20120130

फर्स्ट डे का काला जादू

अग्निपथ ने पिछले साल की फिल्म बॉडीगाड व रावन के बॉक्स ऑफिस पर ओपनिंग कलेक्शन का रिकॉड तोड़ दिया है फिल्म ने ओपनिंग डे पर ही 25 करोड़ का व्यवसाय कर लिया इस बात से खुश होकर फिल्म के निमाता करन जोहर ने मुंबइ के यशराज स्टूडियो में जश्न का भी आयोजन किया फिल्म रावन ने पहले दिन 185 करोड़ की कमाइ की थी, तो बॉडीगाड ने 215 करोड़ की बॉलीवुड में अब तक यही फिल्में सवाधिक ओपनिंगवाली फिल्में मानी जा रही हैं दरअसल, इन दिनों बॉलीवुड नये बॉक्स ऑफिस समीकरण पर चल रहा है कुछ वर्षो पहले तक किसी फिल्म का हिट होना न होना इस बात पर तय होता था कि फिल्म वीकेंड पर खासतौर से शुक्रवार, शनिवार व रविवार को कितनी कमाइ करती है फिल्मों के निमाता इसकी पूरी तैयारी रखते थे कि हर हाल में उनकी फिल्मों को इन तीनों दिनों में दशक मिल जायें और उनके फिल्म की रिकवरी हो जाये लेकिन आज निमाताओं के लिए व्यवसाय का यह व्याकरण भी बदल चुका है अब निमाताओं का पूरा ध्यान इस बात पर है कि हर हाल में फिल्म को जबरदस्त ओपनिंग मिल जाये भले ही दशक थियेटर से बाहर निकलने के बाद मनोरंजन व फिल्मों के नाम पर खुद को ठगा-सा महसूस क्यों न करें यही वजह है कि इन दिनों फिल्मों के प्रोमोशन पर सबसे अधिक ध्यान दिया जाता है बाकायदा पब्लिसिटी डिजाइन करनेवाली एंजेंसियां होती हैं निमाता उन्हें मोटी रकम देते हैं और एजेंसियां तरह-तरह के हथकंडे अपनाने की सलाह देती हैं इससे साफ जाहिर है कि आज दशकों की इच्छा से निमाताओं का कोइ लेना देना नहीं चूंकि वे जानते हैं कि दशकों के सामने जिस तरह से प्रोमोशन किया जायेगा, दशक बेसब्र होकर फिल्म देखने आयेंगे ही यही वजह है कि इन दिनों विशेष कर फिल्मों के प्रोमो (फस्ट लुक) को फिल्म से अधिक दिलचस्प तरीके से बनाया जाता है इससे दशक आकषित भी होते हैं साथ ही इन दिनों फिल्मों के सुपरस्टार लोगों के बीच आकर फिल्म का प्रोमोशन करते हैं वे छोटे शहरों में भी जाने लगे हैं जाहिर है, दशक अपने सुपरस्टास को अपने बीच देख कर आकषित होंगे फस्ट डे फस्ट शो के लिए दौड़ पड़ेंगे इन सबका फायदा भी होता है, फिल्म के निमाता को यही वजह है कि पूरी शानोशौकत से निमाता बॉक्स ऑफिस के ओपनिंग कलेक्शन के आधार पर एलान करता है कि उनकी फिल्म सुपरहिट और क्लासिक है जबकि कइ बार हकीकत अलग होती है आप आम लोगों की प्रतिक्रिया लें, तो ज्ञात होता है कि वे फिल्में जो बॉक्स ऑफिस पर कमाल कर रही हैं, दशकों को निराश करती हैं दरअसल, सच्चइ यही है कि अब बॉक्स ऑफिस पर सिफ फस्ट डे शो का ही काला जादू ही राज कर रहा है.
deep focus : फिल्म गाइड पहले फ्लॉप घोषित हुइ थी, लेकिन जिन्होंने फिल्म देखी तारीफ की और धीरे-धीरे इसका बॉक्स ऑफिस कलेक्शन ब़ढा

गांधी के विचारों का सजीव कलश



आज राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की पुण्यतिथि है. गांधीजी के जीवनकाल, उनके कार्य व योगदान से हिंदी सिनेमा के कई निर्देशक प्रभावित हुए. कई निर्देशकों ने बेहतरीन फ़िल्में बनायीं. मैंने गांधी को नहीं मारा, द मेकिंग ऑफ़ महात्मा, गांधी माइ फ़ादर, हे राम, लगे रहो मुन्नाभाई और हाल में प्रदर्शित फ़िल्म गांधी टू हिटलर प्रमुख हैं.
इन फ़िल्मों के माध्यम से गांधी के कई रूप सामने आये. उन दर्शकों के लिए जिन्होंने कभी गांधी को नहीं देखा. फ़िल्मों ने उन्हें गांधी को समझने का मौका दिया. उपरोक्त फ़िल्मों में गांधी के जीवन, उनके योगदान, आंदोलन, उनके व्यक्तित्व पर रोशनी डाली गयी. इसी क्रम में एक और फ़िल्म आयी रोड टू संगम. इसमें गांधीजी की अस्थियों के माध्यम से भी गांधीजी के विचारों का खूबसूरत चित्रण किया था युवा निर्देशक अमित राय ने. अमित ने न सिर्फ़ इस विषय को चुना, बल्कि पूरी संजीदगी और मौलिकता से उसे प्रस्तुत भी किया.
फ़िल्म की मौलिकता का प्रमाण इसी बात से लगाया जा सकता है कि यह पहली फ़िल्म थी, जिसमें गांधी के परपौत्र तुषार गांधी ने खुद अभिनय किया. कहानी गांधी की अस्थियों से भरे एक कलश को ओड़िशा से इलाहाबाद के संगम तक पहुंचाये जाने की कहानी है. लेकिन इस सफ़र में ही एक मेकेनिक हशमत भाई के रूप में गांधीजी के विचारों को खूबसूरती से चित्रित किया गया है.
प्रशासन और गांधी शांति प्रतिष्ठान तय करता है कि जिस गाड़ी से सन् 1948 में गांधीजी की अस्थियों को ले जाया जाता है, उससे ही संगम तक ले जाया जाये. गाड़ी की मरम्मत का काम हशमत भाई को दिया जाता है. लेकिन इसी क्रम में हिंदू मुसलिम दंगा हो जाता है. मुसलिम कौम हशमत भाई को यह काम पूरा करने की इजाजत नहीं देता, लेकिन हशमत अपने वादे से नहीं मुकरते.
काम करते रहते हैं. यहां हशमत के माध्यम से गांधीजी के ही विचारों को व्यक्त किया गया है. जिस तरह गांधीजी सोचते थे कि ईश्वर-अल्ला सभी एक हैं. उसी तर्ज पर हशमत भाई अपने काम को पूरा करते हैं. हशमत भाई के रूप में परेश रावल ने हिंदू-मुसलिम एकता का पाठ पढ़ाया है. जिस तरह गांधी ने अहिंसा के सहारे आंदोलन किया, हशमत भी लोगों को अहिंसा का पाठ पढ़ाते हैं.
दरअसल, फ़िल्म में दर्शाने की कोशिश की गयी है कि मृत्यु होने के बाद भी गांधीजी के विचार राख नहीं हुए हैं. उस कलश में भले ही उनकी अस्थियां हों, लेकिन उनके विचार आज भी जीवंत हैं. गांधी के विचारों को सार्थक बनानेवाली ऐसी फ़िल्में निरंतर बनती रहनी चाहिए

20120127

देश नहीं, समुदायप्रेम सर्वोपरि



वर्ष 1962 में महबूब खान ने फ़िल्म बनायी थी सन ऑफ़ इंडिया. शांति माथुर के सुर में सजे गीत नन्हा मुन्ना राही हूं.. देश का सिपाही हूं.. भारत के लोकप्रिय देशभक्ति गीतों में से एक है. फ़िल्म में यह गीत एक छोटे बच्चे ने गुनगुनाया है. इस गीत की हर पंक्ति, हर शब्द और फ़िल्मांकन से बच्चों से बुजुर्ग तक प्रभावित हुए.
बच्चे के हाव-भाव में देशभक्ति झलकती थी, गीत आज भी सदाबहार है. हालांकि, फ़िल्म की कहानी पूरी तरह देशभक्ति पर आधारित नहीं थी. इसके बावजूद फ़िल्म के गीत ने दर्शकों के दिलों में जगह बनायी. आज भी गणतंत्र दिवस या स्वतंत्रता दिवस पर यह गीत जरूर गुनगुनाये जाते हैं. महबूब खान ने वर्ष 1957 में मदर इंडिया का निर्देशन किया. वे चाहते थे कि जो कहानी कहना चाहते हैं, उसका संदर्भ व उसका प्रभाव पूरे भारत से हो.
यही वजह है कि आगे भी वह अपनी कई फ़िल्मों में इंडिया शब्द का इस्तेमाल करते रहे. मदर इंडिया आजादी पर आधारित कहानी नहीं थी. लेकिन फ़िल्म ने भारत में महिलाओं की छवि व उनकी स्थिति का सजीव चित्रण किया. ये फ़िल्में उस दौर में बनीं, जब निर्देशक देश को अहमियत देते थे.
तब जाति, धर्म या समुदाय महत्वपूर्ण नहीं था. देश महत्वपूर्ण था. यही वजह रही कि उस दौर की कई फ़िल्में पूरे भारत के संदर्भ में बनायी जाती थी. यह सिलसिला चक दे इंडिया, फ़िर भी दिल है हिंदुस्तानी व स्वदेश जैसी फ़िल्मों तक चला. लेकिन धीरे-धीरे फ़िल्मों से देश की बात खत्म होती जा रही है.
अब देश के बजाय किसी खास समुदाय की बात होती है. उस समुदाय के नायक को देश का नायक बना दिया जाता है. हम गणतंत्र के 63वें साल में प्रवेश कर रहे हैं. एक देश के गणतंत्र होने का अहम पहलू देश की अनेकता में एकता है. आज यह सोच बदल चुकी है. तब सन ऑफ़ इंडिया बनती थी, आज सन ऑफ़ सरदार बन रही है. सिंह इज किंग व स्पीडी सिंह जैसी फ़िल्में भी बन रही हैं. गीतों के बोल में भी हम हिंदुस्तानी.. या देश-स्वदेस जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं होता. अपने-अपने क्षेत्र की खूबियां गिनानेवाले शब्दों का इस्तेमाल होता है.
दरअसल, हकीकत यही है कि अब हम एकता में नहीं, एकल जीवन में जीना चाहते हैं. हमें किसी देश का नागरिक नहीं, खास समुदाय का राजा बन कर, सिर ऊंचा कर जीने में अधिक खुशी मिलती है. इससे जाहिर है कि आज गणतंत्र शब्द की प्रासंगिकता गौण हो चुकी है.
डीप फ़ोकस
अमेरिकन निर्देशक फ़ेयडर ने भी वर्ष 1931 में सन ऑफ़ इंडिया बनायी. बाद में महबूब खान ने इसी शीषर्क से हिंदी फ़िल्म बनायी

20120126

25 निर्देशक, 14 देश, एक फिल्म

आगामी 25 मई को 13 देशों के 19 शहरों में एक ऐसी फिल्म रिलीज होने जा रही है. जिसकी कहानी तो एक है. लेकिन उसे कहने वाले २५ लोग हैं. अर्थात ओनर नामक १०० मिनट की यह फिल्म 14 देशों के 25 चुनिंदा निर्देशक बना रहे हैं. सिनेमा के इतिहास में ऐसा पहली बार होगा. जब किसी फिल्म की क्रेडिट लाईन में पूरे 25 निर्देशकों का नाम जायेगा. जिस तरह यह फिल्म अपने आप में एक चौंकानेवाली है. इसके क्रेडिट भी आश्चर्य में डाल देंगे. अच्छी बात यह है कि इन 14 देशों के निर्देशकों में भारत के पांच फिल्मकार भी शामिल हैं. विशेष मनकल , नेहा रहेगा ठक्कर, अस्मित पथारे, वरुण माथुर व प्रशांत सेहगल मिल कर इस फिल्म के लिए भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. इस फिल्म पर चर्चा इसलिए भी जरूरी है क्योंकि भारत जहां सिनेमा एक सक्रिय संचार माध्यम है, जहां कई फिल्म मेकिंग के संस्थान हैं और हर वर्ष कई विद्यार्थी सिनेमा को एक विषय के रूप में पढ़-समझ रहे हैं. ऐसे में उन्हें सिनेमा की दुनिया में हो रहे ऐसे प्रयोगों से जरूर वाकिफ रहना चाहिए. ताकि वे खुद भी ऐसे प्रयास कर सकें. भारत में जहां हिंदी सिनेमा के मुख्यधारा स्ट्रीम में अपनी जगह बनाने में कई प्रतिभाएं नाकामयाब हो जाती हैं. उनके लिए इस तरह के प्रयोग व प्रयास सार्थक साबित हो सकते हैं. चूंकि सिनेमा ही वह सशक्त माध्यम है, जिसमें लोग बिना एक दूसरे से मिले भी एकजुट होकर काम कर सकते हैं और अपनी बातों को लोगों तक भी पहुंचा सकते हैं. किसी एक स्थान पर बैठे अपनी कहानी से वह पूरी दुनिया को कई चीजों से अवगत करा सकते हैं. जागरूक कर सकते हैं. कोलैबफीचर गुप्र की यह पहल काबिलेतारीफ है. उन्होंने अपने इस पहल से साबित कर दिया है कि सिनेमा को किसी बंधन में बांधने की जरूरत नहीं है. सराहना करनी होगी, फिल्ममेकर मार्टी शिआ ईयान बोनर, जेवियस अगुड, टॉम किंगस्ले ने की, जिन्होंने इस प्रोजेक्ट की परिकल्पना की. न सिर्फ परिकल्पना की, बल्कि इसे साकार भी कर दिखाया. उन्होंने एक इंटरनेशनल फीचर गुप्र की स्थापना की कोलाबफीचर के रूप में. उन्होंने आनलाईन माध्यम से चुनिंदा लेखकों को चुना, क्योंकि वे जानते हैं कि वर्तमान में ओनलाईन संचार का सबसे उत्तम तरीका है. इस फिल्म एक खास बात यह भी होगी, कि इस फिल्म की कहानी एक ही है. एक बैग की इर्द-गिर्द ही पूरी कहानी घूमेगी. गौरतलब है कि इस फिल्म का बजट भी बहुत अधिक नहीं है. कम संसाधन लेकिन हर निर्देशक कहानी अपने तरीके से कहेगा. और उसके पोस्ट प्रोडक्शन का काम भी वे खुद ही करेंगे. लेकिन फिर भी कहानी का नैरेशन एक दूसरे से जुड़ा रहेगा. तकनीकी क्रांति के इस दौर में जहां विकीपिडिया जैसे साइट भी आर्थिक रूप से परेशानियां झेल रहे हैं. सरकार द्वारा फेसबुक पर लगातार प्रतिबंध bगाने की बात की जा रही है. ऐसे में दुनिया में लोग केवल सोच के दम पर कमाल दिखा रहे हैं. भारतीय सिनेमा की दुनिया में ऐसे प्रयोगात्मक कदम उठाने की सख्त जरूरत है. चूंकि यहां ऐसी कई प्रतिभाएं हैं, जो उचित अवसर न मिलने के कारण खोती जा रही हैं. चूंकि यह भी सत्य है कि सोच ही सिनेमा का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है.

देश नहीं, समुदायप्रेम सर्वेपरि

वर्ष 1962 में महबूब खान ने फ़िल्म बनायी थी सन ऑफ़ इंडिया. शांति माथुर के सुर में सजे गीत नन्हा मुन्ना राही हूं.. देश का सिपाही हूं.. भारत के लोकप्रिय देशभक्ति गीतों में से एक है. फ़िल्म में यह गीत एक छोटे बच्चे ने गुनगुनाया है. इस गीत की हर पंक्ति, हर शब्द और फ़िल्मांकन से बच्चों से बुजुर्ग तक प्रभावित हुए.
बच्चे के हाव-भाव में देशभक्ति झलकती थी, गीत आज भी सदाबहार है. हालांकि, फ़िल्म की कहानी पूरी तरह देशभक्ति पर आधारित नहीं थी. इसके बावजूद फ़िल्म के गीत ने दर्शकों के दिलों में जगह बनायी. आज भी गणतंत्र दिवस या स्वतंत्रता दिवस पर यह गीत जरूर गुनगुनाये जाते हैं. महबूब खान ने वर्ष 1957 में मदर इंडिया का निर्देशन किया. वे चाहते थे कि जो कहानी कहना चाहते हैं, उसका संदर्भ व उसका प्रभाव पूरे भारत से हो.
यही वजह है कि आगे भी वह अपनी कई फ़िल्मों में इंडिया शब्द का इस्तेमाल करते रहे. मदर इंडिया आजादी पर आधारित कहानी नहीं थी. लेकिन फ़िल्म ने भारत में महिलाओं की छवि व उनकी स्थिति का सजीव चित्रण किया. ये फ़िल्में उस दौर में बनीं, जब निर्देशक देश को अहमियत देते थे.
तब जाति, धर्म या समुदाय महत्वपूर्ण नहीं था. देश महत्वपूर्ण था. यही वजह रही कि उस दौर की कई फ़िल्में पूरे भारत के संदर्भ में बनायी जाती थी. यह सिलसिला चक दे इंडिया, फ़िर भी दिल है हिंदुस्तानी व स्वदेश जैसी फ़िल्मों तक चला. लेकिन धीरे-धीरे फ़िल्मों से देश की बात खत्म होती जा रही है.
अब देश के बजाय किसी खास समुदाय की बात होती है. उस समुदाय के नायक को देश का नायक बना दिया जाता है. हम गणतंत्र के 63वें साल में प्रवेश कर रहे हैं. एक देश के गणतंत्र होने का अहम पहलू देश की अनेकता में एकता है. आज यह सोच बदल चुकी है. तब सन ऑफ़ इंडिया बनती थी, आज सन ऑफ़ सरदार बन रही है. सिंह इज किंग व स्पीडी सिंह जैसी फ़िल्में भी बन रही हैं. गीतों के बोल में भी हम हिंदुस्तानी.. या देश-स्वदेस जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं होता. अपने-अपने क्षेत्र की खूबियां गिनानेवाले शब्दों का इस्तेमाल होता है.
दरअसल, हकीकत यही है कि अब हम एकता में नहीं, एकल जीवन में जीना चाहते हैं. हमें किसी देश का नागरिक नहीं, खास समुदाय का राजा बन कर, सिर ऊंचा कर जीने में अधिक खुशी मिलती है. इससे जाहिर है कि आज गणतंत्र शब्द की प्रासंगिकता गौण हो चुकी है.
डीप फ़ोकस
अमेरिकन निर्देशक फ़ेयडर ने भी वर्ष 1931 में सन ऑफ़ इंडिया बनायी. बाद में महबूब खान ने इसी शीषर्क से हिंदी फ़िल्म बनायी.

20120124

सृजनशीलता की कोई उम्र नहीं होती


निर्देशक यश चोपड़ा दोबारा निर्देशन की कमान संभालने जा रहे हैं. इस बार भी उनके साथ उनके प्रिय कलाकार शाहरुख हैं, जिनके साथ हैं कैटरीना. यशराज के नाम से विख्यात यश चोपड़ा रुमानी व म्यूजिकल फ़िल्मों के महारथी माने जाते रहे हैं, लेकिन वर्ष 2004 में उन्होंने अपने निर्देशन की कला को विराम दे दिया था.
इंडस्ट्री में यह मान लिया गया था कि यश चोपड़ा अब फ़िल्मों का निर्देशन नहीं करेंगे. वे अपने बेटे आदित्य के साथ निर्माण कार्य में ही सक्रिय रहेंगे. यश चोप़ड़ा ने लोगों को तब चौंकाया, जब उन्होंने घोषणा की कि वह फ़िर से निर्देशन की कमान संभालने जा रहे हैं. फ़िल्म की शूटिंग की तैयारी शुरू हो चुकी है.
कैटरीना-शाहरुख पहली बार एक साथ अभिनय करते नजर आयेंगे. वहीं, दूसरी तरफ़ शोले व शक्ति जैसी फ़िल्में बनानेवाले रमेश सिप्पी ने भी तय किया है कि अब वह भी निर्देशन की अपनी दूसरी पारी शुरू करेंगे. उन्होंने वर्ष 1995 में फ़िल्म जमाना दीवाना के बाद विराम ले लिया था.
फ़िलवक्त यश अपने जीवन के 79 बसंत देख चुके हैं और रमेश ने 65. दोनों ही अपनी अपनी शैली के महारथी हैं. इस उम्र में भी इनमें कुछ नया गढ़ने की इच्छा जिंदा है. ऐसा नहीं है कि यश या रमेश शोहरत, पैसे या नाम के लिए दोबारा निर्देशन में कदम रख रहे हैं, क्योंकि दोनों ही बतौर निर्माता बड़े प्रोडक्शन हाउस के मालिक हैं. दोनों निर्देशकों की अगली पीढ़ी फ़िल्म निर्माण में सक्रिय हैं. इसके बावजूद आज भी इन निर्देशकों में कला जीवित है.
दरअसल, सच्चाई भी यही है कि असल कलाकार वही है जो उम्र को अपनी सृजनशीलता का बाधक नहीं बनाता, क्योंकि सृजनशीलता की कोई उम्र नहीं होती. पश्चिमी देशों में आज भी ऐसे कई निर्देशक हैं, जो मरते दम तक फ़िल्में बनाते रहे. हिंदी फ़िल्मों में ही यह ट्रेंड कम है. इसकी वजह यह है कि इंडस्ट्री की नयी पीढ़ी इन कलाकारों का सम्मान के साथ स्वागत करने की बजाय उनका माखौल बनाती है. उन्हें लगता है कि अब यह सफ़ेद बाल क्या कमाल दिखा पायेंगे.
शायद वे भूल जाते हैं कि वह सफ़ेद बाल दरअसल, उनके अनुभव का सूचक है. ऐसे में अगर दो बुजुर्ग निर्देशकों ने यह निर्णय लिया है तो वह बेहद सराहनीय है. फ़िल्मकार सत्यजीत रे बतौर निर्देशक अपनी जिंदगी के केवल अंतिम 9 वर्षो में ही वे सृजन नहीं कर पाये. गौरतलब है कि वर्ष 1983 में ही उन्हें घारे बायरे की शूटिंग के दौरान ही हर्ट अटैक आया.
अकिरा कुरसावा फ़िल्म आफ्टर द रेन के फ़ाइनल ड्राफ्ट के दौरान ही घायल हुए. उन्होंने व्हील चेयर पर बैठ कर भी अपना काम जारी रखा. शो मैन राजकपूर की जिस वक्त मृत्यु हुई थी. उस वक्त भी वे अपनी फ़िल्म हीना पर काम कर रहे थे, लेकिन वे फ़िल्म को पूरा नहीं कर पाये. बाद में उनके बेटों ने फ़िल्म को पूरा किया.
आरके बैनर की यह शायद आखिरी फ़िल्म थी, जिसे बॉक्स ऑफ़िस पर अपार सफ़लता मिली, क्योंकि इस फ़िल्म में राज की कला का ही पुट था. एमएफ़ हुसैन भी मरते दम तक पेंटिंग बनाते रहे. निर्देशन कला है और कलाकार किसी भी उम्र में इसे रच सकता है और किसी भी उम्र तक इसे बरकरार रख सकता है.
डीप फ़ोकस
फ़िल्म दिल तो पागल है के लिए यश ने संगीतकार उत्तम सिंह से कुल 100 गीत बनवाये थे, लेकिन इस्तेमाल केवल 10 गीतों का ही किया.
-अनुप्रिया अनंत-

20120123

जमीनी सोच, विश्वव्यापी सफलता



इन दिनों सोशल नेटवर्किंग साइट्स व विश्व स्तरीय फिल्मों की जानकारी देनेवाले साइट्स व अखबारों में bगातार एक फिल्म पर चर्चा हो रही है. फिल्म है बुशांगो. फिलीपिंस के निर्देशक आरियस सोलेटो ने यह फिल्म बनाई है. फिल्म फिलिपिंस के एक आइलैंड पालावान पर आधारित है. वर्ष 2011 के प्रतिष्ठित कान फिल्मोत्सव में आफिशियल सेलेक्शन फॉर डायरेक्टर्स फोर्टनाइट में इसकी स्क्रीनिंग की गयी. वहां मौजूद दर्शकों फिल्म देख कर भावुक हो गये थे. यह फिल्म अब तक कई प्रतिष्टित फिल्मोत्सव में सराही जा चुकी है. बुशांग का संदर्भ यहां निर्देशक ने पालावान आइलैंड के भाग्य से जोड़ा है. इस फिल्म के माध्यम से उन्होंने अपने जनजाति की बहुमूल्य सभ्यता व संस्कृति को धरोहर के रूप में संजोने की कोशिश की है. चूंकि निर्देशक सोलेतो जानते हैं कि उनका आइलैंड व वहां रहनेवाले लोग प्राकृतिक संपदा के धनी है. लेकिन इसकी देख रेख सही तरीके से नहीं हो रही और धीरे धीरे लोग अपनी संस्कृति से कट रहे हैं. सो, उन्होंने बतौर फिल्मकार तय किया कि वह bगातार अपनी जमीन से जुड़ी फिल्में बनायेंगे. चूंकि वे जानते थे कि कहानी भले ही उनके गांव की हो. लेकिन इसका असर पूरी दुनिया पर होगा, क्योंकि पूरे विश्व में कमोबेश यही स्थिति है. लोग व्यवसायीकरण व चमकती दुनिया के बीच अपनी जमीन ही भूलते जा रहे हैं. जबकि वे नहीं जानते कि उनकी जमीन किसी सोने से कम नहीं.बतौर फिल्मकार वाकई उन्होंने एक अहम जिम्मेदारी निभाई है. दरअसल , सच्चाई भी यही है कि वर्तमान दौर में सिनेमा के माध्यम से ही सबसे बड़ी क्रांति जाई जा सकती है या फिर अपनी सांस्कृतिक धरोहर को बचाया जा सकता है. लेकिन ग्लैमर व व्यवसायीकरण के इस दौर में ऐसी फिल्मकारों की प्रासंगिकता नहीं रह जाती. विशेषकर अगर हिंदी सिनेमा के संदर्भ में बात की जाये, तो ऐसे फिल्मकार लगभग गौन ही हैं जो अपनी जमीन से जुड़ी कहानी का साहस फीचर फिल्म के माध्यम से करें. ऐसा नहीं है कि भारत में संस्कृति या फिर जमीनी सच्चाई व उनकी परेशानियों को लेकर फिल्में नहीं बनाई जा रही हैं. फिल्में बन रही हैं. लेकिन उनमें अधिकतर वृतचित्र फिल्में ही होती हैं. चूंकि हिंदी फिल्मों में ऐसे विषय चुनना किसी हिंदी फिल्मकार के लिए एक रिस्क की तरह है. और वे रिस्क लेना नहीं चाहते.ऐसे विषयों पर फीचर फिल्म की परिकल्पना करना भी मुश्किल है. बुशांग ने जिस तरह लगातार अपनी फिल्मों से अपने ही आइलैंड की परिस्थिति, वहां के लोगों की मासूमियत व वहां की प्राकृतिक संपदा, संस्कृति का बखान किया है. आज पालावान विश्व में चर्चा का विषय है. वहां की प्राकृतिक खूबसूरती देखने के बाद धीरे धीरे वहां फिल्मों की शूटिंग की गुंजाइश हो रही है. वहां रोजगार की संभावनाएं हो रही हैं. कई एनजीओ व संस्थाओं की इस आइलैंड पर नजर गयी है. किसी फिल्म की यही कामयाबी है. यह संभव हो पाया. क्योंकि सोलेतो ने इसे अपनी जिम्मेदारी समझा. भारत में बांगला , मराठी, अस्मिया व दक्षिण भारत में कुछेक फिल्मकार ने इस तरह की पहल की हैं. जहानु बरवा उनमें से एक हैं. लेकिन हिंदी सिनेमा में ऐसे फिल्मकार न के बराबर हैं.

20120122

ब्लैक लेडी का वास्तविक सम्मान




बॉलीवुड में फ़िलवक्त अवार्ड समारोहों का दौर चल रहा है. स्क्रीन अवार्ड, जी सिने अवार्ड के बाद आगामी 29 जनवरी को फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड समारोह भी होना है. अवार्ड समारोह में विशेष कर फ़िल्मफ़ेयर समारोह का सभी कलाकारों को बेसब्री से इंतजार रहता है, क्योंकि इसे हिंदी सिनेमा का ऑस्कर माना जाता है.
हर कलाकार की तम्मना होती है कि उनके घर की मेज पर फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड के रूप में ब्लैक लेडी का आगमन जरूर हो. ठीक उसी तरह जिस तरह हर व्यक्ति व खासतौर से व्यवसायी दीवाली में मां लक्ष्मी के आगमन की कामना करते हैं. पिछले फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड समारोह में इस बात को चंद लफ्जों में खूबसूरती से बयां किया था गुलजार साहब ने कि बाद मुद्दत के फ़िर मिली हो तुम, यह जो थोड़ी-सी भर गयी हो तुम.
यह वजन तुम पर अच्छा लगता है. यह अल्फ़ाज दर्शाता है कि गुलजार साहब जैसे दिग्गज की भी तमन्ना होती है कि हर वर्ष फ़िल्मफ़ेयर लेडी हमारे घर पधारे. दरअसल, विविधता में एकता प्रदान करनेवाली हमारी भारतीय संस्कृित की यह प्रकृति है कि यहां उन सभी महिलाओं का सम्मान होता है.
जब तक वह मूर्त रूप में नजर आयें. विदेश से आयी बार्बी डॉल भी हमारे बच्चों को बहुत प्यारी लगती है. शायद यही वजह है कि हिंदी सिनेमा के कई अवार्ड के स्टैच्यू महिला के प्रारूप में ही स्थापित हैं. फ़िल्मफ़ेयर को ब्लैक लेडी के प्रारूप में सबसे पहले ओर्टस्ट एनजी फ़ानसारे ने ढाला था. वर्ष 1954 में इसकी शुरुआत हुई थी. 46.5 तांबे की धातु से सजी इस ब्लैक लेडी को शायद मूर्तिकार ने ब्लैक यानी काला रंग इसलिए दिया था, क्योंकि यह रंग शुद्धता व पारदर्शिता का पर्याय है.
साथ ही काला रंग इस बात भी पर्याय है कि यह सम्मान पूरी निष्पक्षता से दिया जाता है. एक नारी के रूप में प्रारूप होना भी इस बात का सूचक था, क्योंकि किसी भी संदर्भ में जब नारी की बात आती है, तो वह खुद ब खुद निष्पक्ष, ईमानदार व मासूमियत की प्रतीक बन जाती है.
यही वजह है कि आज भी लगभग सभी बड़े अवार्ड समारोह का प्रारूप नारी के रूप में ही है. फ़िर चाहे वह स्क्रीन अवार्ड की ट्रॉफ़ी हो या स्टारडस्ट अवार्ड की. लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि मूर्तिरूप में सजी संवरी नारी का सजीव चित्रण कुछ और ही होता है. फ़िर चाहे वह बॉलीवुड क्यों न हो.
सम्मान के रूप में बॉलीवुड के दिग्गजों ने भले ही नारी के मूर्तिरूप की कद्र की हो. लेकिन वास्तविक रूप में नहीं. गौर करें तो किसी भी समारोह में लास्ट बट नॉट द लीस्ट यानी सबसे महत्वपूर्ण अवार्ड की घोषणा सबसे अंत में की जाती है. पुरुष प्रधान इस बॉलीवुड में भी इस सम्मान की हकदार कोई महिला प्रतिनिधि नहीं होती. बल्कि बेस्ट एक्टर के खिताब की घोषणा ही, सबसे अंत में की जाती है. साथ ही हिंदी सिनेमा जगत में महिलाओं की क्या कद्र है, यह जगजाहिर है.
दरअसल, हमेशा महिलाएं बॉलीवुड में मात्र शोपीस के रूप में ही लोगों को लुभाती रहीं हैं. प्रश्न वाकई यह है कि जिस तरह वर्षो से फ़िल्म पुरस्कार की ट्रॉफ़ी के रूप में नारी के निर्जीव रूप को सम्मान देते आ रहे हैं. उसके सजीव रूप को वह सम्मान कब मिलेगा? जिसकी वह हकदार भी है.
डीप फ़ोकस शुरुआती 25 सालों तक फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड में दी जानेवाली स्टैच्यू सिल्वर से बनी होती थी. 50 साल पूरे होने पर इन्हें सोने से तैयार किया जाने लगा

20120119

ऐसे बना बॉलीवुड




हिंदी सिनेमा जगत को हम बॉलीवुड के नाम से जानते हैं. लेकिन शायद ही हमने कभी यह जानने की कोशिश की होगी, कि आखिर हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री का नाम बॉलीवुड कैसे पड़ा और किस शख्स ने इसका नामांकन किया. आज आपकी मुलाकात कराते हैं ऐसे ही एक शख्स अमित खन्ना से.
अमित खन्ना शुरुआती दौर में थियेटर से जुड़े रहे. लेखन के शौक की वजह से उन्हें आगे चलकर हिंदी सिनेमा में लगातार काम मिला और उनकी लिखी फ़िल्मों को समीक्षकों द्वारा सराहना भी मिली. वे अब तक तीन बार राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं. वर्तमान में भी मामी फ़िल्मोत्सव में सक्रिय रह कर सिनेमा विषय पर आयोजित कार्यक्रमों में सक्रिय भूमिका निभाते हैं. लेखन से जुड़ाव की वजह से अपने पेशे से इतर कहानियां, कविताएं व गीत भी लिखते रहते हैं.
दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज से पढ़ाई पूरी करने के बाद अमित का जुड़ाव देव आनंद साहब से हुआ. उन्होंने अमित द्वारा लिखा एक नाटक देखा था. देव साहब को उनका काम बेहद पसंद आया था और उसी वक्त उन्होंने अमित से कहा कि वह सिनेमा में लिखें. देव साहब ने उन्हें कहा कि जब भी मौका मिलेगा वह उन्हें जरूर बुलायेंगे.
इसी क्रम में एक बार देव साहब नेपाल के महाराज की शादी में जा रहे थे. वे दिल्ली होकर गये. उन्होंने एयरपोर्ट पर अमित को बुलाया और कहा कि वे हरे रामा हरे कृष्णा नामक फ़िल्म पर काम शुरू करने जा रहे हैं और अमित को उससे जोड़ना चाहते हैं. अमित तैयार हो गये और इस तरह उनका जुड़ाव हुआ हिंदी सिनेमा, नवकेतन व देवानंद साहब से.
बकौल अमित, देव साहब से जुड़ने के साथ ही नवकेतन से जुड़ाव हुआ. मैं कहना चाहूंगा कि मेरे जीवन में नवकेतन की खास जगह है. उसकी वजह से ही मेरा काम लोगों के सामने आया. देव साहब की एक खासियत थी कि अगर वह प्रतिभा को पहचान लेते थे, तो उसे निखारने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे. उन्होंने मुझे भी मौके दिये.
मुझे खुशी होती है कि मैंने तीनों भाइयों चेतन आनंद, देव आनंद व विजय आनंद के साथ काम किया. जब नवकेतन की सिल्वर जुबली हुई थी, मैंने ही आनंद भाइयों से कहा था कि इस वर्ष उन तीनों को इस बैनर के लिए फ़िल्में बनानी चाहिए. उसी वर्ष 1976 में चेतन आनंद ने जानेमन , विजय आनंद ने बुलेट और देव आनंद ने फ़िल्म देस परदेस का निर्देशन किया. यह वर्ष नवकेतन के लिए बेहद खास रहा था.
अमित कहते हैं, नवकेतन में मैंने अपने जीवन के महत्वपूर्ण वर्ष दिये हैं और मैं मानता हूं कि वहां के खुले माहौल ने ही मुझे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया. मुझे याद है देव साहब और मुझमें कई बार बहस भी होती थी. लेकिन काम को लेकर और वह काम तक ही सीमित रहती थी. वह कभी किसी पर कुछ भी थोपते नहीं थे.
यही वजह रही कि नवकेतन लगातार कायम है और आज भी फ़िल्में बन ही रही हैं. देव साहब एक जुनून से काम करते थे. उन्हें आउटडोर शूटिंग करना बेहद पसंद था और वे खुद सबके साथ जाकर शूटिंग लोकेशन की तलाश करते थे. फ़िल्म इश्क इश्क इश्क में शूटिंग के दौरान 1500 हजार फ़ुट की ऊंचाई पर उन्होंने शूटिंग करवाई थी. उनके साथ ही मुझे मन पसंद, शीशे का घर जैसी फ़िल्मों के लिए काम करने का मौका मिला.
उस वक्त बॉलीवुड को लोग हिंदी सिनेमा इंडस्ट्री के नाम से ही जानते थे. अमित बताते हैं, उस वक्त अपनी कई विदेश यात्राओं के दौरान उन्होंने यह महसूस किया कि लोग हिंदी सिनेमा का संबोधन को सही तरीके से समझ नहीं पाते. वर्ष 1970 में अमित व एक पत्रकार विभिनंडा कोलाको ने तय किया कि वह हिंदी सिनेमा इंडस्ट्री को कुछ नाम देंगे और फ़िर पश्चिम बंगाल की फ़िल्म इंडस्ट्री के नाम टॉलीवुड के नाम पर बॉलीवुड का नाम रखा गया. बॉलीवुड शब्द बाम्बे उस वक्त मुंबई का नाम था, ब शब्द बाम्बे से आया और फ़िर बॉलीवुड शब्द की शुरुआत हुई.
फ़िलवक्त अमित रिलायंस एंटरटेनमेंट के चेयरमैन हैं. कॉरपोरेट दुनिया से जुड़ने के बावजूद उन्होंने अभी भी अपने अंदर के कलाकार को जीवित रखा है. वे जल्द ही अपनी कविता-संग्रह के साथ लोगों से मुखातिब होंगे

विदेश में झिंगा लाला




हिंदी सिनेमा में विदेशी लोकेशन में शूटिंग का सिलसिला यशराज बैनर की फ़िल्मों से शुरू हुआ था. अब यह शौक टेलीविजन शोज को भी लग चुका है. अब कई टेलीविजन धारावाहिकों की शूटिंग विदेश में हो रही है. अनुप्रिया अनंत की रिपोर्ट
टेलीविजन में प्रसारित होने वाले अपने शोज को और आकर्षक बनाने के लिए इन दिनों कई निर्देशक विदेशी लोकेशन को तवज्जो दे रहे हैं. आम दर्शकों को विदेशों के लोकेशन बहुत पसंद आते हैं, क्योंकि आम तौर पर टेलीविजन के एक बड़े दर्शक वर्ग का उन स्थानों पर जाना संभव नहीं हो पाता. ऐसे में जब वे अपने कलाकारों को विदेश की सैर करते देखते हैं, तो परदे पर ही सही, घर बैठे ही दुनिया के सुदूर देशों को देख लेते हैं.
यही वजह है कि इन दिनों कई टीवी शोज के कुछ ऐपिसोड की शूटिंग विदेश में हो रही है.दर्शकों को आकर्षित करने के साथ विदेशी जमीन पर फ़िल्माए जा रहे शोज उस देश के टूरिज्म को भी बढ़ावा दे रहे हैं. अब आम दर्शक भी उस देश की यात्रा कर लेते हैं. टेलीविजन में कभी क्योंकि सास भी कभी बहू थी में विदेशी लोकेशन को छोटे परदे पर दिखाने की शुरुआत हुई थी. साथ ही खिच़ड़ी जैसे धारावाहिकों में भी विदेश की सैर करवायी गयी थी.
एक बार फ़िर से टेलीविजन के शोज में विदेशी लोकेशन दिखाई दे रहे हैं. जीटीवी के प्रोग्रामिंग हेड सुकेश मोटवाने का कहना है कि वह अपने शोज में तभी विदेशी लोकेशन चुनते हैं, जब कहानी की डिमांड हो या फ़िर किसी देश की टूरिज्म की तरफ़ से शो प्रमोट किया जा रहा हो.सोनी टीवी के फ़िक्शन हेड विरेंद्र शाहाने का कहना है कि विदेश में शूटिंग करने से कार्यक्रम के प्रति दर्शकों की दिलचस्पी बढ़ती है. दर्शकों को कुछ नया और फ्रेश देखने का मौका मिलता है.
इसलिए वे अपने शोज के निर्देशकों को विदेश में शूटिंग करने के लिए प्रेरित करते हैं. उसके अनुसार ही समय-समय पर कहानी में बदलाव के लिए कहते हैं. साथ ही वहां कम दिनों में ही शूटिंग पूरी हो जाती है. क्योंकि वहां कलाकारों को परेशानी नहीं होती और साथ ही पूरी टीम का भी मूड फ्रेश हो जाता है और सभी फ्रेशनेस के साथ काम करते हैं.साथ निभाना साथियास्टार प्लस के शो साथ निभाना साथिया की टीम हाल ही में विदेश की सैर पर गयी थी.
अहम व गोपी के बीच प्यार की केमेस्ट्री को आगे बढ़ाने के लिए शो को स्विट्जरलैंड की सैर पर ले जाया गया. इस पूरे ट्रिप में मोदी परिवार से कोकिला, राशि, गोपी बहू, अहम व जिगर गये थे. पूरी टीम ने वहां बहुत मस्ती की और राशि ने वहां से बहुत सारी खरीददारी भी की थी. यहां गोपी और अहम के प्यार की शुरुआत हुई थी.
बड़े अच्छे लगते हैं
सोनी टीवी का लोकप्रिय शो बड़े अच्छे लगते हैं में हाल ही में प्रिया कपूर व राम कपूर अपने हनीमून ट्रिप पर ऑस्ट्रेलिया गये थे. वहां राम कपूर व प्रिया ने बहुत मस्ती की थी और इस शो के जरिए ऑस्ट्रेलिया टूरिज्म ने भी अपना प्रचार कराया था. इसी बहाने दर्शकों को ऑस्ट्रेलिया का खूबसूरत शहर सिडनी देखने को मिला. खासतौर से सिडनी क्रिकेट ग्राउंड, ओपेरा हाउस, रॉक फ़ॉरमेशंस जैसे स्थान देखने को मिले. इसी बहाने प्रिया और राम एक दूसरे के बेहद करीब आ गये थे.
हिटलर दीदी
जीटीवी के शो हिटलर दीदी ने हाल ही में मकाऊ शहर की यात्रा की. रति पांडे ने यहां खासी शॉपिंग की और साथ ही खूब मस्ती भी की.
सरवाइवर इंडिया
स्टार प्लस पर प्रसारित हो रहे रियलिटी शो सरवाइवर इंडिया की पूरी शूटिंग फ़िलिपींस के आइलैंड में की जा रही है. यहां प्रतिभागियों को आइलैंड पर कई हफ्ते बिताने हैं.
रियलिटी शो
कलर्स के शो खतरों की खिलाड़ी की शूटिंग भी साउथ अफ्रीका में की जा चुकी है. इसके अलावा रोडीज की मलेशिया में व जोर का झटका की शूटिंग अर्जेटिना में हो चुकी है.
इनके अलावा अगले जन्म मोहे बिटिया ही कीजो की शूटिंग नेपाल में हो चुकी है. देश में निकला होगा चांद की शूटिंग लंदन,कयामत की टर्की में और क्योंकि सास भी कभी बहू थी की टीम भी ऑस्ट्रेलिया घूम कर आ चुकी है

नाम देकर गुमनाम करता बॉलीवुड



हाल ही में खबर आयी कि फ़िल्म प्रोफ़ेसर की नायिका कल्पना मोहन का निधन हो चुका है. इस बात से हिंदी सिनेमा जगत पूरी तरह से बेखबर है. कल्पना ने कम लेकिन चर्चित फ़िल्मों में अभिनय किया था. शादी के बाद उन्होंने फ़िल्मों से दूरी बना ली. अपनी रीत के अनुसार हिंदी सिनेमा ने उनकी सूध नहीं ली.
ऐसा पहली बार नहीं हो रहा. पहले भी ऐसा कई बार हो चुका है. मशहूर अभिनेत्री ललीता पवार की मौत भी कुछ ऐसी ही गुमनामी के साथ हुई थी. परवीन बॉबी ने भी कुछ इसी तरह खामोशी की चादर ओढ़ ली थी. हाल ही में खबर मिली थी कि किसी जमाने के मशहूर अभिनेता राज किरण के बारे में जानकारी मिली कि वह अंटालंटा के किसी मेनटल इंस्टीटयूशन में अकेले जिंदगी जी रहे हैं. राज की पिछले कई सालों से कोई खोज खबर नहीं थी.
लोगों ने भी तलाशने की कोशिश भी नहीं कि वह कहां हैं. हालांकि, राज को उनके कुछ दोस्तों ऋषि कपूर, दीप्ति नवल जैसे कलाकारों ने ढूंढने का प्रयास किया, लेकिन कभी कोई ठोस कदम नहीं उठाये गये. कुछ ऐसी ही हालत अपने दौर में महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभा चुके एके हंगल की भी थी.
वे पिछले कई सालों से बीमारी से जूझ रहे थे, लेकिन बॉलीवुड के कलाकारों ने उनकी खोज खबर लेने की जरूरत महसूस नहीं की. बाद में जब मीडिया में यह खबर आने लगी, तो कुछ लोगों ने हाथ आगे बढ़ाया. फ़िल्म वक्त की मशहूर अदाकारा अचला सचदेव किसी जमाने में कलाकारों की मां की सशक्त भूमिका में नजर आती थीं. वे करन जोहर की फ़िल्म कभी खुशी कभी गम में आखिरी बार नजर आयीं. आज वह पुणे के अस्पताल में बुरी हालत में हैं.
जिस दौर में वह सक्रिय थीं. उनके बेटे व परिवार ने भी उनका साथ दिया, लेकिन आज उन लोगों ने भी उनका साथ छोड़ दिया. उनके बेटे यूएस में हैं और बेटी मुंबई में, लेकिन उन्होंने कभी अपनी मां की सूध लेने की कोशिश नहीं की. जिस अभिनेत्री ने ताउम्र बॉलीवुड कलाकारों के लिए मां की भूमिका निभायी. उसी मां को न तो आज अपने बच्चों का साथ मिल रहा है और न ही सिनेमाई बेटों का. आज वह पुणे के रिसर्च सेंटर में जिंदगी और मौत के बीच जूझ रही हैं.
बॉलीवुड का मुखौटा उस दिन नजर आयेगा जब अचला हमारे बीच नहीं होंगी और बॉलीवुड की हस्तियों द्वारा उन्हें ट्विटर, अखबारों व चैनलों द्वारा उन्हें श्रद्धांजलि देने का तांता लगेगा. वर्तमान में भी ऐसे कई मशहूर नाम हैं, जो बदहाली की जिंदगी गुजार रहे हैं, लेकिन उनकी सूध लेनेवाला कोई नहीं.
दरअसल, विदेशों की तरह भारत में कलाकारों के जुड़ी ऐसी कोई नीति नहीं है, जिसमें बुजुर्ग कलाकारों को सेवा प्रदान की जाये. विदेशों में सेवानिवृत कलाकारों के लिए पेंशन की योजना है, लेकिन अब तक भारत में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं. इसलिए, अपने परिवार का गुजारा करने के लिए आज भी कई कलाकार बुढ़े हो जाने के बावजूद काम करने के लिए बाध्य हैं, वरना, कभी करोड़ों लोगों का प्यार पानेवाला शख्स अचानक अकेला हो जाता है

खान के कंधों पर क्यों आश्रित अभिनेत्रियां ?




विद्या बालन की फ़िल्म द डर्टी पिक्चर्स ने जब बॉक्स ऑफ़िस पर कामयाबी हासिल की, तो उन्हें लेडी खान की उपाधि दी गयी. अब तो लगभग हर ए लिस्ट अभिनेत्री सलमान खान, शाहरुख खान और आमिर खान के साथ जोड़ी बनाना चाहती है. करीना कपूर को इस बात का गुमान है कि उन्होंने इन तीनों खान के साथ फ़िल्में की हैं और तीनों ही सफ़ल रही हैं.
अब तक यह सौभाग्य वर्तमान की किसी भी अभिनेत्री को प्राप्त नहीं है. वहीं कैटरीना कैफ़ सलमान के दुश्मन शाहरुख खान के साथ कई अरसे से इसलिए काम करना चाह रही थीं, क्योंकि वे भी अपनी जोड़ी शाहरुख और आमिर के साथ बनाना चाहती हैं. असिन की भी ख्वाहिश है कि सलमान, आमिर के बाद किसी तरह वह शाहरुख के साथ फ़िल्म हथिया लें. द डर्टी पिक्चर रिलीज होने से पहले तक विद्या भी चाहती थीं कि वह शाहरुख, सलमान व आमिर के साथ काम करें.
दीपिका पादुकोण, प्रियंका चोपड़ा, बिपाशा बसु व हर नवोदित नायिका की यही चाहत है कि उसकी जोड़ी खान के साथ बने. क्योंकि वर्तमान में खान सितारों के साथ जोड़ी बनाने का अर्थ है 100 प्रतिशत सफ़लता की गारंटी. आलम तो यह है कि अगर किसी अभिनेत्री के जन्मदिन पर किसी खान द्वारा बधाई भेजी जाती है, तो वह अभिनेत्री इस बात का ढिंढोरा उछल-उछल कर पीटती है.
यह पूरी तसवीर इस बात की गवाह है कि वर्तमान में अभिनेत्रियां अपनी काबिलियत पर कम खान बंधुओं के कंधों पर अधिक विश्वास रखती हैं. और सच्चाई भी यही है कि वर्तमान में किसी भी अभिनेत्री को किसी नायक के बराबर की मान्यता नहीं मिलती. काफ़ी मशक्कत के बाद जब विद्या को वह कामयाबी मिली, तब भी इसका श्रेय लेडी खान का टैग लगा कर खान को ही दे दिया गया. ओखर क्यों. आज सशक्त अभिनेत्रियां भी अपनी काबिलियत खान कंधों पर आंकती हैं ?
वे अपना अभिनय निखारने के बजाय इस फ़िराक में रहती हैं कि किसी भी तरह उन्हें खान सितारों के साथ फ़िल्म मिल जाये. यह सच है कि पिछले 20 सालों से लगातार खान नायकों का दबदबा चलता आ रहा है. लेकिन ऐसा नहीं है कि उनके मुकाबले अभिनेत्रियों ने कमतर काम किया है.
लेकिन उनकी अनदेखी हुई है. एक दौर था, जब नरगिस, मधुबाला, मीना कुमारी जैसी अभिनेत्रियां उस दौर के दिग्गजों को टक्कर देती थीं. मीना कुमारी ने उस वक्त के दिग्गज दिलीप कुमार की फ़िल्म अमर छोड़ दी थी. ऐसा उन्होंने इसलिए किया, क्योंकि उन्हें अपनी काबिलियत पर भरोसा था. मधुबाला ने दिलीप के साथ फ़िल्म नया दौर करने से इनकार कर दिया था. यह भी एक हकीकत ही है कि अमिताभ के बिगड़ते कैरियर को सहारा जया भादुड़ी ने दिया था

20120116

साफ-सुथरी कॉमेडी फिल्म 4084


हृदय शेट्ठी बॉलीवुड के यंग डायरेक्टर हैं उन्होंने अभी बहुत कम फिल्में ही बनायी है उनकी फिल्में अन्य की अपेषा लीक से अलग हट कर होती हैं फिल्म प्यार में ट्विस्ट व आग जैसी फिल्में बनाने के बाद इस बार वे एक कॉमेडी फिल्म 4084 लेकर आये हैं पेश है अनुप्रिया से हुइ उनकी बातचीत के मुख्य अंश

हृदय शेट्ठी बॉलीवुड के यंग डायरेक्टर हैं उन्होंने अभी बहुत कम फिल्में ही बनायी है उनकी फिल्में अन्य की अपेषा लीक से अलग हट कर होती हैं फिल्म प्यार में ट्विस्ट व आग जैसी फिल्में बनाने के बाद इस बार वे एक कॉमेडी फिल्म 4084 लेकर आये हैं पेश है अनुप्रिया से हुइ उनकी बातचीत के मुख्य अंश


हृदय शेट्ठी ने अपने पिता की तरह एक्शन मास्टर बनने की बजाय निदेशन में ही आगे ब़ढना मुनासिब समझा वे पहली बार नसीरूद्दीन शाह, अतुल कुलकणी व केके मेनन जैसे कलाकारों को साथ लेकर आये हैं फिल्म 4084 में

फिल्म 4084 का ख्याल कैसे आया?

शुरू से इच्छा थी कि एक कॉमेडी फिल्म बनाऊं और उसमें ऐसे कलाकारों को लूं, जिन्होंने इससे पहले अपने से अलग किरदार न निभाया हो इसलिए मैंने तय किया कि फिल्म 4084 ही बनाऊंगा फिर तय किया कि जिस वैन में यह चारों अपना सबसे अधिक वक्त बितायेंगे, फिल्म का नाम भी उसी आधार पर रखा जाये तो बहुत अच्छा होगा

आपकी फिल्म लगभग चार सालों के अंतराल पर आयी है कोइ खास वजह?

नहीं ऐसा किसी योजना के तहत नहीं होता मैं लगातार फिल्में बना कर पुरानी चीजें ही नहीं परोसना चाहता कहानी लिखने व सोचने में वक्त तो लग ही जाता है मैं मानता हूं कि अच्छी कहानी कहने या फिल्में बनाने का कोइ समय निधारित नहीं होता कभी जल्दीबाजी में दो-तीन बना लिया या कभी एक ही बनाने में कइ वष लग जाते हैं

आपके भाइ रोहित लगातार फिल्में बना रहे हैं हर साल उनकी एक फिल्म आ ही जाती है?

यह खुशी की बात है कि हमारे परिवार की परंपरा आगे ब़ढ रही है खुशी होती है यह सुनकर कि वह अच्छा काम कर रहे हैं रोहित की फिल्में मैं देखता हूं और मुझे पसंद आती हैं लेकिन हर व्यक्ति एक ही तरह के काम नहीं कर सकता सो, दोनों भाइयों में तुलना करना गलत होगा

क्या 4084 किसी वास्तविक घटना पर आधारित फिल्म है?

हां, मैंने कुछ अखबारों के आलेखों में प़ढा था मैंने वहीं से आइडिया लिया और फिर इस पर जमकर काम किया किरदारों के चयन में इस बार इतना ध्यान रखा कि उन कलाकारों से बिल्कुल उनके स्वभाव के विपरीत एक्टिंग करवानी है बस क्या था बन गयी चालीस चौरासी

क्या 4084 डाक कॉमेडी है?

मेरा मानना है कि कॉमेडी कॉमेडी होती है मैं कहूंगा कि 4084 साफ सुथरी बिना डबल संवादों वाली आम हास्य कहानी पर आधारित फिल्म है

क्या 4084 में कभी किसी सुपरस्टार को कास्ट करने का ख्याल नहीं आया?

अगर सुपरस्टार को लेता तो फिर कहानी जीवित नहीं हो पाती चूंकि मेरे दिमाग में इन्हीं चार कलाकारों के नाम थे और उन्हें एकसाथ एकत्रित करने में मुझे चार साल लग गये तब जा कर यह कहानी पूरी हुइ

फिल्म में कोइ अभिनेत्री नहीं है?

मैंने बताया न आपको 4084 हीरो की फिल्म है और कहानी ही इस फिल्म की हीरोइन है हां, हमने फिल्म में कइ गाने रखे हैं, जिससे दशकों को फ्रेशनेस महसूस हो

फिल्म के गीत सेटिंग झाला और हवा हवा की बहुत चचा है?

हां, मैं मानता हूं कि हवा हवा गीत उस दौर में बेहद लोकप्रिय था, जब मीडिया नहीं थी आज भी यह गीत जब पाटियों में बजाये जाते हैं तो लोग झूम उठते हैं मेरा पसंदीदा गीत है इसलिए मैंने इसे शामिल किया सेटिंग झाला में चारों कलाकार मस्ती करते नजर आयेंगे

नसीरूद्दीन शाह को कैसे मनाया उनकी ट्यूनिंग बाकी कलाकारों के साथ कैसी रही?

नसीर साहब की सबसे खास बात यह है कि वह कभी सीखने से मना नहीं करते वह डायरेक्ट्स एक्टर हैं डायरेक्टर जैसा चाहता है, वे वैसी ही एक्टिंग करते हैं वैसे ही किरदार में ढल जाते हैं और रही बात सभी कलाकारों की ट्यूनिंग की तो आप खुद फिल्म में देखेंगे कि चारों की ट्यूनिंग की वजह से फिल्म अच्छी बनी है सबने सेट पर बहुत मस्ती की खासकर रवि किशन अचानक धमाल मचा देते थे नसीर साहब को भी रवि बेहद पसंद आ

ढिंढोरा पीटो, वरना फ़िल्म डिब्बाबंद


युवा लेखक मुअज्जम बेग ने नवोदित कलाकारों के साथ फ़िल्म साडा अड्डा बनायी है. फ़िल्म पिछले शुक्रवार को 4084 और घोस्ट के साथ रिलीज हुई. जहां मुंबई समेत देश के कई इलाकों में 4084 व घोस्ट के प्रोमोशन हो रहे हैं, वहीं, साडा अड्डा के बारे में लोगों को जानकारी तक नहीं है.
जबकि, नये कलाकारों, सीमित बजट के साथ मुअज्जम बेग ने युवाओं की नब्ज पक़ड़ते हुए एक अच्छी कहानी कही है. सपने टूटने के कारण जीवन से निराश हो चुके युवाओं का यह फ़िल्म खास तौर पर देखनी चाहिए. यह फ़िल्म युवाओं को जागरूक करने के साथ उन्हें जिम्मेदारी का भी एहसास कराती है. लेकिन मार्केटिंग व प्रमोशन के अभाव में बेहतरीन कहानी वाली यह फ़िल्म रिलीज होकर भी लोगों तक नहीं पहुंच पा रही है.
आलम यह है कि फ़िल्म के कलाकार मुंबई के सिनेमाघरों में स्वयं टिकट काउंटर पर खड़े होकर युवा दर्शकों व परिवारों को प्रोमो दिखा कर अपनी फ़िल्म देखने की गुजारिश कर रहे हैं. हर शुक्रवार कई बड़ी व छोटे बजट की फ़िल्में रिलीज होती हैं. लेकिन पहली बार किसी फ़िल्म के कलाकारों को फ़िल्म के टिकट बेचते देखा. चूंकि उन्हें विश्वास है कि फ़िल्म अच्छी है, इसलिए वे नहीं चाहते कि उनकी मेहनत बेकार जाये. फ़िल्म देखने के बाद दर्शक सकारात्मक प्रतिक्रिया दे रहे हैं.
दरअसल, फ़िल्म का निर्माण अब केवल रचनात्मक प्रक्रिया नहीं है. फ़िल्मकार को एक व्यवसायी की तरह फ़िल्म बेचने की तरकीब भी आनी चाहिए. वरना, आप दर्शकों को टिकट खिड़की तक नहीं ला सकते. यानी, फ़िल्म बनाने के साथ-साथ उसका ढिंढोरा पीटना भी जरूरी है. इसीलिए निर्देशक-निर्माता से ज्यादा अहमियत पीआर एजेंसियों की हो गयी है, जिन पर फ़िल्म पत्रकारिता की नींव टिकी है. जिन फ़िल्मों को इनका सहारा मिला, वे फ़ूहड़ होकर भी कामयाब हो जाती हैं और अर्थपूर्ण फ़िल्में डिब्बे में बंद.
बबलगम, दायें या बायें भी ऐसी ही प्रभावशाली फ़िल्में हैं, जो बहुत से सिनेमाघरों तक पहुंच भी नहीं पायीं. फ़िर आते हैं ताजा फ़िल्म साडा अड्डा पर. किराये के मकान में रहनेवाले छह लड़कों की कहानी है यह. सारे लड़के अलग-अलग प्रांत से हैं और सबके अपने-अपने सपने हैं. उनके सपने टूटते भी हैं. लेकिन पाश की कविता ‘हम लड़ेंगे साथी’ की तरह वह अपने सपनों को पूरा करते हैं. कविता की पंक्ति ‘जो लड़ते हुए मर गये, उनकी याद जिंदा रखने के लिए लड़ेंगे’ को लेखक ने अपनी फ़िल्म के माध्यम से पूरी तरह चरितार्थ किया है.
‘डेल्ही बेली’ के तीन किरदारों व साडा अड्डा के किरदारों में भी कई समानताएं हैं. डेल्ही बेली के साथ चूंकि सुपरसितारे का नाम जुड़ा है, इसलिए अपशब्दों व द्विअर्थी संवादों के बावजूद वह युवाओं का नया ट्रेंड दिखाती फ़िल्म मान ली जाती है. लेकिन साडा अड्डा जैसी फ़िल्में अपने पर नहीं फ़ैला पातीं, क्योंकि रचना पर बाजार हावी है.

20120115

स्क्रीन अवार्ड : क्या खोया, क्या पाया




शनिवार की रात मुंबई के बांद्रा कुर्ला कांप्लेक्स के एमएमआरडी ग्राउंड में 18 वें स्क्रीन अवार्ड समारोह का समापन हुआ. हालांकि, इन दिनों हिंदी फ़िल्मों में कई पुरस्कार समारोहों का आयोजन किया जाता है. लेकिन फ़िर भी हिंदी फ़िल्म जगत में फ़िल्मफ़ेयर के समकक्ष किसी अवार्ड समारोह की आज भी गरिमा बरकरार है, तो वह स्क्रीन अवार्ड ही है.
यही वजह है कि बॉलीवुड हस्तियों के साथ-साथ आम दर्शकों को भी इस अवार्ड समारोह का बेसब्री से इंतजार रहता है. चूंकि एक लिहाज से यह इस बात का मापदंड होता है कि हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री की वर्तमान परिस्थिति क्या है? साथ ही यह इस बात का भी सूचक है कि बीते वर्ष इस इंडस्ट्री ने क्या पाया व क्या खोया. पूरे वर्ष कैमरे के सामने व कैमरे के पीछे आपकी मेहनत का असल रंग यहीं नजर आता है. इस लिहाज से यह वर्ष वाकई खास रहा.
चूंकि इंडस्ट्री के दिग्गज चेहरों के साथ-साथ इस वर्ष नयी प्रतिभाओं का जमघट लगा था. चूंकि नि:संदेह 2011 में हिंदी सिनेमा ने कई प्रतिभावान लोगों को मौके दिये. इसमें पिटोबस त्रिपाठी जैसे कलाकार को बेस्ट कॉमेडियन का अवार्ड मिला, अक्षत वर्मा जैसे नये लेखक को दो पुरस्कार दिये गये. यह सकारात्मक संदेश है कि अगर आपमें टैलेंट है, तो यह इंडस्ट्री आपका स्वागत जरूर करेगी. इस वर्ष जितना सम्मान परदे के सामने कमाल दिखाने वाले लोगों को मिला.
उतना ही सम्मान परदे के पीछे कमाल दिखाने वालों को. इस वर्ष बेस्ट कॉस्टयूम की श्रेणी भी जोड़ी गयी. नि:संदेह इन दिनों निर्देशक के साथ किरदारों की उचित प्रस्तुति दिखाने में उनके कॉस्टयूम की अहम भूमिका रहती है. ऐसे में इस नयी श्रेणी की सराहना करनी चाहिए. चूंकि सम्मान मिलने से ही ऐसे लोग भी नोटिस होते हैं. इस वर्ष एक और बात भी गौरतलब थी कि विजुअल इफ़ेक्ट्स की श्रेणी में डॉन 2, हांटेड, रा.वन व डैम 999 समेत चार फ़िल्मों को शामिल किया गया.
इससे साफ़ जाहिर है कि वर्ष 2011 हिंदी सिनेमा ने तकनीक व विजुअल इफ़ेक्ट्स के आधार पर खुद को मजबूत किया है. स्क्रीन अवार्ड ने पारखी नजर रखते हुए भी कई प्रतिभाओं को सम्मानित होने से वंचित रख दिया. जबकि वे इसके दावेदार भी थे और हकदार भी. इनमें सबसे पहले नाम आता है नसीरुद्दीन शाह का. नसीरुद्दीन शाह ने वर्ष 2011 में द डर्टी पिक्चर व सात खून माफ़ में अद्भुत भूमिका निभायी. लेकिन बतौर एक्टर या खलनायक उन्हें कोई भी नॉमिनेशन नहीं मिला.
जबकि वे लगातार बेहतरीन अभिनय करते आ रहे हैं. बेस्ट डायलॉग की श्रेणी में फ़िल्म साहेब, बीवी और गैंगस्टर के लेखक संजय चौहान व तिंग्माशु धुलिया का नाम शामिल नहीं था. जबकि इस फ़िल्म के संवाद को बेहद सराहना मिली.फ़िल्म तनु वेड्स मनु के गीत बेहद लोकप्रिय हुए, लेकिन बेस्ट गीतकार की श्रेणी में नये गीतकार राज शेखर का नाम शामिल नहीं था.बेस्ट स्टोरी की श्रेणी में फ़िल्म चिल्लर पार्टी को शामिल नहीं रखा गया.
साथ ही पिछले वर्ष जिस तरह उड़ान, रोड, संगम जैसी छोटे बजट की फ़िल्मों को सराहना मिली. इस वर्ष छोटे बजट की फ़िल्में अधिक पुरस्कार हासिल नहीं कर पायीं. माधुरी के बाद विद्या सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का सर्वाधिक स्क्रीन अवार्ड जीतने वाली अभिनेत्री बन चुकी हैं.
डीप फ़ोकस
हिंदी फ़िल्म जगत में फ़िल्मफ़ेयर के समकक्ष किसी अवार्ड समारोह की आज भी गरिमा बरकरार है, तो वह स्क्रीन अवार्ड ही है

20120114

चीन में फिर से लोकप्रिय होता बॉलीवुड

भारतीय फिल्म थ्री इडियट्स हाल ही में चीन में रिलीज हुई. इस फिल्म ने वहां ११ करोड़ की कमाई की. लंबे अरसे के बाद किसी हिंदी फिल्म को चीन में ऐसी सफलता मिली. ३ इडियट्स को वहां की यूनिवर्सिटी व युवाओं द्वारा बेहद सराहना मिली.३ इडियट्स का ही जादू है कि अरसे बाद वहां के टैक्सी ड्राइवर द्वारा भी भारतीय टूरिस्ट का अभिनंदन आल इज वेल कह कर किया जा रहा है. इससे साफ जाहिर है कि ३ इडियट्स ने वहां के लोगों पर अपना प्रभाव छोडा है. किसी हिंदी फिल्म के लिए यह गौरव की बात है कि अरसे बाद चीन में न सिर्फ बॉक्स ऑफिस पर इतनी बडी सफलता मिली, बल्कि आम लोगों पर भी प्रभाव छोडा.जबकि चीन हर साल विदेशी भाषाओं की केवल २॰ फिल्मों को ही रिलीज करने की अनुमति देता है. ऐसे में पिछले कई सालों से बालीवुड की फिल्में वहां कोई खास प्रभाव नहीं छोड पा रही थी. इससे पहले स्लम डॉग मिलेनियार ने अच्छी कमाई की थी. इसके अलावा हाल की फिल्मों में माइ नेम इज खान ने ठीकठाक व्ययसाय किया . लेकिन ३ इडियट्स ने फिर से उम्मीद जगा दी है. हालांकि ३ इडिय्ाट्स की चीन में सफलता से भारतीय निर्माताओं को कोई फायदा नहीं होगा. चूंकि फिल्म पहले ही चीन के डिस्ट्रीब्यूटर को बेंच दी जाती है. लेकिन इसके बावजूद इससे यह तसवीर साफ हो रही है कि चीन में एक बार फिर से बाॅलीवुड की फिल्मों की लोकप्रियता बढ रही है. मुमकिन हो कि चीन सरकार चीन में बालीवुड फिल्मों के आयात से होनेवाले फायदा पर कुछ नरमी बरते. निस्संदेह आज भी चीन में हिंदी फिल्मों में राजकपूर की फिल्में व राजकपूर ही सबसे अधिक लोकप्रिय रहे हैं. राज कपूर की फिल्में आज भी चीन के कई सिनेमाघरों में दिखाई जाती है. इनके अलावा मिथुन चक्रवर्ती की फिल्म डिस्को डांसर के भी वहां प्रेमी हैं. लगान को भी चीन में अच्छी सफलता मिली थी. दरअसल, चीन में आज भी हालीवुड की फिल्मों से अधिक बालीवुड की फिल्में व कलाकार वहां लोकप्रिय हैं. तमाम बंदिशों के बावजूद चीन के कई डीवीडी की दुकानों पर आज भी बालीवुड की फिल्मों के पायरेटेड सीडी की खूब बिक्री होती है. चीन के चेंगागुडु लेन नामक एक दुकान पर आज भी बालीवुड के कई कलाकारों के पोस्टर नजर आते हैं. इसी इलाके में कई महिलाएं माधुरी दीक्षित व आयशा जुल्का की फैन हैं और उनकी तरह फैशन करना पसंद करती हैं.यानि बॉलीवुड की लोकप्रियता आज भी वहां बरकरार है. चीन में रिलीज हुई बॉलीवुड फिल्मों की फेहरिस्त उठा कर देख लें तो अब तक उन फिल्मों ने अच्छी कमाई की है, जिन फिल्मों में डांस, गाने अधिक हों. चूंकि वहां के दर्शक जो हमेशा तनाव में रहते हैं, वे गंभीर फिल्मों की बजाय उन फिल्मों को देखना चाहते हैं जो उनका मनोरंजन कर सकें. और भारतीय फिल्में गाने-डांस से भरपूर होती हैं. भले ही दुनिया के अन्य देशों के निर्देशकों द्वारा इस बात की निंदा की जाय कि भारतीय फिल्मों में केवल डांस-गाने व मनोरंजन तत्व ही मौजूद होते हैं. लेकिन चीन में इन फिल्मों की लोकप्रियता की सबसे बडी वजह तो यही है. एक तरह से चीन के बाजार में यही भारतीय्ा फिल्मों के लिए यु एसपी साबित हो रहे हैं. कम से कम ३ इडिय्ाट्स की कामय्ााबी को देखते हुए ऐसा अनुमान लगाय्ाा जा सकता है.

रिश्तों में ओम शांति ओम



जल्द ही निर्देशक संजय लीला भंसाली फराह खान को लेकर फिल्म शिरीन-फरहाद का निर्माण करने जा रहे हैं. फिल्म का निर्देशन संजय लीला की बहन बेला करेंगी. फरहा-संजय फिल्म १९४२ लव स्टोरी के दौरान से एक दूसरे के अजीज दोस्त बन गय्ो थे. लेकिन वर्ष २॰॰७ में दोनों की दोस्ती में गहरी दरार तब आयी जब दोनों की फिल्में एक ही दिन रिलीज हुई. उस दौरान अपनी दोस्ती भूला कर वे अपनी फिल्मों की तारीफ में एक दूसरे की फिल्मों के खिलाफ नारेबाजी करने लगे थे.फिल्म थीं ओम शांति ओम व सांवरिया . ओम शांति ओम हिट रही और सांवरिया फ्लॉप . फरहा ने अपनी जीत में अतिउत्साही व संजय ने अपने हार के तनाव में अपनी दोस्ती को दांव पर लगा दिया था. इसके बाद भी वे दोनों हमेशा दूर ही रहे. लेकिम ४ सालों बाद सबकुछ भूला कर जब फरहा ने दोस्ती का हाथ बढाया , तो संजय पीछे नहीं हटे. चूंकि वे भी फरहा जैसी दोस्त खोना नहीं चाहते थे और अब दोनों साथ फिल्म भी बनाने जा रहे हैं. दूसरी तरफ किसी जमाने में जिगरी यार रह चुके अनुराग कश्यप अभिनेता मनोज बाजपाई में भी कई सालों तक बातचीत थी. वजह थी कि मनोज ने दोस्त होने के बावजूद फिल्म पांच में काम करने से इंकार कर दिया था. लेकिन दोनों फिर से एक साथ फिल्म गैंग आफ वसीपुर लेकर आ रहे हैं. साथ ही अनुराग ने मनोज अभिनीत फिल्म चिट्टागांग की रिलीज में भी सहयोग कर रहे हैं. कुछ इसी तरह कभी अजीज दोस्त व प्रेम में रह चुके रनबीर कपूर व दीपिका पादुकोण में भी तकरार रहा. दोनों ने एक दूसरे के बारे में कई बातें कहीं. लेकिन वे दोनों फिर से अच्छे दोस्त बन कर अयान मुखर्जी की फिल्म में काम करने जा रहे हैं. सलमान व कट्रीना में आयी दूरी भी अब फिल्म एक था टाइगर से दूर हो जाएँगी . दरअसल, फिल्म इंडस्ट्री में रिश्तों को बनने में जितना वक्त लगता है, बिगड़ते देर नहीं लगती. और फिर बिगडे रिश्तों को सुधारना बेहद कठिन हो जाता है. इसकी सबसे बडी वजह यह है कि पैसे, शोहरत के साथ साथ इंडस्ट्री व्यक्ति को अहंकार भी देता है, जिसकी वजह से रिश्ते दावं पर लग जाते हैं. इंसान कई बार चाह कर भी दोस्ती नहीं कर पाता. चूंकि उसे इस बात का डर लग रहता है कि मीडिया में जगजाहिरी होने से उसकी छवि बिगड जाएगी . इस वजह से वह कभी पहल नहीं करता. खुद फरहा मानती हैं कि संजय से लडाई के बाद वे कभी खुश नहीं रहीं. संजय भी नहीं रहे. लेकिन वे य्ाह भी जानती थीं संजय पहल नहीं करेंगे. सो, उन्होंने की. दोस्ती दरअसल होनी भी ऐसी ही चाहिए. बिना किसी स्वार्थ या अहं के पहल करने में कोई बुराई नहीं है. वरना, अगर इन्हें कुरदेते रहे तो हाल शाहरुख खान व सलमान खान के रिश्तों की तरह ही हो जायेगा . इन दोनों के रिश्तों में जितनी खटास शायद इन दोनों ने व्यक्तिगत रूप से न लायी ho. उतनी जमाने की वजह से आयी. क्यूंकि जमाना दोनों के रिश्तों में नारद की भूमिका अदा कर रहा है. और अब शायद ही मुमकिन है कि जिस तरह बाकी लोगों ने पुरानी बातों को भूल कर नए साल में नयी शुरुआत की है. शाहरुख व सलमान भी साथ हो लें. चूंकि अब इनकी दिलचस्पी अपनी दोस्ती के रिश्ते को बनाने की बजाय इस बात में अधिक हो चुकी है कि दोनों में कौन एक दूसरे की छींटाकशी करने में कामयाबी हासिल करता है.

एक सुपरस्टार को दूसरे सुपरस्टार का तोहफा



आज हिंदी सिनेमा जगत के काका उर्फ सुपरस्टार राजेश खन्ना का जन्मदिन है. कई वर्षों के बाद इस वर्ष वे अपने पूरे परिवार के साथ अपना ६९ वां जन्मदिन धूमधाम से गोवा में मना रहे हैं. अक्षय के गोवा स्थित बंगलो पर विशेष पार्टी का आयोजन किया गया है, जिसमे केवल अक्षय व ट्विंकल के परिवार के चुनिंदा सदस्यों ही शामिल किया गया है. इस बार उनके ६९वें जन्मदिन को विशेष बनाने की जिम्मेदारी उनके दामाद अक्षय ने ली है. यानि वर्तमान का एक सुपरस्टार इतिहास के सुपरस्टार को तोहफे के रूप में उसका परिवार दे रहा है. दरअसल, यह जन्मदिन राजेश खन्ना के लिए इसलिए भी बेहद खास है, क्यूंकि पिछले कई सालों से उनके बुरे बर्ताव की वजह से उनके परिवारवालों ने उनसे किनारा कर लिया था. खासतौर से बेटी टिवंकल खन्ना व पत्नी डिंपल ने. लेकिन पिछले कई महीनों से लगातार बीमार पड़ने की वजह से राजेश की सेहत दिन ब दिन खराब होती जा रही है. ऐसे में दामाद अक्षय द्वारा की गयी पहल सराहनीय है. चूंकि किसी व्यक्ति के लिए इससे बेहतरीन तोहफा और क्या होगा, कि कई वर्षों बाद वह पूरे परिवार के साथ होगा. राजेश खुद इस आयोजन से कितने खुश हैं, यह उनसे बातचीत करने के दौरान उनका उत्साहित चेहरा ही बयां कर रहा था. वे आज अन्य दिनों की तुलना में अधिक खुश हैं. इन दिनों हमेशा निरस और सार्वजनिक स्थानों पर आने से कतरानेवाले राजेश अपने जन्मदिन की प्लानिंग के बारे में मीडिया से बात करते नहीं थक रहे. इससे साफ जाहिर है कि इस बार उन्हें अपने जीवन का सबसे अहम तोहफा उनके दामाद ने दिया है . उनका परिवार. चूंकि व्यक्ति चाहे कितनी भी ऊंचाईयों पे क्यों न चले जाये . वह अपने परिवार की जरूरत हर कदम पर महसूस करता है. लेकिन राजेश ने अपने अहं और गुरुर की वजह से वह अनमोल चीज खो दी थी. निश्चित तौर पर वह यह टिस अब महसूस करते होंगे. वे लोगों के बीच सुपरस्टार रहे. लेकिन कभी पारिवारिक व्यक्ति नहीं बन पाए . गौर करें तो उनके दामाद व उनमें कई समानताएं हैं. किसी दौर में राजेश के भी प्रेम के कई प्रसंग बने. मुमताज, टीना मुनिम, अंजू महेंद्रो से उनका नाम जोडा जाता रहा. लेकिन उन्होंने शादी डिंपल से. जिनके साथ उन्होंने कुछेक फिल्मों में ही काम किया था. उसी तरह अक्षय कुमार की छवि भी कभी प्ले बॉय की थी. करिश्मा, रवीना, शिल्पा शेट्ठी जैसी अभिनेत्रियों से उन्होंने इश्क फरमाया लेकिन घर बसाया ट्विंकल के साथ. ससुर राजेश खन्ना भी अपने जमाने के सुपरस्टार थे. लड़कियों में उनका क्रेज था तो वर्तमान में अक्षय की फैन फोल्लोविंग में लड़कियों की संख्या सबसे अधिक है. लेकिन एक महत्वपूर्ण बात दोनों को एक दूसरे से बिल्कुल अलग करती है.अक्षय ने शादी के बाद अपनी अय्याशिवाली छवी बदल कर पारिवारिक व्यक्ति की भूमिका निभाई और ताउम्र निभाएंगे भी. वे खुद मानते हैं कि उनके जैसे बिगडैल लड़के को सुधारने में उनके परिवार का महत्वपूर्ण योगदान रहा. शायद यही वजह है कि आज इंडस्ट्री में अक्षय की बेहतरीन छवि है. शादी के बाद न सिर्फ वे अभिनेता के रूप में सफल हुए. हाल ही में उन्होंने अपनी प्रोडक्शन कंपनी की भी शुरुआत कर ली. लेकिन वही दूसरी तरफ राजेश ने कभी परिवार की अहमियअत नहीं दी. शायद यही वजह रही कि उनका लगातार पतन होता रहा. अपनी फिल्मों में यह कहते फिरनेवाले सुपरस्टार राजेश कि आइ हेट तेयार्स दरअसल अपनी जिंदगी में आंसुओं को आमंत्रित करने की वजह खुद बने.अपने बर्ताव की वजह से आज उन्हें इंडस्ट्री में खास इज्जत नहीं मिलती. वे आज केवल एक पियक्कड़ और अय्याश व्यक्ति के रूप में ही जाने जाते हैं.चूंकि जिंदगी में उन्होंने हमेशा अपने अहं, आक्रोश व दूसरों पर जबरन हक जमाने की कोशिश की. और यही वजह है कि आज ६९ की उम्र में ही बुढे नजर आते हैं. वे न सिर्फ घर में अकेले हैं, बल्कि उनके जीवन में भी अब उनका सुख दुख शेयर करने वाला कोई नहीं. मुमकिन हो कि अपने दामाद की इसी पहल से उनमें कोई बदलाव आये और अपनी जिंदगी के बचे शेष दिनों में ही सही वे परिवार का सुख भोग पाएं.

20120113

कलाकारों की पिकनिक है "चालीस चौरासी"


कलाकारों की पिकनिक है "चालीस चौरासी"

फिल्म 4084 का एक दृश्य
कलाकार : नसीरुद्दीन शाह, रवि किशन, अतुल कुलकर्णी, जाकिर हुसैन एवं केके मेनन
निर्देशक : हृदय शेट्ठी
संगीत : ललित पंडित एवं विशाल राजन
रेटिंग : 2.5 स्टार
चार दोस्त हैं. चारों के सपने हैं. सबके अपने शौक हैं. सब अपने-अपने तरीके से जिंदगी जी रहे हैं. उनका कोई परिवार भी नहीं है. वे बस अपने लिये जीना जानते हैं. और मजे से जी भी रहे हैं. लेकिन शौक के लिए जेब भरना बहुत जरूरी होता है. इसी ख्वाहिश में चारों इकट्ठे होते हैं और फ़िर अली बाबा चालीस चोर की कहानियों की तरह खजाना लूटने की तैयारी करते हैं.
इसी क्रम में उनके दिमाग में फ़ितुर आता है. अपनी योजना के तहत वे एक गाड़ी चुरा लेते हैं, जिसके बाद उनके सामने एक के बाद एक मुसीबत आने लगती है. गंभीर परिस्थितियों को हास्य अंदाज में प्रस्तुत करने की कोशिश की है निर्देशक हृदय शेट्ठी ने. और इसमें उन्हें कामयाब कलाकारों का साथ भी मिला है.
अगर 4084 में किसी चीज को सबके अधिक अंक दिये जाने चाहिए तो वह कास्टिंग ही है. हृदय ने साबित किया है कि अगर मंझे कलाकार हों तो कहानी न होकर भी दर्शकों को बांधे रखने में कामयाब हो सकती है. 4084 में निस्संदेह अतुल कुलकर्णी, रवि किशन व केके मेनन ने बेहतरीन अभिनय किया है. नसीरुद्दीन शाह एक बार फ़िर से परदे पर बिल्कुल अलग अंदाज में नजर आये हैं. लेकिन खास बात यह है कि नसीरुद्दीन शाह ने अपने सह कलाकारों पर खुद को हावी नहीं होने दिया है.
इससे चारों कलाकारों की ट्यूनिंग निखर कर सामने आयी है. फ़िल्म की सबसे कमजोर कड़ी है फ़िल्म की कहानी. फ़िल्म को और रोचक बनाया जा सकता था. फ़िल्म के कुछ दृश्यों को देखकर ऐसा लगता है कि इस कहानी में अभी और भी बहुत कुछ किया जा सकता था. हालांकि, कुछ दृश्य बेहद ऊबाऊ हैं. आयटम गानों का अत्यधिक प्रयोग किया गया है. हालांकि गीत सेटिंग झाला.. पार्टी सांग में अच्छा है. एक के बाद एक बिना किसी कनेक्शन के गानों का होना थोड़ा अटपटा सा लगता है.
शेष फ़िल्म में अगर कहानी और बेहतरीन तरीके से लिखी जाती तो चारों कलाकारों की मेहनत रंग ला सकती थी. हृदय शेट्ठी ने इन चारों कलाकारों की उपस्थिति के बावजूद एक कमजोर कहानी पर फ़िल्म बनायी. उन्होंने यह सुनहरा मौका खोया है. चूंकि फ़िल्मों के कुछ दिलचस्प दृश्यों के रहने के बावजूद फ़िल्म बेहद लंबी है. हृदय शेट्ठी इस लिहाज से भी कहानी कहने में आसानी हुई कि चारों कलाकारों ने अपने दृश्यों में अपने चेहरे के भावों से भी कई बातें कह डालीं.
इसमें हृदय को बहुत मेहनत नहीं करनी पड़ी होगी. केके मेनन काफ़ी दिनों के बाद फ़िर से अपने फ़ॉर्म में नजर आये हैं. रवि किशन भोजपुरी फ़िल्मों की तुलना में हिंदी फ़िल्मों में ज्यादा बेहतर काम करते हैं और उनमें विभिन्नता नजर आती है. सो, उन्हें लगातार हिंदी सिनेमा में सक्रिय रहना चाहिए और अब फ़ुहड़ फ़िल्मों से बचना चाहिए. अतुल कुलकर्णी ने पहली बार हास्य भूमिका निभायी है और बेहतरीन अभिनय किया है. नसीरूद्दीन हमेशा की तरह सर्वश्रेष्ठ रहे हैं.
-अनुप्रिया-

टिके रहने के लिए टैलेंट की जरूरत: चिराग पासवान




फ़िल्म मिले न मिले हम से चिराग की बॉलीवुड में एंट्री हो रही है. पेश है अनुप्रिया से हुई उनकी बातचीत के मुख्य अंश..
फिल्म ‘मिले न मिले हम’ से अपनी पहली पारी की शुरुआत कर रहे चिराग पासवान भलीभांति जानते हैं कि अगर टैलेंट न हो. इस इंडस्ट्री में टिक पाना बहुत मुश्किल है. पेश है फ़िल्म से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर उनसे बातचीत के प्रमुख अंश..
प्रश्न : आपकी यह पहली फ़िल्म है. फ़िल्म के प्रोमोज और आपके लुक को लेकर जिस तरह प्रतिक्रिया मिल रही है? आप क्या उम्मीद कर रहे हैं ?
उत्तर : मैं शुक्रगुजार हूं कि दर्शकों ने मेरे लुक को सराहा है. भारतीय दर्शकों की नजर में एक हीरो की जो परिकल्पना है कम-से-कम उस लिहाज से सभी मुझे पसंद कर रहे हैं. यह मेरे लिए अच्छी खबर है.
प्रश्न : बॉलीवुड में आपके लिए किस तरह की चुनौतियां हैं ?
उत्तर : सबसे पहले तो मुझे यह साबित करना है कि मुझे सिर्फ़ पापा की वजह से काम नहीं मिल रहा, मैं वाकई टैलेंटेड हूं, मेरा मानना है कि अगर टैलेंट न हो, तो इस इंडस्ट्री में टिक पाना बहुत मुश्किल है.
प्रश्न : कंगना के साथ कैसी रही केमिस्ट्री?
उत्तर बेहतरीन! उन्होंने मुझे ऐक्टंग के कई टिप्स दिये. कभी इस बात का एहसास नहीं होने दिया कि मैं नया हूं. मेरे साथ वह काफ़ी रिहर्सल किया करती थीं.
प्रश्न : बतौर अभिनेता खुद में कौन-कौन सी खूबियां ढूंढ पाये हैं आप ?
उत्तर मुझे इस बात का एहसास है कि मैं अच्छी कॉमेडी कर सकता हूं.
प्रश्न : भविष्य में किस तरह की फ़िल्में करना चाहेंगे आप ?
उत्तर : मौका मिले तो हर तरह की फ़िल्मों में काम कर सकता हूं, लेकिन मुझे एक्शन फ़िल्मों में काम करना पसंद है. हालांकि मुझे अभी बहुत कुछ सीखना है.
प्रश्न : आपने फ़िल्म के लिए किस तरह की तैयारी की थी ?
उत्तर : इस फ़िल्म के लिए मैंने वैडमिंटन खेलने का प्रशिक्षण लिया, क्योंकि मेरा किरदार इस खेल से जुड़ा है. कैमरा फ़ेस करना सीखा.
प्रश्न : शूटिंग के दौरान अपने अनुभव के बारे में बताएं ?
उत्तर ; जब हमलोग गोवा में फ़िल्म शूट कर रहे थे, तो हम सभी ने बहुत मस्ती की. फ़िल्म के पूरे होने पर कंगना ने मेरे लिए पार्टी रखी थी. वह वक्त हमेशा याद रहेगा.
प्रश्न : सुना है कि आप व्यवसाय से भी जुड़े हैं ?
उत्तर : मैं एक एंटरप्रेनर हूं, लेकिन शुरू से ही ख्वाहिश थी एक्टर बनने की. इसलिए मैंने कुछ दिनों के बाद सोचा कि मुझे मुंबई आ जाना चाहिए. मैं यहां आ गया. मेरे मम्मी-पापा ने कभी भी इस बात पर ऐतराज नहीं जताया. हालांकि, मेरे पिता राजनीति से जुड़े हैं, लेकिन मैं राजनीति में नहीं जाना चाहता.
प्रश्न : हाल के कलाकारों की बात करें, तो न्यू कमर में आपको कौन-कौन से कलाकार पसंद हैं.
उत्तर : मुझे इमरान खान और रणबीर सिंह बेहद पसंद हैं. उनके ऐक्टंग का मैं कायल हूं. आज के युवा फ़िल्मप्रेमी उनके ऐक्टंग व स्टाइल को पसंद कर रहे हैं

बड़ी-बड़ी फ़िल्में छोटे-छोटे बच्चे




बॉलीवुड के लिए वर्ष 2011 खास रहा. इस साल न केवल कई बेहतरीन फ़िल्में प्रदर्शित हुईं, बल्कि निर्देशकों ने नये कांसेप्ट्स पर काम करने का हौसला भी दिखाया. कई वर्षो से बच्चों को केंद्र में रख कर फ़िल्में न बनाने वाले बॉलीवुड का ध्यान इस बार बच्चों की दुनिया की ओर भी गया. नये बाल कलाकारों ने इन फ़िल्मों में अपने अभिनय से सबका मन मोह लिया. इन नन्हें बाल प्रतिभाओं के लिए वाकई यह बाल दिवस खास रहेगा. बाल दिवस के मद्देनजर बॉलीवुड की कुछ ऐसी ही प्रतिभा के धनी नये बाल कलाकारों से बातचीत की अनुप्रिया अनंत ने..
फिल्म स्टैनली का डब्बा के अंत में जब दर्शकों को जानकारी मिलती है कि स्टैनली अनाथ है, उसके माता-पिता नहीं हैं और वह अपने खड़ूस चाचा की रहमों पर जी रहा है, तो दर्शकों की आंखों से आंसू छलक जाते हैं. वहीं दूसरी तरफ़ चिल्लर पार्टी का जंघिया अपने मस्त अंदाज में महात्मा गांधी की परिभाषा देता है. दर्शक हंसी से लोट-पोट हो जाते हैं. वहीं जब दर्शकों की निगाहें आइ एम कलाम के छोटू पर जाती है, तो वे बच्चे की मासूमियत और पढ़ने की उसकी ललक देख कर दंग रह जाते हैं.
वर्ष 2011 में हिंदी सिनेमा जगत ने कई नये लोगों का स्वागत किया है. नये कांसेप्ट का स्वागत किया है. यही वजह है कि अन्य वर्षो की अपेक्षा इस बार उपेक्षित कर दिये जाने वाले बच्चे भी मुख्यधारा की फ़िल्मों में लौटते दिखे.नि:संदेह इससे पहले भी हिंदी सिनेमा में बच्चों को ध्यान में रख कर फ़िल्में बनायी जाती रही हैं, लेकिन पिछले कुछ समय से बच्चों को ऐनमेशन और कार्टून फ़िल्मों तक ही सीमित कर दिया गया था.
किसी फ़िल्म की केंद्रीय भूमिका में बच्चे कम ही नजर आते थे, लेकिन एक बार फ़िर से बॉलीवुड ने बच्चों को केंद्र में रख कर बेहतरीन फ़िल्मों का निर्माण करना शुरू कर दिया है. हाल ही में रिलीज हुई भारत की सबसे महंगी हिंदी फ़िल्म रा.वन में भी बाप-बेटे की कहानी कही गयी है, जिसमें एक गेम प्रोग्रामर के बेटे का किरदार अरमान ने निभाया है. पहली फ़िल्म होने के बावजूद वह इस फ़िल्म में बेहद आत्मविश्वासी नजर आये हैं. तारे जमीं पर फ़ेम दर्शील सफ़ारी ने अपनी खास पहचान स्थापित कर ली है, पर इस साल रिलीज हुई फ़िल्म जोकोमैन में उनका काम खास सराहनीय नहीं रहा.
हिंदी सिनेमा जगत के निर्देशकों को अब इस बात का कोई अफ़सोस नहीं. फ़िल्म चिल्लर पार्टी से ही लगभग 12 नये बाल कलाकारों की खोज हो चुकी है. पुराने दौर में बच्चों पर कई फ़िल्में बनायी जाती थीं, जिनमें ब्रह्मचारी, परिचय जैसी फ़िल्में प्रमुख हैं. इनके अलावा बच्चों की फ़िल्म मिस्टर इंडिया दर्शकों में बेहद पसंद की गयी थी. हाल की फ़िल्मों पर गौर करें, तो वाकई कुछ बाल कलाकारों ने हिंदी सिनेमा जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज कर ली है. भविष्य में निश्चित तौर पर वे और भी कई फ़िल्मों में नजर आ सकते हैं.
बच्चों के विषयों पर फ़िल्में बनाने के मुद्दे पर फ़िल्म स्टैनली का डब्बा के निर्देशक अमोल गुप्ते कहते हैं कि भारत में हमने सही तरीके से दर्शकों को तैयार नहीं किया है. दर्शक यह जरूरी नहीं समझते कि उन्हें बच्चों के विषयों पर आधारित फ़िल्में देखनी चाहिए. वे मल्टीप्लेक्स पर तभी खर्च करेंगे, जब किसी फ़िल्म में स्टार होगा. वहीं चिल्लर पार्टी के निर्देशक विकास बहल का कहना है कि अब भी हिंदी में बच्चों पर आधारित फ़िल्में इसलिए कम बनती हैं, क्योंकि सही कांसेप्ट के साथ फ़िल्में नहीं बनायी जातीं.
अगर कांसेप्ट सही हो, तो चिल्लर पार्टी की तरह ही सभी फ़िल्मों को पसंद किया जायेगा. विकास मानते हैं कि चिल्लर पार्टी के स्टार तो वे बच्चे ही थे, जिन्होंने खूबसूरती से काम किया और संजीदगी से अपने किरदार को निभाया. विकास का मानना है कि बच्चों पर आधारित फ़िल्मों में अगर कुछ संदेश देना है, तो हमें बच्चों के अंदाज में ही बातें कहनी होंगी.
जंघिया उर्फ़ नमन जैन
फ़िल्म चिल्लर पार्टी में जंघिया की भूमिका निभा कर सबके फ़ेवरिट बन चुके नमन मुंबई के लालबाग में रहते हैं. बेहद हंसमुख स्वभाव के नमन ने कई विज्ञापन फ़िल्मों में भी काम किया है. बकौल नमन, मैंने जब चिल्लर पार्टी के लिए ऑडिशन दिया था, तब थोड़ा डरा हुआ था, फ़िर भी मैंनेमजे में अपना डॉयलॉग कह दिया था. फ़िर नितेश ( फ़िल्म के निर्देशक ) ने ओके कह दिया और मुझे चिल्लर पार्टी मिल गयी. बाद में जब पता चला कि सलमान सर भी हमारे साथ हैं. इससे मैं बेहद खुश हुआ.
जब वह मेरे सामने आये, तो मैं उन्हें बता ही नहीं पाया कि वह मेरे पसंदीदा हीरो हैं. मुझे शर्म आ गयी थी. उन्होंने मुझसे बेहद प्यार से कहा कि मैं अच्छी ऐक्टंग करता हूं. आगे भी करता रहूं. मुझे अच्छा लगा. फ़िल्म चिल्लर पार्टी का वह संवाद मेरा पसंदीदा है, जहां मैंने महात्मा गांधी की बात की है. उसकीसभी ने तारीफ़ की, लेकिन मेरी मम्मी ने मुझसे कहा है कि ऐटट्यूडनहीं लाने का.. अभी मैं छोटा हूं और बहुत कुछ सीखना है, इसलिए मुझे बिल्कुल आराम से काम करना है.
मैं कैमरे के सामने जाता हूं, तोबहुत एंजॉय करता हूं. लंबे संवाद बोलने में मुझे किसी भी तरह कीपरेशानी नहीं होती. मैंने कैडबरी, हीरो होंडा और कई विज्ञापन किये हैं, लेकिन अमिताभ सर के साथ वाला विज्ञापन मेरा फ़ेवरिट है. आप जल्दही मुझे अनुराग कश्यप की फ़िल्म गैंग ऑफ़ वसीपुर में देखेंगे. उस फ़िल्ममें मैं मनोज वाजपेयी के बचपन का किरदार निभा रहा हूं. मुझे अच्छा लगता है, जब सभी कहते हैं कि मेरे एक्सप्रेशंस बेहद अच्छे हैं. मैं अपने चेहरे के हाव-भाव को एकदम सामान्य रखने की कोशिश करता हूं. शायद इसी कारण मैं कैमरे के सामने बिल्कुल नैचुरल नजर आता हूं.
अरमान वर्मा ( रा.वन के प्रतीक )
शाहरुख खान की बहुचर्चित फ़िल्म रा.वन में उनके बेटे का किरदार निभा रहे प्रतीक उर्फ़ अरमान वर्मा की यह पहली फ़िल्म है, लेकिन वे इस फ़िल्म में बेहदआत्मविश्वासी नजर आये हैं. लोगों को उनका अभिनय काफ़ी पसंद आया है. वे मुंबई के सांताक्रूज के इंटरनेशनल स्कूल में पढ़ते हैं. उन्होंने कई विज्ञापनों में काम किया है, लेकिन रा.वन उनके लिए बड़ा ब्रेक है.
बकौल अरमान मेरी स्कूल की फ़ाउंडर लीना अशर को पता था कि मुझे ऐक्टंग का शौक है. वह मेरी मां की दोस्त हैं. उन्होंने ही मुझे रा.वन के कास्टिंग निर्देशक शानू से मिलवाया. मैंने ऑडिशन दिया. इसके बाद मैं शाहरुख खान से उनके घर पर मिला. शाहरुख को मैं पसंद आया. उन्होंने हां कह दिया. मुझे ऐक्टंग का शौक इसलिए है, क्योंकि मुझे नये लोगों से मिलने का मौका मिलता है. कई नयी चीजें सीखने को मिलती हैं. मैं मानता हूं किसी फ़िल्म में अभिनय करना बेहद कठिन काम है, क्योंकि आपको इसकी काफ़ी तैयारी करनी होती है. यह बच्चों का खेल नहीं है.
मैंने इस फ़िल्म के लिए मार्शल आर्ट सीखी. कुछ स्टंट भी सीखे. फ़िल्म के उस शॉट में मुझे बेहद मजा आया था, जिसमें मैं अपने कमरे से उड़ते हुए सड़क पर आ जाता हूं. सलमान मेरे पसंदीदा अभिनेताओं में से एक हैं. मुझे शाहरुख खान के साथ काम करने में बेहद मजा आया. जब उन्हें पता चला कि मैं एक्टर बनना चाहता हूं, तो उन्होंने मुझे कई नयी चीजें सिखायीं. फ़िल्म की शूटिंग के दौरान जब भी वक्त मिलता मैं पढ़ता था. फ़िल्म की तरह वास्तविक जिंदगी में भी मुझे विलेन अधिक पसंद आते हैं.
पार्थो गुप्ते ( स्टैनली का डब्बा के स्टैनली )
फ़िल्म लेखक व निर्देशक अमोल गुप्ते के बेटे पाथरे गुप्ते को अपनी पहली ही फ़िल्म स्टैनली का डब्बा से सराहना मिली. हाल ही में उन्हें स्किनजल इंटरनेशनल फ़िल्म फ़ेस्टिवल में बेस्ट चाइल्ड एक्टर का भी खिताब मिला है. यह अवॉर्ड विश्व के सर्वÞोष्ठ प्रतिष्ठित बाल कलाकार पुरस्कारों में से एक है.
बकौल, पाथरे मैंने कभी सपना नहीं देखा है कि बहुत बड़ा स्टार बन जाऊंगा. मैंने स्टैनली का डब्बा में जो कुछ भी किया है. मैं वैसा ही हूं. लेकिन मुझे खुशी है कि मेरे पापा को और मेरी मां को मेरी वजह से खुशी मिली है. यही मेरे लिए सबसे बड़ी उपलब्धि है. फ़िलहाल तो मैं पढ़ाई पर पूरा ध्यान दे रहा हूं. मुझे अपने पापा के साथ काम करके बहुत कुछ सीखने का मौका मिला. खासतौर से यह कि बारीकी से काम कैसे की जाती है.
हर्ष मयार ( आइ एम कलाम के छोटू )
फ़िल्म आइ एम कलाम को न सिर्फ़ दर्शकों ने, बल्कि समीक्षकों ने भी बेहद सराहा है. फ़िल्म में शानदार अभिनय की वजह से वर्ष 2011 का बेस्ट चाइल्ड अवॉर्ड हर्ष को मिला. साथ ही यह फ़िल्म कई अंतरराष्ट्रीय फ़िल्मोत्सव में सराही जा चुकी है. हर्ष बताते हैं कि वे हमेशा से अभिनय करना चाहते थे. वे उस वक्त बेहद दुखी हो गये थे, जब उनका चुनाव ‘चिल्लर पार्टी’ में नहीं हो पाया था.
बकौल हर्ष मैं खुशनसीब हूं कि मुझे आइ एम कलाम जैसी फ़िल्मों में काम करने का मौका मिला. यह फ़िल्म बच्चों के कई अहम मुद्दों को दर्शाती है. मेरा हमेशा से सपना रहा है कि मैं अभिनय करूं. जब राष्ट्रीय पुरस्कार मिला, तो मुझे खुशी हुई कि दर्शक मुझे पसंद कर रहे हैं. मेरे पापा एक टेंट हाउस चलाते हैं. मेरा सपना है कि मैं अपने पापा की मदद करूं. जिस दिन मुझे अवॉर्ड मिला. हमने पड़ोसियों को बताया तो वे विश्वास ही नहीं कर पा रहे थे, लेकिन मुझे बेहद खुशी हुई थी. मैं व्यक्तिगत रूप से आमिर खान की तरह काम करना चाहूंगा. आइएम कलाम ने मुझे नयी जिंदगी दी है.
मुझे इस फ़िल्म में मौका अपने ही मोहल्ले में खेलते हुए मिला था. फ़िल्म के कास्टिंग निर्देशक विदु भूषण पांडा ने मुझे वहां देखा.मुझे बुलाया. कहा छोटू मिल गया. बस! फ़िर यही से मेरा कारवां शुरू हो गया. मेरी यही ख्वाहिश है कि इतना काम कर लूं कि मैं मम्मी-पापा की जिंदगी में खुशियां ला सकूं

फैंस के दिल पर असर छोड़ गये किरदार




वर्ष 2011 में सुपरस्टार या किसी अभिनेत्री से अधिक तवज्जो मिली किरदारों को. फ़िर चाहे वह किरदार मुख्य भूमिका निभा रहा हो या सहयोगी कलाकार की. लेखक के गढ़े जिन किरदारों ने लीक से हट कर अभिनय किया वे दर्शकों के चहेते बन गये.
मीरा ( नो वन किल्ड जेसिका )
नो वन किल्ड जेसिका में मीरा के किरदार को दर्शकों ने बेहद पसंद किया. रानी मुखर्जी ने फ़िल्म में एक बिंदास पत्रकार की भूमिका निभायी थी. दर्शकों को रानी इस रूप में खूब जंचीं.
जॉर्डन-हीर ( रॉकस्टार )
फ़िल्म रॉकस्टार में जर्नादन जाखड़ से जॉर्डन में तब्दील हुए रणबीर व हीर के रूप में नरगिस फ़ारुकी का किरदार बेहद पसंद किया गया. खासतौर से जंगली जवानी व आ गंध मचायेंगे बोलते जॉर्डन व हीर के साथ दर्शकों ने भरपूर मनोरंजन किया.
सिल्क ( डर्टी पिक्चर्स )
साल की सबसे चर्चित व लोकप्रिय किरदार बनी फ़िल्म द डर्टी पिक्चर की सिल्क. सिल्क के रूप में विद्या ने अपने बोल्ड, बेबाक अंदाज से सबको चौंकाया.
सुजाना ( 7 खून माफ़ )
अपने रास्ते से हर कांटे को बड़ी ही चालाकी से मिटाती फ़िल्म7 खून माफ़ की सुजाना उस दर्शक वर्ग की पसंदीदा किरदार बनीं, जो जुल्म सहने नहीं जुल्म का मुंह तोड़ जवाब देने में भरोसा करते हैं.
पप्पी, तनु, मनु ( तनु वेड्स मनु )
फ़िल्म तनु वेड्स मनु में तनु के रूप में कंगना का बिंदास पियक्कड़ अंदाज लोगों को खूब भाया, तो मनु की सादगी भी खासी पसंद की गयी. लेकिन दर्शकों के सबसे चहेते बने पप्पी के रूप में दीपक डोबरियाल, जो सहयोगी कलाकार होने के बावजूद दर्शकों का ध्यान अपनी तरफ़ आकर्षित करने में कामयाब रहे.
रागिनी ( रागिनी एमएमएस )
रागिनी एमएमएस की रागिनी यानी केनाज ने लोगों को खूब डराया. साल भर इस किरदार की चर्चा रही.
स्टैनली ( स्टैनली का डब्बा )
स्टैनली का डब्बा के स्टैनली के रूप में पाथरे गुप्ते के किरदार को खूब सराहना मिली. दर्शकों को स्टैनली के मासूमियत से प्यार हो गया.
चिल्लर पार्टी गैंग ( चिल्लर पार्टी )
फ़िल्म चिल्लर पार्टी की गैंग जंझिया,फ़टका, साइलेंसर, इनसाइक्लोपिडिया, अकरम, अफ़लातून इत्यादि सभी किरदार बच्चों के साथ-साथ बड़ों के भी फ़ेवरिट बने.
लवली सिंह ( बॉडीगार्ड )
लवली सिंह रिपोर्टिग सर ..कहने वाले लवली सिंह के रूप में सलमान खान ने एक बार फ़िर अपनी दबंगई दिखायी. खासतौर से बच्चों का पसंदीदा किरदार बना बॉडीगार्ड.
जी.वन, रा.वन
वीडियो गेम पसंद करनेवाले बच्चों का फ़ेवरिट रहे फ़िल्म रा.वन के किरदार रा.वन और जी.वन.
बाजीराव सिंघम ( सिंघम )
पुलिस वह वर्दी से प्यार करनेवाले और ईमानदारी से काम करनेवाले दर्शकों के पसंदीदा किरदार बने सिंघम के बाजीराव सिंघम. गोवा के एक छोटे से गांव निकल एक सशक्त नेता को वर्दी के जरिये धूल में मिलाता है सिंघम.
सेनोरिटा ( जिंदगी न मिलेगी दोबारा )
जिंदगी न मिलेगी दोबारा में सेनोरिटा एक गाने में इस्तेमाल किया गया शब्द था. लेकिन दर्शकों ने फ़िल्म की नायिका कैटरीना को सेनोरिटा की उपाधि से नवाजा.
धुनकी ( मेरे ब्रदर की दुल्हन )
फ़िल्म मेरे ब्रदर की दुल्हन में अलग तेवर में नजर आयीं कट्रीना को फ़िल्म के प्रशंसकों ने धुनकी के नाम की उपाधि दी.
खलनायकों के किरदारों में दर्शकों को मर्डर 2 के धीरज पांडे उर्फ़ प्रशांत नारायण का किरदार बेहद प्रभावशाली लगा. साथ ही सिंघम व बुड्ढा होगा तेरा बाप में प्रकाश राव के किरदार पसंद आये

नयी कहानियों व बड़े स्टार्स के नाम रहेगा 2012




वर्ष 2012 की शुरुआत हो चुकी है. हर बार की तुलना में इस बार बॉलीवुड ज्यादा बड़े पैमाने पर नये धमाल करने, नये चेहरे सामने लाने और नयी कहानियां कहने को तैयार है. 2012 में किन-किन फ़िल्मों पर रहेगी नजर, कब कौन सी फ़िल्में होंगी रिलीज और बॉलीवुड की क्या हैं बड़ी योजनाएं, इसका ब्यौरा दे रही हैं अनुप्रिया
बॉलीवुड के लिए 2012 का साल भी खास होगा. हर बार की तुलना में इस बार कई बड़ी फ़िल्में प्रदर्शित होने जा रही हैं, जिन पर कई लोगों की उम्मीदें टिकी हैं.
जनवरी
जनवरी महीना बॉलीवुड में हमेशा खास रहा है. इस वक्त ट्रेड पंडितों की नजर बॉक्स ऑफ़िस पर होती है, क्योंकि यह पहला महीना होता है. इस बार जनवरी में कई महत्वपूर्ण फ़िल्में रिलीज होंगी. 6 जनवरी को अब्बास-मस्तान की एक्शन थ्रिलर फ़िल्म प्लेयर्स रिलीज हो रही है. इस फ़िल्म से दर्शकों को बेहद उम्मीदें हैं. इसके बाद हृदय शेट्टी की फ़िल्म चालीस चौरासी रिलीज हो रही है. इस फ़िल्म में नसीरुद्दीन शाह मुख्य भूमिका में होंगे. फ़िल्म में कोई अभिनेत्री नहीं हैं. फ़िल्म हास्य कहानी पर आधारित है. इसके अगले हफ्ते फ़िल्म चार दिन की चांदनी प्रदर्शित हो रही है.
इसी दिन घोस्ट, इट्स माइ लाइफ़, साडा अड्डा जैसी छोटे बजट की कई फ़िल्में रिलीज होंगी. इसके अगले हफ्ते भी छोटे बजट की फ़िल्में रिलीज हो रही हैं. बॉक्स ऑफ़िस का पूरा ध्यान इस महीने की बड़ी रिलीज अग्निपथ पर है. यह फ़िल्म पुरानी अग्निपथ का रीमेक है. फ़िल्म में संजय दत्त के लुक को लेकर काफ़ी चर्चा हो रही है. इसमें रितिक रोशन, ऋषि कपूर व प्रियंका चोपड़ा जैसे बड़े कलाकार हैं. इसी हफ्ते दिबाकर बनर्जी की फ़िल्म शंघाई भी दर्शकों के सामने होगी. इस फ़िल्म की कहानी काफ़ी लंबे समय से चर्चा में है. फ़िल्म में कल्कि कोचलिन व अभय देओल ने मुख्य किरदार निभाया है.
फ़रवरी
फ़रवरी महीने में बॉक्स ऑफ़िस का मुख्य ध्यान दो फ़िल्मों पर है. वे हैं करीना कपूर व इमरान खान अभिनीत फ़िल्म एक मैं और एक तू . फ़िल्म का निर्माण करन जौहर ने किया है. लंबे समय के बाद रितेश देशमुख और जेनेलिया फ़िल्म तेरे नाल लव हो गया में साथ नजर आने वाले हैं.
इसके अलावा इस महीने कोई बड़ी फ़िल्म रिलीज नहीं हो रही. हालांकि, अक्षय खन्ना काफ़ी समय के बाद गली-गली में चोर हैं में दिखायी देने वाले हैं. 24 फ़रवरी को आर माधवन व बिपाशा बसु की फ़िल्म जोड़ी ब्रेकर्स रिलीज होगी. फ़िल्म के पोस्टर्स बेहद आकर्षक हैं. मुमकिन है कि फ़िल्म को सफ़लता भी मिल जाये. इस महीने एक दीवाना था भी रिलीज होगी. बतौर एकल अभिनेता प्रतीक की यह दूसरी फ़िल्म होगी.
मार्च
कहानी मार्च की बड़ी रिलीज होगी. डर्टी पिक्चर के बाद सबकी निगाह विद्या बालन की इस फ़िल्म पर होगी. इस फ़िल्म से उनकी अभिनय क्षमता परखी जायेगी. इसी महीने लंबे समय से अटकी फ़िल्म पान सिंह तोमर का भी प्रदर्शन किया जायेगा. सैफ़ अली खान व करीना कपूर की लंबे अरसे से बन रही फ़िल्म एजेंट विनोद भी रिलीज हो जायेगी.
साथ ही महेश भट्ट की फ़िल्म ब्लड मनी को लेकर भी काफ़ी चर्चा है. इसके बाद मार्च में अली जफ़र व अदिति राव की फ़िल्म लंदन, पेरिस न्यूयॉर्क के रिलीज होने की चर्चा है. अनिल कपूर, अजय देवगन की फ़िल्म तेज के रिलीज होने के भी आसार हैं. हालांकि अब तक इस फ़िल्म का पोस्ट प्रोडक्शन का काम पूरा नहीं हुआ है.
अप्रैल
अप्रैल में साजिद खान की फ़िल्म हाउसफ़ुल 2 का प्रदर्शन होगा. साथ ही बालाजी टेलीफ़िल्म्स क्या सुपर कूल हैं हम लेकर आयेगा. लेकिन सबसे अधिक इंतजार रहेगा फ़िल्म फ़ेरारी की सवारी का. क्योंकि फ़िल्म की कहानी अलग तरीके से लिखी गयी है. साथ ही जन्नत 2 का प्रदर्शन भी अप्रैल में ही होगा.
मई
मई में रति अग्निहोत्री के बेटे की फ़िल्म लव यू सोनियो काफ़ी लंबे इंतजार के बाद अंतत: रिलीज होगी. साथ ही यशराज की फ़िल्म इश्कजादे पर सबकी निगाह रहेगी. क्योंकि इस फ़िल्म से बोनी कपूर के बेटे व प्रियंका चोपड़ा की बहन परिणिती लांच होंगी. इसी महीने अभय व जेनेलिया की फ़िल्म रॉक द शादी रिलीज होगी. फ़िल्म को दिलवाले दुल्हनिया का रीमेक माना जा रहा है.
जून
वर्ष 2012 में जून बड़े कलाकारों की फ़िल्मों का महीना होगा. इस महीने सबसे पहले आमिर खान की फ़िल्म तलाश रिलीज होगी. इसके बाद राउडी राठौड़ में अक्षय कुमार व सोनाक्षी सिन्हा अलग ही अंदाज में नजर आयेंगे. इसके बाद शाहिद व प्रियंका अभिनीत कुणाल कोहली की फ़िल्म तेरी मेरी कहानी रिलीज होगी. साथ ही इसी महीने करिश्मा कपूर की फ़िल्म डेंजरस इश्क रिलीज होगी. इस फ़िल्म से करिश्मा दोबारा एंट्री ले रही हैं.
जुलाई
जुलाई में कई महत्वपूर्ण फ़िल्में रिलीज हो रही हैं. सबसे पहले फ़िल्म बोल बच्चन रिलीज होगी. इसके बाद अनुराग बसु की फ़िल्म बर्फ़ी रिलीज होगी. इस फ़िल्म में रणवीर कपूर और प्रियंका चोपड़ा ने मुख्य किरदार निभाया है. इसके बाद स्टूडेंट ऑफ़ द ईयर रिलीज होगी. इस फ़िल्म का निर्देशन करन जौहर ने किया है. माइ नेम इज खान के बाद यह उनकी अगली निर्देशित फ़िल्म होगी.
अगस्त
अगस्त महीने बॉक्स ऑफ़िस के लिए बेहद खास रहेगा. इस महीने सलमान खान की फ़िल्म एक था टाइगर रिलीज होगी, तो दूसरी तरफ़ वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई 2 भी सिनेमा घरों में प्रदर्शित होगी. इसी महीने अक्षय की फ़िल्म जोकर के साथ साथ राज 3 भी रिलीज होगी.
सितंबर
सितंबर में सबकी निगाह रहेगी मधुर भंडारकर की फ़िल्म हीरोइन पर. करीना कपूर इसमें मुख्य भूमिका में दिखेंगी. फ़िल्म मर्लिन मुनरो की कहानी पर आधारित है.
अक्तूबर
अक्तूबर में आयन मुखर्जी की फ़िल्म ये जवानी है दीवानी के बहाने रणवीर कपूर व दीपिका पादुकोण एक साथ दिखेंगे.
नवंबर
साल के अंत में अब्बास-मस्तान की रेस 2, अक्षय की खिलाड़ी 786 व अजय देवगन की सन ऑफ़ सरदार रिलीज होगी. अरसे के बाद अक्षय किसी खिलाड़ी के नाम से जुड़ी फ़िल्म में काम करेंगे.
दिसंबर
सलमान खान की सुपरहिट फ़िल्म दबंग का सीक्वेल दबंग 2 के रिलीज की भी दिसंबर में संभावना है. हालांकि अभी यह पूरी तरह तय नहीं.
कुछ खास
* आमिर खान की फ़िल्म तलाश होगी विशेष. फ़िल्म में करीना व रानी मुखर्जी हैं मुख्य किरदार में. इस फ़िल्म में पहली बार आमिर मूंछों में नजर आयेंगे.
*करीना कपूर की फ़िल्में एक मैं एक तू, हीरोइन व एजेंट विनोद होगी रिलीज. हीरोइन इंडस्ट्री की विशेष फ़िल्म मानी जा रही है.
* 2012 में सबसे अधिक होंगी अक्षय कुमार की फ़िल्में. लगभग 6 फ़िल्में होंगी रिलीज.
* स्टूडेंट ऑफ़ द ईयर से फ़िर से निर्देशन के क्षेत्र में करेंगे करन जौहर वापसी

दर्द से गहरा रिश्ता है



ऑस्कर पुरस्कार से सम्मानित संगीतकार एआर रहमान ने वर्ष 2011 में ‘रॉकस्टार’ में बेहतरीन संगीत देकर धमाल मचाया. इन दिनों वे फ़िल्म ‘एक दीवाना था’ में व्यस्त हैं. हाल ही में इस फ़िल्म का म्यूजिक मोहब्बत की मिसाल माने जाने वाले आगरा के ताजमहल में लॉन्च किया गया. खुद एआर रहमान ने कहा है कि यह उनका अब तक का सबसे खूबसूरत रुमानी संगीत है. क्यों मानते हैं वह ऐसा, बता रहे हैं खुद एआर रहमान.
यह आइडिया मेरा ही था कि इस फ़िल्म का म्यूजिक लॉन्च ताजमहल में किया जाये. क्योंकि मैं मानता हूं कि यह पूरी फ़िल्म रोमांटिक है. इस फ़िल्म की कहानी को ही ध्यान में रखते हुए मैंने फ़िल्म के सभी गीत तैयार किये हैं. मैंने कई नये चेहरों के लिए म्यूजिक तैयार किया. लेकिन मुझे एक दीवाना था का म्यूजिक तैयार करने में बहुत मजा आया. शायद इसकी वजह यह थी कि मैंने फ़िल्म की कहानी भी सुन रखी थी.
मैंने अब तक अपने कॅरियर में ऐसा म्यूजिक तैयार नहीं किया था. इस फ़िल्म के सारे गाने बेहतरीन हैं. जिन्हें तैयार करते वक्त खुद मैं सपनों की दुनिया में खो गया था. फ़िल्म में चूंकि दर्द को गहराई से दर्शाया गया है. शायद यही वजह है कि मैं इसे बेहद खास मानता हूं.
आप गौर करें तो मेरे म्यूजिक में वाकई दर्द की बहुत अहमियत है. शायद रॉकस्टार में भी मैंने उसी का इस्तेमाल किया था.
रॉकस्टार में भी जब मैंने गीत सुने और कहानी सुनी तो मुझे इम्तियाज का यह प्वाइंट बेहद अच्छा लगा था कि संगीत से जुड़े व्यक्ति के पास जब तक दर्द नहीं होगा, वह अच्छा संगीतकार या गायक नहीं बन सकता. मैं इस बात से पूरी तरह इत्तेफ़ाक रखता हूं. क्योंकि मैं जब दर्द में होता हूं, तभी संगीत बना पाता हूं. शायद यही वजह है कि एक दीवाना था में भी मैं एक दीवाने की त़ड़प को दिखा पाया हूं.
मुझे लगता है कि संगीत व प्रेम एक जैसे ही हैं. उनकी जितनी साधना करो वे और निखरते जाते हैं. मेरा संगीत के साथ कुछ ऐसा ही रिश्ता है. कोशिश यही है कि अपने जीवन में दर्द जगा कर रखूं ताकि मैं बेहतरीन संगीत पैदा कर पाऊं. एक दीवाना था का संगीत मैंने प्रतीक के किरदार को भी ध्यान में रखते हुए गढ़ा है.
मैंने इस फ़िल्म के लिए सारे गीत तैयार करने के लिए हामी भी इसलिए भरी क्योंकि मुझे दर्द भरे गीत बनाने व धुन बनाने में खुशी मिलती है. कहीं न कहीं मैं खुद अपनी जिंदगी को उससे जुड़ा पाता हूं. कई लोगों के मन में यह बात उठती है कि मैं कैसे कई दिनों तक अपने कमरे में रह कर ही जी लेता हूं. दरअसल, मैं अकेला नहीं होता. वहां मेरा संगीत और दर्द मेरे साथ होता है, जो हमेशा मुझे अलग करने के लिए प्रेरित करता है

अपने तो अपने होते हैं




टेलीविजन शोज में साथ काम करते हुए कई कलाकरों ने असल जिंदगी में भी जोड़ियां बनायी हैं. कई सेलिब्रिटीज को उनका जीवनसाथी शो के दौरान ही मिला और वे ऑफ़ स्क्रीन जिदंगी में भी रिश्ते में बंध गये. लेकिन टेलीवुड में कई कलाकार ऐसे भी हैं, जो पहले से ही रिश्ते में जुड़े थे और अब साथ-साथ इंडस्ट्री में काम कर रहे हैं. ऐसे कलाकारों की लंबी फ़ेहरिस्त है. टेलीवुड के कुछ ऐसे ही सक्रिय कलाकारों के रिश्तों पर अनुप्रिया की रिपोर्ट
टेलीविजन पर प्रसारित होने वाले धारावाहिकों में हम कलाकारों को कई रिश्ते निभाते देखते हैं. लेकिन हम शायद ही इस बात से वाकिफ़ होंगे कि धारावाहिकों में रिश्ते निभाने वाले कई कलाकार असल जिंदगी में भी रिश्तों में बंधे हुए हैं. टेलीविजन की इस दुनिया में दिखने वाले परिवारों में बेटियों, बहुओं का किरदार निभाने वाली कई कलाकार वास्तविक जीवन में ननद-भाभी हैं.
बहन-बहन हैं. बहन-भाई भी हैं. एक ही परिवार से जुड़े इन कलाकारों की मानें तो एक प्रोफ़ेशन में होने के बावजूद इनमें कभी कोई प्रतियोगिता नहीं होती, बल्कि जरूरत पड़ने पर सभी एक दूसरे की हिम्मत बनते हैं. क्योंकि अभिनय की इंडस्ट्री में कई बार लोगों को तनाव से गुजरना पड़ता है. ऐसे में इनकी पीड़ा वही समझ सकता है, जो खुद इस इंडस्ट्री का हिस्सा हो. ऐसे में अगर परिवार से कोई सदस्य इस इंडस्ट्री से जुड़ा रहता है, तो ये अपनी परेशानी को बेझिझक बांट पाते हैं और इन्हें इससे हिम्मत भी मिलती है.

टेलीविजन की दुनिया में असल जिंदगी के ऐसे रिश्तेदारों की लंबी फ़ेहरिस्त है, जिन्होंने इंडस्ट्री में जगह बनाने के बाद अपने भाई-बहनों को भी मौके दिलाये व परिवार के कई सदस्यों को भी.
दृष्टि धामी-सुहासी धामी
दृष्टि धामी को आप गीत के रूप में जानते हैं और सुहासी को जी टीवी के शो यहां मैं घर घर खेली की आभा के रूप में. ये दोनों अलग-अलग धारावाहिकों में काम कर रही हैं. लेकिन दोनों असल जिंदगी में ननद-भाभी के रिश्ते से बंधी हैं. जी हां, दृष्टि धामी, सुहासी धामी की ननद हैं. यह राज हाल ही में एक अवार्ड फ़ंक्शन के दौरान खुला, जब दोनों फ़ंक्शन में साथ-साथ पहुंची थीं.
पूजा कंवल-अनिता कंवल
ससुराल गेंदा फ़ूल में दादी का किरदार निभा रही अनिता कंवल और उसी धारावाहिक में निशा का किरदार निभा रही पूजा कंवल वास्तविक जिंदगी मां- बेटी हैं. फ़िलवक्त पूजा ने इस शो में काम करना छोड़ दिया है. अनिता अब भी दादी का किरदार निभा रही हैं. दोनों बताती हैं कि वे दोनों कलाकार होने की वजह से एक दूसरे की काफ़ी अच्छी दोस्त भी हैं और एक दूसरे को बेहतर तरीके से समझने की कोशिश करती हैं.
चाहत खन्ना-सिमरन खन्ना
सोनी टीवी के शो बड़े अच्छे लगते हैं में प्रिया की बहन का किरदार निभा रही चाहत खन्ना व कृष्णा बहन खाखरा बहन में अभिनय कर चुकी सिमरन खन्ना भी असल जिंदगी में सगी बहनें हैं. सिमरन बताती हैं कि उन्हें अभिनय के क्षेत्र में आने के लिए उनकी बहन ने ही प्रेरित किया है. वे दोनों असल जिंदगी में एक दूसरे को बहुत सपोर्ट करती हैं.
पूजा जोशी-दामिनी जोशी
ये रिश्ता क्या कहलाता है कि वर्षा यानी पूजा जोशी व मायके से बंधी डोर में अवनि की दोस्त उषा उर्फ़ दामिनी जोशी भी सगी बहनें हैं. पूजा ने पहले शुरुआत की. इसके बाद उषा को भी उन्होंने इस क्षेत्र में आने के लिए प्रेरित किया.00अरुणा ईरानी-आदि ईरानी00मशहूर अभिनेत्री अरुणा ईरानी का तो पूरा परिवार ही इस इंडस्ट्री से जुड़ा है. लेकिन उनके भाई आदि व अरुणा ही टेलीविजन में सक्रिय हैं. फ़िलहाल अरुणा देखा एक ख्वाब और सपनों से भरे नैना में नजर आ रही हैं.
रागिनी- आरती-कृष्णा
ससुराल गेंदा फ़ूल की सुहाना यानी रागिनी खन्ना, परिचय में भाभी का किरदार निभा रही आरती व कृष्णा अभिषेक रिश्ते में भाई-बहन हैं. ये सभी गोविंदा के भांजे-भांजियां हैं.
दीपानिता-अरुणिमा
मशहूर मॉडल व कई सीरियल में काम कर चुकीं दीपानिता व अरुणिमा भी आपस में बहन हैं. अरुणिमा ने कसम से में बहन का किरदार निभाया था.
रौशनी चोपड़ा-दीया चोपड़ा
रौशनी चोपड़ा ने शुरुआत कसम से की थी. इन दिनों वह कॉमेडी सर्कस में होस्टिंग कर रही हैं. वहीं उनकी बहन दीया चोपड़ा मिसेज कौशिक की पांच बहुओं में से एक बहू का किरदार निभा रही हैं.
शक्ति मोहन-मुक्ति मोहन
शक्ति को डीआइडी ( डांस इंडिया डांस ) से मौका मिला और मुक्ति मोहन कई रियलिटी शो का हिस्सा रही हैं. दोनों ही बहनें ऐक्टंग व डांसिंग में माहिर हैं. फ़िलवक्त दोनों टेलीवुड में पूरी तरह सक्रिय हैं. इनके अलावा रोनित रॉय-रोहित रॉय, देल्नाज-बख्तियार भी आपस में भाई-भाई व भाई-बहन का रिश्ता रखते

4084 में हंसाता हुआ नजर आऊंगा




‘दिल्ली-6’, ‘रंग दे बसंती’ जैसी फ़िल्मों में दमदार किरदार निभाने के बाद अब अतुल कुलकर्णी फ़िल्म ‘चालीस चौरासी’ में बिल्कुल नये अवतार में नजर आयेंगे. पहली बार वे हास्य किरदार निभा रहे हैं. अतुल कुलकर्णी से अनुप्रिया की बातचीत.
नटरंग जैसी गंभीर फ़िल्म से सराहना बटोर चुके अतुल के लिए यह पहली बार होगा जब वह परदे पर दर्शकों को हंसाते नजर आयेंगे. इस बार वे नसीरुद्दीन शाह, रवि किशन व केके मेनन के साथ फ़िल्म चालीस चौरासी में कुछ अलग ही अंदाज में दिखायी देंगे.
प्रश्न : आपने अब तक गंभीर भूमिकाएं निभायी हैं. अचानक हास्य भूमिका निभाने का ख्याल कहां से आया ?
उत्तर : मैं एक कलाकार हूं, इस लिहाज से मुझे हर तरह के किरदार निभाना ही चाहिए. इसलिए मैंने यह किरदार निभाया.
प्रश्न : फ़िल्म चालीस चौरासी के बारे में बताएं?
उत्तर : इस फ़िल्म में चार दोस्तों की कहानी है. फ़िल्म में कोई अभिनेत्री नहीं है, लेकिन हम अपनी गाड़ी को ही अपनी अभिनेत्री मानते हैं. नसीरुद्दीन शाह साहब को आप इस फ़िल्म में बिल्कुल अलग ही अंदाज में देखेंगे. फ़िल्म में आपको हास्य के साथ-साथ क्राइम थ्रिलर का भी आनंद मिलेगा.
प्रश्न : फ़िल्म का नाम 4084 क्यों है ?
उत्तर : दरअसल, फ़िल्म में हमारी गाड़ी का नाम 4084 है. यह पुलिस वैन है. इस गाड़ी में कुछ ऐसी अजीब स्थितियां बनती हैं, जिससे हास्य पैदा होता है. उम्मीद है कि इस फ़िल्म दर्शकों को खूब हंसायेगी.
प्रश्न : कोई खास वजह, इस फ़िल्म को साइन करने की ?
उत्तर : इससे पहले मैंने हास्य किरदार नहीं किया था. दूसरी बात यह है कि फ़िल्म की स्क्रिप्ट सुनने के बाद आप देखेंगे कि कास्टिंग अजीबोगरीब है. मतलब, आपको ऐसे कोस्टार मिल रहे हैं, जिनको आपने उस अंदाज में कभी नहीं देखा है. ऐसे में निश्चित तौर पर कुछ अलग बात होगी. इसलिए, मैंने तुरंत हां कह दी. निर्देशक हृदय शेट्ठी अच्छे दोस्त भी हैं, इसलिए पूरा विश्वास था कि वह मुझसे कुछ अलग और नया तो निकलवा ही लेंगे.
प्रश्न : नसीर साहब आपके सीनियर हैं. उनके साथ पहली बार स्क्रीन शेयर करने का अनुभव कैसा रहा?
उत्तर : हां, ऑफ़ स्क्रीन मेरे और नसीर साहब के बीच बहुत आत्मीय संबंध हैं. उन्होंने हमेशा मेरा साथ दिया है और मुहब्बत से मुझे गाइड भी किया है. मुझे याद है नटरंग देखने के बाद उन्होंने मुझसे कहा था कि अतुल तुमने जो नटरंग में किया है, वह सिर्फ़ तुम ही कर सकते थे, मैं नहीं कर पाता. जब कोई इतना बड़ा कलाकार आपसे यह बात कहे तो वह आपके लिए बहुत बड़ी उपलब्धि होती है. फ़िल्म चालीस चौरासी के दौरान उन्हें और जानने का मौका मिला. उनकी सबसे खास बात, जो मुझे प्रभावित करती है कि वह बहुत इंस्टैंट एक्टर हैं. स्क्रिप्ट के अनुसार अनोखे अंदाज में खुद को ढाल लेते हैं और बहुत कंर्फेटेबल हो जाते हैं. अपने जूनियर्स के साथ भी बिल्कुल दोस्ताना व्यवहार रखते हैं. इसलिए, उनके साथ काम करने में आसानी होती है.
प्रश्न : सुना है आप बांग्ला फ़िल्मों में भी काम कर रहे हैं ?
उत्तर : जी हां, कुछ एक स्क्रिप्ट पढ़ी है मैंने. अभी निर्णय करने में थोड़ा वक्त लगेगा.
प्रश्न : राकेश ओम प्रकाश मेहरा की फ़िल्मों में आप हमेशा नजर आये हैं. भाग मिल्खा में भी दिखेंगे क्या ?
उत्तर : नहीं, अब तक ऐसी कोई योजना नहीं है.
प्रश्न : नटरंग एक बहुत कठिन किरदार था, लेकिन आपने कर दिखाया. फ़िल्म को सराहना मिली. क्या इस फ़िल्म को खुद के लिए टर्निग प्वाइंट मानते हैं ?
उत्तर : जी बिल्कुल, इस फ़िल्म ने मुझमें आत्मविश्वास जगाया. एक कठिन किरदार को निभाने के बाद जब सराहना हो और लोग यह कहें कि आप उस पर बिल्कुल ठीक जंचे हैं, तो सुन कर बहुत प्रसन्नता होती है और आपको लगता है कि आप इसी तरह आगे भी किरदार निभा सकते हैं. नटरंग ने वाकई मेरे जीवन में नया रंग भरा.
प्रश्न : आप थिएटर से जुड़े रहे हैं. फ़िल्मों में काम करने के दौरान थिएटर कितना सहायक होता है ?
उत्तर : नि:संदेह ! थिएटर करने के बाद आप अभिनय के ग्रामर से वाकिफ़ हो जाते हैं. आपको स्क्रिप्ट के साथ-साथ ऐक्टंग के हर पहलू की जानकारी हो जाती है और आप अपनी अदाकारी के लिए अनुशासित हो जाते हैं

रिश्तों के कद्रदान सुपरस्टार्स



सुपरस्टार की जिंदगी जितनी व्यस्त होती है, उतनी ही व्यस्त जिंदगी उनके साथ तैनात उनके अस्टिटेंट, मेकअपमैन, हेयर ड्रेसर, बॉडीगार्ड की भी होती है. लेकिन ये सभी अपनी जिम्मेदारी को बखूबी निभाते हैं. यही वजह है कि अपने लिए काम करने वाले इन ईमानदार लोगों को कई सुपरस्टार कॅरियर के शुरुआती दौर से अब तक खुद के साथ जोड़े हुए हैं.
यही नहीं उनकी ईमानदारी और काम के प्रति समर्पण की कद्र करते हुए ये स्टार्स न सिर्फ़ उनका ख्याल रखते हैं, बल्कि जब भी मौका मिलता है, उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं. क्योंकि स्टार्स भी जानते हैं कि ऐसे लोग जीवन में बहुमूल्य हैं. उनकी कामयाबी इन लोगों के सहयोग व आत्मीयता के बिना संभव नहीं. अपने साथ काम कर रहे लोगों की कद्र करने वाले कुछ ऐसे ही कद्रदान स्टार्स पर अनुप्रिया अनंत की पारखी नजर
बॉलीवुड में प्राय: ऐसी खबरें आती हैं कि स्टार्स अपने साथ काम कर रहे मेकअपमैन या फ़िर सहयोगियों के साथ अच्छा बर्ताव नहीं करते. जबकि हकीकत यह है कि एक बार अगर ऐसे लोगों ने अपने काम से स्टार्स को खुश कर दिया, तो वे वर्षो उनका साथ नहीं छोड़ते और जरूरत पड़ने पर बिना किसी लाभ के उनकी मदद भी करते हैं.
विश्वास का ताना-बाना
अमिताभ -दीपक सावंत, मेकअपमैन
हिंदी सिने जगत में लंबा सफ़र तय कर चुके अमिताभ बच्चन अपना ख्याल रखने वालों को खास तरजीह देते हैं. यही वजह है कि जब उनके मेकअप मैन दीपक सावंत ने उनसे अपनी एक फ़िल्म में काम करने का आग्रह किया तो अमिताभ तुरंत राजी हो गये और बिना किसी मेहनताने के उन्होंने फ़िल्म में काम किया. अमिताभ बच्चन से दीपक सावंत का जुड़ाव वर्ष 1973 में हुआ था. फ़िल्म जंजीर से लेकर अब तक वे हर कदम पर अमिताभ के साथ हैं. बकौल दीपक अमित जी से पहली मुलाकात रास्ते का पत्थर के दौरान हुई थी. इस फ़िल्म के लिए शत्रुघ्न सिन्हा को पर्सनल मेकअपमैन दिया गया था, लेकिन अमित जी को नहीं. तब मुझे उनका मेकअप करने को कहा गया. उस वक्त अमित जी मेरे काम से इतने खुश हुए कि उन्होंने कहा कि अगर वह कभी किसी मेकअपमैन को अपने साथ जोड़ेंगे, तो वह मैं रहूंगा. इतने लंबे अरसे से उनके साथ काम करने के बावजूद मुझे यह महसूस होता है कि वह आज भी नहीं बदले. वे अपने काम के प्रति उसी तरह समर्पित हैं.
रिश्ते जब परिपक्व होते हैं, तो कभी-कभी कई गलतफ़हमियां भी हो जाती हैं. इसलिए, मुझे जीवन में हमेशा इस बात का दुख रहेगा कि मैं अमित जी के साथ उस वक्त नहीं था, जब वह कुली के दौरान घायल हुए थे. उस दौरान हमारे बीच कुछ गलतफ़हमियां आ गयी थीं. मैंने चार सालों तक उनके साथ काम नहीं किया था.
वर्ष 1989 में जादूगर के दौरान जब उन्हें दाढ़ी लगानी थी और कुछ परेशानी आ रही थी. उस वक्त अमित जी ने खुद कॉल करके मुझे बुलाया. तब से लेकर अब तक मैं उनके साथ हूं. मुझे इस बात की सबसे अधिक खुशी है कि अमित जी मुझ पर विश्वास करते हैं. यह उनके विश्वास का ही नतीजा है कि जब उन्हें मैंने अपनी मराठी फ़िल्म अक्का में अभिनय करने को कहा, तो उन्होंने तुरंत हां कह दिया. न सिर्फ़ अमित जी ने बल्कि जया जी ने भी फ़िल्म में कुछ सीन फ़िल्माये थे.
फ़िल्म की पब्लिसिटी के लिए भी वे आगे आये थे. जब अमितजी ने कुछ सालों के लिए गैप लिया था, उस वक्त मैंने भी इंडस्ट्री छोड़ दी थी, क्योंकि मैं उन्हें नहीं छोड़ सकता था. आखिर वे मेरा इतना ख्याल रखते हैं. एक बार वे मेरे साथ उत्तर प्रदेश गये थे. वहां मैंने देखा कि लोगों में उन्हें लेकर बहुत क्रेज है. इसलिए, मैंने एक भोजपुरी फ़िल्म बनाने की सोची. मैंने एक स्क्रिप्ट लिखी. स्क्रिप्ट पढ़ने के बाद उन्होंने कहा दीपक फ़िल्म अच्छी बनेगी. जाओ तैयारी शुरू करो.
जिस दिन मेरी फ़िल्म का मुहूर्त था, मैं उनके साथ केबीसी के सेट पर था. वे मुझे देख कर दंग रह गये कि मैं अपनी फ़िल्म के मुहूर्त में क्यों नहीं गया. उन्होंने तुरंत रवि किशन को फ़ोन करके कहा, अच्छे से काम करना, दीपक मेरे साथ हैं. उन्होंने बीमार होने के बावजूद मेरी फ़िल्म में लगभग 27 सीन व 3 गानों की शूटिंग तीन दिनों में पूरी की थी. फ़िल्म को अच्छी लोकप्रियता मिली थी. मैं खुशनसीब हूं कि मुझे अमित जी जैसे नेक दिल इंसान के साथ काम करने का मौका मिला है. मैं जल्द ही उन्हें लेकर एक और फ़िल्म बनाऊंगा. मुझे पता है कि वह मेरा साथ देंगे.
शोले की शूटिंग के दौरान दीपक को मैंने एक सीन में मेकअप करने को कहा, जिसमें मेरे कंधे से खून बहते दिखाना था. दीपक ने जैसा मेकअप किया था उसे देख कर जया जी को लगा था कि वाकई मेरे हाथ से खून बह रहा है. वह चिल्लाने लगी थीं. लेकिन मैंने मुस्कुरा कर कहा कि दीपक यह तुम्हारी कामयाबी है कि तुम्हारा काम काल्पनिक नहीं वास्तविक लग रहा है.
-अमिताभ बच्चन-
बड़े भाई जैसा भरोसा
माधुरी दीक्षित-रिक्कू राकेशनाथ, सेक्रेटरी
रिक्कू राकेशनाथ से अभिनेत्री माधुरी दीक्षित का जुड़ाव फ़िल्म अबोध के दौरान हुआ था. बकौल रिक्कू मैं धर्मेद्र का फ़ैन था, इसलिए मैं उन्हें देखने के साथ फ़िल्में बनाने का सपना लेकर होशियारपुर से मुंबई आ गया. साथ में लगभग 3 लाख रुपये लेकर आया था. यहां आने के बाद वह सब खर्च हो गये. धीरे-धीरे रंजीता कौर, सलमा आगा व कपूर खानदान के साथ काम करने का मौका मिला. इसी दौरान माधुरी का साथ मिला. माधुरी ने हमेशा मेरा साथ दिया और मेरी फ़िल्मों में बिना किसी मेहनताने के काम किया. उन्होंने मेरे साथ मेरी निर्देशित फ़िल्म मोहब्बतें में काम किया. फ़िर गज गामिनी व दिल तेरा ओशक में भी वे मेरे साथ काम करने को तैयार हुईं. उस वक्त माधुरी सुपरस्टार थीं लेकिन यह उनकी नेकी है कि उन्होंने मेरे साथ काम करने के लिए वक्त निकाला. माधुरी मुझ पर बड़े भाई की तरह विश्वास करती हैं. मुझे खुशी है कि मेरे कहने पर माधुरी ने साजन, मृत्युदंड व संगीत जैसी फ़िल्में की थीं.
रिक्कू के साथ होने से मुझे किसी बात की फ़िक्र करने की जरूरत नहीं होती. मैं उनकी बहुत कद्र करती हूं क्योंकि उनकी वजह से ही मेरी इमेज बन पायी. वे जानते हैं कि मेरे लिए क्या अच्छा है, क्या बुरा. उन्होंने मुझे कभी धोखा नहीं दिया. किसी स्टार के लिए यह बहुत मुश्किल होता है कि वह एक-एक पल की खबर रखें. ऐसे में कोई व्यक्ति आपकी इतनी चिंता करे, तो वह आपके परिवार के सदस्य से कम नहीं होता.
-माधुरी दीक्षित-
दोस्ती भी रखती है मायने :
कट्रीना कैफ़ - सुभाष सिंह ( मेकअपमैन ) पोमिला हंटर ( हेयर डिजाइनर )
सुभाष सिंह कट्रीना के साथ तब से हैं, जब से कट्रीना ने फ़िल्मी कॅरियर की शुरुआत की. बकौल सुभाष यह सच है कि मैं फ़िल्म का निर्माण करने जा रहा हूं, और कट्रीना ने बिजी होने के बावजूद तीन महीने मेरे लिए निकाले हैं. किसी स्टार के लिए यह बड़ी बात है, साथ ही वह मुझसे कोई मेहनताना भी नहीं ले रहीं. उम्मीद है कि उनका सहयोग मेरे लिए लकी साबित हो. सुभाष व कट्रीना में बहुत अच्छी दोस्ती भी है. कट्रीना कहीं भी बिना सुभाष के नहीं जातीं. क्योंकि वे जानती हैं कि सुभाष को पता है कि किस तरह के मेकअप से उनका चेहरा निखरेगा. कुछ इसी तरह कट्रीना अपनी हेयर डिजाइनर का भी साथ दे रही हैं. वे हेयर डिजाइनर पोमेला हंटर की फ़िल्म मैं कृष्णा हूं में एक छोटी सी भूमिका निभा रही हैं. साथ ही फ़िल्म में एक गीत पर डांस भी कर रही हैं.मेरे जिस चेहरे से लोग प्यार करते हैं उसे निखारने में सुभाष ने हमेशा साथ दिया है. उन्होंने मेरे लुक का हमेशा ख्याल रखा है. इस बार मेरी बारी है. मैं आशा करती हूं कि वह बेहतरीन फ़िल्म का निर्माण करें. पोमिला ने हमेशाख्याल रखा है कि बालों का ऐसा लुक दें कि मेरे व्यक्तित्व से मेल खाये. वे फ़िल्म ‘मैं कृष्णा हूं ’ का निर्माण कर रही हैं. मैं उनके साथ हूं.
कट्रीना
भाई के लिए जान हाजिर :
सलमान खान- शेरा, बॉडीगार्ड
सलमान खान व शेरा पिछले 15 सालों से साथ में है. इन 15 सालों में शेरा ने हर कदम पर वफ़ादारी से सलमान का साथ दिया है. इसलिए जब सलमान को मौका मिला, तो उन्होंने फ़िल्म बॉडीगार्ड पूरी तरह से शेरा को समर्पित कर दी. फ़िल्म का फ़र्स्ट लुक उनके हाथों से जारी करवाया. साथ ही फ़िल्म में उन पर दृश्य भी फ़िल्माये. बकौल शेरा, वह मेरे बॉस, ब्रदर और दोस्त हैं. उनके लिए मैं जान भी दे सकता हूं. वे मुझे अपना कर्मचारी नहीं, परिवार का सदस्य समझते हैं. मेरे लिए यह काफ़ी बड़ी बात है.
शेरा कभी भी चाहे तो मेरी बैंड बजा सकता है, क्योंकि वह हमेशा मेरे साथ रहा है और उसे मेरे जीवन के सारे राज मालूम हैं. लेकिन मुझे पता है कि वह ऐसा करेगा नहीं, क्योंकि हमारा रिश्ता प्यार का है.
-सलमान खान-
आमिर ने दिया पूरा साथ:
आमिर खान- रीमा कागती, लगान फ़िल्म की अस्सिटेंट निर्देशक
आमिर खान से रीमा कागती का जुड़ाव फ़िल्म लगान के दौरान हुआ था. उस वक्त रीमा आशुतोष को बतौर फ़र्स्ट अस्सिटेंट निर्देशक अस्सिट कर रही थीं. आमिर खान ने फ़िल्म 3 इडीयट्स के बाद पूरी तरह से किसी फ़िल्म को पूरा समय दिया है, तो वह कागती की ही फ़िल्म है. सभी जानते हैं कि आमिर सोच समझकर ही फ़िल्म करते हैं, ऐसे में उन्होंने रीमा पर विश्वास किया. बकौल रीमा आमिर के साथ लगान में काम करने के दौरान ही मैं समझ चुकी थी कि वे किस मिजाज के व्यक्ति हैं. मेरी हमेशा से इच्छा रही थी कि उनके साथ फ़िल्म बनाऊं. मैंने जब उन्हें स्क्रिप्ट सुनाई, तो वे न सिर्फ़ तैयार हुए, बल्कि उन्होंने निर्माण के लिए भी हां कह दिया. फ़िल्म की पूरी शूटिंग के दौरान मुझे आमिर के धैर्य को देख कर लगा कि वाकई वही यह कमाल दिखा सकते थे.
अब तक मैंने अपने कॅरियर में कोई सस्पेंस थ्रिलर नहीं की थी. मुझे बेहद खुशी हुई कि रीमा पहली ऐसी निर्देशिका थीं, जिन्होंने मुझे लेकर ऐसी कहानी सोची और मुझे उन पर पूरा भरोसा है.
-आमिर खान

झारखंड-बिहार में फ़िल्म पॉलिसी नहीं

प्रत्येक वर्ष भारत की क्षेत्रीय भाषाओं की फ़िल्मों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है. विशेषकर मराठी, पंजाबी, बांग्ला व दक्षिण की क्षेत्रीय भाषाओं में बेहतरीन फ़िल्में बन रही हैं. नतीजतन फ़िल्मों के माध्यम से इन राज्यों की संस्कृति फ़िल्मों में नजर आ रही है. यहां की संस्कृति का विकास हो रहा है.
इन राज्यों से संबंद्ध रखनेवाले फ़िल्मकार भी अपने राज्य की कहानी कहने की पहल कर रहे हैं. इन राज्यों के कई युवा हर साल इस क्षेत्र में आ रहे हैं और बतौर नये निर्देशक अपनी पहचान भी बना रहे हैं. बांग्ला, मराठी व दक्षिण की कई फ़िल्में विश्व स्तरीय फ़िल्मों की श्रेणी में आ चुकी है. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि इन राज्यों में फ़िल्म को संस्कृति का अहम हिस्सा माना गया है.
इसलिए इन राज्यों की सरकार द्वारा अपने राज्य की स्थानीय भाषाओं में बनायी गयी फ़िल्मों को प्रोत्साहन दिया जा रहा है. महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, मध्यप्रदेश, पंजाब, केरल व उन सभी राज्य जहां स्थानीय भाषाओं की फ़िल्मों का निर्माण हो रहा है, वहां नये फ़िल्मकार व फ़िल्मों के लिए पॉलिसी बनायी गयी है.
इसके तहत स्थानीय भाषा में बना रहे फ़िल्मों को फ़ंड के साथ साथ थियेटर में रिलीज कराने तक की जिम्मेदारी ली जाती है. महाराष्ट्र में नये फ़िल्मकार अगर मराठी में फ़िल्म बना रहे हैं, तो उन्हें दूसरी फ़िल्म से 35 लाख रुपये तक फ़ंड दिया जाता है. साथ ही उन फ़िल्मों का थियेटर में लगाना भी अनिवार्य किया गया है. कर्नाटक में भी फ़िल्मकारों को 3 से 4 लाख तक फ़ंड मुहैया कराया जाता है. शेष अन्य राज्यों में भी यही नीति है.
हाल ही में उत्तर प्रदेश ने भी फ़िल्म निधि के अंतर्गत स्थानीय फ़िल्मों को प्रोत्साहन देने की नीति बनायी. लेकिन अब तक झारखंड-बिहार में ऐसी कोई नीति बनाने पर विचार नहीं किया गया है. झारखंड व बिहार के कई ऐसे फ़िल्मकार हैं, जिन्होंने अपने बूते झारखंड-बिहार की कहानियां डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों के माध्यम से कहा है. पश्चिमी देशों में आज भी वहां की स्थानीय फ़िल्मों को सबसे अधिक तवज्जो दिया जाता है. भारत में ही यह अन्य राज्यों में लागू है.
बिहार-झारखंड लोकेशन के साथ साथ कहानियों से परिपूर्ण हैं, जिन पर बेहतरीन फ़िल्में बन सकती हैं. इन राज्यों की कला संस्कृति को बढ़ावा मिल सकता है. फ़िल्म पॉलिसी के ही तहत फ़ंड के साथ साथ फ़िल्म का प्रदर्शन थियेटर में अनिवार्य किया जाये, साथ ही प्रत्येक वर्ष अगर फ़िल्मोत्सव कराये जाये. तो फ़िल्म मेकिंग भी रोजगार का माध्यम बनेगा. साथ ही बिहार-झारखंड के महत्वपूर्ण व्यक्तित्वों की कहानी भी संरक्षित की जा सकेगी. |
हाल ही में इस वर्ष झारखंड के फ़िल्मकार मेघनाथ व बिजू टोप्पो को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया.पहले भी झारखंड व बिहार की कई फ़िल्में विश्व के फ़िल्मोत्सव का हिस्सा बन चुकी है. ऐसे में अगर ऐसे फ़िल्मकारों को सहयोग मिले तो निश्चित तौर पर झारखंड-बिहार में भी फ़िल्म संस्कृति को बढ़ावा मिलेगा, व यहां की कहानियां फ़िल्मों के माध्यम से विश्व स्तर पर पहुंचेंगी