20120827

मल्टी स्टारर फिल्म के मायने


हाल ही में अमरीकी निर्देशक सिमोन वेस्ट की फिल्म द एक्सपेनडेबल्स 2 रिलीज हुई है. फिल्म को भारत में भी अच्छी लोकप्रियता मिल रही है. और फिल्म वाकई बेहतरीन है भी. इस फिल्म की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इस फिल्म में दुनिया के बेहतरीन एक् शन कलाकारों ने एक साथ अभिनय किया है. यह मल्टी स्टारर फिल्म है. लेकिन इस मल्टी स्टारर फिल्म में तमाम कलाकारों को अपने अपने हिस्से का हुनर दिखाने का मौका मिला है. कोई भी कलाकार फिल्म में केवल बतौर अतिथि भूमिका में नजर नहीं आये हैं. सिमोन वेस्ट की परिकल्पना व पटकथा की संरचना कमाल की है कि उन्होंने एक ऐसी फिल्म बनायी. अब तक दुनिया भर में एक् शन के बलबुते कमाल दिखा चुके कलाकारों को एक साथ एकत्रित करना निश्चित तौर पर सिमोन के लिए चुनौती रही होगी. चूंकि प्राय: हर कलाकार को दूसरे कलाकार के साथ काम करने में परेशानी होती है. सभी आत्ममुग्ध होते हैं. लेकिन इसके बावजूद सिमोन की यह सोच और उसे कर दिखाना दर्शाता है कि विदेशी भाषा की फिल्मों में अब भी कलाकार कहानी को सबसे अधिक अहमियत देते हैं.  जबकि इसके विपरीत अगर भारतीय फिल्मों की बात की जाये तो भारत में भी कई मल्टी स्टारर फिल्में बनाई जाती रही हैं. लेकिन उनमें किसी एक को ही प्राथमिकता मिलती है. बाकी शेष कलाकार केवल सहयोगी कलाकार के रूप में ही नजर आते हैं. दरअसल, भारत में मल्टी स्टारर फिल्मों का मतलब कलाकारों की संख्या से है. उनकी गुणवता से नहीं. लेकिन भारत में इस स्तर की फिल्मों की परिकल्पना बेहद कठिन है. लेकिन जरा सोचें,वाकई किसी हिंदी फिल्म में अमिताभ, धर्मेद्र, शाहरुख, सलमान, आमिर, अक्षय जैसे सभी कलाकार रहें तो वह फिल्म किस स्तर की बनेगी. भारत में अब भी स्टारों पर  स्टारडम ही हावी है

स्टार-दर्शक की टूटती दीवार

अमिताभ  बच्चन के फेसबुक पर आते ही, उनके वॉल को नौ लाख से ज्यादा लोगों ने पसंद किया. इससे पहले भी अमिताभ सोशल नेटवर्किंग साइटों से जु.डे रहे हैं. वे लगातार ट्विटर, ब्लॉग जैसे माध्यमों पर सक्रिय रहे हैं. फेसबुक पर एक वीडियो अपलोड कर उन्होंने कहा कि मैंने फेसबुक ज्वाइन किया है. अभिनेता मनोज कुमार भी अमिताभ बच्चन का साथ देते हुए फेसबुक पर आ गये हैं. फेसबुक के टाइमलाइन पर इन कलाकारों के कैरियर की शुरुआत से लेकर अब तक की गतिविधियों का ब्योरा दिया गया है. देश में जहां भी इन कलाकारों का जिक्र होगा, फेसबुक की खास सुविधा के तहत उसकी जानकारी पायी जा सकेगी. निश्‍चित तौर पर नकारात्मक व सकारात्मक दोनों ही बातें वॉल पर पोस्ट हुआ करेंगी. सो, कई चाटुकारों ने यहां भी कलाकारों को मस्का लगाना शुरू कर दिया है. अमिताभ बच्चन के वॉल पर उनके ज्वाइन करने के बाद से ही बधाई, उनकी तारीफों का पुल बांधा जा रहा है.ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि क्या सोशल नेटवर्किंग साइट्स जो कि निष्पक्ष मंच मानी जाती हैं, आगे भी रहेंगी. हालांकि अब भी ईमानदारी से कलाकारों के बारे में लिखा जाता रहा है. लेकिन वे चाटुकार जो कलाकारों का मजाक बनाया करते थे अपने अपडेट स्टेटस में, अब कलाकारों की जी हुजूरी में लग जायेंगे. हालांकि एक अच्छी बात यह हुई है कि अब वैसे लोग जो जबरन कलाकारों से अपनी नजदीकी का ढिंढोरा पीटते रहते हैं. उनकी भी पोल खुलेगी. सच्चाई यही है कि फेसबुक की दीवार खड़ी करके एक तरह से कलाकार अपने और दर्शकों के बीच की दीवार को तोड़ रहे हैं और पारदर्शिता को सामने ला  रहे हैं 

कलम चलाते कमाल दिखाते



फिल्म हो, टीवी प्रोग्राम या विज्ञापन. तीनों ही माध्यम विजुअल वर्ल्ड में विशेष रूप से लेखन पर आधारित हैं. लेखन ही दरअसल, किसी भी विजुअल को भाषा देता है. यही वजह है कि लेखकों को विजनरी और क्रिएटिव व्यक्ति की उपाधि मिलती है. झारखंड और बिहार से संबंध रखने वाले कई निर्देशकों ने बड़े परदे पर अपनी पहचान स्थापित की है.
अब बारी कल्पनाशील लेखकों की है. इन दिनों झारखंड- बिहार से कई ऐसे कल्पनाशील टैलेंट निखर कर सामने आ रहे हैं, जो टीवी, विज्ञापन व फिल्मों की दुनिया में अपनी कलम की ताकत पर पहचान स्थापित कर रहे हैं. कुछ ऐसे ही नये टैलेंट व चेहरे पर

अनुप्रिया अनंत की रिपोर्ट

काश झा, राजकुमार गुप्ता, इम्तियाज अली, संजीवन लाल जैसे बेहतरीन निर्देशकों के बाद अब झारखंड-बिहार से नये लेखकों की फौज तैयार हो रही है. ये लेखक हिंदी सिनेमा व टेलीविजन जगत में अपनी अलग पहचान बना रहे हैं. साथ ही विज्ञापन के क्षेत्र में भी झारखंड-बिहार के कल्पनाशील लेखक बेहतरीन काम कर रहे हैं.
नीरज शुक्ला
लाखों में एक, स्टार प्लस
अभी हाल ही में स्टार प्लस पर रविवार को नये शो ‘लाखों में एक’ की शुरुआत की गयी है. सच्ची घटनाओं से प्रेरित यह धारावाहिक उन वास्तविक लोगों की बहादुरी एवं साहस को दर्शाता है, जिन्होंने अपने से इतर दूसरों के बारे में सोचा है. रांची के नीरज शुक्ला ने इस शो के पहले एपिसोड की स्क्रिप्ट लिखी. साथ ही निर्देशक राहुल ढोलकिया के साथ उन्होंने विजुअलाइजेशन में भी मदद की. बकौल नीरज उन्हें किसी माध्यम से पता चला कि बिग सिनर्जी कोई ऐसा शो बना रही है.
चूंकि वह खुद रांची से हैं, और हुस्न बानो की कहानी से पूरी तरह से वाकिफ थे. इसलिए, उन्होंने थीम बिग सिनर्जी गुप्र को सुनायी. उन्हें कहानी पसंद आयी और फिर इस पर नीरज ने रिसर्च करना शुरू किया. लगभग फरवरी से जून तक वे इस विषय के रिसर्च से जुड़े रहे. फिर इसका नाट्य़ रूपांतर तय करने में उन्होंने राहुल के साथ काम किया. नीरज ने मास कम्युनिकेशन की पढ़ाई की है और हमेशा से उनकी लेखन में दिलचस्पी रही है. बकौल नीरज यह उनका पहला प्रोजेक्ट है.
उन्हें खुशी है कि लोगों ने उनके काम को सराहा. नीरज बताते हैं कि उनके लिए पहला अनुभव बेहद खास रहा. उन्होंने बड़े स्तर पर जाना कि किस तरह लिखी गयी चीज को परदे पर उतारा जाता है. नीरज ने धारावाहिक की पटकथा लिखते वक्त इस बात का खास ख्याल रखा था कि भाषा सरल हो और रांची के लोगों को रास आये. फिलवक्त नीरज इसी शो के अगले एपिसोड की तैयारी में जुटे हैं. भविष्य में उनकी इच्छा फिल्म लेखन और निर्देशन की है.
राजीव कुमार
विज्ञापन में कलम का कमाल
विज्ञापन की दुनिया एक ऐसी दुनिया है, जहां चंद मिनटों में ही बेहतरीन कहानियां कह दी जाती हैं. लेकिन हम उसे रचने वाले के बारे में अकसर जान नहीं पाते. बोकारो स्टील सिटी से संबंध रखने वाले राजीव कुमार इसी दुनिया में कलम का कमाल दिखाते हैं. वे पिछले कई वर्षो से विज्ञापन के क्षेत्र में सक्रिय हैं. उन्होंने वर्ल्ड ऑफ टाइटन के लिए पहला विज्ञापन लिखा था. उसके बाद वे लगातार विज्ञापनों की परिकल्पना कर रहे हैं और लिख रहे हैं.
वर्तमान में टीवी पर प्रसारित हो रहे एक्ट 2 पॉपकॉर्न और वेरिटो कार के विज्ञापन के रचयिता राजीव ही हैं. उन्होंने अब तक हिमालया शैंपू, अन्नपूर्णा नमक, ब्रुकबांड चाय, बजाज फैन समेत कई उत्पादों के लिए स्क्रिप्ट लिखी है. बकौल राजीव एक शैंपू के विज्ञापन के लिए उन्हें पहली बार विदेश जाने का मौका मिला था. ऑस्ट्रेलिया के निर्देशक व लंदन के डीओपी के साथ काम करने का मौका मिला. मॉडल क्रोआटिया के साथ काम करने का मौका मिला.
पहली बार उस वक्त उन्होंने पोरस्की कार व हार्ले डेविडसन की सवारी की थी. राजीव बताते हैं कि विज्ञापन का क्षेत्र इतना आसान नहीं है. एक विज्ञापन के लिए लगभग 100 से भी ज्यादा आइडिया लिखे और रिजेक्ट किये जाते हैं. उनका मानना है कि विज्ञापन के क्षेत्र में एक लेखक को हर दिन नयी चुनौती का सामना करना पड़ता है.
सौरभ कुमार
हैंडओवर, फीचर फिल्म
सौरभ कुमार बिहार से संबंध रखते हैं और उन्होंने हाल ही में मगही-हिंदी भाषा में एक बेहतरीन फिल्म बनायी है. कुछ साल पहले उन्होंने एक लेख पढ़ा था. जिसे पढ़ कर उन्होंने एक फीचर फिल्म की योजना बनायी. हैंडओवर नामक उनकी यह फिल्म 73 मिनट की है. फिल्म की कहानी एक गरीब दलित परिवार पर आधारित है. एक ऐसे दलित परिवार पर जिसमें मां बाप अपनी बेटी को तंगहाली की वजह से बेच देते हैं और फिर यह मुद्दा पूरे भारत में बड़ा मुद्दा बन जाता है.
एक दलित परिवार किस तरह इससे जूझता है, यह कहानी इस पर आधारित है. सौरभ ने खुद इस कहानी का लेखन भी किया है और निर्देशन भी. यह फिल्म कई फिल्मोत्सव में सराही जा चुकी है. सौरभ कुमार ने फिल्मकार ईशान त्रिवेद्वी के साथ निर्देशन के गुर सीखे. सौरभ का कहना है कि वे अपने राज्य की भाषा व वहां की सच्चाइयों को परदे पर दर्शाते रहना चाहते हैं.

जीशान कादरी
गैंग्स ऑफ वासेपुर, फिल्म
धनबाद के जीशान कादरी ने गैंग्स ऑफ वासेपुर की पटकथा लिखी है. जीशान द्वारा लिखी गयी फिल्म की कहानी की वजह से यह फिल्म बेहद चर्चा में है. इस फिल्म पर नकारात्मक व सकारात्मक दोनों तरह की प्रतिक्रियाएं आयीं. लेकिन यह जीशान के लिए बड़ा और अहम ब्रेक है. फिल्म में उन्होंने कुछ बेहतरीन संवाद लिखे हैं जो याद रह जाते हैं.
आने वाले समय में वह दो फिल्में लिख रहे हैं. जीशान बेफिक्र होकर कहते हैं कि बतौर लेखक उन्होंने गैंग्स के माध्यम से एक अच्छी कहानी कहने की कोशिश की है. आगे भी वह क्राइम पर आधारित कहानियां लिखना पसंद करेंगे. बतौर लेखक जीशान की फिल्म की इंडस्ट्री के लोगों ने तारीफ की है.

विकास मिश्र
चौरंगा, फीचर फिल्म
विकास मिश्र जल्द ही फिल्म चौरंगा लेकर आ रहे हैं. यह फिल्म झारखंड-बिहार पर आधारित है. विकास ने फिल्म की स्क्रिप्ट लिखी है. विकास कई वर्षो से डियरसिनेमा डॉट कॉम के माध्यम से फिल्मों पर अपनी दो टूक व ईमानदार लेखनी के लिए जाने जाते रहे हैं. उनकी फिल्मों को कई अंतरराष्ट्रीय फिल्मों में सराहा जाता रहा है. विकास एक उभरते निर्देशक के साथ अच्छे लेखक भी हैं. विकास मिश्र हजारीबाग से संबंध रखते हैं. उनकी डॉक्यूमेंट्री फिल्म नाच गणोशा को भी काफी सराहना मिली है

संवाद से लेकर सेट तक का ख्याल रखते थे हंगल साहब : सुलभा आर्य

मैं हंगल साहब के साथ पिछले 50 वर्षों से जुड़ी रही हूं. मेरा उनसे मिलना इप्टा के कारण से ही हुआ था. इसके बाद थिएटर करने के साथ-साथ हम फिल्मों की वजह से भी मिलते रहते थे. वे मुझसे वरिष्ठ थे, लेकिन मैं जब भी उनसे मिलती और बातें होतीं, तो ऐसा लगता था कि वे अपने छोटों से भी सीखने की कोशिश करते थे. मैंने उनके साथ कई प्ले किये हैं, जिनमें शतरंज के मोहरे, पेपरवेट जैसे प्ले काफी लोकप्रिय रहे थे. यह नाटकों के प्रति उनका कमिटमेंट ही था कि वे कई बार अपनी फिल्मों की शूटिंग इस तरीके से मैनेज करते थे कि उन्हें अपने नाटक के साथ कोई समझौता न करना प.डे. वे जब तक सक्रिय रहे, नाटकों को बढ.ावा दिया.
हंगल साहब की सबसे बड़ी खूबी यही थी कि वे इप्टा का महत्व समझते थे. वे मानते थे कि इप्टा का मतलब इंडियन पीपुल थिएटर है, तो वह लोगों तक पहुंचना चाहिए. उनका मानना था कि सांस्कृतिक चेतना तभी आ सकती है, जब हम रंगमंच को अपनी जिंदगी का हिस्सा बनायें. वे मानते थे कि सभ्यता का महत्वपूर्ण हिस्सा है रंगमंच. वे स्ट्रीट प्ले को हमेशा प्राथमिकता देते थे. कहते थे कि इसके माध्यम से अधिक लोगों तक बात पहुंचेगी. जब वे बीमार रहने लगे थे तब इप्टा के लोगों को घर पर बुला कर सारे अपडेट्स लेते रहते थे. 
मैंने उनके साथ काम करते हुए महसूस किया है कि वे अपने काम को बहुत गंभीरता से लेते थे. कई बार तो वे पूरी रात रिहर्सल करते रह जाते थे. काम के पहले मतलब रिहर्सल के पहले वे मजाक करते थे. लेकिन काम के दौरान उन्हें हंसी मजाक, यानी काम को हल्के में लेना पसंद नहीं था. वे कहते थे कि उनकी कभी इच्छा नहीं रही थी कि वे फिल्मों में काम करें. थियेटर में अभिनय करने से वे खुद को समृद्ध महसूस करते हैं और उन्हें लगता है कि वे समाज में कुछ योगदान कर रहे हैं. 
हंगल साहब सामाजिक व राजनीतिक मुद्दों से हमेशा अपडेट रहते थे. यही वजह थी कि अगर कोई गलती कर दे, तो वह फौरन टोक देते थे. उनकी एक खासियत यह भी थी कि अपने संवाद के साथ-साथ वे नाटक के सेट, अपने मेकअप, किरदारों के परिधान को लेकर भी सतर्क रहते थे. उनमें कमाल का स्टेमिना था. बुजुर्ग होने के बावजूद वे ताजगी के साथ काम किया करते थे. शायद इसकी वजह यह रही होगी कि वे स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा रहे थे. 
हंगल साहब का मानना था कि भले ही कितने भी बदलाव हो जायें, हम कितना भी बदल जायें, लेकिन हमें अपने इतिहास को साथ लेकर चलना चाहिए और उसका सम्मान करना चाहिए. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान काबुली गेट पर हुई घटना का वे अकसर जिक्र करते थे, क्योंकि उन्होंने वहां का पूरा नजारा अपनी आंखों से देखा था. उनके मन में हमेशा देश के लिए प्रेम था. लेकिन देश की वर्तमान की स्थिति को देख कर वे थो.डे दुखी थे. वे कहा करते थे कि सामाजिक रूप से लोग इन दिनों भावनाहीन हो गये हैं. हमें अपनी संस्कृति को बचाने के लिए नाटकों का मंचन ब.डे स्तर पर करते रहना होगा. उनका मानना था कि हमारे देश में वैसे नाटकों का मंचन होना चाहिए जिसमें संस्कृति, विकास, आम लोगों की समस्या, वर्तमान राजनीतिक परिवेश दिखे. उन्होंने इप्टा के माध्यम से पूरे देश में कई स्थानों पर सांस्कृतिक चेतना फैलायी. फिल्मों से अधिक वे इप्टा के लिए सक्रिय रहे. उन्होंने कैफी आजिमी और बलराज साहिनी जैसे कलाकारों के साथ काम किया था. यही वजह थी कि वैचारिक रूप से भी वे बेहद समृद्ध थे. हाल में जब भी उनसे मेरी मुलाकात होती थी तो वे अत्रा आंदोलन पर चर्चा करते रहते थे. हम इप्टा के सदस्य सदैव उनके योगदान को याद रखेंगे

कश्मीरी हिरन हंगल साहब


यशेंद्र प्रसाद, 

एके हंगल साहब से मेरी पहली मुलाकात उस वक्त हुई थी, जब मैं मुंबई यूनिवर्सिटी में था. वे एक कार्यक्रम में वहां आये थे. बाद में जब मैं फिल्म इंडस्ट्री में आया, तो मेरा उनसे बहुत गहरा जुड़ाव हो गया था. उनके व्यक्तित्व ने मुझे बहुत प्रभावित किया. बाद में उन पर डॉक्यूमेंट्री बनाने के दौरान मुझे उनके बारे में कई खास जानकारी हासिल हुई.

हाल ही में मैंने फिल्म्स डिवीजन के लिए एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनायी, ईसा मसीह के भारत में बिताये जीवन काल के ऊपर. इसके सिलसिले में मेरा संपर्क पेशावर के एक व्यक्ति से हुआ. यह जान कर कि मैं मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री से हूं, उसने बताया कि वह एके हंगल साहब का फैन है और उसे फख्र है कि वे पेशावर के रहने वाले थे. हंगल साहब वहां आजादी की लड़ाई में भी शरीक हुए थे, यह बात मुझे उसी से पता चली. हंगल साहब के जीवन के इस पहलू के बारे में और भी जानने की दिलचस्पी हुई. फिर मैंने सोचा क्यों उनके जीवन पर एक डॉक्यूमेंट्री ही बनायी जाये, ताकि शोले के इमाम साहब और शौकीन के इंदर साहब के जीवन के इन रोचक पहलुओं से भी लोग वाकिफ हों. इसके बाद से ही उनसे मेरा मिलना भी होता रहा. अपने शोध के दौरान मुझे कई नयी जानकारी हासिल हुई.

कश्मीरी भाषा में हिरन को हंगल कहते हैं. कश्मीरी ब्राह्मणों का यह परिवार बहुत पहले लखनऊ में बस गया था. लेकिन हंगल साहब के जन्म के डेढ.-दो सौ साल पहले वे लोग पेशावर चले गये थे. इनके दादा के एक भाई थे जस्टिस शंभुनाथ पंडित, जो बंगाल न्यायालय के प्रथम भारतीय जज बने थे. हंगल साहब के पिता उन्हें पारसी थियेटर दिखाने ले जाया करते थे. वहीं से नाटकों के प्रति शौक उत्पत्र हुआ. हंगल साहब शुरुआती दौर से ही कभी किसी काम को छोटा नहीं समझते थे. कह सकते हैं कि हंगल साहब बेहद हंबल (जमीन से जु.डे) थे. उन्होंने हर काम को महत्व दिया. अपने जीवन के शुरुआती दिनों में, जब वे कराची में रहते थे, वहां उन्होंने टेलरिंग का काम भी किया है. हंगल साहब उर्दू भाषी थे. उन्हें हिंदी में स्क्रिप्ट पढ.ने में परेशानी होती थी. इसलिए वे स्क्रिप्ट हमेशा उर्दू भाषा में ही मांगते थे.

सियालकोट में जन्मे और पेशावर में पले-बढे. इस कश्मीरी ब्राह्मण की जिंदगी हर किसी के लिए प्रेरणा का स्रोत है. मेरी कोशिश है कि मैं उन पर आधारित डॉक्यूमेंट्री में उनके जीवन के विभित्र पहलुओं को दर्शाऊ. हंगल साहब का स्वतंत्रता संग्राम में भी अहम योगदान रहा है. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पेशावर में काबुली गेट के पास एक बहुत बड़ा प्रदर्शन हुआ था, जिसमें हंगल साहब भी उपस्थित थे. अंगरेजों ने अपने सिपाहियों को प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने का हुक्म दिया था, लेकिन चंदर सिंह गढ.वाली के नेतृत्व वाले उस गढ.वाल रेजिमेंट की टुकड़ी ने गोली चलाने से इनकार कर दिया. यह एक विद्रोह था. चंदर सिंह गढ.वाली को जेल में डाला गया. 

हंगल साहब को दुख था कि चंदर सिंह गढ.वाली को ‘भारत रत्न’ नहीं मिला. भारत मां का यह वीर सपूत 1981 में गुमनाम मौत मरा. पेशावर में हुआ नरसंहार उसी काबुल गेट वाली घटना के बाद हुआ था. उस वक्त अंगरेजों ने अमेरिकी कुत्ताें से गोलियां चलवाई थी. हंगल साहब ने अपनी आंखों से यह सब देखा था. यही वजह रही कि वे थियेटर से जुड़ने के साथ-साथ स्वतंत्रता संग्राम और सामाजिक आंदोलनों को लेकर हमेशा सजग रहते थे. 

उन्होंने इप्टा से जुड़ कर अपने नाटकों के मंचन के माध्यम से सांस्कृतिक चेतना जगायी. हंगल साहब पेंटिंग भी करते थे. उन्होंने किशोर उम्र में ही एक उदास स्त्री का स्केच बनाया था और उसका नाम दिया चिंता. भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी से बचाने के लिए चलाये गये हस्ताक्षर अभियान में भी वे शामिल थे. किस्सा-ख्वानी बाजार नरसंहार के दौरान उनकी कमीज खून से भीग गयी थी. हंगल साहब कहते थे, ‘वह खून सभी का था- हिंदू, मुसलिम, सिख.. सबका मिला हुआ खून!’ छात्र जीवन से ही वे ब.डे क्र ांतिकारियों की मदद में जुट गये थे. बाद में उन्हें अंगरेजों ने तीन साल तक जेल में भी रखा, फिर भी वे अपने इरादे से नहीं डिगे.

वे हमेशा अपनी फिल्मों से ज्यादा अपने नाटक को अहमियत देते थे और मानते थे कि जिंदगी का मतलब सिर्फ अपने बारे में सोचना नहीं है. वे हमेशा कहते कि चाहे कुछ भी हो जाये, ‘मैं एहसान-फरामोश और मतलबी नहीं बन सकता.’ हम सबके चहेते हंगल साहब को भावभीनी श्रद्धांजलि. 
(लेखक एके हंगल के जीवन पर डॉक्यूमेंट्री बना रहे हैं)

20120823

रंगभूमि से ओझिल होते रंग



भारतीय सिनेमा के जनक दादा साहेब फाल्के की पौत्री   उषा पटनकर ने दादा साहेब फाल्के द्वारा लिखे गये उनके एक मराठी नाटक रंगभूमि पर टीवी सीरिज बनाने की परिकल्पना की है.  दादा साहेब ने यह नाटक अपनी पहली बनाने के  6 वर्ष बाद लिखी थी. उनकी मृत्यु के बाद उनके परिवार के सदस्यों ने इस नाटक का मंचन मुंबई, पुणो और नासिक में कई वर्षो पहले कराया गया था. लेकिन दर्शकों ने इसमें खास रुचि नहीं दिखाई थी.यह स्पष्ट करता है कि हिंदी सिनेमा के जनक की धरोहर को लेकर हम कितने सजग हैं.दाहा साहेब फाल्के ने इस नाटक में यह दर्शाने की कोशिश की है कि किस तरह जब कला निवेशकों पर निर्भर हो जाती है. परेशानियां शुरू हो जाती है और धीरे धीरे कला का लोप होने लगता है. दरअसल, हकीकत भी यही है. कला के  क्षेत्र को जब से निवेशकों ने बुरी नजर लगायी है. कला बेसहारा ही होता जा रहा है. फिर चाहे वह नायक का क्षेत्र हो या सिनेमा की कला का क्षेत्र. हमारी सबसे बड़ी विडंबना यही है कि हम भविष्य की तलाश में अपने इतिहास को खोते जा रहे हैं. लेकिन हमें इस बात का कोई अफसोस ही नहीं.फाल्के ने जब यह नाटक लिखा था. उस वक्त उनका मानना यही था कि यह नाटक बुद्धिजीवी वर्ग के लिए है. लेकिन अफसोस की बात है कि बुद्धिजीवी वर्ग का तमगा लगाकर घूमनेवाले लोगों ने भी इस धरोहर पर ध्यान नहीं दिया.यह दर्शाता है कि हम किस कदर इस रंगभूमि के वास्तविक रंग को ही छीनते जा रहे हैं. उषा बधाई की पात्र हैं कि उन्होंने उम्र ढल जाने के बावजूद यह जिम्मेदारी उठाई कि वह अपने परिवार के इस महान शख्सियत की धरोहर को सहेज रही हैं. इस लिहाज से शाद अली ने भी लक्ष्मी सेहगल पर फिल्म बनाने की परिकल्पना करके बेहतरीन काम किया है. चूंकि यह बेहद जरूरी है कि हम अपने शख्सियतों को यूं ही खोने न दें

20120822

रंजिश, बदले की आग



गैंग्स ऑफ वासेपुर में फैजल खान का संवाद है. मां तू चिंता मत कर. तेरा फैजल बदला लेगा. दादा का, बाप का भाई का सबका बदला लेगा. गैंग्स ऑफ वासेपुर 1-2 लगभग उन फिल्मों में से एक है. जिसकी पूरी कहानी दो परिवारों के बीच बदले की भावना पर आधारित है. लगभग कई पीढ़ियां बदले की आग में जलती है और कहानी आगे बढ़ती चली जाती है. कुछ दिनों पहले रिलीज हुई फिल्म इशकजादे में भी दो परिवारों के बीच बदले की भावना के बीच पनपती प्रेम कहानी को दर्शाया गया था. तो दूसरी तरफ फिल्म पान सिंह तोमर में भी पान सिंह तोमर को अपने चाचा से ही जमीन के बंटवारे को लेकर बदला लेते हुए दिखाया गया है. बदले की भावना में जलते हुए दो परिवारों के बीच गालियों और गोली की बरसात की जाती है. दरअसल, हिंदी फिल्मों में बदले की भावना पर आधारित कहानियों को दर्शकों ने हमेशा ही पसंद किया है. इसकी सबसे खास वजह यह है कि दर्शक वर्ग एक आम व्यक्ति ही होता है. जो प्राय: किसी न किसी रूप में निराश है. ऐसे में वह अपनी भड़ास किसी न किसी से किसी न किसी रूप में बदला लेकर ही निकालना चाहता है. वास्तविक जिंदगी में ऐसे कई परिवार होते भी हैं, जहां नफरत की आग में पूरे परिवार के सदस्य शामिल रहते हैं. तो ऐसे में जब रुपहले परदे पर ऐसी फिल्में दिखाई जाती हैं. नायक को लड़ते दिखाया जाता है तो लोगों को लगता है कि वह उनका प्रतिनिधित्व कर रहा है. इसलिए वे उन्हें पसंद करते हैं. हालांकि हिंदी फिल्मों में केवल गालियों व गोलियों के आधार पर ही बदले में जलती कहानियां नहीं दिखाई गयी हैं. कई बार हलचल जैसी फिल्मों के माध्यम से भी नफरत को प्यार में बदलते हुए दिखाया गया है. हालांकि 70-90 के दशक तक ऐसी फिल्में बनती रही हैं, जिनमें नायकों का मुख्य मकसद बदला लेना ही होता था. अजरुन जैसी फिल्में भी इसी श्रेणी में शामिल हैं

सरहदों में बंटा प्रेम



दुनिया में 201 मुल्क हैं. तो टाइगर को क्या केवल पाकिस्तान की ही लड़की मिली थी. इश्क फरमाने के लिए. हाल ही में रिलीज हुई फिल्म टाइगर में टाइगर के ऑफिसर अपनी भड़ास निकालते हुए यह संवाद कहते हैं.दरअसल, कई वर्षो से प्राय: हिंदुस्तान व पाकिस्तान के लड़के व लड़की के बीच प्रेम कहानियां दिखाई जाती रही हैं. दो देशों की दुश्मनी के बीच अचानक दो युवा प्रेमियों को प्रेम हो जाता है और फिर नफरत की आग में जलते दो मुल्क के दुश्मन इनके प्यार के भी दुश्मन बन जाते हैं. कई फिल्मों में मुसलिम व हिंदू प्रेम को दर्शाया जाता रहा है और ऐसी कई फिल्में बनती रही हैं. लगभग यह सारी फिल्में लोगों ने पसंद भी की है. फिर चाहे वह वीर जारा की कहानी हो. वीर हिंदूस्तान का लड़का है. जारा पाकिस्तान की. गदर एक प्रेम कथा का भी नायक ंिहंदूस्तान का था. नायिका पाकिस्तान की.फिल्म बांबे में नायक हिंदू था. नायिका मुसलिम. फिल्म रिफ्यूजी में भी अभिषेक का किरदार एक हिंदू का दिखाया है और करीना के किरदार को मुसलिम.रिफ्यूजी के अलावा लगभग इस विषय पर बनी सभी प्रेम कहानियां दर्शकों ने पसंद की है. चूंकि इन प्रेम कहानियों में प्राय: निर्देशक प्रेम कहानी के साथ साथ दो देशों की परेशानियां, उनकी सोच व राजनीतिक माहौल को भी दर्शा जाता है. लेकिन इन सभी फिल्मों को बनाने के दौरान क्यों हर फिल्मकार के जेहन में अपने नायक को हिंदू और नायिका को मुसलिम ही बनाने का ख्याल आता है. क्या किसी हिंदू लड़की को किसी मुसलिम लड़के से प्यार नहीं हो सकता. क्या वास्तविकता में ऐसी प्रेम कहानियां नहीं हैं.आखिर क्या वजह है कि वे अपने नायक को ही हमेशा हिंदू दर्शाते हैं. यह शोध की विषय हो सकता है.फिल्मों को भी अपने किरदार को चुनने में धर्म निरपेक्ष होना चाहिए ताकि किसी भी चीज का दर्शक र्सि एकतरफा पहलू न देखें.


पूरे भारत में बसे उत्तर पूर्व के लोग लगातार मुंबई, बंग्लुरु जैसे राज्यों से नौकरी छोड़ कर वापस अपने राज्य जा रहे हैं. चूंकि उन्हें लगातार धमकियों से डराया जा रहा है. डीओटी ( डायरेक्टर ऑफ टेलीकम्यूनिकेशन ) ने हालांकि एक सराहनीय पहल की है कि उन्होंने बल्क संदेशों पर रोक लगा दिया है. यह पहली बार नहीं हो रहा जब उत्तर पूर्वी राज्यों के लोगों के साथ बदसलूकी की जा रही है. आज भी ऐसे कई लोग हैं जो इन्हें किसी अन्य देश का समझते हैं और उन पर फब्तियां कसते हैं. लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तमाम परेशानियों, प्राकृतिक आपदाओं व रोजगार की कम से कम विकल्प होने के बावजूद इन्हीं राज्यों ने मैरी कॉम जैसी महान खिलाड़ी दिखाया है. अगर सिने जगत की बात करें तो गुजरे जमाने से लेकर अब तक उन बेहतरीन कलाकारों की लंबी फेहरिस्त बन जायेगी. डैनी डिन्गजोप्पा जैसे बेहतरीन कलाकार इन्हीं राज्यों की देन है. सभी जानते हैं कि कम संसाधनों के बावजूद मणिपुर में एक बेहतरीन फिल्म इंडस्ट्री तैयार हो रही है और वहां अच्छी फिल्में भी बन रही हैं. हाल में वहां फिल्म फेस्टिवल भी आयोजित किये गये. ओनिम गौतम जैसे फिल्मकार लगातार वहां फिल्म जगत स्थापित करने की कोशिश में जुटे हैं. मैंने गांधी को नहीं मारा जैसी फिल्मों के निर्देशक जहानू बरुआ असम से ही हैं. लेकिन उनकी पहचान संवेदनशील हिंदी फिल्मों के निर्देशकों में भी होती है. हिंदी सिनेमा में अब भी परदे के पीछे कई फीसदी उत्तर पूर्वी राज्यों के लोग काम कर रहे हैं.ऐसे में जरूरी है कि हम उन्हें बेगानों की नजर से देखना बंद करें. दीपनिता शर्मा, श्रूति अग्रवाल हाल ही मे डीआडी की टॉप फाइव में रही प्रतिभागी भी वही से थी. वे भी प्रतिभावान हैं और औरों की तरह उन्हें भी अपने सपनों को पर लगाने का पूरा हक है और आजादी से जीने का भी

कैमरे के लेंस के शटर का गिरना


15 अगस्त को जब पूरे देश में आजादी का जश्न मनाया जा रहा था. उसी दिन हिंदी फिल्म इंडस्ट्री ने अपना एक बेहतरीन कैमरामैन खोया. हिंदी सिनेमा के सीनियर सिनेमेटोग्राफर अशोक मेहता का निधन हो गया. अशोक मेहता के निधन पर सभी समाचार चैनलों ने केवल खबर के रूप में इसे स्क्रॉल पर चलाया. यह हिंदी सिनेमा की विडंबना ही रही है कि यहां केवल फिल्मों के मुख्य कलाकारों के अलावा शेष किसी भी व्यक्ति के सिर पर न तो बधाई का सेहरा बांधा जाता है और न ही उनकी मौत पर मातम मनाया जाता है. जबकि विदेशों में वहां के कलाकारों के साथ साथ वहां के तकनीशियनों को भी बहुत अहमियत दी जाती है. हिंदी सिनेमा जगत भी अशोक मेहता जैसे बेहतरीन तकनीशियनों से भरा है. और जरूरत है कि उनके बारे में उनके कामों को दर्शकों तक लाया जाये. लेकिन ऐसे परदे के पीछे असल करामात दिखानेवाले लोगों के काम को कभी पूरी तरह निखर कर सामने नहीं लाया जाता. वाकई, कैसी अजीबोगरीब दुनिया है सिनेमा की. जिस कैमरेमैन के लेंस की बदौलत ही हम फिल्मों को परदे पर देख पाते हैं. उनके चेहरे हम कभी पहचानते भी नहीं. जबकि कैमरा मेन ही फिल्मों को दृष्टि देते हैं.बहरहाल अशोक मेहता उन सिनेमेटोग्राफर में से एक रहे, जिन्होंने न केवल संघर्ष से अपनी पहचान बनायी. बल्कि नये कलाकारों को मौके भी दिये. अजरुन रामपाल उनकी ही खोज हैं. अशोक मेहता को फिल्मों में एंट्री मशक्कत से मिली थी. उन्होंने कैंटीन ब्वॉय के रूप में कई स्टूडियो में काम किया. आरके स्टूडियो में कैंटीन ब्वॉय बनने के दौरान उन्होंने स्टूडियो फ्लोर पर जाना शुरू किया. पहले कैमरा कूली, फिर अटेंडेंट बने.उन्होंने बकायदा कभी कोई ट्रेनिंग नहीं ली. लेकिन काम करते करते सीख लिया. शशि कपूर के साथ अशोक मेहता ने कई फिल्मों में काम किया.

20120817

बॉलीवुड का शेरा


 बेशक सलमान बॉलीवुड के टाइगर हैं और बॉक्स ऑफिस के भी.  वजह सिर्फ लगातार सुपरहिट हो रही फिल्में नहीं, बल्कि अपनी शर्तो पर जीनेवाले वे एकमात्र सुपरसितारा हैं. जंगल के राजा की तरह ही उनके रुल व उनका मूड किसी के लिए नहीं बदलते. शायद यही वजह रही कि एक था टाइगर के इंटरव्यूज के सारे समाचार चैनल के सेट भी बकायदा यशराज स्टूडियो में ही बनाये गये. यह उनकी लोकप्रियता का ही जलवा है कि लगभग सारे मीडिया हाउस घंटों इंतजार के बावजूद डटे रहे. चूंकि सलमान अन्य सितारों की तरह बड़े मीडिया या छोटे मीडिया हाउस में भेदभाव नहीं करते. सो, लगभग सभी मीडियाकर्मी की हालत समान ही थी. इंटरव्यू का दिन तय हो रहा था. टाल दिया जा रहा है. आखिर कार तीन दिनों के लंबे इंतजार के बाद गुरुवार को  रात 11 बजे अंतत: सलमान से मुलाकात हुई. अपने मस्तमौले अंदाज में सलमान खान ने बातचीत की. 

सलमान खान सुबह से लगातार इंटरव्यू दे रहे थे. लेकिन इसके बावजूद वे फ्रेश नजर आ रहे थे. आदतन उन्होंने स्टूडियो के कमरे में प्रवेश करने के साथ ही मुस्कुरा कर अभिवादन किया. और फिर अपने स्टाइल में सोफे पर बैठ गये.  हमारे पहले सवाल का जवाब उन्होंने हल्के फुल्के अंदाज में दिया. यह टाइगर क्या क्या कर सकता है? सलमान ने मजाक करते हुए और हाथों से मच्छर मारते हुए कहा कि लो मार दिया मच्छर. की न आपकी सुरक्षा. बचाया न आपको डेंगू से. मलेरिया से. यह टाइगर देश की सुरक्षा करता है..अपने इसी जवाब में उन्होंने दर्शा दिया कि एक था टाइगर में टाइगर की मौजूदगी क्या मायने रखती है. सलमान की इस मुलाकात में उनका एक और व्यक्तित्व निखर कर सामने आया वह यह कि भले ही वह हल्की फुल्की फिल्में करते हों. लेकिन उन्हें देश दुनिया की समझ है और देश में हो रहे संवेदनशीलमुद्दों पर न सिर्फ वह सुझाव रखते हैं. बल्कि वे रियेक्ट भी करते हैं. फिर चाहे वह असम का मुद्दा हो या फिर सरबजीत का मुद्दा.
बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ता है..
सलमान, विस्तार से बताएं. फिल्म एक था टाइगर का टाइगर क्या क्या करतब दिखाता है. क्यों वह औरों से अलग है. क्या वह सुपरहीरो की तरह है?
नहीं, मैं यह तो नहीं कहूंगा कि टाइगर सुपरहीरो की तरह है कोई. वह कोई सुपरमैन की तरह करतब नहीं दिखाता. लेकिन हां, वह जो भी एक् शन करता है. जिस तरह लोगों को मारता है. वह अलग है. वह बनावटी नहीं लगेगा आपको. चूंकि फिल्म को जिस तरह से शूट किया गया है. और फिर जिस तरह से इसकी एडिटिंग की गयी है. बड़े परदे पर बिल्कुल अलग नजर आयेगा वह.इस फिल्म का टाइगर एकसाथ कई लोगों से जूझता है. टाइगर प्यार भी करता है. लेकिन उसमें गुस्सा भी है. लेकिन उसका मुख्य मकसद अपने देश की सुरक्षा है.
निर्देशक कबीर का मानना है कि अगर आप न कहते तो यह फिल्म नहीं बन पाती. चूंकि आप ही वर्तमान में एकमात्र टाइगर यानी लाजर्र देन लाइफ अभिनेता हैं?
 वह निर्देशक हैं. अगर वह सोचते हैं तो यह उनका नजरिया होगा ही. जहां तक बात मेरी समझ की है. मैं मानता हूं कि हां टाइगर का किरदार ऐसा ही है, जो वाकई टाइगर सा दिखे. लाजर्र देन लाइफ दिखे. वह जब एक साथ कई लोगों की धुनाई करे तो लोगों को अटपटा न लगे. टाइगर फिट बॉडी रखता हो. उसके चेहरे पर वह गुस्सा हो. वह प्रेजेंस हो. क्योंकि जब ऐसी फिल्में बनती हैं तो स्क्रीन प्रेजेंस बहुत मायने रखती है. आप यहां सिर्फ हंसा कर या सिर्फ रोमांटिक एक्सप्रेशन देकर नहीं बच सकते. लेकिन साथ ही मैं यह भी कहना चाहूंगा कि मैं लगातार ऐसी फिल्में कर रहा हूं जिसमें लाजर्र देन लाइफ किरदार हैं. हालांकि सब एक दूसरे से अलग हैं. लेकिन कभी कभी मैं सोचता हूं कि लगातार ऐसे किरदार करता रहा तो फिर इससे आगे करूंगा( हंसते हुए) .
इन दिनों आपकी हर फिल्म सुपरहिट हो रही है तो आप क्या मानते हैं फिल्म एक था टाइगर अगर सफल हो जाती है तो वजह सलमान खान होंगे, या फिल्म की कहानी या फिर फिल्म का बैनर.
देखिए इस पर अपनी बात बिल्कुल स्पष्ट रूप से कहना चाहूंगा कि यह सच है कि फिल्मों में सितारें भी मायने रखते हैं. लेकिन मेरी सारी फिल्में हिट हो रही हैं क्योंकि उनमें कहानी भी है. एक था टाइगर में भी अच्छा काम किया है कबीर ने. वह कम फिल्में बनाते हैं. लेकिन अच्छी फिल्में बना रहे हैं. अगर केवल सितारों से हिट होती फिल्में तो कोई सुपरसितारा फिल्म फ्लॉप नहीं होती. हां, यह सच है कि मैं वैसी फिल्में करता हूं जो मेरी पर्सनैलिटी और मेरी सोच से मेल खाती है. इसलिए दर्शकों को मैं पसंद हूं. दूसरी बात यह भी है कि मैं लकी हूं कि मुङो अच्छी फिल्में मिल रही हैं.
24 साल के बाद आप यशराज के साथ आ रहे हैं? कोई खास वजह?
कोई खास वजह नहीं थी. बस हर काम का अपना समय होता है. मुङो लगा कि अब मुङो यह िफल्म करनी चाहिए तो मैंने की. वैसे फिल्म यशराज की नहीं होती तब भी करता. क्योंकि फिल्म की कहानी अच्छी है.
फिल्म में कई अलग तरह के एक् शन दृश्य हैं और आप इन दिनों पूरी तरह स्वस्थ नहीं तो कुछ परेशानी हुई. साथ ही क्या फिल्म में संदर्भ के तौर पर कहीं से कुछ मदद ली या किसी रॉ एजेंट से मिले.
हंसते हुए आपको लगता है कि कोई रॉ एजेंट जिसके पास पूरे देश की जिम्मेदारी है उसके पास इतना वक्त होगा कि वह हमसे मिलेंगे. लेकिन हां यह जरूर है कि कबीर का होमवर्क बहुत है. मैं उन्हें बहुत पहले से जानता हूं. उनकी कुछ डॉक्यूमेंट्री वर्क देखी थी. अच्छी समझ है. वह पॉलिटिकली भी चीजों को रखना जानते हैं. जहां तक बात है एक् शन दृश्य के तो मुङो खास परेशानी नहीं हुई. जो एक् शन मास्टर थे. उन्होंने बहुत मदद की और पूरी फिल्म में सिर्फ एक् शन सीन ही थोड़ी फिल्माना था. मेरी रजामंदी के बाद ही दृश्य लिखे गये थे. वैसे अब मैं ठीक हूं. फैन्स की दुआ से कोई खास परेशानी नहीं. और मैं मानता हूं कि फिल्म अच्छी हो तो उसे तो प्रोमोशन की भी जरूरत नहीं. अगर मैं बात न भी करूं अभी तो लोग जायेंगे ही फिल्म देखने न.
कट्रीना के साथ लंबे अंतराल के बाद आप परदे पर आ रहे हैं तो तालमेल बिठाने में किसी तरह की कोई परेशानी हुई?
बिल्कुल नहीं. कट्रीना दोस्त थीं. रहेंगी. कोई लड़ाई झगड़ा या तनाव नहीं. वह मेहनती हैं और मैं देख रहा हूं वे लगातार ग्रो कर रही हैं. मुङो खुशी है. उनकी भाषा में भी अब काफी सुधार आया है. वे अपने अभिनय पर भी काम कर रही हैं. खुश हूं उनकी तरक्की देख कर.
आप फिल्में हल्की फुल्की  करते हैं. लेकिन सामाजिक व संवेदनशील मुद्दों पर आप हमेशा आगे आते हैं. जैसे आपने सरबजीत के मुद्दें पर उनके परिवार का साथ दिया. कोई खास वजह?
देखिए यह जरूरी नहीं कि हम जो अभिनय कर रहे हैं वही रियल लाइफ में हमारी सोच है. इसलिए तो वह एक्टिंग है. हम एक्ट कर रहे होते हैं. मैं फिल्में हल्की फुल्की करता हूं क्योंकि मेरे फैन्स को वह पसंद है. वे हॉल में रो कर या सिर खपा कर फिल्म देखने नहीं जाते. लेकिन जब बात वास्तविक जिंदगी की आती है तो सबसे पहले मैं एक rाुमन बिइंग हूं. मेरी कुछ अपनी सोच है. मुङो बुरा लगता है जब असम में ऐसे लड़की का रेप हो जाता है और मीडिया वहां तमाशा देखती है. अरे जाओ कुछ करो. नहीं कर सकते तो जाकर कम से कम पुलिस को फोन करो. सरबजीत के मुद्दे में मैं आया परिवार के साथ क्योंकि मुङो लगता है कि सरबजीत के साथ गलत हुआ है. जहां तक मैंने इस विषय को समझा है. तो मैंने साथ दिया. रही बात फिल्मों की तो मैं अपनी फिल्मों से भाषणबाजी नहीं कर सकता. पाठ नहीं पढ़ा सकता. हां, लेकिन मैं गालियोंवाली फिल्म नहीं बना सकता. क्योंकि मैं परिवार के साथ फिल्म देखता हूं और वैसी ही फिल्में देखना भी पसंद करता हूं.
रियल लाइफ में आपकी नजर में टाइगर कौन है?
जो अपने बड़ों का सम्मान करे. जरूरत पड़ने पर कायर न बने. छोटे छोटे काम भी करे तो वह भी हीरो है. अपने परिवार का साथ दे.
आपके लिए जिंदगी में सबसे महत्वपूर्ण
मेरे लिए मेरा परिवार, मेरे दोस्त और मेरे प्रशंसक जिंदगी में सबसे अधिक मायने रखते हैं.

20120816

किरदार अच्छा हो तो 200 किरदारोंवाली फिल्में भी करूंगी : कट्रीना




 कट्रीना कैफ लगातार बॉलीवुड में अपनी धाक जमा रही हैं. जो लोग उन्हें सिर्फ बार्बी डॉल या ग्लैमर की गुड़िया कह कर चिढ़ाते थे. कट्रीना उन्हें मुंहतोड़ जवाब दे रही है. वे लगातार अलग तरह की फिल्में कर रही हैं और अब तो वह एक् शन दृश्यों से भी गुरेज नहीं कर रहीं. यशराज की पसंदीदा अभिनेत्रियों में से एक कट्रीना एक हैं. एक था टाइगर उनके लिए विशेष फिल्म है.ऐसा वे खुद मानती हैं.

निर्धारित समय के अनुसार हम रात के 7.20 में यशराज स्टूडियो के कॉरपोरेट ऑफिस के पहले माले पर पहुंचते हैं. कट्रीना अभी दूसरे इंटरव्यू में व्यस्त थीं. हमने सोचा, प्राय: फिल्मी सितारें वक्त पर इंटरव्यू शुरू नहीं करते. तो, इस बार भी कुछ ऐसा ही होगा. लेकिन कट्रीना वक्त की बेहद पाबंद हैं. उन्होंने ठीक 7.20 में हमसे बातचीत शुरू की. कट्रीना जानती थीं कि हमें बातचीत का वक्त बेहद कम मिला है सो, वह अपनी भूख की बात जाहिर नहीं कर रही थीं. लेकिन जब उनके सामने सैंडविच आये और कॉफी का जग रखा गया है. तो वह भूख को रोक नहीं पायीं. बेहद शालीनता के साथ उन्होंने हमसे अनुमति ली और हमें भी कॉफी ऑफर किया. उन्होंने बताया कि वे लगातार इंटरव्यू दे रही हैं और उन्हें खाने का वक्त नहीं मिल रहा. सैंडविच हाथों में लेकर वे रिकॉर्डिग ऑन करने को कहती हैं और सॉरी फोर द डिले..लेकिन मैं बहुत भूखी थी. कह कर बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ाती हैं. फिल्म की बातचीत से परे इस मुलाकात से कट्रीना की व्यक्तित्व की यह खासियत तो पता चली कि वे ईमानदारी से प्रश्नों का जवाब देती हैं और वे सुपरसितारों की तरह दिखावटीपन की शिकार बिल्कुल नहीं. साथ ही कट्रीना अब हिंदी में बातचीत करने में बहुत सहज हो चुकी हैं.
फिलहाल बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ाता है.
कट्रीना लंबी सांस लेती हैं ओह नॉउ आइ एम रेडी
कट्रीना, एक था टाइगर के लिए हां कहने की वजह सलमान थे, यशराज बैनर था या फिर कोई और वजह?किस तरह की तैयारी की आपने.
सिर्फ और सिर्फ कबीर खान फिल्म के निर्देशक़. कबीर मेरे अच्छे दोस्त भी हैं और वे जानते हैं कि वह मुझमें से कौन सा किरदार निकाल कर सामने ला सकते हैं. वे जानते हैं कि मुझ पर क्या सूट करता है. जब मैंने न्यूयॉर्क साइन की तो फ्रैंकली स्पिकिंग मैंने यशराज बैनर की वजह से फिल्म साइन की थी. लेकिन जब मैंने कबीर के साथ काम किया तो मैंने महसूस किया कि वह जीनियस हैं. वे अपने किरदारों पर अपनी पटकथा पर विशेष रूप से काम करते हैं. बहुत नॉलेज हैं उनके पास. बाप रे. मैं तो उनकी जानकारी, फैक्ट्स का ए भी नहीं जानती. कबीर अब मेरे खास दोस्तों में एक बन चुके हैं. तो मैं उन पर विश्वास करती हूं. वह जो बनायेंगे. मेरे लिए बेस्ट ही होगा.जहां तक बात तैयारी की है तो अगर निर्देशक का होमवर्क पूरा हो तो फिर आपको बहुत कुछ सोचने की जरूरत नहीं पड़ती. ऐसा नहीं था कि एक था टाइगर में जो मेरा किरदार है उसके लिए मैं वेट पुटऑन किया या कम किया. हां, बस कबीर ने एक बात कही थी कि फिल्म में संवेदना को बरकरार रखना है. और मैंने कोशिश की है कि वह कायम रहे.
यशराज बैनर के साथ यह आपकी तीसरी फिल्म है. तो कैसा रहा है अब तक अनुभव?
बेहतरीन. मुङो लगता है कि मेरी जो शुरुआत हुई है यशराज के साथ वह सबसे बेहतरीन शुरुआत थी फिल्म न्यूयॉर्क की. मेरे लिए जिंदगी में मेरी सबसे स्पेशल फिल्म रहेगी न्यूयॉर्क. क्योंकि इसी फिल्म से दर्शकों ने मुङो गंभीरता से लेना शुरू किया था. उससे पहले मैं केवल कॉमेडी, मसाला फिल्में करती आ रही थी. शुरू में जब मैं यशराज से जुड़ रही थी तो मैं बहुत नर्वस थी. सलमान ने उस वक्त मुङो बहुत सपोर्ट किया था. दूसरी बात सलमान ने बताया था कि कबीर बेहतरीन फिल्म की सोच रखते हैं. और हुआ भी वही न्यूयॉर्क से मुझमें निखार आया और यशराज के साथ रिश्ता गहरा हुआ. मैं मानती हूं कि मेरी मेहनत रंग ला रही है तभी तो यशराज जैसे बैनर ने मुझ पर भरोसा किया है. एक था टाइगर के बाद धूम 3और शाहरुख के साथ काम करने का मौका भी मुङो यशराज बैनर ही दे रहा है.
यशराज लगातार आपको मौके दे रहा है. क्या आपको लगता है कि यह आपकी लोकप्रियता की वजह से है. आपका ग्लैमर है. यह वजह या फिर?
आपको लगता है कि केवल ग्लैमर के आधार पर कोई इतना बड़ा प्रोडक् शन हाउस पैसे लगा देगा. नहीं मैं नहीं मानती. मैंने यशराज की तीनों फिल्मों में खुद को प्रूफ किया है. आप देखें मेरी फिल्में. फिल्मों में मेरे किरदार को अहमियत ली है. लोगों ने उन किरदारों को याद रखा है. मेरे ब्रदर की चुलबुली डिंपल की शरारत अभी भी लोगों को याद है.
एक था टाइगर की शूटिंग का अनुभव कैसा रहा. लोगों को बहुत उम्मीद है फिल्म से. लेकिन सलमान खान की चर्चा ज्यादा हो रही है. तो ऐसे में आपके लिए फिल्म में अभिनय का स्कोप कितना रह जाता है.
निस्संदेह फिल्म का शीर्षक सलमान के किरदार पर है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मेरा किरदार खास नहीं है. मैं फिल्म में कलाकारों की संख्या पर ध्यान नहीं देती. अगर मेरा किरदार खास रहा और फिल्म में 200 किरदार भी होंगे तो मैं करूंगी. एक था टाइगर की स्क्रिप्ट इस तरह लिखी गयी है कि फिल्म में नायिका का किरदार भी खास हो जाता है. आखिर पूरी कहानी और टाइगर नायिका के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं.
आपको लगता है कि अब हिंदी फिल्मों में महिला प्रधान फिल्मों की संख्या बढ़ने लगी है. अच्छे किरदार मिल रहे हैं. एक्सपेरिमेंटल फिल्में करना चाहेंगी आप भविष्य में?
हां मैं मानती हूं. मैं इस लिहाज से लकी रही हूं. मुङो अब तक जितनी फिल्में भी मिली हैं. उन सब में मेरे किरदार प्रधान रहे हैं. और बॉलीवुड में अब अभिनेत्रियों को केवल नाच गाने के लिए नहीं रख रहे. जहां तक बात है एक्सपेरिमेंटल फिल्मों की तो अभी से कुछ नहीं कह सकती. अभी तो केवल 9-10 साल ही हुए हैं. अभी लंबा सफर तय करना है. मैं फिलहाल वही फिल्में करूंगी जो मैं खुद भी देखना चाहूं और मुङो एंटरटेनिंग फिल्में पसंद हैं.
आप तीन खानों के साथ काम कर रही हैं. और तीनों ही फिल्में यशराज बैनर की हैं.
हां, यह एक इत्तेफाक मात्र ही है. लेकिन बेहतरीन मौका भी है. इन तीनों में विशेष कर यश अंकल के साथ काम करने का अनुभव बिल्कुल नया रहा. शुरुआती दौर में  मैं यश अंकल से बहुत डरती थी. लेकिन धीरे धीरे उन्हें जब पता चला कि मैं उनसे बेहद डरती हूं तो उन्होंने मुङो सहज करने के लिए कभी कभी हल्का फुल्का मजाक करना शुरू किया. तो मैं भी सहज हुई और एक खास बात यह भी रही कि पता नहीं कैसे और क्यों लेकिन मैं यश अंकल से जब से मिली हूं. तब से लेकर अब तक जब भी मिलती हूं. उनके पैर छूती हूं. मुङो वह फादरली फिगर लगते हैं और मुङो सुकून मिलता है. जहां तक बात है तीनों खान की तो सलमान खान को मैं बेहद सेंसबल और केयरिंग मानती हूं. वे अपने साथ काम कर रहे लोगों का भी बहुत ध्यान रखते हैं. शाहरुख के पास सेंस ऑफ rाुमर अच्छा है और आमिर बहुत व्यवस्थित हैं. आमिर के साथ अभी शूटिंग शुरू नहीं की है. लेकिन कुछ मुलाकातें हुई हैं. उन्हें देखा तो मैंने मन में सोचा अच्छा तो लोग इसलिए उन्हें परफेक्टनिस्ट कहते हैं.
कट्रीना हमेशा अफवाहों में बनी रहती हैं या बनाई जाती हैं या फिर पीआर स्टोरिज की साजिश होती है.
हंसते हुए : सिर्फ साजिश होती है..हाहाहा. वैसे सच बताऊं तो हर दिन जितनी खबरें छपती हैं उनमें 35 प्रतिशत से अधिक किसी बात में सच्चाई नहीं होती. खबर आयी कि सलमान ने कार गिफ्ट की मुङो. गिफ्ट मुङो मिला और मुङो ही पता नहीं. अखबार बता रहे हैं. लेकिन मैं मीडिया में आ रही हर बात की सफाई नहीं दे सकती. मैं कोई बंधक नहीं हूं. दर्शक खुद समझदार हैं. झूठ तो झूठ होता है. जो सच है. वह सामने आ ही जायेगा.
लेकिन दर्शक तो वही इमेज बना लेते हैं जो मीडिया उन्हें दिखाती है?
तो यह आपलोगों की जिम्मेदारी है कि सही चीजें दिखाये उन्हें. हम स्टार्स आकर हर बात की सफाई नहीं दे सकते. यह संभव नहीं है प्रैक्टकली. मुङो लगता है कि अगर बताना ही तो बताओ न कि कौन कौन सी फिल्में कर रही हूं. क्या खाती हूं. क्या पहनती हूं .यह भी बताओ. लेकिन किससे क्या अफेयर चल रहा है. ब्रेकअप की बातें. ये सारी बातें बकवास हैं.




अनोखे प्रयोग से टैलेंट की तलाश : विशाल

फिल्म से जुड़े टैलेंट की खोज का दायरा रियलिटी शोज तक सीमित नहीं. स्नेहा खानवलकर के एमटीवी ट्रिपिन की तरह ही कई प्रयोग किये जा रहे हैं. ऐसे ही नये सोच के साथ एक अलग तरह का प्रयोग किया है विशाल चतुव्रेदी ने. पेश है उनसे बातचीत के प्रमुख अंश..
विशाल चतुव्रेदी सोशल नेटवर्किग साइट्स के जरिये कई युवा टैलेंट्स की खोज कर रहे हैं. फिर उनके गीतों पर आधारित वीडियो तैयार कर रहे हैं. वह भी पूरी तरह अपने बजट पर. वे खुद भी संगीतकार हैं. वे फिल्म ‘सिक्सटीन’ से बॉलीवुड में अपनी पहली पारी की शुरुआत करेंगे. फिलहाल वे फीचरिंग टैलेंट्स के माध्यम से नयी प्रतिभाओं की खोज कर रहे हैं.
फीचरिंग टैलेंट्स नामक इस प्रयोग की सबसे खास बात यह है कि यह टैलेंट केवल गायन के क्षेत्र में सीमित नहीं, बल्कि इसके माध्यम से नये गीतकार, संगीतकारों को भी तलाशा जा रहा है. विशाल लखनऊ के हैं. उन्होंने मेडिकल की पढ़ाई पूरी की, लेकिन दिल लगा रहा संगीत से.
इसलिए प्रैक्ट्सि के बावजूद डॉक्टरी को बाय बाय कहा और आ गये मुंबई. उन्होंने सीआइडी ( 15 साल पर आयोजित एंथम ), इंडिया ने बना दी जोड़ी, किचन चैंपियन जैसे शोज के लिए संगीत तैयार किया है. वे लगातार कई नये प्रयोग कर रहे हैं. हाल ही में उन्होंने फोटोग्राफी पर आधारित एक बेहतरीन वीडियो बनाया. जिनमें उन्होंने 4500 खींची गयी तसवीरों को एक वीडियो का रूप दिया है. विशाल कोई दावा नहीं करते कि वे किसी भी टैलेंट को कहीं कोई ऑफर दिलवा सकते हैं. हां, लेकिन उनके इस प्रयोग का उद्देश्य यही है कि वैसे टैलेंट जिन पर लोगों का ध्यान नहीं जा रहा है. कम-से-कम वे इन्हें देखें, सुनें.
कैसे आयी जेहन में बात : बकौल विशाल एक दिन हम अपने दोस्त की कविता का कविता पाठ कर रहे थे. मैंने उसे वीडियो में उतारा. वे सारे वीडियो मेरी मेमोरी कार्ड में काफी दिनों तक रहे. एक दिन जब मैं फ्री हुआ, तो उसे मैंने एडिट किया और फेसबुक पर अपलोड किया. एक हफ्ते में उस वीडियो को बेहतरीन प्रतिक्रिया मिली.
तभी मैंने तय किया कि हर हफ्ते मैं फेसबुक या दूसरे सोशल नेटवर्किग के माध्यम से नये टैलेंट को सर्च करूंगा, जो बॉलीवुड में अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. संगीत के क्षेत्र में. देशभर में ऐसे कई टैलेंट्स हैं, जिनको मौके नहीं मिलते.
गुणवत्ता बरकरार : हम वीडियो बनाने में कोई हाइफाइ तकनीक का इस्तेमाल नहीं कर रहे. लेकिन इसकी गुणवत्ता को जरूर बरकरार रख रहे हैं.

मेरे टाईगर सलमान ही बन सकते थे : कबीर खान


उन्होंने 4 सालों में 50-60 मुल्कों का भ्रमण कर लिया था. इन मुल्कों में उन्होंने जिंदगी की वास्तविकता को करीब से जाना. और यही वजह रही कि वे आम प्रेम कहानियों से हट कर काबुल एक्सप्रेस, न्यूयॉर्क जैसी फिल्में बनाने में कामयाब रहे. उनकी फिल्मों के निर्देशन शैली से ही उनकी अंतरराष्ट्रीय स्तर की राजनीतिक समझ स्पष्ट तौर पर नजर आती है. वास्तविकता के नजदीक रहते हुए भी वे फिल्मों में rाुमन एंगल देने से नहीं चूकते. चूंकि वे मानते हैं कि फिल्मों से लोग भावनात्मक रूप से जुड़ेंगे. तभी वह फिल्म है. बात हो रही निर्देशक कबीर खान. जो यशराज की अब तक की सबसे महंगी और बहुप्रतिक्षित फिल्म एक था टाइगर के निर्देशक हैं. पेश है अनुप्रिया अनंत से हुई उनकी बातचीत के मुख्य अंश

कबीर खान उन हिंदी फिल्मों के उन निर्देशकों में से एक हैं जिन्होंने कम फिल्में बनाई हैं. लेकिन दर्शक उनकी फिल्मों को अब भी याद करते हैं. कबीर खान उन निर्देशकों में से एक हैं, जिनकी फिल्में देखने के बाद दर्शक थियेटर से निकलते हुए यह चर्चा निश्चित रूप से करते हैं कि यार फिल्म के निर्देशक हैं कौन. यह एक निर्देशक की बड़ी कामयाबी है.
कबीर, एक था टाइगर कैसे आयी जेहन में? कैसे बना इस फिल्म का संयोग और कैसे मिला यशराज का साथ.
आदी( आदित्य चोपड़ा) मेरे पास वन लाइनर स्टोरी लेकर आये थे. न्यूयॉर्क की शूटिंग के दौरान. उन्होंने कहा कि कबीर देखो. मुङो पुख्ता नहीं पता. लेकिन ऐसा कोई रॉ एजेंट था. टाइगर नाम था उसका शायद. वह महत्वपूर्ण व्यक्तित्व थे और मुङो लगता है कि लोगों को उनके बारे में जानना चाहिए. टाइगर एक लीजेंड थे. मुङो ऐसी कहानियों ने हमेशा ही आकर्षित किया है तो बस मैं लग गया इस फिल्म की रिसर्च में. न्यूयॉर्क उस वक्त पूरी हो चुकी थी. जैसे जैसे मैंने और मेरे को राइटर नीलेश मिश्र ने इस पर रिसर्च किया. परतें खुलती गयी. चौंकानेवाली चीजें सामने आने लगीं. हमें लगा हिंदी सिनेमा में अब तक ऐसे विषय पर कहानी नहीं बनी है. मैं वाकई आदित्य की समझ और पारखी सोच की तारीफ करना चाहूंगा. उन्हें राजनीति विषयों में दिलचस्पी नहीं है. लेकिन वह राजनीति समझ अच्छी रखते हैं. मुङो खुशी है कि ऐसे विषय पर फिल्म बनाने के लिए उन्होंने मुझ पर विश्वास किया.
रिसर्च में कितनी और कैसी मेहनत की आप दोनों ( नीलेश मिश्र)ने. परेशानियां क्या क्या आयीं?
चूंकि मैं काफी लंबे अरसे से डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के सिलसिले में और विशेष कर काबुल एक्सप्रेस बनाने के दौरान अफगानिस्तान के कई इलाकों से वाकिफ था. वहां के कई इंटेलीजेंस ब्यूरो से मिल चुका था. और इस फिल्म के लिए मैं चाहता था कि सिर्फ बैकड्रॉप के रूप में खूफिया एंजेंसी जैसी चीजें न दिखाऊं. मैं इसे वास्तविकता के करीब लाना चाहता था. सो, कोशिश की कि रिसर्च के दौरान उस दौर में जाने की कोशिश करूं. जबकि घटनाएं हैं. वहां के कई लोगों से मिले हम. तथ्यों के आधार पर और कुछ अनुमान के आधार पर चूंकि फिल्म फीचर है तो उसमें फिक् शन का टच देकर कहानी गढ़ने की कोशिश की. वैसे यह खास अंदाज मैंने आदी से सीखा है. आदी इस बात में माहिर हैं कि वे रियलिस्टिक अप्रोच देते हुए भी दर्शकों को हमेशा ध्यान में रख कर कहानी का प्लॉट डेवलप करते हैं और एक था टाइगर में वही rाुमन टच बरकरार है. यहां भी प्रेम कहानी है. लेकिन स्टोरीटेलिंग का अंदाज थोड़ा डॉक्यूमेंट्री ऐतिहासिक राजनीतिक अंदाज का है और मैं अगर अपनी फिल्मों में यह सब एंगल न दूं तो मुङो फिल्म खोखली लगने लगती है.जहां तक बात है परेशानियों की तो मुङो ऐसे ही मुल्कों में घूमने में शुरुआती दौर से ही मजा आता रहा है और मैं रिस्क को भी एंजॉय करता हूं.

लेकिन एक था टाइगर, न्यूयॉर्क, काबुल एक्प्रेस जैसी फिल्में यशराज जॉनर की फिल्में नहीं हैं. फिर कैसे एक के बाद एक आपने लगातार ऐसे ही विषयों का चुनाव किया और यशराज बैनर ने आपको चुना?
दरअसल, काबुल एक्सप्रेस जब मैंने लिख कर पूरी की थी. मैं नया नया दिल्ली से आया था मुंबई. फीचर फिल्मों का कोई अनुभव था नहीं न ही किसी को जानता था मैं. मैं कहानियां ले लेकर मिलता रहता था. छोटे बजट की फिल्म थी यह. हर कोई सुनता. लेकिन बनाने के लिए कोई तैयार नहीं. उस वक्त मेरे  एक दोस्त ने बताया कि यशराज ट्रैक से हट कर कुछ करना चाहते हैं. उन तक स्क्रिप्ट पहुंची.मेरे दोस्त ने ही दे दी थी. मुङो यशराज से कॉल आया कि आइए बात करनी है. मिलने आया तो आदित्य ने कहा वह काबुल एक्सप्रेस प्रोडयूस करेंगे. मेरे लिए तो सपने जैसा था. इसी फिल्म से यशराज ने अपनी छवि तोड़ी. और फिर लगातार मुङो मौका दिया कुछ नये एक्पेरिमेंट करने के लिए. न्यूयॉर्क का आइडिया भी आदी का ही था. अब तो यशराज घर जैसा है. मुङो तो इसी ने सबकुछ दिया है.
लोगों की आशाएं फिल्म एक था टाइगर से बहुत ज्यादा बढ़ गयी हैं. यशराज की सबसे महंगी फिल्म है यह. तो किस तरह की जिम्मेदारी रही आप पर. और किन किन लिहाज से यह फिल्म बिल्कुल अलग है.
सबसे पहली बात फिल्म में सलमान खान हैं, जो बॉलीवुड के टाइगर हैं. दूसरा इसके साथ यशराज बैनर है. तीसरी बात यह है कि इसके दृश्य ऐसे ऐसे स्थानों पर शूट किये गये हैं, जहां आज तक बॉलीवुड तो क्या हॉलीवुड फिल्में भी नहीं फिल्मायी गयी होंगी. क्यूबा में किसी फिल्म की पहली बार शूटिंग हुई है. माजर्न, इराको जैसी जगहें हैं जहां कभी शूटिंग के बारे में सोचा नहीं जा सकता था. लोकेशन के अलावा फिल्म की दमदार कहानी. जहां तक बात है जिम्मेदारी की तो यह सच है कि जिम्मेदारी है. लेकिन बॉक्स ऑफिस पर 100 करोड़ कलेक् शन की जिम्मेदारी नहीं है. वह इस फिल्म का उद्देश्य भी नहीं है. मैं अपनी हर फिल्म से एक अलग बाउंडरी लाइन तोड़ना चाहता हूं. दस साल बाद भी अपनी फिल्में देखूं तो लगे मैंने कुछ अलग किया है और चीजों को रिडिफाइन किया है. यह स्पष्ट है कि मेरी फिल्मों में चीजों का अंतरराष्ट्रीय नजरिया. स्थिति दिखता रहेगा.
अंतरराष्ट्रीय नजरिये की बात की अभी आपने? क्या वजह है कि आपकी फिल्में भारत की सरहदों के पार के विषय पर ही होती है.
जैसा की मैंने कहा शुरुआती दौर में ही मैं सईद नकवी साहब हैं वह बेहतरीन जानकार थे. उनके साथ मैंने चार सालों में 50-60 मुल्कों का भ्रमण किया है. नजदीक से लोगों की जिंदगी देखी है. उन्होंने मुङो बताया था कि दुनिया में क्या हो रहा है क्या नहीं. इस पर केवल हम बीबीसी व कुछ चुनिंदा चैनलों के माध्यम से ही जान पाते हैं. उन्होंने जैसा दिखा दिया.हम उस पर विश्वास कर लेते हैं. जबकि हकीकत इससे परे होती है.इसलिए हमें आंखों से देखना जरूरी है और विश्व में क्या हो रहा है. इससे हम भारत में रहें कहीं भी प्रभाव पड़ता है. सो, उनकी वजह से मैंने विश्व स्तरीय नजरिये तैयार करना शुरू किया.यही वजह है कि मेरी फिल्मों में वह अप्रोच नजर आता है.

कबीर वाणी 
टाइगर सलमान के बारे में
सलमान को दो साल पहले की मीटिंग याद थी : कबीर
मैं एक बात से स्पष्ट था कि सलमान ही इस फिल्म में टाइगर होंगे. चूंकि वर्तमान में वही एक स्टार हैं जो लाजर्र दैन लाइफ किरदार निभा सकते हैं. हुआ यूं था कि शुरुआती दौर में मैंने अपने एक दोस्त की वजह से काबुल एक्सप्रेस का नैरेशन सलमान को सुनाया था और उन्हें डीवीडी दी थी. जो मैंने रिसर्च के दौरान बनाई थी. बकायदा सलमान ने मेरी डीवीडी देखी थी और पूरा नैरेशन सुना था. उन्होंने कहा था कि अच्छी स्टोरी है. फिर बाद में न्यूयॉर्क के दौरान जब कट्रीना को मैंने अपनी फिल्म में ऑफर किया तो कट्रीना ने सलमान से पूछा. सलमान ने पूछा कि निर्देशक कौन है. कट्रीना ने बताया कबीर खान हैं कोई. सलमान ने कहा आंख बंद करके फिल्म के लिए हां कह दो. कट्रीना ने मुङो न्यूॉर्क में फिल्म शूटिंग के काफी बाद में यह बात बताई. मेरा आत्मविश्वास बढ़ गया इस बात से.मैं जब सलमान से मिला तो उन्होंने पूरी कहानी सुनी और कहा करूंगा काम.ऐसी कहानियां कही जानी चाहिए. उस दिन से लेकर अब तक उन्होंने फिल्म को पूरा सपोर्ट किया. हमने 110 दिनों के शेडयूल में काम पूरा कर लिया. जो लोग यह मानते हैं कि सलमान कैजुअल कलाकार हैं तो मैं गलतफहमी दूर करना चाहूंगा. सलमान को राजनीतिक व सामाजिक समझदारी है. वे सेंसेटिव हैं.अगर ऐसा न होता तो बिइंग rाुन जैसे संस्थान को इस तरह से सफल नहीं बना पाते वह. सलमान कहानी पर बिल्कुल हावी नहीं हुए हैं. उन्होंने टाइगर को कहानी के मुताबिक जिया है.
कट्रीना के बारे में
कट्रीना सबसे मेहनती अभिनेत्री हैं: कबीर
लोगों के जेहन में यह छवि बन गयी है कि कट्रीना केवल ग्लैमरस हैं. लेकिन सच्चाई यह है कि कट्रीना जितनी मेहनती लड़की कोई नहीं है पूरी इंडस्ट्री में. अगर हम 20 घंटे शूट करना चाहते हैं तो वह 22 घंटे काम करने के लिए तैयार रहती है. जानकर शायद आश्चर्य होगा कि वे स्क्रिप्ट देवनागरी में ही पढ़ती हैं आप. उन्होंने हिंदी इस तरह सुधार ली है अपनी . मेहनत की बदौलत. हम लोग आज कल सॉफ्टवेयर की वजह से रोमन हिंदी में स्क्रिप्ट पढ़ते हैं. मैं कट्रीना को बेहतरीन अभिनेत्रियों में से एक मानता हूं.

कबीर पुराण
अपनी पहली ही फिल्म काबुल एक्सप्रेस से उन्होंने एक संवेदनशील मुद्दे को उठाया और उसे परदे पर बखूबी उतारा. दो जर्नलिस्ट फोटोग्राफर किस तरह अफगानिस्तान की जिंदगी से रूबरू होते हैं और किस कदर वे उन सच्चाईयों को कैमरे में कैद कर पाते हैं. यही थी काबुल एक्सप्रेस की कहानी. हिंदी फिल्मों में अफगानिस्तान जैसे संवेदनशील स्थान पर ऐसी फिल्म बनाना. वास्तविक लोकेशन के साथ किसी जोखिम से कम नहीं था. लेकिन शुरुआती दौर से ही डॉक्यूमेंट्री फिल्मों से जुड़ाव होने की वजह से उन्होंने मुख्यधारा से विपरीत जाकर अपने डॉक्यूमेंटेशन जिंदगी को फीचर का रूप दिया. वे पहली फिल्म से ही स्थापित हो चुके थे. उनकी अगली फिल्म न्यूयॉर्क में उन्होंने 9-11 मसले को उठाया और इसे खूबसूरती से दर्शाया. फिल्म के अंत में दिखाये गये रिसर्च उनकी विश्वसनीयता को दर्शाते हैं. फिर एक लंबे अंतराल के बाद वह एक था टाइगर लेकर आ रहे हैं. तीन साल में उन्होंने इस फिल्म के लिए सबसे अधिक वक्त रिसर्च में दिया. कबीर की शैली की यह खासियत है कि उनकी फिल्में दर्शकों को सोचने पर मजबूर करती है और केवल गीतों के लिए खूबसूरत लोकेशन का इस्तेमाल करनेवाले हिंदी निर्देशकों को दर्शाती है कि किसी अंतरराष्ट्रीय विषय को किस नजरिये से प्रस्तुत किया जा सकता है. एक था टाइगर भी इसी क्रम की अगली कड़ी है.

कैमरा कट अभिनय



बॉलीवुड में फिल्मी खानदान से आये नये चेहरों को सुपरस्टार बनते हमने लगातार देखा है. लेकिन बॉलीवुड में इन दिनों वैसे फिल्मी खानदान के चिराग भी हैं, जिन्होंने अभिनय से पहले निर्देशन से शुरुआत की है. बतौर अस्टिेंट उन्होंने निर्देशन की ट्रेंिनंग ली है और इसके बाद वे अभिनय में आये हैं. बॉलीवुड में ऐसे नये चेहरों की फेहरिस्त लंबी है. अनुप्रिया अनंत की रिपोर्ट

हिंदी फिल्मों में प्राय: अभिनय और निर्देशन का साथ रहा है. कई ऐसे निर्देशक हैं जिन्होंने फिल्में भी बनाई है और अभिनय भी किया है. कई ऐसे भी हैं जो अभिनय के बाद निर्देशन के क्षेत्र में आये. लेकिन इस क्रम में एक प्रचलन यह भी रहा है कि कई स्टार पुत्र पुत्रियों ने पहले निर्देशन से शुरुआत की और फिल्म अभिनय को चुना.
नील मुकेश
नील नीतिन मुकेश नीतिन मुकेश के बेटे हैं. नील ने अभिनय से पहले यशराज बैनर की कई फिल्मों में बतौर अस्टिेंट निर्देशक काम किया है और निर्देशन की बारीकियां सीखी है. फिर वह फिल्मों में आये. नीतिन ने शुरुआती दौर में बाल कलाकार के रूप में भी काम किया है.
रनबीर कपूर
इन दिनों चार्मिग ब्वॉय व सुपरस्टार रॉकस्टार बने रनबीर कपूर ने भी निर्देशन में ही खास पढ़ाई की है. वहअपने दादा राज कपूर की तरह ही भविष्य में निर्देशक बनने का सपना देखते हैं और उन्होंने इसमें बारीकी से काम भी किया है. विदेश में पढ़ाई पूरी करने के बाद ही वे फिल्मों में अभिनय के लिए आये. उन्होंने संजय लीला भंसाली को फिल्म ब्लैक के दौरान बतौर अस्टिेंट निर्देशक अस्टिट किया है. इसके बाद वे पारंगत होकर अभिनय में आये.फिल्म सांवरिया में भी उन्होंने संजय को मदद की थी.
सोनम कपूर
सोनम कपूर ने भी अभिनय करने से पहले ब्लैक में संजय लीला भंसाली को बतौर अस्टिेंट निर्देशक अस्टिट किया. रनबीर कपूर के साथ ही. भविष्य में वह भी निर्देशन के क्षेत्र में आना चाहती हैं.
सिद्धार्थ मल्होत्र
सिद्धार्थ मल्होत्र फिल्मी खानदान से नहीं ैहं. लेकिन उन्होंने करन जाैहर को फिल्म माइ नेम इज खान के दौरान अस्टिट किया था. वही करन की नजर सिद्धार्थ पर गयी  और करन ने उन्हें अपनी अगली फिल्म के लिए साइन कर लिया. स्टूडेंट ऑफ द ईयर से सिद्धार्थ लांच हो रहे हैं.
वरुण धवन
वरुण धवन डेविड धवन के बेटे हैं. उन्होंने अपने पिता के साथ साथ करन जोहर को भी अस्टिट किया है. फिल्म माइ नेम इज खान के दौरान. इसी वक्त करन ने इन्हें भी अपनी फिल्म के लिए साइन कर लिया था.
ऋतिक रोशन
सुपरस्टार ऋतिक रोशन ने भी अभिनय से पहले पापा राकेश रोशन के साथ लगभग पांच सालों तक निर्देशन का काम किया है. उन्होंने फिल्म कोयला, करन अजरुन के वक्त अपने पिता को अस्टिट किया था. बाद में वे कहो न प्यार है से लांच हुए.


राजकपूर ने भी अपनी शुरुआत बतौर अस्टिेंट केदार शर्मा के साथ शुरू की थी. बाद में वे अभिनय में आये.
गुरुदत्त ने भी पहले निर्देशन फिर फिल्मों में अभिनय की शुरुआत की.

 संजय लीला भंसाली
निर्देशन से अभिनय में भी निखार आता है.
मेरा मानना है कि अगर एक अभिनेता निर्देशन की समझ रखता है तो उसका किरदार और निखरता है और वह एक निर्देशक की बात को बखूबी समझ पाता है,और उसे हूबहू उतार पाता है. मेरा मानना है कि बारीकी आती है निर्देशन की समझ होने से अभिनय में.

अन्ने घोड़े दा दान में पंजाब



फिल्मों में जब भी पंजाब का संदर्भ आता है. सरसो के लहलहाते खेत, पंजाबी भांगड़ा, शादी व्याह का माहौल और मौज मस्ती के दृश्य ही जेहन में आते हैं. चूंकि पंजाब को लेकर अब तक फिल्मकारों ने कुछ ऐसी ही छवि प्रस्तुत की है. खुद अजय देवगन सन ऑफ सरदार लेकर आ रहे हैं जिनमें एक संवाद भी है कि अगर सरदार न होते तो जोक्स नहीं होते दुनिया में.लेकिन अब तक जो पंजाब दर्शाया जाता रहा है. पंजाब की वास्तविकता बस उतनी ही नहीं है. हाल ही में एक फिल्म रिलीज हुई है अन्ने घोड़े दा दान. फिल्म का  निर्देशन गुरविंदर ने किया है. भारतीय स्वतंत्रता दिवस के मौके पर एक तरफ जहां एक था टाइगर जैसी एंटरटेनिंग फिल्म रिलीज हो रही है. वही दूसरी तरफ अन्ने घोड़े दा दान भी महत्वपूर्ण फिल्म में से एक है. यह फिल्म पंजाब की वास्तविकता, वहां के लोगों के दर्द को समझने के लिए जरूर देखा जाना चाहिए. हम स्वाधीनता दिवस का जश्न मना रहे हैं और हम यह भूल नहीं सकते कि भारत को स्वाधीनता दिलाने में पंजाब का व वहां के लोगों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. लेकिन आज भी यहां के लोग कई परेशानियों से जूझ रहे हैं. लेकिन भारत में सिनेमा के व्यवसायिकरण की वजह से यह विडंबना है कि यह फिल्म पंजाब में ही अब तक रिलीज नहीं हो पायी है. चूंकि इस फिल्म के कॉर्मिशियल वैल्यू बेहद कम हैं. लेकिन ऐसी फिल्मों को प्रोत्साहन मिलना ही चाहिए. तभी फिल्में बन पायेंगी. वैसे एनएफडीसी ने इस साल अपने बैनर तले कई ऐसी फिल्मों को प्रमोट किया है. इस फिल्म की एक खासियत यह भी है कि फिल्म में पंजाब के कलाकारों को व पंजाबी लोक गीत व वहां के स्थानीय लोगों को भी शामिल किया गया है. गुरविंदर की इस फिल्म को भारत में जहां भी रिलीज किया गया है. उन्हें सराहना मिल रही है.

फ़िल्मकार कलाकार तिग्मांशु

सैफ अली खान को लेकर तिग्मांशु धूलिया फिल्म बुलेट राजा का निर्देशन करने जा रहे हैं.फिल्म की कहानी उत्तर प्रदेश के एक माफिया पर आधारित है और यह अंडरवर्ल्ड के इर्द-गिर्द घूमती हुई होगी. तिग्मांशु रानी मुखर्जी को लेकर भी एक बायोपिक कहानी की परिकल्पना कर रहे हैं. हाल ही में तिग्मांशु ने गैंग्स ऑफ वासेपुर में रमाधीर सिंह के रूप में खलनायक की भूमिका निभायी. फिल्म पान सिंह तोमर भी उनका ही सृजन है और साहेब बीवी गैंगस्टर जैसी फिल्म भी उनकी ही फेहरिस्त में शामिल है. तिग्मांशु भी वर्तमान में उन्हीं निर्देशकों में से एक हैं जो लीक से हटकर काम कर रहे हैं और अपनी अगली हर पारी में वे बिल्कुल अपने पहले सृजन से हट कर रच रहे हैं. और हर रूप में वे कामयाब हैं. हिंदी सिनेमा जगत में ऐसे कल्पनाशील व सृजनशील व्यक्तियों की संख्या बहुत कम है जो कई विधाओं में माहिर हों. लेकिन तिग्मांशु उनमें से एक हैं. अगर उन्हें वाकई जैक ऑफ ऑल और मास्टर ऑफ ऑल की उपाधि दी जाये तो गलत न होगा.यह उल्लेखनीय है कि पान सिंह तोमर इस साल की एकमात्र ऐसी फिल्म है जिसके बारे में किसी ने भी नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दी है. एक तरफ जहां तिग्मांशु पान सिंह जैसी बायोपिक फिल्म बनाते हैं. वही वे गैंग्स ऑफ वासेपुर में स्थापित कलाकार और मंङो कलाकार की तरह फिल्म में अपनी उपस्थिति दर्शाते हैं. एक कूटनीतज्ञ खलनायक के रूप में गैंग्स का किरदार हमेशा याद रखा जायेगा. उनकी फिल्मों के दृश्यों की खासियत है कि वे वास्तविकता के बिल्कुल करीब होते हुए भी डॉक्यूमेंट्री नहीं लगती.  स्पष्ट है कि आनेवाले समय में तिग्मांशु सबसे मजबूत, कल्पनाशील निर्देशक व लेखक के रूप में स्थापित हो जायेंगे और आनेवाले समय में लगभग सभी सुपरसितारा उनके साथ एक फिल्म जरूर करेंगे. चूंकि तिग्मांशु में कलाकारों को निखारने की भी खूबी है.

उधार की आवाज, आवाज ही पहचान




कई लोगों का मानना है कि फिल्म पत्रकारिता या फिल्म पर गंभीरता से या विषयपरक केवल मुंबई में रह कर ही लिखा जा सकता है. पुख्ता जानकारियां केवल मुंबई में रहनेवाले लोग ही दे सकते हैं. लेकिन वास्तविकता यह है कि ऐसे कई सिने प्रेमी भी हैं जो मुंबई मेन न रहते हुए भी मुंबई की मायानगरी पर विशेष जानकारी रखते हैं. कुछ ऐसी ही शख्सियत है जयपुर में रहनेवाले पवन झा की. पवन झा संगीत की न सिर्फ समझ रखते हैं, बल्कि उनके पास हिंदी सिनेमा के संगीत से जुड़ी दिलचस्प व अद्वितीय जानकारियों का भंडार है. उनका फेसबुक प्रोफाइल दरअसल, संगीत पर लिख रहे लोगों के लिए इनसाइक्लोपिडिया है. इसी क्रम में उन्होंने हाल ही में एक वीडियो अपलोड किया है. यह वीडियो कई मायनों से उल्लेखनीय है. इस वीडियो में पवन झा और उनके सहयोगियों ने कुछ ऐसे गायकों की फेहरिस्त शामिल की है. जिन्होंने गायक होते हुए भी कभी परदे पर दूसरे गायक की आवाज उधार ली हो. और उन गायकों को भी शामिल किया है, जो परदे पर नजर आये. जानकर आश्चर्य हो कि फिल्म भागमभाग, रागिनी व कई फिल्मों में किशोर कुमार को मोहम्मद रफी ने आवाज दी है. अमीरबाई कर्नाटकी ने सुधा मल्होत्र की आवाज ली है. मन्ना डे भी किशोर की आवाज बन चुके हैं.दूसरी तरफ फिल्म आह में मुकेश परदे पर नजर आये हैं तो रफी फिल्म जुगनू में परदे पर नजर आते हैं.तलत महमूद सोने की चिड़िया में. दरअसल, यह वीडियो केवल प्रोफाइल वीडियो नहीं है. बल्कि हिंदी सिने जगत की एक वास्तविकता को भी दर्शाता है और उस दौर की आत्मीयता को भी दर्शाता है कि उस दौर में लोग पटकथा के मुताबिक दूसरे गायकों की आवाज लेने में भी अपने इगो को बीच में नहीं लाते थे और पूरी तरह से सहयोग करते थे. शायद वर्तमान में ऐसे प्रयोग करना या सोचना संगीतकारों के लिए कठिन हो

सितारें भी हैं आम इंसान


अभी कुछ दिनों पहले राजेश खन्ना की अंतिम शवयात्र में विशेष कर उस वक्त भीड़ आपे से बाहर हो गयी, जब अमिताभ बच्चन अपने बेटे अभिषेक के साथ वहां पहुंचे. कई लोगों ने अमिताभ बच्चन को धक्के भी लगाये. इस बात से आक्रोशित होकर अमिताभ ने अपने ब्लॉग पर लिखा कि वे इस बात से बेहद दुखी होते हैं, जब कई बार लोग सेलिब्रिटिज को सिर्फ स्टार मानते हैं और माहौल को न समझते हुए सिर्फ स्टार्स को देखने के लिए आते हैं. उनकी इस तीखी बातों से अमिताभ बच्चन के प्रशंसक बेहद नाराज भी हुए. लेकिन हकीकत दरअसल, यह है कि कई बार हम यह भूल जाते हैं कि स्टार्स भी हैं तो आम आदमी ही न. हमारी तरह उन्हें दुख, खुशी होती होगी.कुछ सालों पहले गोविंदा की बेटी की तबियत बुरी तरह खराब थी. लेकिन हॉस्पिटल में मीडिया के लोग गोविंदा से सवाल किये जा रहे थे उन्हें कैसा लग रहा है? राजेश खन्ना की अंतिम शवयात्र में भी लोग बार बार सिर्फ बाबू मोशाय चिल्ला रहे थे. दरअसल, सितारों का प्रभाव मंडल हम पर इतना हावी रहता है कि जब वह सामने हो तो हम कुछ और समझ नहीं पाते.विविध भारती के सुप्रसिद्ध उदघोषक यूनूस खान ने एक दिन अपने फेसबुक पोस्ट पर लिखा था कि रेडियो पर हर दिन बोलनेवाला व्यक्ति भी दुखी हो सकता है. इसलिए हमें हमेशा सर्वश्रेष्ठ की उम्मीद नहीं करनी चाहिए. कुछ दिनों पहले ही अभिनेत्री कट्रीना से मुलाकात हुई. इंटरव्यू शुरू होने से पहले उन्होंने सैंडविच खाने की अनुमति मांगी. ऐसा लग रहा था कि वे कोई पाप कर रही हैं. वे ग्लानि महसूस कर रही थीं कि इंटरव्यू शुरू होने में विलंब हो रहा है. लेकिन उन्हें भूख भी लगी थी. आम व्यक्ति को भी भूख लगे तो उसे और कुछ नहीं सूझता.ऐसे में अगर स्टार्स भी कभी आम व्यक्ति की तरह बर्ताव करे तो उस बात का इस्.ू नहीं बनना चाहिए. चूंकि आखिर स्टार भी तो हैं आम इंसान ही

हास्य प्रधान फिल्म की अभिनेत्री




राजकुमार गुप्ता की फिल्म घनचक्कर की शूटिंग शुरू हो चुकी है.  इमरान हाशमी व विद्या बालन मुख्य किरदार में हैं. राजकुमार हजारीबाग से हैं और इससे पहले उन्होंने आमिर और नो वन किल्ड जेसिका जैसी सामाजिक विषयों व भावनाओं पर फिल्म बनाई है.लेकिन इस बार वह कॉमेडी फिल्म लेकर आ रहे हैं. विद्या बालन ने अब तक जितनी भी फिल्मों में काम किया है वह या तो महिला प्रधान फिल्में रही हैं या गंभीर फिल्में. ऐसे में विद्या के लिए यह पहली बार होगा जब वह पंजाबी हाउसवाइफ के रूप में दर्शकों को हंसायेंगी. राजकुमार  ने अब तक लोगों को आमिर व नो वन से चौंकाया है. इस बार वे अपनी विधा बदल रहे हैं और एक अलग जोनर की फिल्म बना रहे हैं. विद्या को लेकर हास्य फिल्म बनाने की उनकी परिकल्पना वाकई दिलचस्प है. दरअसल, हिंदी फिल्मों के दर्शकों व मेकर्स के साथ वर्तमान में एक परेशानी रही है वह अभिनेत्रियों को ध्यान में रख कर अलग जॉनर की फिल्में सोच ही नहीं पाते. और साथ ही अभिनेत्रियां भी हास्य भूमिका करने से कतराती हैं. जबकि गुजरे जमाने की याद करें तो मधुबाला, नूतन जैसी अभिनेत्रियों ने भी दर्शकों को खूब हंसाया है. याद करें सीता-गीता की हेमा मालिनी को या फिर  जया भादुड़ी और शर्मिला टैगोर के चुपके चुपके को. किस तरह इनकी अदाकारी पर दर्शकों ने खूब आनंद उठाया था. सीता और गीता से ही प्रेरित वर्षो बाद जब चालबाज आयी तो श्रीदेवी ने अपनी दोहरी भूमिका से भी फिल्म में क्या ताजगी ला दी थी. माधुरी दीक्षित ने भी बाद के दौर में अपनी फिल्मों में हास्य का साथ नहीं छोड़ा. कट्रीना की अजब प्रेम में भी कट्रीना ने बेहतरीन हास्य भूमिका की है. लेकिन वर्तमान में दर्शक अभिनेत्रियों को हास्य प्रधान फिल्मों में देखना खास पसंद नहीं करते.जबकि हास्य विधा भी अभिनय को नया निखार देती हैं.

कैप्टन लक्ष्मी की याद में



निर्देशक शाद अली ने  इंडियन नेशनल आर्मी की कैप्टन लक्ष्मी सेहगल पर फीचर फिल्म बनाने की योजना बनाई है. विगत 23 जुलाई को कैप्टन लक्ष्मी का देहांत हुआ था. शाद अली ने इससे पहले झूम बराबर झूम बनाई थी जो बुरी तरह पिट गयी थी. इसके बाद शाद  इंडस्ट्री से बिल्कुल गायब से हो गये थे. लेकिन इस बीच उन्होंने अपनी नानी लक्ष्मी सेहगल पर बेहतरीन कहानी लिखी और शोध किया. वे वर्ष 1994 से इस शोध में जुड़े हुए थे. उन्होंने बकायदा कैप्टन लक्ष्मी पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म भी बना रखी है. अपने शोध में उन्होंने कैप्टन से जुड़े लोग, तथ्य, दस्तावेज, तसवीरों व कई चीजों को खोज निकाला है. शाद अली की यह सोच सराहनीय है. दो लिहाज से. एक तो उन्होंने परिवार के एक अहम सदस्य पर डॉक्यूमेंटेशन की बात सोची. इस लिहाज से. दूसरी यह कि हिंदी सिनेमा को वर्तमान में सख्त जरूरत है कि वे ऐसे लीजेंडरी लोगों व स्वतंत्रता सेनानियों पर फिल्मों का निर्माण करें. ताकि आनेवाली पीढ़ी इन्हें जान पाये. लक्ष्मी सेहगल का योगदान हम भूल नहीं सकते. लेकिन उनके बारे में लोगों ने तब जाना जब उनका देहांत हुआ. यह हमारे लिए अफसोस की बात है. ऐसे में अगर फिल्में बनती हैं तो निश्चित तौर पर हम उस व्यक्तित्व के कई पहलुओं से रूबरू हो पायें और यह बेहद जरूरी भी है. कुछ सालों पहले तरुण गांधी की मदद से अमित राय ने फिल्म रोड टू संगम बनाई थी. जिसमें गांधीवादी विचारधारा को लेकर खूबसूरत कहानी कही गयी थी.यह शोधपरक इसलिए बन पाया क्योंकि तरुण गांधी ने इसमें सहयोग किया. तरुण गांधी परिवार से थे. दरअसल, अगर किसी व्यक्तित्व के परिवार के लोग या करीबी लोग फिल्में बनाने में सहयोग करें तो फिल्म तर्कसंगत और तथ्यपूर्ण बन पाती है. सो, यह जरूरी है कि ऐसी फिल्में बनें और परिवार के सदस्यों से मदद मिले.

20120807

छोटे परदे पर शंखनाद


आमिर  खान ने कुछ महीनों पहले टेलीविजन पर ‘सत्यमेव जयते’ के माध्यम से नया अध्याय शुरू किया था. इसमें उन्होंने सामाजिक विषयों को उठाया और दर्शकों की भावनाओं को झकझोरा. खास बात यह रही कि इस पर बहस हुई. बहस होने का सीधा मतलब है कि शो कामयाब रहा. दरअसल, आमिर ने स्टार प्लस के साथ मिल कर टीवी पर एक बेहतरीन शंखनाद किया. एंटरटेनमेंट, कॉमेडी शो, रियलिटी शो जैसे तमाम एंटरटेनमेंट से हट कर ‘सत्यमेव जयते’ जैसा वैचारिक कार्यक्रम बना. खुशी की बात यह है कि 13 एपिसोड की समाप्ति के बाद भी यह सिलसिला ‘लाखों में एक’ नामक शो से जारी है. स्टार प्लस रविवार यानी फन डे का इस्तेमाल वाकई बेहतरीन तरीके से कर रहा है. सिद्धार्थ बसु के सोच से निकला एक और सार्थक परिणाम नजर आ रहा है ‘लाखों में एक’. सच्ची घटनाओं के नाम पर केवल अब तक टीवी पर क्राइम की चीजें दिखायी जा रही थीं. ऐसे में प्रेरणाशील व प्रगतिशील शो के रूप में ‘लाखों में एक’ दर्शकों के सामने आया है. इस शो की एक खासियत यह भी है कि इसे निर्देशित करनेवाले निर्देशक फिल्मों के निर्देशक हैं. ‘सत्यमेव जयते’ के निर्देशक सत्यजीत भटकल भी फिल्मों के निर्देशक हैं. राहुल ढोलकिया पहले एपिसोड को निर्देशित कर चुके हैं. इनके अलावा मनीष झा जैसे कई विषयपरक निर्देशक टीवी की तरफ रुख कर रहे हैं. स्पष्ट है कि टीवी की तसवीर बदलनेवाली है. ‘लाखों में एक’ का पहला एपिसोड रांची के लिए खास रहा, क्योंकि कहानी रांची पर ही आधारित थी. कहानी गढ.नेवाले नीरज शुक्ला भी वहीं से संबंध रखते हैं. इस लिहाज से भी शो की कामयाबी है कि कम से कम इन धारावाहिकों के ही बहाने पूरा भारत छोटे छोटे शहरों से भी रू-ब-रू हो रहा है. वाकई टीवी धीरे-धीरे लाखों में एक कार्यक्रम ला रहा है.

20120806

सितारें जमीं पर


मुंबई के ब्रांदा स्थित बैंड स्टैंड पर कुछ महीनों पहले ही हिंदी सिनेमा के कुछ शख्सियत के हाथों के छाप व जो गुजर चुके हैं वैसे लीजेंड के हस्ताक्षर को जमीन पर स्थापित किया गया है. साथ ही राज कपूर साहब व शम्मी कपूर के स्टैचू को भी स्थापित किया गया है. यूटीवी स्टार्स की तरफ से भले ही यह हिंदी सिनेमा की शख्सियतों के सम्मान में एक पहल हो. लेकिन वास्तविकता यह है कि उन्हें वह सम्मान मिल नहीं पा रहा. चूंकि हाथों के छाप के जो पत्थर से बने टाइल्स जमीन पर स्थापित किये गये हैं. उन्हें किसी भी तरह से घेरा नहीं गया है. बैंड स्टैंड आनेवाले सभी लोग बेपरवाह उन लीजेंड के हस्ताक्षरों पर पैर रख कर चलते बनते हैं. उन्हें इस बात का एहसास नहीं कि दरअसल, वह इनका अनादर कर रहे हैं. दरअसल, हकीकत यही है कि भारत में आज भी सिनेमा सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन का माध्यम है. और इससे जुड़ी तमाम चीजों को सम्मान के साथ सहेजने के प्रति न तो गंभीरता है और न ही कद्र. फिल्मों के सितारें लंद फंद देवानंद, बोल बच्चन अमिताभ बच्चन जैसे मजाकिया जुमले तक ही सीमित रह गये हैं. गॉसिप, सुपरसितारों के साथ फोटोग्राफ्स खिंचवाना जानने में ही हमारी रुचि है. सच्चाई यह है कि हम कलाकार को नहीं उसके ग्लैमर को सम्मान देते हैं. क्या हम कभी भारत के राष्ट्रपति के हस्ताक्षरों को यूं जमीन पर अपमान होने के लिए छोड़ेंगे या किसी राजनीति से जुड़े लोगों को. उनकी तो बड़ी विशालकाय मूर्तियां बनती हैं.  लेकिन हमारी कोशिश नहीं होती कि हम सिनेमा के धरोहरों को सम्मान दें. राजेश खन्ना की इच्छा थी कि उनका घर आशीर्वाद संग्रहालय बने. यह पहल तो सरकार को करनी चाहिए थी और आनेवाले समय में करना ही चाहिए. हाल में शम्मी कपूर व कई शख्सियतों से जुड़ी चीजों की निलामी हुई है. जबकि उसे संग्रहालय में रखना चाहिए था.

20120802

माता-पिता भी बंधू सखा भी

Orginally published in Prabhat Khabar 2aug2012





ग्लैमर की दुनिया में अक्सर कामयाबी का रास्ता तय करते हुए लोग अपनों को छोड़ते चले जाते हैं. सपनों को अपना बनाते बनाते कब अपने सपनों व कल्पनाओं में खो जाते हैं. हमें इस बात का अनुमान भी नहीं लगा पाते. लेकिन इस भीड़ में भी कुछ ऐसे चेहरे हैं जो अपने परिवार से. विशेष कर अपने माता पिता से बेहद प्यार करते हैं. उनका सम्मान करते हैं. न केवल सम्मान करते हैं. बल्कि वे अपने माता पिता के पूरे व्यवहार से प्रभावित हैं.  और वे बिना किसी शर्म के अपने बुजुर्गो से कदमताल करते चल रहे हैं, जिन्होंने उन्हें उस कदम को बढ़ाना सिखाया. इन शख्सियत की जिंदगी में माता पिता की जगह इतनी अहम है कि वे अपने काम में भी किसी न किसी रूप में उन्हें शामिल करते हैं. अपने माता पिता से प्रभावित कुछ ऐसे ही शख्सियतों के बारे में बता रही हैं अनुप्रिया अनंत

हाल ही में सत्यमेव जयते में आमिर खान ने ओल्ड एज होम के मुद्दे को लेकर, मसलन बुजुर्गो से हमारे व्यवहार के मुद्दे को उठाया था. जिसमें 79 वर्ष के एक दंपत्ति की शादी को दिखाया गया है. एक बेहतरीन उदाहरण के तौर पर. तो दूसरी तरफ ऐसे लोगों को भी दर्शाया गया जो अपने माता पिता को एक उम्र के बाद अपने साथ नहीं रखना चाहते. विशेष कर ग्लैमर की दुनिया में सफलता मिलने के बाद बनावटी पन का कुछ इस कदर मुखौटा पहनना पड़ता है कि इसमें सबसे पहले कामयाब व्यक्ति अपने परिवार के बुजुर्गो का ही साथ छोड़ देता है. लेकिन इस मुखौटे में कुछ असली चेहरे ऐसे हैं जो अपनों के साथ चलने में विश्वास रखते हैं


प्रसून जोशी : पिता का विश्वास
प्रसून जोशी से हाल ही में एक बातचीत के दौरान बताया कि  वे शुरुआती दौर से ही कई चीजें लिखते थे. ेलेकिन उन्होंने क्रियेटिवीटी को कभी आय का स्रोत बनाने के बारे में नहीं सोचा.यह उनके पिताजी हैं जिन्होंने उन्हें विश्वास जगाया कि वे इसे ही अपना क्षेत्र चुनें. लेकिन इसे ऐसा माध्यम बनायें कि इससे उन्हें आय का भी जरिया मिले. उस दिन के बाद से ही प्रसून जोशी ने इस तरह सोचना शुरू किया. तब के प्रसून और आज के प्रसून जोशी से सभी वाकिफ हैं. प्रसून मशहूर गीतकार हैं और उन्होंने कई विज्ञापनों के लिए लेखन किया है.
राजेश मापुस्कर : पिताजी हैं असली फरारी
राजेश मापुस्कर ने फिल्म फरारी की सवारी का निर्देशन किया है. यह उनकी पहली फिल्म है. फिल्म पिता और बेटे पर आधारित है.राजेश स्वीकारते हैं कि उन्हें समृद्ध बचपन मिला तो सिर्फ पिताजी की बदौलत.चूंकि राजेश का बचपन गांव में बीता.वे समृद्ध हो पाये. उनके पिताजी का व्यवहार बेहद कुशल था. वे बताते हैं कि किस तरह वह जब कार के शोरूम में गये थे. तो वे अपने जूते उतार कर बैठे थे. पूछने पर उन्होंने कहा था कि जब तक वह अपनी नहीं हो जाती. दूसरों की है न.तो उसे गंदा नहीं कर सकता. राजेश बताते हैं कि उनके पिताजी 5 स्टार होटल में भी नहीं बदलते.जैसे हैं.वैसा ही व्यवहार करते हैं. उनके पिताजी की वजह से उनमें ऐसे विचार आये हैं. वे बेहद हंसमुख बनें अपने पिताजी की वजह से ही. फिल्म की स्क्रीनिंग पर राजेश ने अपने पिताजी के साथ साथ अपने गांव के नजदीकी दोस्तों को भी बुलाया था.
संजय लीला भंसाली-बेला : मां के दो अनमोल रत् न
निर्देशक संजय लीला भंसाली अपनी मां का नाम अपने साथ जोड़ते हैं. वे अपनी मां से बेहद करीबी हैं. अपनी फिल्मों से जुड़ी हर बातें , पुरस्कार समारोह में हर जगह वे अपनी मां के साथ नजर आते हैंै. उनकी बहल बेला सहगल भी मां से बेहद करीबी हैं. दोनों भाई बहन मां के बिना कोई भी कार्यक्रम आयोजित नहीं करते.
नीलेश मिश्र : माता-पिता से गांव कनेक् शन
गीतकार व लेखक नीलेश मिश्र बॉलीवुड के कई बेहतरीन गीत लिख चुके हैं और आगामी फिल्म एक था टाइगर लेखन भी इन्होंने किया है. ग्लैमर की दुनिया में सक्रिय रहते हुए भी नीलेश अपने गांव से जुड़े हैं और अपने माता पिता से भी. इन्होंने गांव कनेक् शन नामक एक अखबार की शुरुआत की है.नीलेश ने इस अखबार की पहली कॉपी अपनी माताजी से पढ़वायी. नीलेश बताते हैं कि यह उनके पिताजी  शिव बालक मिश्र   का सपना था कि वह अपने गांव के लिए कुछ करें. उय़के पिताजी कनाडा से अपनी नौकरी छोड़ कर सिर्फ अपने गांव के लिए आये और नीलेश ने अपने पिताजी से प्रभावित होकर ही यह शुरुआत की.
पूर्णेंदु शेखर : पिताजी ही हैं वधू के स्तंभ
पूर्णेंदु शेखर बालिका वधू के जनक हैं. हाल ही में जब बालिका वधू ने 1000 एपिसोड पूरे किये.  पूर्णेंदु ने अपने पिताजी जो कि जयपुर में रहते हैं उन्हें सम्मानित किया. खास बात यह है कि पूर्णेंदु अपने लेखन में अपने पिताजी की पूरी सलाह लेते हैं. बालिका वधू के अंत में दिये गये सारे कोटेशन उनके पिताजी श्रीमाली द्वारा ही लिखे जाते हैं.  पूर्णेंदु तहे दिल से स्वीकारते हैं कि उनके पिताजी की सोच व परवरिश की वजह ही उनके शरीर में एक लेखक का जन्म हुआ


 मेरे क्रिटिक  थे पापा :अनुराग बसु
निर्देशक अनुराग बसु दरअसल अपना पूरा नाम अनुराग एस बसु लिखते हैं. उन्होंने एस अपने पिताजी के नाम से लिया है. बकौल अनुराग मेरे पिताजी  बेस्ट क्रिटिक थे. वे हमेशा मुङो मेरी कमियों के बारे में बताते थे और खूबियों के बारे में भी. भिलाई में रहते हुए बचपन बीता और पिताजी से मैंने कई चीजें देखीं. उनका ही असर है कि आज मैं जिंदगी में कई बारीक चीजों को भी देख पाता हूं.

 महानायक अमिताभ भी अपने पिताजी हरिवंशराय बच्चन से इस कदर प्रभावित रहे कि आज भी वे उनकी कविताओं को दोहराते रहते हैं. जब भी उन्हें मौका मिलता है. वे उनकी रचनाओं का पाठ करते हैं और कहीं भी रहें पिताजी की रचनाएं साथ में रखते हैं.

बॉक्स ऑफिस के प्रोफेशनल-पर्सनल रिश्ते



दीवाली का अवसर प्राय: हिंदी फिल्मों के बॉक्स ऑफिस के लिए खास रहा है. चूंकि कई फिल्मी खानदानों ने इस अवसर पर अपने होम प्रोडक् शन की बहुप्रतिक्षित फिल्मों की रिलीज की परंपरा बना रखी है. यशराज प्रोडक् शन और राजश्री प्रोडक् शन वर्षो से इसी परंपरा के अनुसार फिल्में रिलीज करते आ रहे हैं. दिलवाले दुल्हनिया..हम आपके हैं कौन.., मोहब्बते जैसी कई ब्लॉकबस्टर फिल्में दीवाली पर ही रिलीज होती रही हैं. इस वर्ष भी यश चोपड़ा निर्देशित फिल्म जिसमें शाहरुख व कट्रीना प्रमुख भूमिकाओं में हैं इसी वर्ष रिलीज होगी. लेकिन इस वर्ष उन्हें टक्कर देने के लिए अजय देवगन की फिल्म सन ऑफ सरदार भी इसी मौके पर रिलीज हो रही है. फिलवक्त दोनों ही निर्माता चाहते हैं कि उन्हें देशभर में अधिक से अधिक सिनेमाघर मिले. और दोनों में खींचातानी जारी है. माना जा रहा था कि अजय देवगन अपनी फिल्म की तारीख में आगे पीछे करेंगे. लेकिन वह हरगिज तैयार नहीं हैं. दरअसल, वर्तमान में बॉलीवुड में स्टार की हैसियत व उनकी शक्ति का अनुमान पूरी तरह बॉक्स ऑफिस पर ही निर्भर हो चुका है. जिस नायक की फिल्में बॉक्स ऑफिस पर बेहतरीन कमाई कर रही है. आज वही स्टार है. ऐसे में कोई भी किसी से पीछे हटने के लिए तैयार नहीं. जबकि कई बार अपने दोस्तों की फिल्मों को ध्यान में रखते हुए कलाकार रिलीज की तारीख आगे पीछे करते हैं. सलमान, अजय, संजय ने कई बार ऐसा किया है. खुद श्रीदेवी भी चाहती थीं कि उनकी फिल्म इंग्लिश विंग्लिश की तारीख आगे बढ़ जाये. चूंकि करीना उनकी करीबी रही हैं. जबकि करीना से जब पूछा गया तो उन्होंने बहुत प्रोफेशनली जवाब दिया कि वह चाहती है कि दोनों फिल्में चले. लेकिन हीरोइन ज्यादा चले. स्पष्ट है कि अब बॉक्स ऑफिस पर पर्सनल रिश्ते नहीं प्रोफेशनल रिश्तें हावी होने लगे हैं.

सरनेम के आर पार

महेश भट्ट और सोनी राजदान की बेटी आलिया भट्ट करन जोहर की बहुचर्चित फिल्म स्टूडेंट ऑफ दे ईयर से लांच हो रही हैं. करन जोहर का ध्यान आलिया पर उनके लेखक निरंजन अयैनगर की वजह से गया.आलिया जब पहली बार करन के ऑफिस में आयीं तो वह स्कूल फॉर्म में आयी थीं. ऑडिशन के दौरान. लेकिन करन को पहले लुक में भी वह नहीं भायीं. करन ने बकायदा इस किरदार के लिए 500 से अधिक लड़कियों का ऑडिशन किया था.लेकिन बाद में रफ कट देखने के बाद उन्होंने आलिया का चयन किया. ऐसी आश्चर्यजनक बातें सिर्फ इसी इंडस्ट्री में हो सकती है. जिस महेश भट्ट कैंप द्वारा दर्जनों नयी अभिनेत्रियों को मौके दिये जा रहे हैं. उनकी ही बेटी आलिया 500 आम लोगों के साथ भीड़ में किसी दूसरे प्रोडक् शन हाउस में ऑडिशन दे रही हैं. बोनी कपूर के बेटे अजरून कपूर को भी आसानी से ब्रेक नहीं मिला. उन्होंने भी यशराज बैनर के कई चक्कर काटे और कई ऑडिशन दिये. जबकि बोनी कपूर एक जमाने में सुप्रसिद्ध निर्माता रह चुके हैं. करिश्मा कपूर ने कुछ अरसे पहले दिये एक इंटरव्यू में इस बात का जिक्र किया है कि लोगों को लगता है कि हम कपूर खानदान से हैं तो हमें आसानी से कुछ भी िमल जायेगा. लेकिन हकीकत यह है कि पहली शुरुआत के लिए हर किसी को तैयारी करनी ही पड़ती है. करिश्मा भी अपने प्रोडक् शन आरके स्टूडियो से लांच नहीं हुई थीं. हालांकि कई स्टार पुत्र-पुत्रियां अपने  होम प्रोडक् शन  से भी लांच होते रहे हैं.ऋतिक रोशन पापा राकेश की ही खोज हैं. लेकिन ऐसे भी कई बेटे बेटियां हैं, जो अपनी राह खुद तय कर रहे हैं. जो सिर्फ सरनेम की वजह से तो इस बात से बदनाम हैं कि उन्हें काम अपनी काबिलियत पर नहीं मिलती. लेकिन हकीकत में गौर करें तो उन्हें भी आमलोगों की तरह ही पापड़ बेलने पड़ते हैं

छोड़ जायेंगे ये जहां तन्हा


सुप्रसिद्ध अभिनेत्री मीना कुमारी का जन्मदिवस 1 अगस्त को मनाया गया. हिंदी सिनेमा में ऐसी अभिनेत्रियों की संख्या कम हैं. जिन्हें उनके चले जाने के बाद भी लोग शिद्दत से याद करते हैं. कायदे से मीना कुमारी पर 1 अगस्त को उनके जन्मदिन के अवसर पर लिखा जाना चाहिए था. लेकिन मैंने आज का दिन इसलिए चुना, क्योंकि मैं मीना कुमारी की वर्तमान में उनके जन्मदिन और उनकी प्रासंगिकता को देख कर इस पर विचार व्यक्त करना चाहती थी. और उम्मीद के अनुसार मुङो मीना कुमारी की प्रासंगिकता और आज भी बरकरार उनकी लोकप्रियता का प्रमाण मिला. मुंबई के सांताक्रूज स्टेशन से बिल्कुल नजदीक में मीना कुमारी के प्रशंसकों ने मीना कुमारी का शानदार तरीके से जन्मदिन मनाया. इस मौके पर मीना कुमारी द्वारा लिखे गये गजल को सुनाया गया. विशेष कर चांद तन्हा है आसमां तन्हा गजल को श्रोताओं ने बेहद पसंद किया. दरअसल, इस गजल में मीना कुमारी की पूरी जिंदगी का हाले बयां सुनाई देता है. एक एक शब्द उनकी जिंदगी की परतें खोलते हैं. हर पंक्ति में उन्होंने तन्हा तन्हा शब्द का इस्तेमाल किया है.ठीक अपनी जिंदगी की तरह. यह सच है कि मीना कुमारी ने कम जिंदगी जी और वाकई सिमटा सिमटा सा उनका मुकाम भी रहा. लेकिन मीना ने अपनी जिंदगी में कई लोगों की मदद की. इनमें अभिनेत्री नरगिस भी हैं. नरगिस जब शूटिंग पर जाती थीं तो वे अपने बच्चों को मीना की देख रेख में ही छोड़ जाती थीं. वहीदा बताती हैं कि किस तरह मीना ने उन्हें अभिनय में गाइड किया. बलराज साहनी ने अपनी आत्मकथा में जिक्र किया है कि एकमात्र मीना कुमारी ही अभिनेत्री थीं, उस दौर में जिन्होंने बलराज से आकर उनके कान में कहा था कि वे बेहतरीन अभिनेता बन सकते हैं. दरअसल, मीना इस दुनिया में दूसरों को खुशियां देने आयी थी. और इस दुनिया से तन्हा जाने के लिए ही.