कि बॉलीवुड का इस विषय को मजाक बनाने में छोटा सा ही हाथ है. लेकिन हां, वह इसे मजाक से बाहर ले जाने के दायरे में ज्यादा कुछ नहीं कर पायी है, क्योंकि फिल्में कम बनी है. कुछ 20 साल में 8-10 फिल्में बनी हैं. लेकिन यह कम हैं.
आपको लगता है कि  इस तरह की फिल्मों की वजह से बदलाव होंगे?
नहीं बिल्कुल नहीं. मुझे नहीं लगता कि कोई भी फिल्म कुछ बदलाव करती है. मुझे बस इतना लगता है कि हां, ऐसी फिल्में सोचने पर आपको मजबूर जरूर करती है. और जब आपको सोचने पर मजबूर होंगे तो कम से कम आप बदलेंगे. दिक्कत यह है कि लोगों ने सोचने पर ही रोक लगा दी है. यह कह कर कि ये बिगाड़ने वाली फिल्में हैं. तो हम लोग दोबारा जागरूक करने की कोशिश कर रहे हैं कि कम से कम सोचिये. बाद में सही गलत का फैसला आप की िजए. जो मूड देखा है हमने. फिल्म अलीगढ़ को लेकर जो रिस्पांस मिला है, इससे लग रहा है कि लोगों का  सपोर्ट है 377 को हटाने में तो सरकार का सपोर्ट क्यों नहीं है. अलीगढ़ में हमने कोई सनसनी फैलाने की कोशिश नहीं की है. फिल्म नदी की तरह है. शांत. जिसे देख कर आपको  मेडिटेशन जैसी भावना महसूस होगी. यह फिल्म उकसायेगी नहीं, सोचने पर मजबूर करेगी. करन जौहर ने जब फिल्म देखी तो एक दिन बाद फोन करके बात की. हमने फिल्म शूट की है. बरेली में. वहां कई लोग मिले आकर. उन्होंने आकर कहा कि बहुत अच्छा विषय है. तो यह छोटा सा शहर है. सोचें. लेकिन वहां से लोग कहते हैं तो खुशी होती है कि लोगों तक बात पहुंच रही है.
सेलिब्रिटीज लेकिन इस मुद्दे को लेकर एक ठोस आवाज उठाते नजर नहीं आते?
नहीं मुझे लगता है कि सेलिब्रिटीज के साथ परेशानी है कि उनके हर कदम को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत किया जाता है. इसलिए खुलेतौर पर वह सामने नहीं आते, मगर मुझे लगता है कि फिल्म इंडस्ट्री सबसे खास जगह है, जहां सबसे ज्यादा खुले विचारों के लोग हैं और यहां सभी को एकरूप में देखा जाता. काम की डिमांड हैं. फिर आप कोई भी हों. इस बात पर काम दिया या रोका नहीं जाता कि आप समलैंगिक हैं कि नहीं..आदि आदि.
प्रोफेसर सीरास की जिंदगी को कितना वास्तविक दिखा पाये हैं?
सिनेमेटिक लिब्रर्टी लिया है. पार्ट फिक् शन हैं. पार्ट रियलिटी. मैं कैरेक्टर की जर्नी दिखाई है फिल्म में. हमने फिल्म में उनके अकेलेपन को दिखाया है. वह व्यक्ति लता मंगेशकर, विस्की अपना अकेलापन कितना पसंद था. उनके कलिग ने फिल्म देखी तो उनकी आंखें भर आयी थी, उनकी पत् नी ने हमसे बात की थी तो उनकी आंखें भर आयी थी.

20160223

तंज और दोस्ती के बीच की लकीर

हाल ही में शत्रुघ्न सिन्हा ने भारती प्रधान द्वारा लिखित अपनी जीवनी पुस्तक की लांचिंग की. इस समारोह में अमिताभ और शत्रु दोनों उपस्थित थे. अमिताभ को बकायदा मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था. अमिताभ और शत्रुघ्न सिन्हा के खट्टे-मीठे रिश्तों की दास्तां जगजाहिर है. दोनों का यह अंदाज इस समारोह में भी सामने आया. एक सवाल पर कि क्या शत्रुघ्न सिन्हा ने जानबूझ कर अमिताभ के अपनी आपसी रिश्तों की व्याख्या बार-बार की है, ताकि उनकी किताब को अधिक लोकप्रियता मिल सके. इस पर शत्रुघ्न ने जवाब दिया कि दोस्तों में सिर्फ प्यार नहीं होता, तकरार भी होता है. लेकिन इससे रिश्तों में दरारें नहीं आतीं. अमिताभ ने अपने जवाब में बस इतना कहा कि शत्रुघ्न अभिनय की दुनिया में उनसे पहले आये हैं. लेकिन उम्र में उनसे छोटे हैं, सो, छोटों को हक बनता है और उन्होंने बड़ी ही चतुरता से देखन में छोटन लगे...घाव करे गंभीर वाली कहावत दोहरा दी. दरअसल, हकीकत यही है कि कलाकारों में आपसी रंजिश हर दौर में रही है और यह आम दुनियादारी का भी नियम है. इस बात की मलाल हर कलाकार, हर शख्स को नागंवार मंजूर होती है कि कोई बाद में आकर भी हमसे आगे कैसे निकल गया. शत्रुघ्न यह बात बार-बार दोहराते हैं कि वह स्टार बन चुके थे. जब अमिताभ आये थे. लेकिन अमिताभ इस लिहाज से आज भी औरों से अलग कलाकार हैं कि उन्होंने कभी अपने मुख से यह नहीं स्वीकारा है कि वह बड़े स्टार हैं. वह मिलेनियम स्टार हैं. अमिताभ का यह स्वभाव कई बार मीडियाकर्मियों को उनकी अतिश्योक्ति लगती है. लेकिन यह उनका स्वभाव है. वे कभी नहीं कहते कि उनकी जिंदगी एक प्रेरणा है और युवाओं को उनसे सीखना चाहिए.दरअसल, उन्होंने जिंदगी में सदेव काम को प्रमुखता दी है. यही वजह है कि उनकी न तो कई लोगों से दोस्ती है और न ही कई लोग उन्हें खुल कर तंज दे पाते हैं. उन्होंने दोस्ती और तंज के रिश्ते के बीच एक महीन लकीर खींच रखी है. 

हुनर, मेहनत और मुकाम

सलीम खान ने शत्रुघ्न सिन्हा की बायोग्राफी में फिल्म काला पत्थर के परदे के पीछे की कहानी का ब्योरा देते हुए बताया है कि फिल्म के निर्देशक और फिल्म के कलाकारों की बिल्कुल इच्छा नहीं थी कि वे शत्रुघ्न को फिल्म में कास्ट करें. लेकिन उस दौर में लेखकों की अपनी पहचान थी. अपना ओहदा था. वे अपना प्रस्ताव न सिर्फ रख सकते थे, बल्कि कलाकारों को कास्ट करने का अंतिम निर्णय भी उनका ही होता था. सलीम खान ने ही शत्रुघ्न सिन्हा को यह बात समझायी कि उन्हें इस फिल्म के लिए कोई फीस न भी मिले तो उन्हें यह फिल्म करनी चाहिए. चूंकि इस फिल्म में उनका किरदार दमदार है और उन्हें लोग इस किरदार की वजह से याद रखेंगे. सलीम खान यह भी स्वीकारते हैं कि बॉलीवुड में ऐसे कम कलाकार आये, जो अपने स्टाइल के साथ आये. वरना, हर कलाकार किसी न किसी से प्रभावित थे. लेकिन शत्रु उन कलाकारों में से एक थे, जिनका अपना स्टाइल था. और अगर शत्रु अपने काम पर औरों से अधिक मेहनत करते तो वे भी जिस मुकाम पर हैं, उससे बड़े कलाकार होते. दरअसल, सलीम खान ने यह बात सटीक कही है. अमूमन ऐसा होता है कि कई प्रतिभाशाली कलाकार, जो वाकई हुनरमंद होते हैं. वे खुद को लेकर बेपरवाह हो जाते हैं और नतीजन वे वह मुकाम हासिल नहीं कर पाते. लेकिन कुछ लोग अपनी मेहनत से हुनरमंद बनते हैं. आदित्य चोपड़ा ने कई बार अपने लांचिंग कलाकारों को यह बात समझायी है, जिनमें रणवीर सिंह और विवेक ओबरॉय प्रमुख हैं. रणवीर को आदित्य ने यह बात समझायी थी कि वह हीरो जैसे नहीं दिखते. लेकिन उनकी मेहनत उन्हें मुकाम दिला सकती है और इससे उलट विवेक को उन्होंने सीख दी थी कि तुम में बहुत प्रतिभा है. लेकिन इतराने की बजाय धैर्य से काम लेना. अब यह एक छात्र पर निर्भर करता है कि वह अपने गुरु की बात को किस हद तक अपने साथ रखता. यकीनन रणवीर ने इस गुरुमंत्र को अपना मंत्र बनाया है और आज वे सुपरस्टार बन चुके हैं.

20160222

फिल्मों में काम करने के लिए मरा नहीं जा रहा : मनीष पॉल


  छोटे परदे का प्रसिद्ध चेहरा मनीष पॉल इन दिनों बडे परदे पर भी अपनी  एक सशक्त पहचान बनाने में जुटे नजर आ रहे हैं. इसी की अगली कड़ी उनकी फिल्म तेरे बिन लादेन डेड और अलाइव  है. वह इस फिल्म और अपने किरदार को ड्रीम रोल करार देते हैं. फिल्मों में भी मनीष अपनी एक अलग पहचान बनाना चाहते हैं लेकिन वह छोटे परदे को कभी अलविदा कहने के मूड़ में नहीं हैं क्योंकि इसी छोटे परदे ने उन्हें बनाया है
  तेरे बिन लादेन 2 का हिस्सा कैसे बनें. 
 इतनी बड़ी फिल्म में हीरो रोल मिल जाए तो और क्या चाहिए.  बहुत बढिया अमेजिंग रोल भी है. ड्रीम कम 'ट्रू  वाला मामला है. अगर यह कहूं तो गलत न होगा. वैसे मैं उनसे किसी दूसरी फिल्म के सिलसिले में मिला था. उसमे मेरा छोटा सा रोल था लेकिन जब मैं उनसे मिला तो बातें करते हुए  टिपिकल डायरेक्टर वाला लुक में मुङो देख रहे थे.( हंसते हुए) थोड़ी देर के लिए मैं डर गया कि कहीं कास्टिंग काऊच वाला मामला तो नहीं हैं. मैंने कह दिया कि मैं सीधा हूं. खैर उन्होंने मुङो कहा कि तुम दूसरी फिल्म में आ जाओ जिसके बाद मैं इस फिल्म का हिस्सा बन गया. 

 आपको लगता है कि इंडस्ट्री में कास्टिंग काऊच है. 
  मेरे साथ हुई नहीं है. होती होगी लोगों के साथ.कहीं न कहीं होता ही होगा. बिना आग के धुंआ नहीं होता है. मैं इस बात को जरुर मानता हूं. 
 यह एक व्यंगात्मक कॉमेडी फिल्म हैं और आप कॉमेडी में माहिर ऐसे में इस फिल्म से जुड़ना आसान था. 
 नहीं यार,  लोगों को लगता है कॉमेडी आसान है लेकिन बहुत टफ काम है. खासकर बड़े परदे पर करनी हो तो और मुश्किल हो जाती है. रियैलिटी शो में हम मस्ती मजाक में निकाल देते हैं  लेकिन बड़े परदे पर एक एक फ्रे म एक एक लाइन का याद रखना पड़ता है. स्पेशली जब निर्देशक अभिषेक शर्मा हो. वह बहुत पटिकुर्लर हैं. इनकी कॉमिक टाइमिंग माइंड ब्लोइंग है. उनको आप चीट नहीं कर सकते हो. एक शब्द या नार्मस गलत है तो वो पकड़ लेते हैं. मैं बोलूं भी चलता है. इतना कोई ध्यान नहीं देगा लेकिन वो नहीं मानते बोलते चलों फिर से करते हैं. वैसे वो अच्छा था और मेरे लिए बहुत सीखने का मौका था. 
  किसी फिल्म को साइन करते हुए आपके लिए क्या अहम होता है. 
  हिट होगी फ्लॉप होगी. ये सोचकर फिल्म से नहीं जुड़ता हूं. ये फिल्म बनाने में मजा आएगा. मेरे लिए यह बहुत महत्वपूर्ण होता है. प्रोसेस मजेदार होना जरुरी है. ऐसा नहीं कि सीन देखकर लगे कि ये क्या बोल रहा हूं. अगला सुन नहीं रहा लेकिन इस फिल्म में ऐसा नहीं था. अभिषेक तुरंत समझ जाते थे वह पूछते भी थे कि  तेरे को मजा नहीं आया. यहां ये कर सकते हैं. वो एक फ्रीडम देते थे.मैंने कुछ सीन किया तो दूसरे एक्टर ने कहा कि इसे ऐसे कर तो ज्यादा अच्छा रहेगा.  सबके इनपुट होते थे. किसी फिल्म को बेहतर बनाने के लिए यह जरुरी है. प्रोमो में दिखाए साइलेंट वाले सीन की ही बात करूं तो अभिषेक सर ने पूरा डायलॉग लिखा था लेकिन उसे खडखड़ खटखट या  साइलेंट कर देते है.ं मेरा आइडिया था.अभिषेक सर को पसंद आया और उन्होंने करने का कहा 
स्मॉल स्क्रीन के एक्टर्स बड़े परदे पर कामयाबी नहीं मिल पायी हैं इस बात पर आप क्या कहेंगे. 

 मैं सबसे अहम स्क्रिप्ट को मानता हूं. आज बच्चन साहब को भी ढंग की भी स्क्रिप्ट नहीं देगे तो बच्चन साहब भी कुछ नहीं कर पाएंगे. पीकू उनकी सुपरहिट रही क्योंकि अच्छी स्क्रिप्ट और निर्देशक उनके पास थे. जिसके बाद ही वह अपने जबरदस्त परफॉर्मेस से उस फिल्म को इतना कामयाब बना पाएं थे. अच्छी स्क्रिप्ट और निर्देशक मिल जाए तो टीवी का बंदा भी अच्छा कर सकता है. हां बिग बी की बराबरी की तो हम सोच नहीं सकते हैं लेकिन जरुर अच्छा कर सकते हैं  हर बंदा एक मौके से बेस्ट निकालना चाहता है. किसी का कोई हिंट फार्मूला नहीं है. यह गैम्बल है. जब तक आप रेस में दौडोगे नहीं तो फस्र्ट कैसे आओगे. बिना भागे कोई नहीं जीता है.  कई लोगों का कहना है कि टीवी के एक्टर फिल्म में क्यों आते हैं. आप घर पर बैठकर बोल रहे हो. आपसे हम अच्छे ही हैं. कम से कम कोशिश तो करते हैं. 
 आप जब भी स्टेज पर आते हैं एक जादू जगा देते हैं. वो एक्स फैक्टर आपमें कहां से आता है. 
  सच कहूं तो  मुङो नहीं पता है. यह भगवान ही जानता है. यह मेरे हाथ में नहीं होता है. इनट्स मैजिक. बैकस्टेज में मैं आज भी एक सहमे हुए बच्चे की तरह बैठा रहता हूं कि स्टेज पर जाकर क्या करूंगा या झलक की ही बात करूं तो स्टेज पर पहला स्टेप लेने से पहले मन में यही सोच होती है. झललक पहला स्टेप होगा कि नहीं माधुरी इंज्वॉय करेंगी. स्टेज पर जाकर पता नीहं क्या होगा. एक बार मुङो सोनू निगम ने कहा था कि आर्टिस्ट हैं हम सिर्फ तालियां बटोरते है.ं करने वाला उपर है. जब मैं स्टेज पर वो ऑन द स्पोट करता हूं. 
 टेलीविजन  के आप स्टार हैं क्या फिल्मों के ऑफर भी आते रहते हैं.
  फिल्में बहुत ऑफर हुई थी.  लीड भी हुई थी.  कभी स्क्रिप्ट अच्छी नहीं थी तो कभी सेटअप में प्राब्लम था. दो अच्छी फिल्में लगी थी उनको हां कह दिया था  लेकिन फिल्म शुरु ही नहीं हो पायी. प्रोडय़ूर्स का पंगा हो गया था. मेरा सिंपल फंडा है मैं फिल्में करने के लिए मरा नहीं जा रहा हूं. अगर आपको लगता है कि मैं काम कर सकता हूं तो मुङो मौका दीजिए. अगर नहीं लगता कि मैं किसी के सामने हाथ नहीं जोडूंगा कि मुझे आप अपनी फिल्म में काम करने का मौका दें. मस्का मारने से बेहतर है कि मैं खुद पर वर्क करूं. 

 बीच में आप रणबांका जैसी फिल्मों में नजर आए थे. क्या उन फिल्मों को करने का अफसोस है. 
  वो फिल्में भी बहुत कुछ सीखा गयी है. उस फिल्म को करने के बाद मालूम हुआ कि ऐसा भी होता है. जो आपको बोला जाता है वो होता नहीं है. वैसे मैं दोस्तों का दोस्त हूं. आर्यमन मेरा दोस्त था उसने कहा कि फिल्म कर ले तो मैंने कर लिया.  एख बार फिर लिर्नग चीजें कुछ होनी थी. ये फिल्म करने के बाद पता चला कि ऐसा होता है. हालांकि उसमे से भी मैंने निकाल लिया. जिसने भी वह फिल्म देखी बोला लास्ट के बीस मिनट जो थे. बढिया होते थे. लोगों को मेरा एक अलग ही रुप देखने को मिला था. मुङो उस फिल्म से जुड़ने का कोई अफसोस नहीं है. मैं आगे भी ऐसी फिल्मों से जुड़ता रहूंगा. 

  दस साल के अपने सफर को कैसे देखते हैं. 
>> बहुत ही रोमांचित था. किसी से कोई शिकायत नहीं है. दिल्ली से यहां आया था तब मैं किसी को जानता नहीं था. कोई कॉटेक्ट नहीं था कि मैं किसी को फोन कर लूं. धीरे धीरे पहचान बनायी. वहीं स्ट्रगलर की तरह प्रोडक्शन हाऊसेज में जाना. फिर ऑडिशन देना. फिर रिजेक्ट होना. एक रिजेक्शन मुङो अभी भी याद हैं.  वो लाइन नहीं भूलती है. तुम रिजेक्ट हो गए.मैंने पूछा क्यों  जवाब आया आप मैच नहीं करते हैं. मैंने फिर कहा कि किसके लिए दो टूक जवाब सामने की तरफ से आया कि  हमें खानदानी लड़का चाहिए. दो मिनट के सन्न ही रह गया. वहां से निकलकर गुस्से में  डैड को कॉल किया और कहा कि क्या किया आपने. लोग कह रहे हैं कि खानदानी नहीं हूं. वो हंसने लगे बोले छोड़ आगे बढ़. मैंने भी वहीं किया सब भूलकर फोकस होकर अपना काम करता रहा फिर चाहे वह छोटा हो या बड़ा. 
  क्या आप अपनी सफलता में टीवी का बहुत बड़ा योगदान मानते हैं. 
 मेरी सफलता में टीवी का बहुत बड़ा योगदान है. यही वजह है कि मैं टीवी नहीं छोड़ता हूं. कई लोग कहते हैं कि टीवी छोड़ दे लेकिन मैं नहीं. नहीं भईया मैं किसी शो का एक सीजन कर लूं या एक दो एवार्ड नाइट्स कर लूं लेकिन आऊंगा जरुर. टीवी खास हैं मेरे लिए. या टीवी का यही रिजन हैकि नहीं छोड़ता हूं. चाहे एक सीजन या दो एवार्ड नाइट्स करूं लेकिन मैं करता हूं. 
 पहला मौका कैसे मिला कितना लंबा इंतजार करना पड़ा था. 
 सच कहूं तो  बहुत देर तक बिना काम के नहीं रहना पड़ा था. सिंतबर में आया था. अक्टूबर में काम करने लगा था. फिल्मों में ही काम करूं यह तय नहीं किया था  टीवी में एक शो था वो होस्ट कर रहा था. फिर रेडियो पर शो किया. शाम और सुबह के शोज किए. फिर टीवी का एक शोज किया. फिर मुङो लगा कि मजा नहीं आ रहा है. 2क्क्8 में सबकुछ छोड़कर घर पर ही था. एक साल घर पर ही था. जितना कमाया सब जा रहा था. एक वक्त ऐसा भी था जब  घर भाडे के लिए पैसे नहीं थे लेकिन मैनेज किया. अपना खर्चा कम किया. उसके बाद मुङो होस्टिंग के ऑफर आने लगे. जीटीवी, सारेगामापा डीआईडी के बाद एक बड़े शोज ऑफर होने लगे. रेड कार्पेट्स के साथ मेन स्टेज फिर फिल्म ऑफर होने लगें. लगातार  काम करके ही यहां तक पहुंचा हूं. 
 आप युवा कलाकारों को क्या गुरु मंत्र देंगे. 
  हर इंसान यहां एक्टर बनने ही आया है. मैं खुद आज से दस साल पहले मुंबई सेंट्रल की एक ट्रेन से बाहर आया था. जो दिल्ली से मुङो मुंबई लेकर आयी थी. टिपकिल स्टाइल में बैग रखकर प्लेटफार्म के धूल को सर पर लगाया और तैयार हो गया था स्ट्रगल के लिए. मैं सिर्फ यही कहूंगा कि मैं अपने काम को देखकर सबकुछ भूल जाता है. अपने स्टेज पर हूं तो मेरी फैमिली को भी पता है कि जब मैं काम करता हूं. पांच छह दिन बिना सोए चलना पड़े तो मुङो चलेगा. मेरा काम को लेकर बहुत ही ज्यादा जुनून है.
  जब आपने शुरुआत की थी तो क्या आप अपनी खामियों को भी जानते थे 
हां,  मैं अपने आप से कभी  झूठ नहीं बोलता था. मैं जानता था कि मैं अभी तो हीरो नहीं बन पाऊंगा. मुझे  दिखती थी अपनी कमियां. अॅडिशन में ध्यान देता था कि हां यहां गलत रह गया या इधर थोड़ा कमजोर था. इस बात को भी मानूंगा कि रिजेक्शन दिल पर भी लगती थी. मैं उस वक्त चेम्बूर में रहता था वहां से बस लेकर वरली ऑडिशन देने जाता था. ना होने पर फिर बस में धक्कामुक्की करते हुए घर जाने से  बहुत चिढ़ भी होती है लेकिन  मुङो पता था कि मैं यहां काम करने आया है. जब आप करने आते हैं तो दस कठिनाईयां आती हैं. मैं फिल्मी बैकग्राउंड से आता नहीं हूं. मेरे  दूर दूर तक कोई परिचित इस इंडस्ट्री में नहीं थे, इसलिए मैं पूरी तरह से तैयारी के साथ आया था. एक बार आपने दिमाग में तैयारी कर ली तो आपको कोई और हिला नहीं सकता है.इस बात के लिए भी तैयार था कि वो भी दिन होंगे जब पैसे नहीं होंगे मगर मैं तैयार था और उतना ही अपने काम को लेकर फोकस्ड भी.  मैं दोस्तों के साथ पार्टी नहीं करता था. दिन भर कॉफी शॉप में कॉफी नहीं पीता था. पैसे नहीं थे इसलिए बिना काम के बाहर नहीं निकलता था. जब ऑडिशन देने जाना होता था तब ही निकलता था वरना घर पर सारा दिन दोस्तों से मांग मांगकर डीवीडी लाकर फिल्में देखा करता था. मैं सारे  दिन फिल्में देखता था  दिन में चार चार फिल्में देखता था .   इरानी, जर्मन,फ्रेंच के साथ साथ तमिल फिल्म भी देखी. वो मेरे लिए बहुत सीखने वाला अनुभव था. मेरे लिए फिल्मों से बड़ा कोई टीचर नहीं है. अब भी यही करता हूं। अब तो मेरे दोस्त राइटर हैं डायरेक्टर है. एक फिल्म का पूरा पोस्टमार्टम करते थे. ये सीन ऐसा होता तो कैसा होता था. जिससे मुङो परफॉर्म करने के ज्यादा इमोशन और एक्सप्रेशन मिल जाते हैं. 
 सफलता को आप किस तरह से लेते हैं. 
मैं सक्सेस के बारें में नहीं सोचता हूं. कई लोग कहते हैं कि टीवी का नंबर वन होस्ट हैं लेकिन मैं यह सब नहीं सोचता हूं. हर दिन काम करना है. हर दिन कुछ सीखना है. बस मैं इसी बात को सोचता हूं

१५ घंटे तक संघर्ष करती रही थीं नीरजा :राम माधवानी

http://www.prabhatkhabar.com/news/bollywood/ram-madhvani-film-neerja-sonam-kapoor-neerja-bhanot-bollywood/728090.html
राम माधवानी एक महत्वपूर्ण फिल्म 'नीरजा' लेकर आये हैं. 'नीरजा' के माध्यम से उन्होंने एक ऐसी कहानी कहने की कोशिश की है, जिसमें एक आम लड़की बहादुरी से लोगों की जान बचाती है. एक ऐसी लड़की को ही सलाम कर रही है उनकी फिल्म नीरजा. फिल्‍म में नीरजा भनोट का किरदार सोनम कपूर मुख्‍य भूमिका निभा रही हैं. 
1. 'नीरजा' की कहानी पर फिल्म बनाने का ख्याल कैसे आया?
- दरअसल, अतुल कसबेकर ने मुझे कॉल किया था और उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं नीरजा भनोट के बारे में जानता हूं.क्या मैंने सुना है. और हां, बिल्कुल मैंने उनके बारे में सुन रखा था. वह मॉडल थीं, एयरहोस्टेस थीं. चूंकि मैं एड वर्ल्ड से हूं तो मैं उनके बारे में जानता था. मैंने उनके कई सारे एड्स देखे थे. मेरे पार्टनर ने तो उनके साथ शूटिंग भी की थी. जिस दिन उन्होंने फ्लाइट ली थी. उसकी शाम में ही उसने वह एड की शूटिंग खत्म की थी और फिर घर आयी. और फिर फ्लाइट लिया था और मेरी पत् नी की दोस्त की दोस्त नीरजा थीं. तो मैंने सोचा कि हां, यह कहानी बहुत मोटिवेशनल होगी. 
हमें इस पर कहानी बनानी चाहिए. तो मैंने मैरी कॉम के राइटर सायवन क्वादरस के पास यह कहानी थी. उन्होंने अतुल से पूछा था और इस माध्यम से ये कहानी मुझ तक आयी. मैंने तय किया कि फिल्म बनाऊंगा और इसके बाद हम नीरजा के पेरेंट्स से मिले. उनकी मां से मिला. और  जब मैं उनकी मां से मिला तो वह भी मुझे बहुत प्रेरक लगीं. और मुझे लगा कि इस पर फिल्म बननी चाहिए. मेरा मानना है कि कम उम्र में नीरजा ने जो किया. उनकी कहानी सुनी जानी ही चाहिए.
2. आपने फिल्म को वास्तविक रखने की कितनी कोशिश की है?
फिल्म के लिए हमने काफी रिसर्च किया है. मुझे लगता है कि यह दर्शक तय करेंगे कि हमने कितना वास्तविक रखा है. क्योंकि हमने उनके परिवार से बातचीत के आधार पर इसे रियलिस्टिक अप्रोच रखने की कोशिश की है.
3. सोनम को नीरजा के किरदार चुनने की खास वजह क्या रही?
- मैंने महसूस किया कि सोनम और नीरजा के किरदार में काफी समानताएं हैं. दोनों के पास दिल है. मुझे लगता है कि सोनम भी काफी पारिवारिक लड़की हैं. और नीरजा के लिए भी उनका परिवार काफी महत्वपूर्ण था. सोनम से जब मैं फिल्म की बात करता हूं तो मैं कहूंगा कि उन्होंने सिर्फ फिल्म में एक्टिंग नहीं की है. वह पूरी तरह से मेरी फिल्म से जुड़ी थीं. इसके प्रोसेस में. फिल्म का सुर क्या है. उनके सवाल जवाब मुझे अच्छा लगा.इसके अलावा जब मैं उन्हें नीरजा के पेरेंट्स से या उन्हें जानने वाले लोगों से मिलाने ले गया. उन्होंने अपनी तरफ से जिस तरह से किरदार को महसूस किया.यह उनकी खासियत है. 
4. आपने जब नीरजा के पेरेंट्स को बताया कि फिल्म बनाना चाहते हैं तो उनकी क्या प्रतिक्रिया थी?
- दरअसल, वे लोग बहुत खुश हुए थे. उनकी बेटी के पिछली जिंदगी के बारे में काफी बातें होती रही थीं और इन बातों से जाहिर है कि माता पिता को दुख होता ही होगा. हम जब इस फिल्म की योजना लेकर गये थे. उस वक्त तक नीरजा के पिता का देहांत हो चुका था. लेकिन उनकी माताजी ने सोनम को देखते ही कहा कि देखो लाडो आ गयी. उन्होंने हम पर पूरा विश्वास किया और हमारे साथ पूरी तरह से सहयोग किया. और शबाना आजमी जी भी थी हमारे साथ. हमारी कोशिश रही है कि हम उनकी जिंदगी को जान बूझ कर कुरेदे नहीं. तो हमने वही चीजें दिखाई हैं, जो हम सीमा में रह कर दिखा सकते हैं. हमें इसे सेंसलाइज करने में कोई दिलचस्पी नहीं थी.
4. शबाना जी को इस किरदार के लिए मनाना कितना कठिन था?
- शबाना जी मेरी दोस्त की तरह हैं. शबाना जी को स्क्रिप्ट पसंद आयेगी तो वह हां कहेंगी ही. शबाना जी  को मैं काफी पहले से जानता हूं. मैं उनके घर पर भी काफी जाता रहा हूं. शबानाजी और मैं दोनों ही एक तरह की वर्ल्ड की फिल्मों को पसंद करते हैं, तो वहां से भी शबाना जी को यह पता है कि मेरा थॉट प्रोसेस क्या है. इससे भी मदद मिली. उन्होंने हां, कहा और फिर थोड़ा नर्वस हुआ कि उन्हें डायरेक्ट करूंगा. लेकिन शबाना जी बिल्कुल सामान्य हो जाती हैं. उन्हें देख कर तो लगता है कि जैसे आज ही अभिनय शुरू किया है. वह जिस तरह से वर्कशॉप करती हंै, अपने निर्देशक को सुनती हैं.उनके लिए सम्मान और बढ़ा मेरी नजर में. उनकी भूख आज भी जारी है. मैं मानता हूं कि शबाना जी जहां हैं. वहां आप सेफ हैं.
5. फिल्में बनने पर लोग इस तरह की घटनाओं के बारे में अधिक जान पाते हैं. क्या आप इस बात से सहमत हैं?
- नहीं, मुझे नहीं लगता. जैसे ऐसी किताबें हैं, जो मैंने पढ़ी हैं. और उन पर फिल्में नहीं बनी हैं. लेकिन फिर भी मुझे याद है. यह इस बात पर निर्भर करती है कि उस माध्यम ने उस विषय के साथ कितना न्याय किया है. और लोग इस पर किस तरह रियेक्ट करते हैं. सो, मुझे लगता है कि लोग इस फिल्म को देखना चाहते हैं. 
6. शूटिंग अनुभव के बारे में बतायें?
- हमने इस फिल्म की शूटिंग 21 दिनों में पूरी की है और अंडर बजट प्रोजेक्ट है ये. फिल्म भी 2 घंटे की है.  हां, लेकिन मेरी कोशिश थी कि नीरजा के संघर्ष को दिखाया जा सके. रियलिटी में 15 घंटे यह संघर्ष जारी रहा था तो मैं चाहता था कि वह संघर्ष कम से कम लोगों के सामने आ पाये. 
7. आप चूंकि विज्ञापन की दुनिया से हैं तो यह वजह है कि आप अंडर प्रोजेक्ट काम कर पाते हैं? फिल्म मेकिंग में यह कितना सहयोग कर रहा है.
- जी हां, मैंने विज्ञापन की ुदनिया से ही अनुशासित होना, रिसर्च करना, क्रिस्प रहना, और साथ ही साथ प्लानिंग करना सीखा है. साथ ही विज्ञापन ने ही मुझे सिखाया है कि आप कम शब्दों में किस तरह अपनी बात को लोगों के सामने रख पाते हो.

20160220

रोबोटिक बहू के अद्भुत कारनामें


छोटे परदे पर बहू की एक नयी परिभाषा लेकर आयी हैं निर्माता व लेखिका सोनाली जाफर. सोनाली का मानना है कि दर्शक हमेशा इस बात की शिकायत करते हैं कि उन्हें सिर्फ सास-बहू की ही कहानी परोसी जा रही है. सो, उन्होंने तय किया कि इस बार वे बहू की कहानी दिखायेंगी. लेकिन अलग अंदाज में. शो में लीड किरदार निभा रहे हैं करण ग्रोवर और ऋद्धिमा पंडित. 

सटायर के माध्यम से बहू का नया रूप 
सोनाली जाफर, निर्मात्री-लेखिका
मैं दरअसल, कई सालों से टेलीविजन से जुड़ी रही हूं और मैंने कई सारे शोज किये हैं. मेरा मानना है कि आज की औरतें बदली हैं. सो, मेरे शो की हीरोइन हटके है. आप देखें तो आज हर किसी की इच्छा है कि उनकी बहू वर्किंग भी हो और घर आकर घर की भी सारी जिम्मेदारी संभाले. मैं खुद भी सबकुछ मैनेज करती हूं. तो मुझे लगता है कि आज की महिलाएं बहुत मल्टी टास्किंग हैं. मुझे लगा कि यह एक ऐसा अध्याय है, जिसे दर्शाना चाहिए और क्या मर्द समझता है कि वाकई महिलाएं कितना काम करती हैं? मर्द को सबकुछ चाहिए एक महिला से, और जब वैसी मिलती भी है तब भी उसे कुछ और चाहिए होता है. मतलब उनकी इच्छाओं की अंत नहीं तो मैंने सटायर के रूप में शो का थीम रखा है. इसलिए शो में हमारी हीरोइन रोबोट है. मैं मानती हूं कि बतौर लेखक आप अपनी आस-पास की जिंदगी व अनुभव से बहुत कुछ ले पाते हैं. मैंने भी इस शो में अपने कई अनुभव के आधार पर चीजें फ्रेम की हैं और मैं मानती हंूं कि हर महिला उससे कनेक्ट करेंगी. मैंने काफी लंबे समय तक एकता कपूर के साथ काम किया है और वही मेरी गुरु रही हैं इस क्षेत्र में. 2004 से मैं जुड़ी हूं अबतक़. मैं बालाजी की ऊपज हूं. मैंने  कसम से स्वतंत्र राइटर के रूप में लेखन शुरू किया. फिर बड़े अच्छे लगते हैं, ये हैं मोहब्बते जैसे शो में नयापन, ताजगी लाने की कोशिश की और अब इस शो में भी वही फ्रेशनेस लाने की कोशिश है. मैंने अपनी क्रियेटिविटी को मौका दिया और हर महिला को अपनी क्रियेटिविटी को मौका देना चाहिए. हमारे शो का भी यही संदेश है.  मैंने राजन शाही, राजश्री प्रोडक् शन्स के साथ भी काम किया है और अब अपने इस शो के माध्यम से उन्हीं अनुभवों को मुक्कमल करने की कोशिश कर रही हूं. मेरा मानना है कि टेलीविजन में महिला राइटर्स या हर क्षेत्र में काफी विकल्प हैं. टैलेंट हैं तो यहां मौके मिलते हैं. हमारा शो वैसी ही महिलाओं को समर्पित हैं, जो जिंदगी में कुछ करना चाहती हैं. खास बात यह है कि हमने भाषणबाजी करने की कोशिश नहीं की है. हमने इसे हास्य अंदाज में प्रस्तुत करने की कोशिश की है.शो का नाम रजनीकांत इसलिए रखा है, कि अमूमन हम उन लोगों को रजनीकांत कह कर संबोधित करते  हैं, जो काफी लार्जर देन लाइफ जैसे काम करने की कोशिश करते हैं, या जो सबकुछ कर ले. हमारी बहू भी वैसी है. एक महिला किस तरह रोबोट बन जाती है, फिर उसे सुकून नहीं. इस शो में वही दर्शाने की कोशिश है. शो में आपको और भी नये नजरिये मिलेंगे.
  पहले ही शो में एक्सपेरिमेंटल किरदार मिल गया :ऋद्धिमा पंडित, अभिनेत्री
मैं बेहद खुश हूं कि मुझे मेरे पहले ही शो में एक्सपेरिमेंटल किरदार निभाने का मौका मिल गया है. हर कलाकार का यही सपना होता है कि मैं कोई ऐसा ही किरदार निभाऊं. मुझे इस बात की भी खुशी है कि मेरे शो का नाम भारतीय सिनेमा के आइकॉनिक कलाकार के नाम पर है और अगर सिर्फ इस नाम के बहाने भी उनसे राबता हो पाया है तो भी मैं खुद को खुशनसीब मानती हूं. मेरा मानना है कि मेरा किरदार आम बहुओं जैसा नहीं होगा. लेकिन फिर भी दर्शक मुझे पसंद करेंगे. खास कर घर की वे महिलाएं जिन्हें मेरी कहानी अपनी लगेगी. वह निश्चित तौर पर मुझे पसंद करेंगी. इस शो में मैं रोबोटिक किरदार में हूं तो मुझे एक रोबोट की पूरी चाल ढाल समझने में वक्त लगा. मैंने एक रोबोट को स्टडी करने की कोशिश की है. साथ ही हमारी लेखिका व प्रोडयूर सोनाली मैम ने काफी मदद की है. उन्होंने काफी इनपुट्स दिये हैं तो उनसे भी काफी मदद मिली है. मैं काफी सालों से मॉडलिंग से जुड़ी रही हूं. कई विज्ञापनों में काम किया है. लेकिन डेली सोप में काम करने का अनुभव अलग है और इससे काफी पहचान मिलती है. ऐसा महसूस कर रही 

20160219

खय्याम साहब का अनमोल तोहफा

खय्याम साहब ने हाल ही में 90 वें बसंत में प्रवेश कर गये. खय्याम साहब के फिल्मी योगदानों के साथ-साथ एक खास बात उन्हें औरों से मुख्तलिफ करती है, कि उन्होंने अपनी पत् नी को ताउम्र अपनी जिंदगी में सबसे अधिक तवज्जो दी. यह बात जगजाहिर हैं, कि उन्होंने कभी अपने अस्टिेंट या कोई टीम नहीं रखीं. वे हमेशा अपनी पत् नी को क्रेडिट दिया करते थे. उन्होंने अपने कई गीतों में खय्याम जगजीत कौर का नाम शामिल किया है. जहां एक तरफ कई गीतकार कई रिकॉर्डस बनाते चले गये. खय्याम साहब को इस बात की कोई शिकायत नहीं कि उन्होंने महज 50 फिल्में अपने नाम की. लेकिन उन्होंने हमेशा इस बात से परहेज किया कि वे बेफिजूल के गाने कंपोज करेंगे. उन्होंने अपनी गुणवता के आड़े किसी को नहीं आने दिया. यही वजह है कि उमरावजान के गीत आज भी सदाबहार हैं और दर्शकों की जुबां पर हैं. मैं पल दो पल का शायर हूं...गीत आज भी कई शायरों के दिलों की धड़कन है. कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है... आज भी माहौल में रुमानियत भरने के लिए काफी है. खय्याम साहब से जब भी मुलाकात हुई है, उन्होंने हमेशा स्वीकारा है कि उन्हें जितना सुकून अजान सुन कर मिलता है, उतनी ही तसल्ली उन्हें भजनों को सुन कर भी मिलती है.  यह उनका अलग अंदाज ही था, जो बेगम अख्तर और मीना कुमारी के वे पसंदीदा म्यूजिक निर्देशक रहे. बेगम अख्तर यह बात हमेशा स्वीकारती रही हैं कि उन्होंने खय्याम के साथ सबसे श्रेष्ठ गीत गाये हैं. संगीत के क्षेत्र में इससे बड़ा योगदान और क्या होगा कि उन्होंने अपनी 12 करोड़ की संपत्ति को उन लोगों को समर्पित किया है, जो संगीत के क्षेत्र में संघर्षरत हैं. हिंदी सिनेमा उनका ऋणी रहेगा. शायद आज वे और उनका यह योगदान लोगों को प्रासंगिक  न लगे. लेकिन इस रूप में भी कम लोग ही अपना योगदान दे पाने का दिल रखते हैं

स्क्रिप्ट पढ़ कर रो पड़ी थी : सोनम कपूर


पारिवारिक फ़िल्म प्रेम रतन धन पायो के बाद अभिनेत्री सोनम इन दिनों बायोपिक फ़िल्म नीरजा  में नीरजा के किरदार में दिख रही हैं।वह इस फ़िल्म और किरदार को अपने अब तक के कैरियर में सबसे खास करार देती हैं।इस फ़िल्म ने उन्हें अपने डर का हिम्मत से सामना करने की प्रेरणा दी हैं। 

 इस फ़िल्म से जुड़ने की क्या वजह थी
 मतलब न क्यों बोलूंगी।स्क्रिप्ट पड़ने के बाद मेरी आँखों में  आंसू आ गए थे।इतना मेरे दिल को छु गया था।फ़िल्म के निर्देशक राम माधवानी भारत के सर्वश्रेष्ठ एड फिल्ममेकर हैं।विश्व स्तर पर भी उन्होंने कई इंटरनेशनल अवार्ड जीत चुके हैं।इस फ़िल्म से पहले इन्होंने बोमन ईरानी के साथ फ़िल्म लेटस टॉक बनायीं थी।इस फ़िल्म से जुड़ने से पहले मैं नीरजा  के बारे में ज़्यादा नहीं जानती थी लेकिन इस फ़िल्म के दौरान मैंने उसकी फितरत उसके कैरेक्टर को जाना।उस में बहुत सी खूबियां थी।वह ईमानदार,जिंदगी से प्यार करने वाली,  संवेदनशील है। मॉडलिंग में वह बहुत अच्छा कर रही है लेकिन एयरहोस्टेस के तौर पर भी वह अपनी ज़िम्मेदारियों को बखूबी निभाती है।23 साल की युवा लड़की है जब हम युवा होते हैं तो कुछ कर गुजरने का जज्बा हमारे भीतर सबसे ज़्यादा होता है।

 नीरजा भनोट के किरदार ने  रियल लाइफ में किस तरह से आपको प्रभावित किया ?
 अगर तीन चार साल पहले आप मेरी आदर्श महिला के बारे में पूछते तो मैं सरोजनी नायडू,लता मंगेशकर,मदर टेरेसा, मेरील स्ट्रिप का नाम लेती थी लेकिन अब मैं अपनी आदर्श महिला नीरजा भनोट को मानती हूं। एक इंसान के तौर पर उसे गाना नहीं आता, डांसिंग नहीं करती, बॉक्सिंग भी नहीं जानती है।वह बस  एक अच्छी लड़की है जो अपने काम को पूरी ईमानदारी से करना जानती हैं। एक ऐसी लड़की जो विपरीत परिस्थितियों में डरती नहीं है बल्कि उसकी हिम्मत दुगुनी हो जाती है।वह सुपरहीरो नहीं है।सैनिक भी नहीं लेकिन 359 लोगों की ज़िन्दगी बचाने के लिए वह अपनी ज़िन्दगी का बलिदान कर देती है। अब मेरी आदर्श नीरजा भनोट है।
 नीरजा की फॅमिली से भी आप मिली थी कैसा उनके साथ जुड़ाव था?
यही कि नार्मल मिडिल क्लास फॅमिली है और वह मुझे मेरी फॅमिली की तरह ही लगी। जब मैं रमा आंटी से मिली तो  उन्होंने मुझे देखते ही कहा कि जैसे लाडो आ गयी है।मेरी लिए वह बहुत ही इमोशनल लम्हा था।रमा आंटी ने हमारी पूरी टीम को खुश रहो सुखी रहो और  मज़े में रहो  का आशीर्वाद दिया था।उन्होंने मुझसे अशोक चक्र लेने की बात शेयर की थी कि उस दौरान हुई रिहर्सल के दौरान जब नीरजा के बारे में बताया गया तो वह फूट फूट कर रोने लगी थी तब राष्टपति ने उन्हें कहा कि बहुत कम ऐसी माएं हैं जिन्हें शहीद की माँ बनने का मौका मिलता है वो भी जो सैनिक की माँ नहीं है।अपनी बेटी की शहादत पर तुम्हे फक्र होना चाहिए।
 आप नीरजा को रियल हीरो करार देती हैं क्या आपने अपनी लाइफ में कोई हीरोइज्म वाला काम किया है।
 मैं तो ऐसी बिलकुल नहीं हूँ लेकिन इस फ़िल्म से जुड़ने के बाद अगर भविष्य में कोई भी विषम परिस्थितियां आए मैं एफर्ट लेने से पीछे नहीं हटूंगी।ये सिर्फ किसी बड़ी आतंकवादी घटना के वक़्त की एफर्ट लेने की बात नहीं है अगर आप किसी को रोड पर मुसीबत में देख लो तो आप उसकी मदद भी करने से पीछे न रहो।यह फ़िल्म देखने के बाद अगर किसी भी एक शख्स को अपना फियर फेस करने की हिम्मत आती है तो सही तौर पर नीरजा की कहानी को रुपहले पर्दे पर साकार करने का मकसद पूरा हो जायेगा। मेरे हिसाब से इस देश में  तीन चीज़ चलती है।क्रिकेट,सिनेमा और पॉलिटिक्स।मैं सिनेमा से जुडी हुई हूं  मेरी खुशनसीबी है कि मैं अपने आर्ट के ज़रिये बदलाव लाने को सक्षम हूं और मेरी यह कोशिश जारी रहेगी।
 यह एक बायोपिक है इसलिए तुलना होगी ही कितना इसके लिए तैयार हैं
 मैं अगर सोचूंगी तो बहुत स्ट्रेस ले लूंगी।मैंने बहुत ईमानदारी और मेहनत से अपना काम किया है।राम मैंने अपना 200 प्रतिशत तक दिया है।निर्माता अतुल कस्बेकर और निर्देशक राम माधवानी का कहना था कि मेरे अलावा नीरजा की भूमिका में वह किसी की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं।मेरे लिए यह बात बहुत मायने रखती है।
 इस फ़िल्म में आपके साथ वेटेरन एक्ट्रेस शबाना आज़मी आपके साथ हैं उनके साथ काम करने का अनुभव कैसा रहा?
 वह बेस्ट हैं,इंटेलीजेंट हैं और  वो बहुत ही सपोर्टिव हैं । मैंने जब फिल्मों में आने का फैसला लिया था तब शबाना आंटी को पापा ने मुझे फ़िल्म से न जुड़ने के लिए समझाने को कहा था लेकिन मुझसे मिलने के बाद उन्होंने खुद पापा को समझाया कि मुझे फिल्मों में जाने दे।इस फ़िल्म से पहले मैं उन्हें आंटी के तौर पर ही जानती थी लेकिन इस फ़िल्म के दौरान हुए वर्कशॉप में मैंने उन्हें एक्टर और को एक्टर के तौर पर जाना।
 आपकी पिछली फ़िल्म प्रेम रतन धन पायो आपके कैरियर की सबसे सफल फ़िल्म साबित हुई इंडस्ट्री का कितना रवैया बदला है
 मैं नहीं सोचती हूँ कि मेरी पिछली फ़िल्म ने क्या किया मैं नेक्स्ट क्या कर रही हूँ।उसके बारे में सोचती हूँ।जहाँ तक बात इंडस्ट्री के रवैये की है तो मेरी हमेशा से ही मज़े में कटी है।बहुत रोचक मेरी जर्नी है।
 क्या फ़िल्म खत्म होने के साथ किरदार भी आपके लिए खत्म हो जाता हैं 
 नहीं,एक इंसान के तौर पर भी मेरे हर किरदार मुझ में कुछ बदलाव कर जाते हैं इसलिए मेरे द्वारा निभाया हर किरदार का कुछ न कुछ अंश मेरे भीतर रह ही जाता है। मैं उन्हें नहीं भूल पाती हूँ।
 सेंसर बोर्ड की दखलंदाज़ी इन दिनों बढ़ रही हैं  लेकिन एडल्ट कंटेंट वाली फिल्में ही लोगों को लुभा रही है।
 आप जितना पर्दा करोगे।जितना रोकोगे लोग उतना ही उन चीज़ों के प्रति आकर्षित होते हैं।आपकी माँ अगर आपको सिगरेट पीने को मना करे तो आप नहीं मानोगे लेकिन अगर वह उससे जुडी हानि के बारे में बताओगे तो ज़रूर वह नहीं पिएंगे।जैसे हम बोलते हैं कि 18 के पहले सेक्स नहीं  21 से पहले ड्रिंक नहीं करते हैं ऐसे ही आप फिल्मों को रेटिंग दो ।कट्स देकर आप और ज़्यादा ऐसी फिल्मों को चर्चा में ले आते हैं।जितना आप रोकेगे उतना लोग देखेंगे।हमारा देश कामसूत्र का देश है।उस वक़्त मोरल हाई थे इतने रेप नहीं होते थे। इतना सेक्स को लेकर हौवा नहीं था।

कन्फ़्यूजिंग है ओसामा का किरदार . : अभिषेक शर्मा


अभिषेक शर्मा की फिल्म तेरे बिन लादेन ने पिछली बार दर्शकों का न सिर्फ मनोरंजन किया था, बल्कि एक नजरिया भी दिया था. एक बार फिर से वे इसकी अगली कड़ी लेकर आये हैं. फिल्म का ट्रेलर विश्वास जगाता है. 

  सीक्वल का ख्याल कैसे आया?
इसे पूरी तरह से सीक्वल नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यह पहली वाली फिल्म से संबंधित तो हैं. लेकिन दोनों की दुनिया अलग है.वे कैरेक्टर बिल्कुल अलग है.फिल्म देखेंगी तो आपको बहुत कॉम्पलीकेटेड नहीं लगेगा. इसका आइडिया बिन लादेन की मौत से आया था. मैं दरअसल, सबका मजाक उड़ा रहा हूं.खुद का भी मजाक उड़ा रहा हूं. ओबामा, ओसामा, पाकिस्तान, बॉलीवुड हर किसी पर व्यंग्य है.सबसे पहले मैं मानता हूं कि अगर आप अपना मजाक उड़ाते हो तो आपको आजादी मिल जाती है. दरअसल, आप फिल्म देखते हुए इस बात का अनुमान लगा लेंगे कि मनीष के कैरेक्टर के माध्यम से मैंने अपनी धज्जी उड़ाई है. फिल्म का सिंपल सा फंडा यह है कि अमेरिका को पू्रव करना है कि ओसामा मर चुका है और आतंकवादी संगठनों को साबित करना है कि ओसामा जिंदा है, क्योंकि उन्हें ओसामा के नाम पर फंडिंग आती है. इसी के बीच हमारे फिल्म के किरदार मनीष और प्रदुयूमन फंसे हुए हैं.
ओसामा को आप किस तरह देखते हैं?
ओसामा मेरे लिए बहुत कंफ्यूजिंग करेक्टर है. आप देखें तो एक दौर में वह अपना घर छोड़ कर भाग जाता है,जब अफ्गानिस्तान में स्थिति हुई थी. इसने अपने घर के सारे पैसे लगा दिये. फिर यह अमेरिका के खिलाफ हुआ. उस वक्त तक तो वह हीरो था. आप उस वक्त तक हीरो थे. लेकिन जब आप आम आदमी को मारने लगे तो आपने अपनी छवि को बर्बाद कर लिया. चेक ओवारा बन सकता था ओसामा उस दौर में, क्योंकि उसने मुसलिम समाज के कल्याण के लिए काफी कुछ किया. लेकिन  उसने अटैक शुरू किया. आम लोगों को मारना. फिर वह आतंकवादी बना.वहां आप जब जाते हो. टेरेरिस्ट  एक्टिविटी करते हो. तो वह सम्मान खो देते हो. इसी वजह से सिचुएशन बदला और जिहाद का पोस्टर ब्वॉय बना. जबकि वह अगर सही दिशा में काम करता रहता तो वाकई वह उनका हीरो होता. उसने जिस तरह रशिया को खदेड़ा. यह तो हकीकत है. वरना, वहां अंपायर था. उसे उल्टे पांव भगाने में महत्वपूर्ण हाथ रहा है उसका.
हर बार सटीक सटायर लिख पाना कितना कठिन होता है?
दरअसल, सटायर बहुत अंदरुनी चीज होती है. मेरे ख्याल से मेरे अंदर है. जैसे कुछ लोग डार्क फिल्म बना पाते हैं, कुछ लोग रोमांस में बहुत अच्छे हैं. मैं रोमांस में बहुत बुरा हूं. मैं जब जब रोमांटिक सीन लिखता होता हूं तो मैं इसी हद तक लिख पाता कि लड़का लड़की खा रहे होते हैं. सो, मैं उधर जाता ही नहीं हूं. लेकिन व्यंग्य मेरे अंदर कूट-कूट के भरा हुआ है. मेरे ख्याल से मेरी जिंदगी में जैसा हूं. वह निकल के आता है. मैंने इसे सेलेक्ट नहीं किया है.  इसने मुझे सेलेक्ट किया है. इस जॉनर ने. मैं सीरियस लिखते-लिखते व्यंग्य में ही चला जाता हूं. शायद मैं जिंदगी को भी इसी तरीके से देखता हूं. यह भी एक वजह है. मेरा यह भी मानना है कि सटायर लिखने के लिए मेकर का कंट्रेपररी होना भी जरूरी है. जैसे मेरा जन्म 1978 के बाद हुआ है. जब भारत में इमरजेंसी का दौर कट चुका था. लेकिन मैंने 9-11 को देखा, तो उसे लेकर मुझमें रोष होगा. उसे अच्छी तरह लिख पाऊंगा. चूंकि कनेक्ट कर पाऊंगा. मैं इस बात में विश्वास करता हूं. बाकी चीजें हिस्ट्रोरिकल चीजें होती हैं मेरे लिए. 
ेसटायर लिखने के लिए क्या चीजें प्रेरित करती हैं?
दरअसल, मेरा मानना है कि सटायर रोष प्रकट करने का एक जरिया है. क्राइसिस सिचुएशन है. एंगर रियेक् शन है. मेरे अंदर एंगर है. मैं कैसे रियेक्ट करूंगा, अगर मुझे गुस्सा आयेगा तो मैं उसे सटायर के माध्यम से प्रस्तुत करूंगा. सटायर में तंज होता है. सटायर में बिच्छू वाला डंक होता है और यह तभी आता है. जब आपके अंदर जहर  हो और सटायर लिखना चाहते हैं तो यह जहर होना ही चाहिए. जहरीला इंसान ही सटायर लिख सकता है. तेरे बिन लादेन के वक्त बहुत गुस्सा आता था मुझे. जो कुछ 9-11 को हुआ. उस मुद्दे पर काफी गुस्सा आता था मुझेय इस बार  ओसामा को वे बोल रहे हैं कि उन्होंने मार दिया है. लेकिन कोई प्रूव जारी नहीं किया है. और दुनिया का जो इंपैक्ट हुआ है. वह मेरा जहर है. गुस्सा है. आस-पास जो इनटॉलरेंस की बात हो रही है. तो इस तरह के विषय पर ही फिल्म बना पाऊंगा, क्योंकि ये विषय गुस्सा देते हैं. जहर और शराब में 19-20 का ही फर्क होता है. जहरीली शराब बन जाती है. मेरा मानना है कि सटायर जहरीली शराब है. फिर बात आती है कि गुस्से से कॉमेडी कैसे तो. इसका जवाब यह है कि गुस्सा तो इमोशन है, लेकिन जो दृष्टिकोण है दुनिया को देखने का वह तो फनी है. क्योंकि  हुमर का भी अपना दृष्टिकोण होता है. मुमकिन है कि जो मैं देखता हूं. और उसी चीज को आप देख रहे हैं. तो दोनों में अंतर है. तो बस ऐसे ही आती है गुस्से से कॉमेडी. मेरा प्रोसपेक्टीव ऐसा है. आप किसी का उपहास उड़ाते हैं, जो वह फिर ट्रीटमेंट हो जाता है.
सटायर जॉनर में किसे प्रेरणा मानते ?
 सटायर को लेकर तो पूरी तरह से नहीं कहूंगा. लेकिन हां, मुझे हमेशा से ही चार्ली चैप्लीन, हिचकॉक,गुरुदत्त, वुडी एलेन इन्हें मैं निर्देशक के रूप में अपनी प्रेरणा मानता हूं. अगर सटायर के क्षेत्र में कहूं तो अमेरिकन एक मैगजीन आती है. मैड मैगजीन, उसका प्रभाव मुझ पर काफी पड़ा है.
आपने काफी दुनिया देखी है. आप किस नजरिये से देखते हैं इसे?
मुझे यूरोपीय देश पसंद नहीं है. मुझे लगता है कि यूरोप के लोग अपनी पुरानी सोच को लेकर चलते हैं. अगर आप देखेंगे तो यूरोपीय सिनेमा भी बहुत कुछ कर नहीं पाया.हॉलीवुड के सिवा. मुझे अमेरिकन पॉलिसिज से नफरत है तो मुझे उनके कल्चर से उतना ही प्यार है. मेरी दुनिया या तो हिंदुस्तान है या तो अमेरिका है. इसके बीच में यूरोप समझ नहीं आया है. मुझे वहां की सभ्यता से खास लगाव नहीं है. मुझे लगता है कि वर्ल्ड वॉर के पहले से जो कल्चर था. वहां तक तो ठीक था. जब तक रशिया में नाटकों का माहौल था. ब्रिटेन में शेख्सपीयर का तो, पेंटिंग्स का कल्चर था. लेकिन वर्ल्ड वार दो के बाद वहां कुछ हो गया है. कुछ ओरिजनल मटेरियल फिर आया नहीं वहां से. पिकासो के बाद वहां कौन है. फिल्मों में फेलिनी, बर्गमैन रहे हैं. बाकी जो अच्छे फिल्म मेकर थे.सभी हॉलीवुड जाकर फिल्म बना कर आये. कल्चर का बहुत खास महत्व होता है, दुनिया को अपने वश में करने का.जैसे अमेरिका ने हॉलीवुड के जरिये बहुत कुछ कर लिया है. हिंदुस्तान भी बहुत कुछ कर सकता था. 
अमेरिका से इस कदर प्रेम की कोई खास वजह?
मुझे लगता है कि अमेरिका सभ्यता प्रेमी देश है. अमेरिका बहुत आजादी देता है.
मुझे तो लगता है कि भारत में भी काफी कुछ विकल्प थे और इमरजेंसी से पहले तक भारत में भी बहुत अच्छे काम हुए हैं. लेकिन इमरजेंसी के बाद लोगों को अपने हीरो में एंग्रीयंग मैन ही देखना था और वह कल्चर अब तक चला आ रहा है.वरना, उस दौर में ही आनंद भी बनती थी. अमेरिका में अलग अलग मूल्कों से जाकर लोग बसे हैं तो वहां वर्ल्ड कल्चर है. और इस वक्त वहां अमेरिका में हिंदुस्तानी बहुत अच्छा काम कर रहे हैं. मेरे ख्याल से 30 लाख लोग हैं, जिनका बड़ा नाम है. तो मुझे लगता है कि अमेरिका सबका है. अमेरिका में जाकर हिंदुस्तानियों ने भी कंट्रीब्यूट किया है. अमेरिका एक देश नहीं है. अमेरिका एक न्यू वेब है. अमेरिका अपने आपमें एक दुनिया है. इसलिए उससे प्यार है.
आप अपने  किरदारों को किस छवि में प्रस्तुत करना चाहते हैं?
मैं चाहता हूं कि मेरे किरदार बेवकूफ हों, क्योंकि आज की  तारीख में जो स्मार्ट है, वह फूल है. मूर्ख है. पिछली फिल्म में अली थे. इस बार मनीष है. जिसे लगता है कि उसे सब पता है. लेकिन मूर्ख बनते हैं. कहीं न कहीं वह मूर्ख है, क्योंकि वह यह नहीं जानता कि परिस्थितियां आपको कंट्रोल करतीं.  न कि आप खुद. तो मेरा मानना है कि मेरा हीरो मूर्ख होता है. चार्ली चैप्लीन का जो ट्रेंड था कि जो एक कॉमन आदमी है, लेकिन उसे लगता है कि उसे सबकुछ पता है और दरअसल, यह हमारी त्रासदी है कि हम सबको लगता है कि  हमें बहुत कुछ पता है. और हमें पता नहीं होता है.  मेरा मानना है कि कब तक एंग्रीयंगमैन दिखाते रहेंगे. कुछ तो मूर्खों को भी दिखायें. उनसे भी बातें करें. मैं खुद को मूर्ख ही मानता हूं. मुझे लगता है कि बॉलीवुड भी अब तक एल्फा मेल के माध्यम से ही चल रहा. मुझे बॉलीवुड से प्यार है. मुझे 70 तक का सिनेमा बहुत पसंद थी. उसके बाद जो बुरा दौर आया है. अब तक जारी है.
ओसामा के व्यक्तित्व  को वास्तविक जीवन में किस तरह देखते आप ?
ओसामा मेरे लिए बहुत कंफ्यूजिंग करेक्टर है. आप देखें तो एक दौर में वह अपना घर छोड़ कर भाग जाता है,जब अफ्गानिस्तान में स्थिति हुई थी. इसने अपने घर के सारे पैसे लगा दिये. फिर यह अमेरिका के खिलाफ हुआ. उस वक्त तक तो वह हीरो था. आप उस वक्त तक हीरो थे. लेकिन जब आप आम आदमी को मारने लगे तो आपने अपनी छवि को बर्बाद कर लिया. चेक ओवारा बन सकता था ओसामा उस दौर में, क्योंकि उसने मुसलिम समाज के कल्याण के लिए काफी कुछ किया. लेकिन  उसने अटैक शुरू किया. आम लोगों को मारना. फिर वह आतंकवादी बना.वहां आप जब जाते हो. टेरेरिस्ट  एक्टिविटी करते हो. तो वह सम्मान खो देते हो. इसी वजह से सिचुएशन बदला और जिहाद का पोस्टर ब्वॉय बना. जबकि वह अगर सही दिशा में काम करता रहता तो वाकई वह उनका हीरो होता. उसने जिस तरह रशिया को खदेड़ा. यह तो हकीकत है. वरना, वहां अंपायर था. उसे उल्टे पांव भगाने में महत्वपूर्ण हाथ रहा है उसका.

20160217

फैन और शहर


शाहरुख खान दिल्ली में अपने कॉलेज हंसराज लौटे. कई सालों के बाद. उन्होंने कॉलेज से अपनी डिग्री के सर्टिफिकेट भी लिये, जो वे कई सालों से नहीं ले पाये थे. वहां उन्होंने अपनी आनेवाली फिल्म फैन का गाना रिलीज किया.इस गाने में वे फैन के रूप में नजर आ रहे हैं, जो दिल्ली का ही रहनेवाला है. निर्देशक मनीष शर्मा ने शायद गौरव के किरदार को दिल्ली शहर का इसलिए दर्शाया होगा, चूंकि शाहरुख भी दिल्ली से हैं और यह हकीकत है कि हमें अपने शहर की शख्सियत को आदर्श बनाना पसंद है. हम उस हर शख्स में अपना आदर्श ही देखते हैं, अगर वह हमारे अपने शहर से हो तो. चूंकि उन्हें देख कर हमारे रोंगटे खड़े होते हैं और अंर्तरात्मा से यह आवाज आती है कि अगर यह कर सकते तो हम क्यों नहीं. शाहरुख ने किसी न किसी रूप में ंिंनश्चित रूप से दिल्ली के कई लोगों को प्रभावित किया होगा. उनकी फिल्मी एंथम के शब्दों में कहें तो शाहरुख ने कई लोगों के दिल में टंटा किया होगा. फिर कुछ लोग इसे स्वीकारते हैं, कुछ नहीं. कंगना को खुशी मिलती है,जब कोई उनके शहर की लड़की आकर उन्हें कहती है कि उन्होंने उसे हिम्मत करने की हिम्मत दी है. सिर्फ कलाकार ही नहीं, निर्देशक भी लोगों को प्रभावित करते हैं. आज भी फिल्मी आइकॉन में इम्तियाज अली से बड़ा आइकन झारखंड में कोई दूसरा नहीं. चूंकि इम्तियाज ने अपनी एक अलग पहचान खुद स्थापित की. पूरा इलाहाबाद आज भी अपनी बातों में इस बात का जिक्र करना नहीं भूलता, कि अमिताभ उनके शहर से हैं. कोई राबता न होते हुए भी इन शख्सियतों को हम ऐसे झटके से अपना मान बैठते हैं, जितने प्यार से हम उस शहर के खान-पान का दावा करते हैं. जैसे इंदौर ने जलेबी को अपना लिया है और आगरा पेठे पर अपनी राजसी ठाठ समझता. उम्मीदन इन पहलुओं को भी छूने की कोशिश होगी फैन में.

talak talak



पिछले काफी दिनों से खबरें आ रही थीं कि अरबाज खान और मलाईका अरोड़ा खान तलाक लेंगे और दोनों एक दूसरे से अलग हो रहे हैं. लेकिन आखिरकार अरबाज ने एक वीडियो के माध्यम से इन सारी बातों को अफवाह मात्र बताया. उन्होंने यह जाहिर किया है लोगों का काम तो कहना ही होता है.उन्होंने गाने के माध्यम से स्पष्ट किया है कि यह सारी बातें अफवाह हैं.पिछले दिनों फरहान अख्तर और अधुना अख्तर ने भी अलग होने का निर्णय लिया और मीडिया में ये खबरें छाई रहीं कि अदिति राव हैदिरी की वजह से दोनों में दूरियां आयीं. पुलकित सम्राट और यामी गौतम को लेकर भी चर्चे होते रहे. अरबाज खान ने मीडिया को दोष दिया है. लेकिन वे इतने दिनों से जब खबरें उड़नी शुरू हुई थीं. उसी वक्त इसे निराधार साबित करने सामने क्यों नहीं आये. क्यों उन्होंने चुप्पी साध कर हवाओं को और तेज किया. सोनी टीवी के एक रियलिटी शो में भी वे अपने प्यार का इजहार बार बार करते नजर आ रहे थे. यामी और पुलकित अब स्वीकार रहे हैं कि फिल्म सनम रे के लिए यह सारी अफवाहें फैलाई गयीं. दूसरी तरफ ऐसी खबरें कि एक इंटेंस दृश्य की वजह से फरहान और अधुना अलग हो सकते हैं. दरअसल, हकीकत यही है कि हिंदी सिनेमा में कुछ स्टार्स इन बातों की खुशियां मनाते हैं कि कम से कम इसी बहाने उन्हें लगातार लोकप्रियता मिल रही होती है. और वही दूसरी तरफ कुछ कलाकारों को इन बातों से नाराजगी होती है कि क्यों मीडिया उनकी जिंदगी में दखल दे रहा है. यह भी हकीकत है कि लोगों की दिलचस्पी इस विषय पर लगातार बनी रहती है. लोगों को लोगों के जुड़ने से अधिक टूटते हुए देखने में मजा आता है. उन्हें दूसरों के शीशों के घरों में झांकना भी पसंद है और टूटे शीशों की खनक में भी उन्हें एक सुकून मिलता है. लेकिन स्टार्स भी ऐसी खबरों से कम लोकप्रियता नहीं बटोरते 

अंगूरी की सासू अम्माजी


भाभीजी घर पर हैं की अंगूरी जब भी निराश होती हैं तो वह सबसे पहले अपनी सासू मां को याद करती है. जब पति तिवारीजी अंगूरी को समझाते हैं कि तुम ऐसा क्यों करती हो...सारी बात मां से बतानी जरूरी है क्या. इस पर अंगूरी के दो टूक जवाब होते हैं कि आपको पता नहीं का...कि हम अम्माजी से सबकुछ शेयर करते हैं. इस शो में तिवारीजी की अम्मा बहू की बात सुनती हैं और बहू में कमियां निकालने की बजाय वह पूर्ण रूप से बहू का ही समर्थन करती हैं. वह अपने बेटे को बैल कह कर बुलाती है और बहू की एक आवाज में वह बेटे को लतियाने या बातें सुनाने में नहीं हिचकती. दरअसल, इस किरदार के गढ़े जाने के लिए निर्देशक शंशाक बाली और लेखक मनोष संतोषी हर रूप से बधाई के पात्र हैं, कि उन्होंने एक ऐसी सास का एक ऐसा रूप भी छोटे परदे पर गढ़ा है, जिसमें सासू मां बहू को बेटी मान रही है और अपने बेटे को बैल कहने से नहीं हिचकती. वरना, हमारे सामाजिक ढांचे में कौन-सी मां अपने बेटे में कमियां निकालते हुए बहू को सपोर्ट करती हैं. जब मैंने इन शो के  शुरुआती एपिसोड देखे तो मेरे जेहन में यही बात थी कि अम्माजी अंगूरी की माताजी हैं. और अपनी बेटी को लेकर वह इतनी फिक्रमंद रहती हैं. लेकिन जब ज्ञात हुआ कि वह सासू मां हैं तो वाकई निर्देशक और लेखक के प्रति सम्मान बढ़ा. चूंकि यह हकीकत है कि टेलीविजन पर सासू मां की उन्हीं छवियों को दिखाया जाता रहा है, जो अपने बेटे को भगवान और बहू को सारी गलतियों की जिम्मेदार मानती आयी हैं. यह हकीकत भी है कि अधिकतर ससुराल में बहू को लेकर यही सोच बनी रहती है. सास की उम्मीदें बहू से यही होती है कि वह किस तरह बेटे का ख्याल रखे और उसकी खुशियों को पूरा करें. बहू की खुशियों की चिंता शायद ही उनकी प्राथमिकता रही हो. इस शो में एक खास संदेश है. अगर वाकई सास-बहू का रिश्ता ऐसा हो तो, लड़कियों को शायद ही मां की कमी महसूस हो.

नकल की कीमत


कृष्णा अभिषेक कलर्स चैनल पर नये शो के साथ आये हैं. रंग रूप वही है. बस होस्ट बदल गये हैं. अपने पहले एपिसोड में जहां उनकी कोशिश होनी चाहिए थी, कि वे अपनी पहचान स्थापित करें. उन्होंने पूरा का पूरा एपिसोड ही कपिल शर्मा की खिल्ली उड़ाने में निकाल दी. जाहिर है चैनल ने भी लेखक को पूरी स्वतंत्रता दी होगी कि व ेपुराने होस्ट की जम कर खिल्ली उड़ायें. इसी चैनल पर एक शो और भी प्रसारित होता है, जहां सेलिब्रिटीज को बुला कर उनका मजाक उड़ाया जाता है. एआइबी रोस्ट का यह देसी वर्जन भी नहीं, बल्कि बी ग्रेड वर्जन कहा जा सकता है. लेकिन फिर भी इसे लोकप्रियता मिल रही है और इसी लोकप्रियता के आधार पर कॉमेडी नाइट्स में भी वे धमाल मचा लेंगे. हकीकत यह भी है कि अगर वाकई शो का पूरा कांसेप्ट ही बदल दिया जाता और नये सिरे से नये शो की परिकल्पना की जाती तो संभव था कि इस शो को भी दर्शकों का प्यार मिलता है. दरअसल, यह सिर्फ इस शो तक सीमित नहीं, यह एक बड़ी हकीकत है कि इन दिनों हम खुद को निखारने की बजाय दूसरों की टांग खींचने की अधिक कोशिश करते हैं. राजकुमार हिरानी ने फिल्म 3 इडियट्स में इसे बखूबी दर्शाया है कि अपने अंक कम आये फर्क नहीं पड़ता. लेकिन दोस्त को ज्यादा अंक आ जाने पर बहुत दुख होता है. यह एक बड़ी सच्चाई है. ऐसा नहीं है कि कपिल के शो में कमियां नहीं थीं. या वही श्रेष्ठ थे. लेकिन कपिल ने अपनी पहचान, अपने शो के किरदारों की पहचान अलग तरीके से बनायी. शेष कलाकार उन्हें कॉपी करने की बजाय, या उन्हें फॉलो करने की बजाय अपनी मौलिकता से कुछ गढ़ें. तो नये प्रयोग भी होंगे और शायद दर्शकों को वे रास भी आयें.वरना, उन्हें नकल की कीमत चुकानी होगी. 

सोनू की गायिकी पर हाय-तौबा


सोनू निगम ने हाल ही में फ्लाइट में लोगों का मनोरंजन किया तो उस एयरवेज में मौजूद 5 क्रू मेंबर को नौकरी से बरखास्त किया गया है. एयरलाइन का मानना है कि सोनू के इस तरह फोन के इस्तेमाल से सुरक्षा व्यवस्था में परेशानी हो सकती है. इसे लेकर काफी शोर शराबा है. यहां तक कि सोनू निगम की गिरफ्तारी की भी बातें की जा रही हैं. हाल ही में शबाना आजिमी से मुलाकात हुई. उन्होंने अपने मन की बात कही कि उन्हें अपने फैन्स से बेहद प्यार है, लेकिन अगर वे शॉपिंग करने के लिए निकले और लोग उनसे मिल कर सेल्फी लेने की कोशिश करते हैं, तो उन्हें यह बात जरा भी अच्छी नहीं लगती. एक विज्ञापन है. कंगना और अमिताभ साथ हैं उसमें. उस विज्ञापन में कंगना एक के बाद एक अमिताभ से फिल्मों के प्रसिद्ध संवाद बोलने की डिमांड करती है. दरअसल, हकीकत यही है कि सेलिब्रिटीज को खुद यह बातें पसंद नहीं आती कि वे आम जिंदगी जी रहे हों और लोग उनका पीछा करें. मेहमूद साहब ने एक इंटरव्यू में कहा है कि उन्हें जब भी लोग किसी सार्वजनिक स्थान पर देखते थे. उनसे चुटकुला सुनाने की डिमांड करते थे. इसमें दोष फैन का भी नहीं है, क्योंकि उन्हें अपने सितारों से इस कदर आमने-सामने होने के मौके ही कम मिलते हैं. हाल ही में शाहरुख खान से मिलने की होड़ में एक महिला एयरफोर्ट पर खुद को जख्मी कर चुकी हैं. जाहिर है, जब सोनू उस फ्लाइट में रहे होंगे. आस-पास के सहयात्रियों के लिए वे वहां चर्चा का विषय रहे होंगे. फ्लाइट की यात्रा यों भी बहुत ऊबाऊ होती है. चूंकि लोग आपस में बातचीत नहीं करते. वे अपने स्तर के दिखावे में ही परेशान रहते हैं. ऐसे में सोनू ने अगर पांच मिनट अपनी गायिकी से लोगों का मनोरंजन किया तो इसमें हाय तौबा मचाये जाने की इतनी बड़ी बात नहीं थी. जिस तरह से सेलिब्रिटीज पर इस तरह लगातार हमले हो रहे हैं. सेलिब्रिटिज यो भी दिल से कम चीजें करते. अब वे और अधिक सजग हो जायेंगे.

नटसम्राट-एक आवश्यक फिल्म


हाल ही में महेश मांजरेकर की फिल्म नटसम्राट देखने का मौका मिला.नाना पाटेकर ने फिल्म में मुख्य अभिनय किया है. फिल्म की कहानी एक अभिनेता की जिंदगी के इर्द-गिर्द है. एक एक्टर बतौर थियेटर आर्टिस्ट ने अपने 40 साल थियेटर को दिया और उसके बाद उसने रिटायर होने का फैसला किया. लेकिन जिंदगी की असल कहानी उसे उस वक्त पता चली, जब उसने अभिनय छोड़ा. फिल्म के कई संवाद, कई दृश्य एक कलाकार की जिंदगी की हकीकत को बयां करते हैं. एक अभिनेता को हमेशा एक एक्टर के रूप में ही प्राण छोड़ने चाहिए... फिल्म में इस बात को बखूबी चरितार्थ किया गया है. एक एक्टर हमेशा किस तरह असुरक्षित जिंदगी जीता है और दूसरा कलाकार किस तरह हमेशा उससे ईर्ष्या करता. इसे भी संवेदना के साथ दर्शाया गया है. वही दूसरी तरफ ऐसा अक्सर होता है, कि कोई कलाकार किसी दूसरे कलाकार से कमतर हो. मगर फिर भी वह अधिक कामयाब है. यह बात की किसी अधिक काबिल कलाकार को अंत तक सालती रहती है. फिल्म के एक दृश्य में नाना का किरदार अपने निभाये गये सभी पात्रों से सवाल करते हैं, कि मैंने तुम्हारे दर्द को 40 साल तक झेला है. क्या कोई मेरा दर्द इतने सालों तक झेल पायेगा. दर्शा पायेगा. दरअसल, नटसम्राट उस हर कलाकार की कहानी है, जिसने खुद को कला को पूर्ण रूप से समर्पित किया. वह थियेटर छोड़ने के बावजूद अपनी आत्मा को अभिनय से दूर नहीं कर पाता. उसकी जिंदगी में उसे जब भी मौके मिलते हैं. वह अभिनय करता है. एक कलाकार की जिंदगी की कई हकीकत इस फिल्म में बयां होते हैं और नाना ने इसे जिस संजीदगी से निभाया है. यह सिर्फ मराठी भाषा नहीं, बल्कि हर भाषा-भाषी के दर्शकों को अवश्य देखनी चाहिए, ताकि वे भी एक कलाकार की मर्म को समझें और कलाकार को इसलिए देखनी चाहिए ताकि उन्हें यह महसूस हो कि उनकी बात को किसी कलाकार ने किसी सम्मान से लोगों के सामने दर्शाया है.

कलाकारों को तवज्जो


हाल ही में फिल्मफेयर अवार्ड की समाप्ति हुई. हर वर्ष की तरह इस वर्ष फिल्मफेयर में रौनक नजर नहीं आयी. यहां तक कि शाहरुख खान भी बहुत अधिक ऊर्जावान नजर नहीं आये. जबकि यह शाहरुख की खासियत रही है कि उन्होंने जब जब किसी अवार्ड शो की एंकरिंग की है. जान डाली है. शो को जीवंत बनाया है. लेकिन इस बार कुछ ऐसे वाक्ये भी हुए, जिससे यह अहसास हुआ कि धीरे धीरे ही सही इरफान खान सरीके कलाकारों को अपनी मौजूदगी दर्शाने के मौके मिल गये हैं. शायद फिल्मफेयर के इतिहास में यह पहली बार होगा, जब इरफान खान को शाहरुख खान के साथ न सिर्फ स्टेज शेयर करने का मौका मिला, बल्कि उन्हें तवज्जो भी दी गयी. इससे स्पष्ट होता है कि वाकई सुपरस्टार्स की लीग में इरफान जैसे दक्ष अभिनेता भी अब शामिल होने लगे हैं. अब उन्हें भी ग्लैमर की दुनिया में जगह मिल रही है. संजय मिश्रा को भी एक्ट करने के मौके मिले और बाद में उनके लिए जम कर तालियां बजीं. यह बदलाव यों ही नहीं है. यह हकीकत है कि देर से ही सही इरफान, संजय मिश्रा जैसे कलाकारों ने साबित किया है, कि उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. इरफान ने हॉलीवुड में अपनी खास जगह बनाई है. और संजय मिश्रा ने आंखों देखी जैसी फिल्मों से चौंकाया है.और खास बात यह है कि उन्हें नोटिस किया जा रहा है. तवज्जो दी जा रही है. यह बदलाव के ही संकेत हैं. इसी दौरान आलिया-शाहरुख ने जो  जुगलबंदी प्रस्तुत की. वह काफी बोरिंग थी. आलिया जिस गर्व के साथ शाहरुख को कहती हैं कि अपनी पैंट उतारो...यह न सिर्फ शाहरुख की, बल्कि उस फर्टिनिटी का अपमान है, जो आलिया से वरिष्ठ हैं. आलिया के ये शब्द दर्शाते हैं कि वाकई उनका जेनरेशन वरिष्ठों की पैंट उतरवाने को ही कूल होना मानते हैं. लेकिन यह कतई शोभनीय नहीं था.

निर्देशक का पीछे लौटना


निर्देशक हंसल मेहता ने अपनी बातचीत के दौरान इस बात का जिक्र किया कि उन्होंने शुरुआती दौर में जिस तरह की फिल्में बनायी, और जिस तरह वे लगातार फ्लॉप होती गयीं. उन्हें एहसास हुआ कि उन्हें इस बारे में गहन चिंता करनी चाहिए कि आखिर उनकी फिल्मों में कमी क्या रह जा रही है और उस वक्त उन्होंने समझा कि दरअसल, उन फिल्मों में उनका दिल नहीं है. वे जो हैं. वह फिल्म में नजर नहीं आ रहा और उन्होंने सिटिलाइट्स, शाहिद जैसी फिल्में बनाना शुरू की और आज उनके अंदर का निर्देशक कुछ हद तक संतुष्ट है. उनके अंदर के निर्देशक ने ही उन्हें अलीगढ़ जैसी फिल्में बनाने की प्रेरणा दी है. स्पष्ट है कि एक निर्देशक के लिए कई बार पीछे मुड़ना भी जरूरी है. उसे इस बात का भी ज्ञान जरूरी है कि आखिर वे करना क्या चाहते हैं या वे किस तरह की फिल्मों के लिए बने हैं. शायद यही यह वजह थी जिसने इम्तियाज अली को किसी दौर में भट्ट साहब के लिए लिखी जा रही एक फिल्म करने से रोक दिया था. चूंकि इम्तियाज समझ गये थे कि वे उस फिल्म के साथ न्याय नहीं कर पायेंगे. बाद में सोचा न था से उन्होंने पहली शुरुआत की. अक्सर ऐसा होता है कि कामयाबी मिलने के बाद पीछे लौट पाना और अपनी दिल की बातों को सुनना कठिन होता है. यह हकीकत है कि संजय लीला के दिल में खामोशी, ब्लैक, गुजारिश जैसी फिल्में रहीं. लेकिन उन्हें महसूस हुआ कि राउडी से उन्हें धन प्राप्त होगा तो बतौर निर्देशक वह राउडी जैसी फिल्मों की तरफ मुड़े. लेकिन यह भी हकीकत है कि उन्हें संतुष्टि तो बाजीराव मस्तानी जैसी फिल्मों से ही मिलती है. हर निर्देशक, हर कलाकार के लिए दरअसल, एक बार पीछे मुड़ना व आत्म मंथन जरूरी है कि क्या वे जिस राह पर हैं, जो वह कर रहे. उससे आत्म संतुष्ट है या नहीं. तभी अलीगढ़ जैसी फिल्मों का निर्माण हो सकता. 

मनोज बाजपेयी का तांडव


मनोज बाजपेयी ने हाल ही में देवाशिष मखिजा की शॉर्ट फिल्म तांडव में एक ऐसे पुलिस आॅफिसर की भूमिका निभाई है, जो अपनी आम जिंदगी से बहुत त्रस्त आ चुका है और वह एक दिन जब उसकी सब्र की सीमा टूटती है तो वह मजे में एक पार्टी में डांस करने लगते हैं. निर्देशक ने इसे ही ताडंव के रूप में दर्शाया है. सोशल साइट्स पर इस तरह के कई वीडियो जारी होते रहे हैं, जहां कई पुलिस आॅफिसर कई बार अपने मनोरंजन के लिए कभी कभी थिरकते नजर आने लगते हैं और उन चंद मिनटों में वे यह भूल जाते हैं कि उन्हें इस छोटे से मनोरंजन के लिए अपनी नौकरी भी गंवानी पड़ सकती है. दरअसल, हकीकत यही है कि इंसान ताउम्र खुशी की तलाश में ही अपना पूरा जीवन नष्ट कर देता है. कुछ तो खुद के कारण और कुछ नौकरी और मजबूरियों के कारण और जब उन्हें ऐसे में चंद लम्हे भी खुशियां बांटने को मिलती है तो लोगों को वह भी गंवारा नहीं होता है. यह हकीकत है कि पुलिस वालों की जिंदगी में भी कई दर्द होते हैं. खासतौर से उन सेवकों की जिंदगी में जिसने वाकई कभी रिश्वत नहीं ली है. ऐसे में एक लम्हा होता है, जब उन्हें चंद लम्हों की खुशियों की दरकार होती है. लेकिन यह अवधारणा मात्र बना कर रखना कि पुलिस वाले की जिंदगी में कोई दर्द नहीं. और उन्हें मनोरंजन का हक ही नहीं. सरासर गलत है. रानी मुखर्जी ने फिल्म मर्दानी की शूटिंग के दौरान बताया था कि वे जितने भी अफसरों से मिली हैं. वे किस तरह अपने परिवार को लेकर हमेशा चिंतित रहते हैं कि न जाने अगले पल क्या होगा. उन्हें अपनी हर गतिविधियों पर ध्यान रखना पड़ता है. उनकी जिंदगी में कई जोखिम हैं. लेकिन अगर उसमें उन्हें कभी वाकई थोड़ी खुशियां हासिल करने की इच्छा हो तो तब भी उन्हें कई नियमों में बांध दिया जाता है. मनोज बाजपेयी ने कम समय में ही इस वर्ग के लोगों के दर्द का सजीव चित्रण किया है.

निर्देशक का निर्णय


ऋषि कपूर ने राज कपूर की फिल्म मेरा नाम जोकर में राज कपूर के बचपन का किरदार निभाया है. लेकिन वे राज कपूर की पहली पसंद नहीं थे. राज कपूर की इच्छा थी कि पहले वह फिल्म से रंधीर कपूर को लांच करें, क्योंकि वह ऋषि के बड़े भाई हैं. लेकिन राज कपूर ने जब ऋषि कपूर का स्क्रीन टेस्ट लिया तो महसूस किया कि ऋषि ही किरदार में फिट बैठ रहे हैं. और यही वजह रही कि उन्होंने ऋषि को पहला मौका दिया. राज कपूर द्वारा किये गये इस निर्णय से यह बात साफ स्पष्ट होती है कि राज कपूर फिल्म बनाते वक्त पहले एक निर्देशक, एक क्रियेटिव व्यक्ति थे. बाद में वह पिता थे और यह उनकी पारखी ही नजर थी, कि उन्होंने अपने दोनों बेटों के हुनर को उस दौर में ही समझ लिया था. दरअसल, यही क्रियेटिवटी के क्षेत्र की सबसे बड़ी मांग भी है कि व्यक्ति इस बात से वाकिफ हो जाये कि उसमें क्या खूबियां हैं और कमियां हैं. राज कपूर का यह निर्णय एक निर्देशक का उसकी फिल्म के साथ किया गया न्याय है. जबकि कई निर्माता इस बात को अब तक नहीं समझ पाये हैं और वे जबरन अपने बेटे को अभिनेता बनाने की होड़ में लगे रहते हैं. चाहे फिर उन्हें इसके लिए कितना धन जाया न करना पड़े. अभिषेक कपूर की फिल्म फितूर आयी है. उन्होंने खुद यह बात स्वीकारी है कि उन्हें यह बात समझ में आ गयी थी कि वे अभिनेता नहीं बन सकते और उन्होंने अपना रास्ता बदल लिया और आज वह सफल निर्देशक हैं. सलीम खान भी अभिनेता बनने का ख्वाब लेकर ही आये थे. प्राण साहब को भी लीड किरदार निभाने की ही इच्छा थी. यह बिल्कुल जरूरी नहीं कि हम लीड और सेंट्रल किरदार निभा कर ही सारी लोकप्रियता हासिल कर सकते. कभी कभी नवाजुद्दीन सिद्दिकी और इरफान खान जैसा रुख इख्तियार कर भी जगह बनायी जा सकती है. काश कि कुछ बड़े निर्माता इन बातों को समझते.

कलाकार की बातें


शाहरुख खान की फिल्म रईस की शूटिंग गुजरात के अहमदाबाद में हो रही है और वहां से लगातार खबरें आ रही हैं कि किस तरह उनकी गाड़ी को या उनके नाम पर हंगामा मच रहा है. गौरतलब है कि शाहरुख खान ने कुछ महीनों पहले असहिष्णुता के मुद्दे को लेकर अपनी बात रखी थी. इसका सीधा असर उनकी फिल्म दिलवाले पर भी हुआ है. सोशल नेटवर्र्किंग साइट्स पर भी लगातार उन्हें और आमिर खान को लेकर हंगामा बरप रहा है. लोग आमिर खान और शाहरुख खान दोनों की फिल्मों के बहिष्कार की बातें कर रहे हैं. शबाना आजमी मानती हैं कि कलाकारों को अपनी आवाज बुलंद करनी ही चाहिए, चूंकि लोग जानते हैं कि अगर उनकी आवाज बुलंद होगी और वे जो बातें कहेंगे. लोगों पर इन बातों का फर्क पड़ता है और इस वजह से उनकी आवाज को दबाया जाता रहा है. मनोज बाजपेयी भी इन्हीं बातों से इत्तेफाक रखते हैं. हकीकत यही है कि अगर कलाकार वाकई अपनी बात रखने के लिए स्वतंत्र नहीं होंगे और लगातार यह मुद्दे सामने आ रहे हैं. इस तरह तो कलाकार या तो बाध्य हो जायेंगे कि वे वाकई सिर्फ अभिनय से सरोकार रखें या फिर वे ऐसे मुद्दों पर अपनी जुबान नहीं खोल पायेंगे. फिर किसी कलाकार से हम क्यों उम्मीद रखते हैं कि आप अपनी बात को खुलेतौर पर दर्शकों के सामने रखे. पूरे देश में जिस तरह का माहौल है, वहां इस बात को यकीन के साथ कहा जा सकता है कि  फिल्म इंडस्ट्री ही वह जगह है, जहां आज भी लोग स्वतंत्रता से जात-पात से ऊपर उठ कर न सिर्फ काम करते हैं, बल्कि उस तरीके से सोचते भी हैं और यह स्वतंत्रता बरकरार रहनी जरूरी है.अशोक कुमार और मंटो में यूं ही गहरी दोस्ती नहीं हुई थी.दिल्ली में हाल ही में हुए रेख्ता कार्यक्रम से सबक लिया जाना चाहिए और ऐसी गतिविधियों की लोकप्रियता को बढ़ावा देना चाहिए.

टीम शोले एक साथ


हाल ही में हेमा मालिनी ने एक नयी पारी की शुरुआत की है. उन्होंने पहली बार प्लेबैक सिंगिंग किया है. इस मौके की खास बात यह थी कि अरसे बाद इस एलबम की लांचिंग में शोले की पूरी टीम ने शिरकत की. याद हो, कि हाल ही में शोले ने 75 वर्ष पूरे किये थे. लेकिन फिल्म की इतनी बड़ी कामयाबी के दिन भी यह टीम एक साथ नहीं आयी थी. सो, सिनेप्रेमियों के लिए यह शाम खास रही. खास बात यह भी थी कि जया, अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र, हेमा और रमेश सिप्पी सभी बेहद मजाकिया अंदाज में नजर आये. और एक दूसरे से तुकबंदी करते हुए जिस तरह चारों कलाकार बातें कर रहे थे, इससे स्पष्ट होता है कि उस दौर में इन सभी की किस तरह से टयूनिंग रही होगी और कितने किस्से बनते होंगे. अमिताभ यह बात कई बार दोहरा चुके हैं कि वे और धर्मेंद्र जूहू में बिल्कुल निकट रहते हैं. अमिताभ अगर जोर से चिल्ला दें तो धर्मेंद्र उनकी आवाज सुन लेंगे. दोनों के घर में इतनी ही दूरी है. लेकिन फिर भी वे कभी घर पर नहीं मिल पाते. अमिताभ जब जब यह बात दोहराते हैं, जेहन में एक बात आती है.  कल्पना कीजिए, वाकई ये कलाकार सभी झंझावातों से दूर एक दिन खुद के लिए निकालें और चुपके-चुपके की थीम पर छुप्पन छुप्पाई का खेल खेलें. तो कभी धर्मेंद्र उन्हीं के घर में बने किसी स्टैचू से पीछे से आकर कुछ बोलें और जवाब में हेमा कहतीं क्योंकि ये कौन बोला. अमिताभ जया को अपनी बगिया में लगे पेड़ पौधों के गुणों के बारे में जया को बता रहे होते और हेमा व जया सुनहरी धूप में इस दृश्य का मजा लेते नजर आयें तो वाकई यह कितना सुकून देने वाला दृश्य होता है. लेकिन यह हकीकत है कि यह सिर्फ कल्पनाओं में ही मुमकिन है. यह एक सिनेप्रेमी की चाहत भर ही है.बहरहाल,तमाम बातों के बावजूद जब जब ये कलाकार साथ आयेंगे, इनका खुमार सिर चढ़ कर ही बोलेगा.

प्यार में फितूर जरूरी नहीं : कट्रीना कैफ


कट्रीना कैफ फिल्में करें या न करें. परदे से वे दूरी भले ही बना कर रखें. लेकिन उनके प्रेम प्रसंग हमेशा ही चर्चे में रहते हंै और इस बार तो उनकी फिल्म फितूर ही एक प्रेम कहानी है. उनका मानना है कि लंबे अरसे के बाद उन्होंने कोई ऐसी प्रेम कहानी में काम किया है. 
फिल्म को हां कहने की खास वजह क्या रही?
मैंने उपन्यास पढ़ी थी. बहुत साल पहले. ग्रेट एक्सपेक्सटेशन. जिस पर यह फिल्म है. यह उपन्यास मेरी पसंदीदा उपन्यास में से एक रही है. बहुत ही रोमांटिक कहानी है.लार्जर देन लाइफ कहानी है. काफी ड्रामा है. काफी प्यार है. मुझे हमेशा से यह लगता था कि इस पर बहुत अच्छी फिल्म बन सकती है. और जब मैंने यह सुना कि अभिषेक यह फिल्म बनाने वाले हैं तो मुझे उसी वक्त एक कनेक् शन सा महसूस हो गया था. मुझे लगा कि यह फिल्म मेरे लिए है. ऐसा नहीं है कि मैं फिरदौस की तरह हूं वास्तविक जिंदगी में इसलिए कनेक् शन हुआ. लेकिन कुछ कनेक् शन सा दिखा मुझे.अभिषेक के पास क्राफ्ट है. और मुझे लगा कि मुझे इस फिल्म का हिस्सा बनना चाहिए. मुझे लगता है कि लिटरेचर पर फिल्में बननी चाहिए. लेकिन कठिन होता है.चूंकि  काफी बड़ा कैनवास होता है लिटरेचर पर फिल्में बनाने के लिए. ऐसे में अभिषेक अगर थोड़ी कोशिश कर वह कैनवास रच पा रहे हैं तो मुझे लगता है कि यह कमाल की बात है.
किरदार के लिए क्या तैयारी की है?
इस बार मेरे लिए कई चीजें नयी हुईं कि मैंने इस फिल्म के लिए वर्कशॉप से अधिक निर्देशक के साथ कनवरसेशन किया है. बातचीत अधिक की है. ताकि किरदार को समझ पाऊं. डायलॉग कोच की मदद ली है. इस फिल्म में मैंने निर्देशक के दिमाग को समझने की कोशिश की है. वर्कशॉप से ज्यादा. यह एक अलग अनुभव रहा मेरे लिए. यह मेरे लिए कांप्लीकेटेड कैरेक्टर रहा है. बाकी फिल्मों से जुदा किरदार रहा. यह आम रोमांटिक किरदार नहीं है. काम्पलेक्स किरदार है. खास बात यह है कि मैं फिरदौस की तरह बिल्कुल नहीं थी तो मुझे किरदार में ढलने के लिए और वक्त लगा. फिरदौस हमेशा अपने दिमाग से नहीं, बल्कि मां के दिमाग से चलती है. और निजी जिंदगी में मैं एक आत्मनिर्भर महिला हूं. फिरदौस इमोशनल है. जेंटल गर्ल है. सॉफ्ट गर्ल है.लेकिन मैं वैसी नहीं हूं.  हां, मगर मैं यह जरूर मानती हूं कि कुछ किरदार होते हैं जो आपके दिमाग में रह जाते हैं और कभी कुछ ऐसा हो तो आप उस किरदार को याद करते हैं. लेकिन हमेशा उन्हें याद करूं. ऐसा नहीं होता.
कश्मीर को हमेशा मोहब्बत का शहर माना जाता है. वहां की फिजाओं में रुमानियत रही है. ऐसे में आपको मौका मिला कि आप वहां एक प्रेम कहानी में काम करें तो वह अनुभव कैसा था.
जी बिल्कुल. कश्मीर मेरी पसंदीदा जगहों में से एक है. मैं वहां इससे पहले जब तक हैं जान की शूटिंग के लिए भी गयी थी. यह रुमानी जगह है. खास बात यह है कि आप जब कोई कविता या कहानी पढ़ें, जो रुमानी हो तो कश्मीर को देख कर आपके जेहन में यह बात आती है कि यही वह जगह है, जिससे उस कविता या कहानी की जगह मेल खाती है.कश्मीर इतना खूबसूरत शहर है कि महिलाओं की खूबसूरती को भी कश्मीर से कई बार जोड़ा गया है. मुझे याद है, यशजी के साथ जब मैं वहां गयी थी तो यशजी ने ही यह बात कही थी कि अगर औरत की खूबसूरती को एक शब्द में बताना है तो कश्मीर कह दें. वह औरत खुद समझ जायेंगी कि उन्हें क्या कहा जा रहा है. यह मेरे लिए संयोग है कि मेरी जिंदगी की जो रोमांटिक फिल्मों में मुझे इस जगह की साक्षी बनने का मौका मिला है.
रेखा जी के साथ न काम करने का अफसोस है? तब्बू से जुड़ने की खुशी कैसी थी?
रेखा जी के साथ मैंने तीन दिनों की शूटिंग की थी और उनसे मेरा एक गहरा रिश्ता रहा है. वह फिल्मों तक सीमित नहीं है. मैं उनसे यूं भी काफी बातें करती हूं और उनसे काफी कुछ सीखा है. तब्बू जी के साथ पहले से मैं उतनी कनेक्ट नहीं थी. लेकिन जब वह फिल्म से जुड़ीं और उनसे जो कनेक् शन हुआ. जरा भी यह महसूस नहीं हुआ कि वह अभी अभी आयी हैं. वह निर्देशक की सोच के हिसाब से जिस तरह खुद को ढालती हैं और तुरंत माहौल में ढल जाती हैं. यह कठिन है. काफी कुछ उनसे भी सीखा.
प्यार बिना फितूर के संभव है?
नहीं, मुझे लगता है कि प्यार की परिभाषाएं भी अलग-अलग सी हैं. हर किसी के प्यार करने का तरीका अलग है. और हम यह नहीं कह सकते कि कौन सा प्यार सही है. कौन सा नहीं है. किसके तरीके सही हैं. किसके नहीं हैं.यह सबकुछ आपके अंदाज पर निर्भर करता है. इसका यह कतई मतलब नहीं कि जो अपना प्यार बोल कर इजहार न करें, वह प्यार नहीं, क्योंकि उस प्यार में फितूर नहीं. कई लोग होते हैं जो पैसिव लव में यकीन करते हैं. कुछ पोजेसिव होते हैं. कुछ ओवर प्रोटेक्टीव होते हैं. कुछ नहीं होते हैं. तो यह आपके विश्वास पर निर्भर करता है कि प्यार क्या है. प्यार में फितूर जरूरी नहीं. प्यार जरूरी है. मुझे लगता है कि प्यार खूबसूरत है. यह आसान है या कठिन है. पता नहीं. शायद खूबसूरत है तो कठिनाई भी आसान ही लगेगी. प्यार कुछ ऐसा होता है. मेरी समझ से.
अब तक का सफर कैसा रहा?
मैंने काफी सीखते सीखते सीखा है. शुरुआत में आयी तो उस वक्त समझ नहीं पाती थी. क्या करना है. क्या नहीं. अब तक सफलता की क्या परिभाषा है. क्या फार्मूला है. यह सब समझ नहीं पायी हूं. बॉलीवुड प्लानिंग से नहीं चलती. आप इसे प्लान नहीं कर सकते.यह हमेशा मेरे लिए प्रश्न चिन्ह रहा है. मेरे लिए यह किसी ड्रीम के पूरे होने जैसा ही है कि आज मैं वह कर रही हूं, जो मैं करना चाहती थी. यह अलग बात है कि मैं इससे और बेस्ट कर सकती थी या नहीं. लेकिन कम से कम मेरा सपना तो पूरा हुआ है. मैं काफी लकी हूं कि मुझे मौका मिला. वरना, मुझसे काफी टैलेंटेड लोग भी हैं, कई लोग हैं, जिन्हें मौके भी नहीं मिल पाते.

कट्रीना टीम प्लेयर हैं : आदित्य रॉय कपूर


आदित्य रॉय कपूर फिल्म फितूर में एक  प्रेमी की भूमिका में हैं, जो अपने इश्क के लिए किसी भी हद तक जा सकता है. फिल्म आशिकी 2 के बाद एक बार फिर वह प्रेम कहानी में नजर आ रहे हैं.

 फिल्म से जुड़ना कैसे हुआ?
मैंने किताब पढ़ी थी और मैंने किसी दिन यह खबर पढ़ी थी कि अभिषेक यह फिल्म सुशांत के साथ बना रहे हैं और मुझे बहुत अच्छा लगा था कि इस विषय पर फिल्म बन रही है. मैंने मन में सोचा था कि इस तरह की फिल्म बननी चाहिए. तो जब गट्टू का फोन आया, और उसने कहा कि इस फिल्म के सिलसिले में मिलना चाहते हैं तो ऐसा लगा कि अरे जो सोचा था वह हो गया. मैं मिला, सीन पढ़ा. और फिर मैंने हमेशा अभिषेक की फिल्में देखी हैं और मंै जानता था कि मैं उनकी सेंसिबिलिटी से वाकिफ हूं तो मुझे लगा कि वे इस विषय पर अच्छी फिल्म बनायेंगे. 
काफी इंटेंस फिल्म है. तो टफ था क्या किरदार में ढलना?
अलग अलग तरीके से टफ था यह किरदार. मैं फिल्म में कश्मीरी लोअर मीडिल क्लास की भूमिका में हूं. लोअर क्लास ब्वॉय का कर रहा हूं. तो उसकी  प्रॉब्लम, लाइफ को समझना, तो मैंने काफी वक्त कश्मीर में लोकल लोगों के बीच गुजारा. वहां की मैनेरिज्म समझने की कोशिश की. स्टेट आॅफ माइंड को समझना. दूसरी बात यह है कि जब से ये लड़का है कि वह एक लड़की से प्यार करता है. उसको फितूर चढ़ा है. मेरी लाइफ में मेरे साथ कभी ऐसा नहीं ुहुआ कि मैं किसी एक के प्यार में पागल हो जाऊं. तो इस किरदार को समझना. मुश्किल था. कि आप जिससे प्यार करते हो. लेकिन वह फिर भी आपको प्यार नहीं करता है. और आप उससे कई सालों से प्यार करते हैं. और इस तरह का प्यार देखना मुश्किल है. आज के दौर में तो इसे जीना कठिन है. इसके अलावा यह किरदार आर्टिस्ट है तो मुझे क्लासेज लेनी पड़ी ताकि मैं आर्टिस्ट के जैसा दिखूं. स्केचिंग और ड्राइंग क्लासेज ली है. 
कश्मीर में आपका अनुभव क्या रहा?
हमारी फिल्म पोलिटिकल इनक्लाइंड फिल्म नहीं है. वहां के लोगों के बारे में मैंने महसूस किया कि वहां के लोग काफी सेंसिटिव लोग हैं. काफी मेहमाननवाजी करते हैं. मासूम हैं. अधिक दुनियादारी में नहीं जीते. मुझे वह शहर काफी अच्छा लगा.
आपकी जिंदगी में आपका फितूर रहा है?
हां, मगर मैंने फेजेज में किया है. मैं जब छोटा था तो मार्शल आर्टस करता था. ब्रूशली के पीछे ैमैं पागल था. मैं मार्शल आर्टिस्ट बनने का ख्वाब भी देखने लगा था. बाद में मैं क्रिकेटर बनना चाहता था. मेरे पेरेंट्स चाहते थे कि पढ़ाई को लेकर मेरा फितूर हो. लेकिन वह कभी हुआ नहीं. फिर गिटार को लेकर काफी फितूर रहा. इस फिल्म की तैयारी में मैंने अपना वजन कम किया है. वह भी फितूर था.
अब तक के सफर को कैसे देखते हैं?
लोगों को लगता है कि मुझे आशिकी 2 में जैसी सफलता मिली. मैंने उसको ठीक तरीके से इस्तेमाल नहीं किया है. उसका एडवांटेज नहीं लिया है. लेकिन मैं शायद ऐसा ही हूं. मुझे बहुत प्लानिंग पसंद नहीं. कुछ हाइप क्रियेट करना पसंद नहीं. मेरा यह लर्निंग है कि मुझे और फिल्में करनी है. जब मैं सेट पर हूं तो मैं सबसे ज्यादा हैप्पी रहता हूं. क्योंकि मैं जो करना चाहता था. वह कर रहा हूं. मैं फेम के पीछे नहीं भाग रहा हूं. मुझे लगता है कि फिल्में करते रहूंगा तो सबकुछ मिलेगा. 
आशिकी 2 में भी आपका इंटेंस किरदार रहा?
मुझे लगता है कि  इस तरह के किरदार आपके साथ रह जाते हैं. आशिकी 2 के बाद मुझे उससे अलग होने में थोड़ा समय लगा था.  मुझे उस फिल्म से जुदा होने में वक्त लगा था. मेरी  जो लास्ट फिल्म थी. दावतएइश्क, वह एक पोजिटिव किरदार था. फिर भी मेरे साथ रह गया था. लविंग कैरेक्टर भी रह जाता है. इस फिल्म में ब्रेक काफी हुए हैं तो बहुत ज्यादा अफेक्ट नहीं हुआ हूं किरदार से. आशिकी 2 में 55 दिनों तक लगातार काम किया था. इसलिए अधिक अफेक्ट हुआ.
कभी स्केचिंग में दिलचस्पी रही है?
दिलचस्पी तो रही है. लेकिन मैं अच्छी  स्केचिंग नहीं करता था, लेकिन मजा आया. इसे सीखा तो. मजा आया.
कट्रीना के साथ कैसा रहा अनुभव?
मुझे इस तरह की फिल्म में काम करना अच्छा लगा. क्योंकि निर्देशक अच्छे हैं. कहानी अच्छी है. हर किसी का कहानी में बिलिव है तो जब आप ऐसे माहौल में काम कर रहे होते हैं तो आपको बहुत मजा आता है. हर किसी के साथ. कट्रीना टीम प्लेयर हैं.  काफी आर्टिस्ट अपने आप में ही रहना पसंद करते हैं. लेकिन कैट वैसी नहीं हैं. उन्हें हर किसी की चिंता रहती थी.वह सेलफिश नहीं हैं. उनके लिए सीन महत्वपूर्ण थे. वह नहीं. तो वह काफी अच्छी चीज लगी. हमने हालांकि साथ में कोई वर्कशॉप नहीं किया था. अभिषेक में भी एक ओपनेस हैं. वह सबका सुनते हैं. हर कोई उनसे सलाह दे सकते हैं. वह इगोइस्टिक नहीं है. वह फ्रीडम देते हैं कि आप अपना क्रियेटिवीटी अपने तरीके से एक्सप्लोर करें. 
फिल्म का हिस्सा पहले रेखा थी. फिर तब्बू जी आयीं. आपके लिए कैसा रहा एक्सपीरियंस?
मैंने रेखा जी के साथ काम किया था. बहुत लर्निंग एक्सपीरियंस थी. थोड़ा था टाइम लगा. फिव जब चेंजेंज हुआ. लेकिन उस वक्त खुद को रिएडजस्टमेंट करना काफी दिलचस्प था. तब्बू के साथ अच्छा रहा. काफी मजा आया.
आपका थॉट प्रोसेज क्या है अभिनय का?
मैं हर तरह से काम करता हूं. लोगों को अबजॉर्ब करता हूं. कभी कभी अकेला रह कर भी करना पड़ता है. कभी कभी सिर्फ लोगों को देख कर सीखते रहते हैं. तो मैं हर तरह से काम करता हूं. 

20160212

जिंदगी से राबता जरूरी है एक्टर के लिए : शबाना आजमी

शबाना आजमी मानती हैं कि अगर उन्होंने अपनी जिंदगी कभी  स्टार के रूप में जी होती तो शायद वह कभी जिंदगी से जुड़ ही नहीं पातीं. उन्हें यह बताने में कोई संकोच नहीं कि वह घरेलू कामों में निपुण नहीं हैं. लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं कि वे सशख्त महिला नहीं.वे फिल्म नीरजा में अहम किरदार निभा रही हैं. वे खुश हैं कि इस दौर में ऐसी फिल्में बन रही हैं. 

 किसी फिल्म को हां कहने के लिए आज भी आपका थॉट प्रोसेज क्या होता है?
अलग-अलग थॉट प्रोसेस होता है. कभी कहानी बहुत अच्छी लगती है. कभी ऐसा लगता है कि निर्देशक में  बहुत सलाहियत है. कभी ऐसा लगता है कि एक्टर्स हैं. उनके साथ काम करने में लुत्फ आयेगा. कभी अच्छे पैसे मिल रहे होते हैं. अलग-अलग मुख्तलिफ चीजें होती हैं. लेकिन जाहिर है, आज के दौर में मुझे आजादी है कोई भी चीज करने की या न करने की. वह बिल्कुल अलग है, क्योंकि एक जमाना आता है आपके करियर में कि आपको कुछ च्वाइसेस करने पड़ते हैं कि अच्छा यह बिग बजट है. इसमें मेरा रोल बहुत बड़ा नहीं भी है, मगर यह बिग बजट है तो आपका वैल्यू बढ़ सकती है. तो इस तरह की चीजें होती थीं. अब वैसा नहीं है. अब सिर्फ इसलिए करती हूं, क्योंकि मेरा जी करता है कि करूं. नीरजा की कहानी बहुत अच्छी है. और यह आपको प्रेरित करती है. आपको इस फिल्म के जरिये एक ऐसी लड़की की कहानी पता चलती है, जो साधारण लड़की थी. लेकिन जब उसको एक असाधारण सिचुएशन में डाल दिया गया तो वह डर से आंख मिला कर अपनी हिम्मत बनाती है. और कैसे संघर्ष करती है अपनी डयूटी के दौरान. जाहिर है, ऐसी कहानियां तो दिल को छुएंगी ही. खास बात यह मुझे महसूस हुई इस कहानी में कि वह लड़की शुरू से कोई झांसी की रानी नहीं है. वह आम लड़की है. जैसे कि आप और मैं हूं. और जब यह कहानी सामने आती है तो लगता है कि हम चाहें तो क्या नहीं कर सकते. आज के दौर में बहुत जरूरी है कि हम पोजिटिव इमेजेज दिखायें महिलाओं की. 
जैसा कि आपने कहा कि इन दिनों पोजिटिव इमेज दिखाने जरूरी हैं तो इसकी वजह क्यों महसूस होती है आपको?
जी हां, बिल्कुल क्योंकि हिंदुस्तान एक ऐसा मुल्क है, जो कई सदियों में एक साथ जीता है. तो हमलोग 18वीं  सदी में जीते हैं और हम 21वीं सदी में भी जीते हैं.तो एक तरफ यह भी सच्चाई है कि हमारे यहां औरतें बहुत अच्छे पोजिशन में है तो दूसरी तरफ यह भी हकीकत है कि  आज भी लड़कियों को पैदा होने पर ही दफना दिया जाता है.इसलिए कि उसका गुनाह है कि वह एक लड़की है. तो जहां भी हम यह कर सकते हैं कि लड़की की पोजिटिव इमेज बनाने के लिए. वह हमको करना चाहिए. 
अभी हाल ही में मंदिर में महिलाओं के आगमन को वर्जित करने को लेकर काफी विवाद हो रहा है? इस पर आपकी क्या राय है?
मेरा मानना है कि महिलाओं को संघर्ष करना चाहिए. आवाज उठानी ही चाहिए, क्योंकि ये इंसाफ नहीं है. और अगर हम मानते हैं कि हमारा धर्म इंसाफ पसंद है तो इस बात को आवाज उठानी चाहिए, क्योंकि अगर शुरू से ही यह कह दिया जाता कि जिस तरह की स्थिति वैसी ही रहने दो. तो जितने सारे बदलाव आये हैं. समाज में. वह आते हीं.
आप हमेशा आत्मनिर्भर रही हैं. आपको क्या लगता है कि किन कारणों की वजह से आपने अपनी जिंदगी अपने तरीके से जीने का मौका मिला?
मैं तो बहुत खुशकिस्मत हूं कि मेरी ऐसी परवरिश रही. ऐसे माहौल में पैदाईश  हुई, जहां मेरे माता-पिता ने हमेशा लड़कियों को हमेशा लड़के के बराबर समझा. मेरे भाई को जैसी तालीम मिली. मुझे भी वैसी ही मिली. कभी इस बात का फर्क नहीं किया गया कि ये लड़का है तो इसे अलहायदा किस्म की ट्रेंिनंग होनी चाहिए. मैं तो शायद 19 साल  की थी, जब मुझे पता चला कि जो मैं देखती हूं अपने अतराफ, वह रुल नहीं है, वह एक्सेप् शन है. क्योंकि मैं एक ऐसे जेंडर जस्ट माहौल में पली बढ़ी थी. जहां लोग कम्यूनिष्ट पार्टी के मेंबर थे. मेर अब्बा. और हम छोटे से 200 स्कायर फीट के कमरे में रहते थे. जहां आठ लोग एक बाथरूम और टॉयलेट शेयर करते थे.ऐसा वैसा कुछ नहीं था. लेकिन एक नजरिया था जिंदगी का और जो कि बराबरी का था. चाहे वह औरत और मर्द के बीच की बराबरी हो या अमीर और गरीब के बीच की बराबरी हो.चाहे वह जात की बराबरी  हो या मजहब की बराबरी हो.
आपने मजहब की बात की है, आप यह महसूस करती हैं कि वर्तमान दौर में इनटॉलरेंस के मुद्दे पर अधिक विवाद हो रहे हैं?
मुझे लगता है कि इनटॉलरेंस को हउआ बनाने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि यह तो हमेशा रहा है. हमेशा रहेगा. जब तक इंसान है. तब तक यह रहेगा. आप इस बात को न भूलें कि सुकरात को जहर पीना पड़ा था. अपने विचारों की वजह से. ग्लेलियो को अपने वर्डस वापस लेने पड़े थे. फैज अहमद फैज को वतन से दूर कर दिया गया था.एमएफ हुसैन को हमने निकाल दिया, तो ऐसे कई उदाहरण है. लेकिन ये अजीब बात है कि अगर मैं अपने मुल्क को चाहती हूं.  लेकिन मुझे यह आजादी नहीं कि मैं यह कह दूँ कि  हां, एशिया का जो सबसे बड़ा स्लम है.धारावी है. वह हिंदुस्तान में है. जब हमारे प्रधानमंत्री कहते हैं कि स्वच्छ भारत अभियान चलाना चाहते हैं तो यह कह रहे हैं न कि  यह बहुत गंदी जगह है. और अगर वे कह रहे हैं कि यह एक गंदी जगह है तो क्या वह एंटी-नेशनल हो गये. तो आप एंटी नेशनल किस बात पर कह देते हैं. किस झगड़े पर. यह गलत है. और अगर लॉ एंड आॅर्डर सिचुएशन की बात कही तो यह सरकार का फर्ज है कि उसको  कंट्रोल में लेकर आये.
जब-जब अभिनेता या फिल्मी कलाकार राजनीति से जुड़ते हैं तो यह बातें होती हैं कि कलाकारों का काम राजनीति नहीं अभिनय है. लेकिन आप जब सांसद बनीं तो आपने काफी आवाज उठाया था. 
मुझे लगता है कि हिंदुस्तान के हर नागरिक को राजनीति में जाने का हक़ है .फिल्म के लोग जाते हैं तो वे इसलिए जाते हैं क्योंकि लोग उनकी बात सुनते हैं.और ऐसा हो सकता है कि वह शुरू में आयें तो वाकिफ न हों कि मुद्दे क्या हैं. लेकिन जब वह जाते हैं पार्लियामेंट तो ऐसा तो नहीं है कि वे वहां कान में रुई डाल कर बैठे रहते हैं.तो बहुत सारी बातें वहां जाकर सीखते हैं. कितनी सारी चीजें मैंने सीखी और चूंकि मैं किसी पॉलिटिकल पार्टी से नहीं थीं. नॉमिनेटेड मेंबर थी. तो मुझे पूरी आजादी थी कि मैं दोनों का नजरिया सुनूं और फिर तय करूं क्योंकि पार्टी की तो बंदिश नहीं थी. आज के दौर में यह कबूल कर लिया गया है कि एक्टर की एक महत्वपूर्ण आवाज है. उस आवाज को रोकने की कोशिश की जायेगी. जब तक आप कैंसर या किसी भी नॉन पोलिटिकल इश्यू के बारे में बात करें तो आपको सराहा जाता है. लेकिन आपने कुछ कहा कि जिसका कोई राजनैतिक रिजल्ट होता है तो वहां आपको रोकने की कोशिश की जायेगी. और आपको डराने की कोशिश की जायेगी कि आपकी सेहत के लिए अच्छा नहीं है. इससे लड़ना चाहिए. हॉलीवुड में तो ऐसा ही होता है. बहुत सारे एक्टर्स हैं, जो टॉप एक्टर्स हैं और उनके पॉलिटिकल पोजिशन हैं. लोग उसको सम्मान देते हैं, यह तो एक षंडयंत्र हैं कि  आप डरा दें क्योंकि उनकी आवाज बूलंद है. ताकि उनका भी मुंह बंद कर दिया जाये.
आप अभिनय की इंस्टीटयूशन मानी जाती हैं. ऐसे में कभी इच्छा रही कि कोई एक्टिंग स्कूल खोलें?
मैं बहुत सारे क्लासेज लेती हूं. अमेरिका में लेती हूं. हावर्ड में पढ़ा चुकी हूं. फिल्म इंस्टीटयूट में जा चुकी हूं. मिशिगन यूनिवर्सिटी में जा चुकी हूं. और मुझे ऐसा जरूर लगता है कि मुझे जो मिला है, उसे वापस दूं. इस तरह से मैं जुड़ी हूं. मुझे वर्तमान दौर की एक्टिंग की ट्रेनिंग से सिर्फ एक ही बात नजर आती है कि इन दिनों सिर्फ ट्रेनिंग शक्ल और जिस्म की होती है. एक्टिंग की नहीं. जिम चले जाते हैं. जिस्म को बना लेते हैं. डांस करना सीख जाते हैं. लेकिन एक्टिंग को भी उतनी ही तवज्जो देना जरूरी है. तो इन दिनों जब मुझे कोई कहता है कि तीन महीने का कोर्स किया है तो मुझे बहुत ही वहशत होती है. मैं तो आज भी एक्टिंग  सीख रही हूं 40 साल काम करने के बाद भी. मैं अभी भी स्टूडेंट हूं. 
आज के दौर की फिल्मों को किस तरह देखती हैं?
मेरा मानना है कि आज के दौर में महिलाएं अच्छा काम कर रही हैं. प्रियंका, दीपिका, विद्या बालन काफी अच्छे रोल कर रही हैं. आज के दौर में एक्टर्स चाहते हैं कि उन्हें अच्छे रोल मिले. मैंने तो सुना है कि इन दिनों अच्छे किरदार हों तो लोग कम पैसे में भी काम करते हैं. उन्हें अच्छे किरदार चाहिए. यह बहुत अच्छी बात है और मैं मानती हूं कि कमिर्शियल सिनेमा या मेनस्ट्रीम सिनेमा के बीच बेमतलब शुरू से ही आर्टिफिशियल रेखा खींची जाती रही है. मैं उसके पक्ष में कभी नहीं रही. मैंने तो हर तरह की फिल्मों में काम किया है.
आपको क्या कहलाना पसंद है? एक्टर या स्टार 
मैं मानती हूं कि स्टार और एक्टर के बीच हमेशा कनफिलिक्ट होता है. मैं तो प्रोफेशनली एक्टर हूं और मुझे तो ये बताया गया था कि एक्टर को सिर्फ तीन चीजों का ज्ञान होना चाहिए. अगर मैं होता तो... मदर टेरेसा, स्लम प्रोसटीटयूट, क्वीन इलेजिबेथ, तबायफ, पॉलिटिशिन कुछ भी. मुझे उसके साथ न्याय करना है. यही तो ट्रेनिंग  है कि आपमें वह सलाहियत होनी चाहिए कि आप कुछ भी कर सकें. तभी आपको एक्टर माना जाये. जब मैंने अर्थ में काम किया था. तो मैं औरतों की परेशानी से जुड़ी. झुग्गी झोपड़ी में रहनेवाले लोगों से जुड़ी कुछ फिल्मों की वजह से.
आपने अपनी जिंदगी में किसे प्रेरणा माना है?
श्याम बेनगल को, जेनिफर कपूर से, जावेद अख्तर से. अर्मत्य सेन से.
आपको अब भी क्या चीजें ऊर्जा देती हैं?
मुझे जिंदगी से जुड़ना पसंद है. किसी भी कलाकार के लिए जिंदगी  से जुड़े ेरहना जरूरी है. एक्टर अपना इंस्ट्रूमेंट खुद होता है. जैसे कि अगर मुझे सितार बजाना है तो यह जरूरी है कि उंगलियां भी अच्छी हों और सितार भी. उसके भी तार ठीक होनी चाहिए.और एक्टर तो अपना सितार खुद ही है, क्योंकि मेरे अंदर जो है, जो मेरे एक्सपीरियंस हैं.मेरी जो आवाज है, सोच है. समझ है. उसी को इस्तेमाल कर सकती हूं. तो आपको जिंदगी से जुड़े रहना जरूरी है.  स्टार बनने पर आप लोगों से हटते जाते हैं. आपके इर्द गिर्द सेक्योरिटी के लोग होत ेहैं, पीआर के लोग होते हैं. तो जिंदगी का एक जीवित इंसान को आप तक पहुंचने के लिए  10 लोगों से गुजरना पड़ता है. तो यह मुमकिन ही नहीं कि आप जिंदगी के रियल तर्जुबात हैं, उससे मेहरुम होते चले जाते हैं. तो आप बनावटी टावर में बस जाते हैं और आपका जिंदगी से ताल्लुक खत्म हो जाता है. तो आपके लिए नुकसानदेह है. 
परिवार के साथ किन बातों पर चर्चा होती है?
खाने पीने के बारे में हम सबसे ज्यादा बातें करते हैं. लेकिन मुझे खाना बनाना नहीं आता. आज भी अगर कोई मुझे कह कर जाये कि जरा देख लेना दो मिनट में आयी. तो खाना जला ही मिलेगा.