राजू हिरानी...निर्देशकों में राजकुमार हिरानी ही वह शख्स हैं, जिनसे आम दर्शक भी खुद को जोड़ पाते हैं और सुपरस्टार्स भी. आप कह सकते हैं कि राजू दोनों के बीच अपनी कहानियों के माध्यम से एक सेतु का काम करते हैं. उनकी फिल्में देख कर दर्शक रोते भी हैं और हंसते भी हैं, लेकिन साथ ही साथ उनकी फिल्मों के लेकर वह घर भी जाते हैं. मुन्नाभाई, सर्किट, फुंगसुक वांगडूं, चतुर रामलिंगम जैसे किरदार अब भी दर्शकों की जेहन में दर्ज हैं. इस बार वह दर्शकों के सामने पीके लेकर आ रहे हैं. पेश है राजू हिरानी से अनुप्रिया व उर्मिला की हुई बातचीत के मुख्य अंश
फिल्म पीके का आइडिया कैसे आया?
पीके में हम क्या दिखाने की कोशिश कर रहे हैं, यह तो आपको फिल्म देखने के बाद ही पता चलेगा, हां, मगर यह जरूर बताना चाहूंगा कि फिल्म का आइडिया 3 इडियट्स के खत्म होने के बाद ही मेरे और फिल्म के लेखक अभिजात के दिमाग में आयी थी. हमलोग बोरिवली पार्क में घूम रहे थे. आइडिया वही से आया. लेकिन बीच को पकते पकते वक्त लगता है. सो, इतने साल लग गये.
राजू, आपकी फिल्में कई सालों के बाद आती है. जाहिर है, उन सालों में कई बदलाव भी आ जाते हैं. लेकिन फिर भी आपकी फिल्में प्रासंगिक होती हैं. तो कैसे निर्णय लेते हैं कि इसी आइडिया पर काम होना चाहिए?
नहीं, मुझे ये नहीं लगता कि इतने सालों में बिल्कुल से दौर बदल जाता है. लेकिन लकली मेरी यह जो फिल्म है पीके. यह यूनिवर्सल फिल्म है. इस फिल्म में लिखने में ज्यादा वक्त लगा. चूंकि विषय वैसा था. मेरे साथ यह डर नहीं रहता किसी स्क्रिप्ट को चुनने में की, वह प्रासंगिक रहेगा या नहीं. चुनौती यह होती है कि आप जिस विषय को लेकर चले हैं, आप उससे बोर न हों. आप जो सोच कर चले थे.वह बना पाये हैं या नहीं. आप उससे न भटकें. क्या होता है कि एक निर्देशक जब किसी फिल्म को अधिक वक्त देता है, तो आपने जो लिखा है, आप उससे बोर होने लगते हो. जो लिखा है. उसमें कई ड्राफ्ट्स होते हैं. फिर उसको आप शूट कर रहे होते हो.आप उस एक्टर के साथ रिहर्सल होता है. मैं खुद एडिटर हूं तो फिर उसे मैं दस दस बार देखता हूं. फिर मिक्सिंग होता है, तो इस पूरे क्रम में आप फिल्म को कई बार देख चुके होते हो. फिल्म का एक एक शॉट 1000 बार देखने के बाद कभी कभी आप बोर होने लगते हैं. मैं भी कभी कभी सोचता हूं कि बहुत देर नहीं करनी चाहिए एक ही स्क्रिप्ट को लेकर. सीमित समय में बना लेनी चाहिए. लेकिन हमारी दिक्कत यह है कि हम कुंआ खोदते रहते हैं. जब तक पूरी तरह से पानी न निकल आये. खुद को संतुष्ट करना भी कठिन होता है.
आपकी फिल्मों में संदेश जरूर होता है. जबकि आमतौर पर यह अवधारणा बन चुकी है कि तीन घंटे में ज्ञान बांटने की जरूरत नहीं. तो इस पर आपकी क्या सोच है?
मेरा मानना है कि वेराइटी में ही मजा है. मुझे लगता है कि हर शुक्रवार का अपना मजा है. हर शुक्रवार अलग अलग तरह की फिल्में आये. यह वक्त तो नये फिल्मकारों और नयी कहानियों का दौर है और सबसे अच्छा दौर है. तो हर तरह की फिल्में आये. मेरे साथ भी यह जरूरी नहीं कि मैं हर बार मेसेज ही दूं. लेकिन हां, मैं वैसी फिल्में बनाने की कोशिश करता हूं जिसमें मैं खुद बहुत यकीन करता हूं. जैसे एजुकेशन सिस्टम को लेकर, जैसे हमारे देश में जिस तरह से एजुकेशन की प्रक्रिया को समझा जा रहा है. वह बहुत गलत है.हम फोर्स कर रहे हैं बच्चों को कि वे इंजीनियर ही बने, डॉक्टर ही बने, क्योंकि मैं खुद उस दौर से गुजरा था. मैं चाटर्ड अकाउंटेंट नहीं बनना चाहता था. लेकिन मुझे एग्जाम देना पड़ा. मेरे मार्क्स खराब आते थे. लेकिन जब मैं फिल्म इंस्टीटयूट गया तो मुझे अचानक से एहसास हुआ कि वहां मुझे स्कॉलरशीप मिल रही है. तब मुझे समझ आया कि मुझे ये चीजें मजा दे रही थीं. अब हो सकता है कि किसी को मेडिसीन मजा दे...तो मेरा बस 3 इडियट्स के माध्यम से यही कहना था कि वही करो जो आपको मजा दे. पढ़ने के लिए रटो मत..समझने के लिए पढ़ो. कुछ इसी तरह मुझे गांधीजी में बहुत ज्यादा विश्वास था. मैंने जब गांधी देखी थी तो मैं यही सोचता था कि ऐसा भी कोई आदमी हो सकता है क्या, जिसने तय किया कि मैं बिना लड़े, बिना हिंसा के आजादी लूंगा.उनकी सोच इतनी विचित्र थी.तो मुझे लगा कि इस पर कुछ करना चाहिए. बस तो वही बात है. हो सकता है कि कल सिर्फ हम भी केवल एंटरटेन करने के लिए ही फिल्म बनायें. हां, मगर मैं एंटरटेनमेंट के नाम पर कुछ भी नहीं परोसूंगा. यह तय है.
आपकी फिल्मों से आम दर्शक भी जुड़ते हैं और सुपरस्टार्स भी. बॉलीवुड के नये से लेकर स्थापित कलाकार हर किसी की तमन्ना है कि वह राजू हिरानी के साथ काम करें? आपकी राय में आपकी फिल्मों की ऐसी क्या खास बात है, जो उन्हें आकर्षित करती है?
मुझे लगता है, आप दिल से फिल्म बनाओगे तो दिल तक पहुंचेगी. आप क्लिनिकली फिल्म बनाओगे तो कहीं नहीं पहुंचेगी. हमारी कोशिश होती है कि जो हमारी फिल्म है, हमने जो जिंदगी में देखा है.उसी को निकालो. लोगों को दिखाओ. मेरा मानना है कि मैं सबसे पहले एक आॅडियंस हूं. अगर मुझे वह फिल्म अच्छी लगती है. तो औरों को भी लगेगी. अगर हम भी यह सोचने लगे कि चलो ये यूथ को अच्छा लगेगा, चलो ये बुजुर्गों को अच्छा लगेगा, यह बात अगर आप सोच लें. तो समझ लें कि आप अपने विषय के साथ ईमानदार नहीं हैं. दूसरी यह बात है कि मैं दूसरों को कहानी बहुत सुनाता हूं. फिर उनकी राय लेता हूं. देखता हूं कि वह कौन सा प्वाइंट है, जिस पर ज्यादा लोग प्वाइंट कर रहे हैं तो उस पर दोबारा भी काम करता हूं फिर.
आपको क्या चीजें प्रभावित करती हैं?
मुझे फिलॉसफी पढ़ना बहुत अच्छा लगता है. मैं फिक् शन नहीं पढ़ता. मैं मोटी मोटी किताबें नहीं पढ़ सकता. मुझे पुरानी चीजें पढ़ना अच्छा लगता है.हरिशंकर, रेणु पढ़ लेता हूं तो अभी भी मजा आता है. लेकिन लंबी लंबी कहानियां मैं नहीं पढ़ सकता. जिंदगी से संबंधित चीजें पसंद हैं तो उन्हें ही फिल्मों के माध्यम से लोगों तक पहुंचाने की कोशिश करता हूं.
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