20200901


 


 

 


वर्ष 2005. फिल्म आई थी लाइफ इन अ मेट्रो. पहला कदम था मुंबई में. यूं ही आई थी बस. फिल्म पत्रकार भी नहीं थी तब. फ़िल्मी प्रीमियर के बारे में अबतक केवल अख़बारों में ही पढ़ा था. मुंबई में मेरा दूसरा दिन था. लेकिन सब कहते हैं न मुंबई अप्रीदेक्त्बेल है, मेरे साथ तो यह संयोग दूसरे दिन ही हुआ. संयोग से लाइफ इन अ मेट्रो रिलीज हुई थी. एक वरिष्ठ और नामचीन फिल्म समीक्षक ने संयोग से पूछ लिया प्रीमियर में जाना है फिल्म के ? मैं और मेरे दोस्त ने फ़ौरन हाँ कहा. जुहू पीवीआर में था प्रीमियर. अब अक्सर यहीं ठिकाना रहता है फ़िल्मी प्रेस शोज का. रात 9 का शो था. हम तीन लोग थे. ऑटो से वहां पहुंचे. अभी ऑटो से उतरे ही थे कि मेरी नजर इरफ़ान खान पर गई. उन्होंने स्लेटी या शायद ब्लैक रंग की कोट पहनी थी. किसी फ़िल्मी हस्ती को इतने करीब से देखने का पहला मौका था. बहरहाल हम, अंदर गये. अंदर गई तो मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम कि भई, ये क्या बला है. छोटे शहर में तो केवल लोगों को भागते देखा था, यहां सीढ़ियां क्यों भाग रही हैं. वह बला जिसे हम ऐक्स्क्लेटर कहते हैं, मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा था. अभी मेरे साथ आये दोनों लोग तो आराम से चलती सीढ़ियां पर सरपट चढ़े और ऊपर पहुँच गये. मैं नीचे ही उस पर चढ़ने की तमाम कोशिश कर रही थी कि तभी पीछे से एक आवाज़ आई अरे, मैडम डरिये माय, कोई दिक्कत नहीं है. पलट कर देखा तो इरफ़ान थे. उन्होंने कहा अरे डरने की बात नहीं है, आराम से चढ़ जाएँगी और उन्होंने अपना हाथ दिया और साथ ऊपर लेते गये. तो इस तरह इरफ़ान ने मुझे भागती सीढ़ियों पर चढ़ना सीखा दिया. उन्होंने यह  भी बताया कि कुछ नहीं होता, बस एक बार करना होता है, वरना आपके पास ऑप्शन तो होते ही हैं कि सीढ़ी से भी आ सकती थीं. यह कहते हुए वह थेयटर पहुँच कर सितारों के बीच खो गये. लेकिन मेरे जेहन से वह हिस्सा हमेशा के लिए स्थाई हो गया. आज मुंबई में फिल्म पत्रकारिता करते दस साल बीत चुके हैं. फर्क बस इतना आया कि आज भी पीवीआर की उन सीढ़ियों पर न जाने कितनी बार भागी. फर्क यह भी आया था कि कभी इरफ़ान से जान-पहचान न होने के बावजूद उस एक शाम और चंद लम्हों ने सदा के लिए इरफ़ान से मेरा अनोखा रिश्ता जोड़ दिया. फर्क बस इन दस सालों में यह आया कि कभी पीछे खड़े इरफ़ान से अब आँखों में आँखें डाल कर न जाने कितनी बार इंटरव्यू के दौरान बातें हुईं. मगर अब बातें कभी नहीं होंगी, क्योंकि ये जो साली जिंदगी है, ऐसे ही दगा देती है. इरफ़ान खान अब इस दुनिया में नहीं रहे. उन्होंने उस दिन कहा था लाइफ आपको दो ऑप्शन देती है. ये नहीं तो वो सही. लेकिन आपको वह ऑप्शन नहीं मिला इरफ़ान साहब. ये साली जिंदगी का वह दृश्य हम जब भी देखेंगे, मां कसम आप याद आयेंगे जब आपने आधे रास्ते से अपनी  गाड़ी मोड़ ली थी. आप जाना नहीं चाहते थे. फिर भी. इस बार भी ये जो साली जिंदगी है, जिंदगी की चेन आधे रास्ते में ही खींच ली और आपको जिन्दगी की रेस से न चाहते हुए उतरना ही पड़ा.

काश, रोग फिल्म के ही तर्ज पर आप इस हफ्ते के नहीं कईयों गुरुवार बीत जाते और आप नहीं जाते. हम जानते हैं कि आपका मन अभी नहीं ऊबा था. मगर आपका यूं जाना, इस कदर, फिर से बता गई कि ये जो साली जिंदगी है...ऐसे ही दगा देती है.

किस्मत की एक खास बात होती ही है कि वो पलटती ही है. फिल्म गुंडे में उनके इस संवाद में भी उनके मृत्यु की सच्चाई नजर आती है.

अपने सच ही कहा था साहेब बीवी गुलाम में कि आपकी गाली में भी ताली ही पड़ती है. एक कलाकार के लिए इससे बड़ी सफलता और क्या होगी कि उनके हर संवाद में जिन्दगी का सारे रस छिपे थे, जिन्हें उन्होंने खूब मजे लेकर चखे थे. उनके चाहने वाले नम आँखों से उन्हें उनके ही जज्बा के संवाद कि इश्क था इसलिए जाने दिया, कह कर ही संतोष करेंगे.

 वर्ष 2005. फिल्म रिलीज हुई थी लाइफ इन अ मेट्रो. मैं पहली बार मुंबई आई थी. यूं ही आई थी बस. अभी ग्रेजुशन भी पूरा नहीं किया था इस बात को अब 15 साल बीत चुके हैं. तब फिल्म पत्रकार भी नहीं थी. मगर फिल्मों का चस्का तब से था. फ़िल्मी प्रीमियर के बारे में अबतक केवल अख़बारों में ही पढ़ा था. मुंबई में वह मेरा दूसरा दिन था. दिन गुरुवार था. प्रीमियर गुरुवार को ही हुआ करते हैं न. लेकिन सब कहते हैं न, मुंबई बड़ी ही अन प्रिदेक्ट्बल हैमेरे साथ तो यह संयोग दूसरे दिन ही हुआ. संयोग से एक वरिष्ठ और नामचीन फिल्म समीक्षक ने पूछ लिया प्रीमियर में जाना है लाइफ इन अ मेट्रो केमैं और मेरे दोस्त साथ थे. न कहने का तो सवाल ही नहीं था. जुहू पीवीआर में था प्रीमियर. हम ऑटो से वहां पहुंचे. अभी ऑटो से उतरे ही थे कि मेरी नजर इरफ़ान खान पर गई. उन्होंने स्लेटी या शायद ब्लैक रंग की कोट पहनी थी. किसी फ़िल्मी हस्ती को इतने करीब से देखने का पहला मौका था. देखते ही देखते वह रेड कारपेट और तस्वीरों के बीच लीन हो गये. बहरहाल हमअंदर गये. अंदर गई तो मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम कि भईये क्या बला है. छोटे शहर में तो केवल लोगों को भागते देखा थायहां सीढ़ियां क्यों भाग रही हैं. वह बला ऐक्स्क्लेटर थी. जिसे देख कर इस स्मॉल टाउन गर्ल के हाथ-पैर फूलगये थे. मेरा दोस्त फटाक से उस पर चढ़ कर ऊपर पहुँच गया. मैं डरपोक नीचे ही थी. तभी पीछे से एक आवाज़ आई. यह आवाज़ अबतक टीवी पर ही सुना था. अरेमैडम डरिये मतकोई दिक्कत नहीं है. पलट कर देखा तो इरफ़ान थे. उन्होंने कहा अरे डरने की बात नहीं हैआराम से चढ़ जाएँगी और उन्होंने अपना हाथ दे दिया. मेरी आँखें बंद ही थी. आँखें खोली तो इरफ़ान सामने थे. कहे, देखा न आराम से हो गया. मैं थैंक यू वगरेह अभी कहती ही कि उनकी आँखें जो कि हमेशा बात करते हुए लट्टू की तरह नाचती थीं, वैसे ही आँखें घुमाते हुए बोले, मैडम डरने का नहीं, इससे नहीं भी चढ़ पातीं तो सीढ़ियां तो थी ही. बस एक बार करना होता है वरना लाइफ में ऑप्शन हमेशा होते हैं. भूलने का नहीं.  इसके बाद वह फिर से थेयटर के अंदर जाते ही सितारों के बीच खो गये. जब अंदर जाकर फिल्म देखनी शुरू की. मेरी नजर उसी मुस्कान को ढूँढती और मैं मन में खुश होती रही. मुंबई की वह किस्सा हमेशा के लिए मेरे जीवन का स्थाई हिस्सा हो गया. इसके बाद जब वर्ष 2009 में स्थाई रूप से फिल्म पत्रकारिता के लिए मुंबई आई. तो फर्क बस इतना आया कि जिस इरफ़ान से कभी नजरों में बातें हुईं थीं. उनसे कई बार आँखों में आँखें डाल कर बात करने के मौके कई बार मिले. एक बार जब उनको यह किस्सा याद दिलाया तो उन्होंने तबाक से हँसते हुए कहा, अब तो सीढ़ियाँ कम, मोहतरमा आप ज्यादा फ़ास्ट दौड़ती होंगी.  इरफान ने उस दिन कहा था, लाइफ में दो ऑप्शन तो हमेशा होते ही हैं. अफ़सोस कि जिंदगी ने इरफ़ान को वह ऑप्शन नहीं दिया. दोबारा उठने का, दोबारा जीने का. दोबारा जिन्दगी और मौत के बीच पान सिंह तोमर की तरह दौड़ लगाने का. लेकिन एक कलाकार का इससे बड़ा हासिल और क्या होगा कि वह जब-जब अपने अभिनय की कारीगारी दिखाते नजर आये, लोगों ने उन्हें मकबूल किया. और ताउम्र मकबूल ही रहेंगे. ऑप्शन वाली बात उन्होंने शायद बचपन से ही गाठ बाँध ली थी. तभी क्रिकेटर बनने का सपना देखा था. एक सवाल में जब उनसे पूछा था मैंने, क्रिकेटर बनने से पैर पीछे क्यों खींचे, उन्होंने कहा बाप रे बाप क्रिकेट में खाली 11 खिलाड़ी होते हैं. सो, उन्होंने सोचा कि कुछ ऐसा करते हैं, जहाँ गाली भी दें तो ताली पड़े और इस तरह वह फिल्मों में आये. यह इरफ़ान के व्यक्तित्व की खासियत थी कि वह जमीन से जुड़े रह कर भी हॉलीवुड जा पहुंचे, लेकिन उन्हें इस बात का कोई घमंड नहीं रहा. वह हमेशा कहते कि वह किरदार को नहीं, किरदार उनको चुनता है. सिनेमा है ही ऐसा तिलिस्म, तुम्हारी जरूरत है तो पाताल से भी लायेंगे, नहीं जरूरत तो जहनुम में रहो तुम्हें कौन पूछेगा.

इरफ़ान की फिल्मों और उनके संवादों से और उनके चेहरे के हाव-भाव से भले ही लोग यह भ्रम बनाते होंगे कि इरफ़ान सीरियस किस्म के अभिनेता होंगे. लेकिन उनसे हुई तमाम मुलाकातों के बाद आसानी से वह भ्रम टूट जाता था. उस भीड़ में जहां स्टार्स हमेशा अंग्रेजी मीडियम को तवज्जो देते थे. पत्रकारों में भी. इरफ़ान ने हिंदी को कभी नीचे नहीं दिखाया. मुझे याद है. जज्बा फिल्म के प्रोमोशन के दौरान. वक्त कम था उनके पास. अंग्रेजी अख़बारों की लाइन लगी थी. बीच में हमारा नम्बर था. लेकिन पी आर ने कहा अब किसी और दिन, हमने जब पीआरपर गुस्साना शुरू किया. इरफ़ान वहां से गुजरे. हमने इशारों में बात किया. हिंदी शायद हिंदी की भाषा समझ गई. उन्होंने पीआर से कहा और हम अंदर गये. आठ मिनट के इंटरव्यू में शायद आपको खटके कि दिया भी तो आठ मिनट. मगर, सच यह था कि वह आठ मिनट बोले, और क्या खूब बोले, एकदम टू द पॉइंट. इरफ़ान को हिंदी इंटरव्यूज में खूब मजा आता था. उनका एक अलग जुड़ाव तो था छोटे शहर से, छोटे शहरों के आने वाले लोगों से. वह हमेशा इंस्पायर करते थे, यह पूछे जाने पर कि जो आपको आइकोन मानते हैं, उनसे क्या कहना चाहेंगे, वह कहते सपने देखिये, मगर सपने ही देखते मत रह जाइए. मेहनत करनी पड़ेगी. पापड़ बेलने पड़ेंगे, तब सुकून की छत नसीब होगी. वह किस्मत से अधिक हमेशा मेहनत को तवज्जो देते थे.

उस दौर में जब पीआर पत्रकारिता कम हुआ करती थी. इरफ़ान को इत्त्मिनान से बातें करना पसंद था. जाने पर वह पहले इधर-उधर की बात करते थे. हमेशा पूछते और आपका शहर कैसा है, शहर की क्या खबर, सब ठीक-ठाक. एक बार उन्होंने एक बात कही थी, “आप जहाँ से आये हैं. शहर कितना भी छोटा हो आपका. आपके दिल में उसके लिए जगह हमेशा बड़ी होनी चाहिए. मैं तो अंदर से आज भी राजस्थान का हूँ. जब कुछ नहीं करूंगा तब अपने शहर में ही लौट जाऊंगा. अफ़सोस कि आज उस शहर के ही होकर रह गए, जिस शहर से कभी वह भाग जाना चाहते थे. उनके दोस्त तिग्मांशु के कहने पर मगर वह रुके थे. तिग्मांशु ने एक बार कहा था इरफ़ान के बारे में एक्टर लजीज खाने की तरह होता है, एक बार खाओ तो बार-बार मन होता है कि उसको खाएं. इरफ़ान कुछ वैसा ही एक्टर है.

बाद के दौर में उनका फैशन स्टाइल स्टेटमेंट बन चूका था. यह पूछने पर कि अब अपने फैशन पर अधिक ध्यान देने लगे हैं, वह कहते क्या मोहतरमा थोड़ा स्टाइल मरने कातो हमारा भी हक़ है, चेक वाले शर्ट्स कई दिन पहने हैं.

पान सिंह तोमर उनकी जिंदगी की एक अहम फिल्म थी. प्रेस शो देखने के बाद पहला मेसेज किया था उनको. वापस कॉल बैक आया. क्या लगता है लोग टीवी पर आने पर दोबारा यह फिल्म देखेंगे. मुझे हैरानी हुई. मैंने पूछा लोग बॉक्स ऑफिस की बात करते. आप टीवी की बात कर रहे. इरफ़ान के बोल थे. अरे, मैडम बॉक्स ऑफिस में 100 करोड़ कमा लेंगे बड़ी बात नहीं. टीवी पर हजारों, करोड़ों देखते हैं और लॉयल होते हैं. मैं टीवी से आया हूँ. टीवी की अहमियत जानता हूं. बतौर एक्टर इरफ़ान ने अपने हर फिल्म के बारे में यह पूछने पर कि क्या लगता है चलेगी, वह  साफ़ कहते थे कि आपका काम है बतौर एक्टर बस एन्जॉय कीजिये. बाकी लोगों पर छोड़ दीजिये. आज उन्होंने उन्हीं लोगों पर सब छोड़ दिया है. अपनी मकबूल फिल्में, अपनी मकबूल संवाद अदायगी और अपनी मकबूल अदाकारी. इरफ़ान मकबूल थे, इरफ़ान मकबूल रहेंगे

 





अनुप्रिया वर्मा,

 “सब पे आती है सबकी बार से मौत मुंसिफ है, कम-ओ-बेश नहीं जिंदगी सब पे क्यों नहीं आती! गुलज़ार साहब की ये पंक्तियां कि मौत मुंसिफ है, कड़वा सच है जिंदगी का. मगर सुशांत, मौत आपके हिस्से यूं आएगी. सोचा न था. सुशांत, आप तो उन होनहार युवा कलाकार में से एक थे, जिन्होंने अपने तप के इंधन से, बाहर खड़ी “आउटसाइडर” कार को बड़ी मशक्कत से इंडस्ट्री की  घाघ दुनिया में बड़े धौंस के साथ पार्क किया था. ऐसे में आप अचानक यूं ब्रेक लगा देंगे. सोचा न था. आपने उन दिनों नया-नया बांद्रा में अपना मकान लियाथा. मेरा सवाल था कैसा लग रहा है? जवाब था, वर्सोवा(जहाँ मुंबई आने के बाद सुशांत सात से आठ लड़कों के साथ रूम रेंट कर रहते थे) वहां से यूं तो आप सड़क से आयें तो एक से डेढ़ लगते हैं बांद्रा आने में, मगर मुझे काफी साल लगे हैं. फौरन नहीं पहुंचा, वक़्त लगा. आपका जवाब सुन कर, मेरे चेहरे पर बड़ी स्माइल थी, इसलिए नहीं कि आपके ऑरा में थी. चूंकि आपकी शिद्दत आपके काम के प्रति दिखती थी. स्टार किड्स की जिंदगी मर्सिडीज सी है, आपने हजारों आउटसाइडर वाली लोकल ट्रेन में धक्का-मुक्की करके पहचान बनाई. बिना गॉड फादर के. वह भी छोटे से शहर से आकर. अभी कुछ दिनों पहले की ही तो बात है, सोन चिड़िया फिल्म आई थी आपकी. उस दौरान इंटरव्यू में यह सवाल करने पर कि एक एक्टर अगर लोकप्रिय होने के बाद लोकप्रियता खो दे, तो इसको आप किस तरह लेंगे. आपने पूरे कांफिडेंस के साथ कहा था कि मुझे फर्क नहीं पड़ेगा, मैंने तो “ जीरो से शुरू किया है, फिर से जीरो हो जाऊंगा, आज बांद्रा से वर्सोवा चला जाऊंगा, मुझे फर्क नहीं पड़ेगा’’. जीरो था जीरो हो गया तो जीरो से शुरू करूँगा फिर से. आपका यह जवाब मेरे लिए उन तमाम नए युवा जो मुंबई आकर सिनेमा की दुनिया से राब्ता रखना चाहते हैं, उनके लिए कैच लाइन बना. उन्हें अक्सर आपका उदाहरण देती थी. छोटे शहर से होने की वजह से एक कनेक्शन तो महसूस होता ही था, आपकी सक्सेस स्टोरी कितनों के लिए इंस्पीरेशन बन गई थी. मैंने ही आपको एक बार जब यह बताया कि छोटे शहर, खासतौर से बिहार, जहाँ से हम दोनों आते हैं, वहां के युवा शाहरुख़ खान के बाद किसी से इंस्पायर हैं तो वह आपसे हैं. आपको तो अगला शाहरुख़ खान माना जाने भी लगा था, आउटसाइडर होने की वजह से. और दोनों की जर्नी में काफी समानता होने के कारण. शाहरुख़ से तुलना पर आप झेप जाते थे, लेकिन सिर झुका कर आपकी वह मासूम सी स्माइल बताती थी, कि आपको यह बात ख़ुशी देती है. आप छोटे शहर के उन तमाम युवा, जो सुपरस्टार का ख्वाब देखते हैं, आप उनके लिए “सिनेमा के धोनी’ बन चुके थे कि सुशांत ने किया है, तो हम भी करेंगे.आज वे तमाम सपने चकनाचूर हुए होंगे, जब धोनी की तरह आखिरी बॉल पर छक्का मार कर मैच जीताने वाले अपने आदर्श को जिंदगी की पिच पर हमेशा के लिए डक होते हुए देखा होगा.

आपसे पहली मुलाकात याद है मुझे, उन दिनों नयी-नयी मुंबई आई थी. पटना के हैं सुशांत, बस यही सोच कर कॉल लगाया, आप पवित्र रिश्ता से जुड़े थे.आपने फोन उठाया. मैंने कहा मैं भी बिहार से हूँ, आपसे मिलना चाहती हूँ. आप फौरन तैयार हुए. अँधेरी ईस्ट के एक स्टूडियो में तय हुआ मिलना. मैं नयी थी तो रास्तों से अनजान.समझ नहीं आ रहा था क्या करूँ.आपने खुद सामने से फोन किया कहाँ पहुंची.मैंने कहा जगह नहीं मिल पा रहा. बोले आस पास क्या है. मैंने कहा पेट्रोल पम्प. कहा वहीं रुको, आता हूँ. वह कार लेके आये. फिर हम स्टूडियो गये. दो घंटे बातें हुई. शामक डाबर से लेकर, अपनी माँ, पटना, थेयटर, दिल्ली, इंजीनियरिंग से एक्टिंग, परिवार, डांस, अभिनय, स्ट्रगल, लगभग सबकुछ. हैरान थी मैं, इतने डाउन टू अर्थ. आपसे पहली बातचीत में ही यह स्पष्ट हो गया था कि आप अपने करियर को लेकर स्पष्ट हैं. आप क्लियर हैं कि सिनेमा तो करना ही है. और इस तरह काय पोचे आपकी पहली फिल्म आ भी गई. हम  फिर मिले. मिलते ही आपने फ़ौरन पहचाना. आपसे तो मिला हूँ.अब तो मुंबई समझ गई होंगी आप. रास्ते वगेरह. फिर हमने ढेर सारी बातें की. तसल्ली हुई कि बंदा अब भी नहीं बदला है, जाते-जाते मुस्कुराते हुए उनसे कहा आप ऐसे ही रहना बदलना मत. फिर इसके बाद ब्योमकेश बक्शी, धोनी, राबता और बाकी फिल्मों के दौरान मुलाकातें हुईं. हालाँकि पहले जैसी वाली नहीं. फिर भी प्रोफेशनल लिहाज से अच्छी. धोनी फिल्म के दौरान मैं और मेरी महिला मित्र साथ थीं, आपने मस्ती में क्रिकेट में लड़कियों की कम रूचि की बात की थी, लेकिन मेरी महिला मित्र जो कि क्रिकेट में धाकड़ इनसाइक्लो पीडिया है, उन्होंने आपके सवाल के काउन्टर में जो जवाब दिया था. आप एकदम से चौंके थे और हैरान भी थे . लड़कियां और क्रिकेट को लेकर आपकी सोच कुछ हद तक तो हमने बदल दी थी. क्रिकेट के अलावा आप जब भी मिले, आपने स्पेस विषय में रुचि की बात की. इसलिए चंदा मामा दूर के फिल्म से भी आप जुड़े. आपको इस बात पर गर्व भी था कि आपकी गिनती पढ़े लिखे चुनिन्दा कलाकारों में भी होती है. डांसिंग का आपका अपना पैशन था. झलक दिखला जा के वक़्त आप तो इंटरव्यू में थिरक के भी दिखाते थे. आप जब मिले आपको इस बात पर संतुष्टि थी कि आपका कोई गॉड फादर नहीं रहा, आप कॉन्फिडेंट रहे,अपने बूते सब हासिल किया.

आपने अपनी कई मुलाकातों आपने आगे बात बढ़ाते हुए कहा कि मुझे इस बात का डर नहीं है कि मैं कभी रैंक 1 पर रहूंगा कि नहीं, चूंकि मैं इस कम्पटीशन में नहीं हूँ, स्टारडम की चाहत नहीं मुझमें. पैसा मेरे लिए कभी ड्राइविंग फ़ोर्स नहीं हो सकता, मेरा काम मेरा ड्राइविंग फ़ोर्स है.

फिल्म छिछोरे में आपके ही किरदार ने बेटे को सुसाइड से बचा कर लूजर से विनर बनाया था.वहीं रोल जब रियल लाइफ में निभाने की बारी आई तो आप पीछे क्यों नहीं मुड़े. आपने यह कदम क्यों उठाया वजह जानना ठीक उतना ही मुश्किल होगा, जितना पानी से पानी पर पानी लिखना. लेकिन यह छोटे शहर की लड़की, चाहे जो भी वजह रही हो, जिंदगी के पिच पर धोनी की तरह अपनी गिरते, संभलते और फिर अपनी पारी खेलते देखना चाहती थी.असल जिंदगी के उतार –चढ़ाव में बागी होते देखना चाहती थी. ठीक सोन चिड़िया वाले बागी की तरह.

 ओये मुम्बईकर


अपुन को न आज एक  लेटर सुनाने का है

तुझको कुछ बात याद दिलाने का है

अभी जो तू बाहर जाएगा

तो गारंटी है सबकी वाट लगाएगा

तो सुन मेरी बात, कान खोल कर

ओये मुंबई कर तू सब्र कर

थोड़ा सब्र कर, तू घर से बाहर मत निकल

 

1. तूने अपुन को जब-जब बुलाया रे

अपुन विरार से चर्चगेट भी भाग के आया रे

दादर में तुझको वडा पाव भी खिलाया रे

अखा ठाणे-पनवेल घुमाया रे

और मेरी वफादारी का तूने ये रिजल्ट दिखाया रे

कि कोरोना वायरस में अपुन का नम्बर अव्वल आया रे

 


अपुन आजतक कभी संडे भी नहीं मनाया था

आज तक अपने हिस्से एक भी छुट्टी नहीं आया था

इस बार अपुन ने वीआआईपी जैक लगाया है

तब जाकर होलीडे अपने पास आया है

चल इसी बात से बहलाले मन

तो मुम्बैकर, थोड़ा ठहर,  तू सब्र कर

 

3. अपुन लोकल में फिर से गर्दी में जगह बनायेंगे न

विल्ले पार्ले से मीरा रोड तक धक्का खाते जाएंगे न

शाम में जोर-जोर से आरती गायेंगे न

डिब्बा वालों का लाया खाना उँगलियाँ चाट के खायेंगे न

गणपति में अखा मुंबई में झूमते नाचते जायेंगे न

तू  टेंशन मत ले, न फ़िक्र कर



 

4. चल, अपुन तुझसे करता है गॉड प्रोमिस

 जुहू बीच में पाव भाजी के चटखारे लगाइंगा ना

पानीपूरी जम कर फूल प्लेट खाइंगा ना

वीकेंड पर क्या, 

चल तेरे को वीक डेज पर भी डेट पर ले जा इंगा ना

मरीन ड्राइव पर लेट नाईट शिफ्ट भी लगा इन्गा ना

हाजी अली का जूस भी अपुन अपने खर्चे पर पिला इंगा न

सिद्धि विनायक के मोदक भी दिला इंगा न



अभिताभ का बंगला भी देख लेना जी भर कर

बैंड स्टैंड पर मन्नत की फोटो भी खींचा लेना मन भर कर  

बस एक बार कमबैक कर  तो  ले शहर



मुंबई कर ,  तू याद कर 

तूने ही तो  मिलकर आतंकवाद को नाको चने चबावाया है न

जब जब बाढ़ आया, एक दूसरे को डूबने से तूने ही तो बचाया है ना

तो इस बार भी मेरा साथ देकर, कोरोना को भगाएंगे मिल कर





 

5. ऐसे तो हर दिन तेरे को घर जल्दी जाने की  खूब घई रहती थी

चाहे लोकल में कितनी भी हो गर्दी,

अगले का वेट करने में तेरे को सुई चुभती थी

फिर अभी काये को वहीं घर कांटने को दौड़ता है

जबकि अभी तो तेरा कितना ट्रेवलिंग टाइम बचता है

अपनों के साथ रहने में किस बात का है डर

इसको ऐसे देख न, जैसे तू गया है फॅमिली होली डे पर

 

6. चल अब एक जरूरी काम कर

अपने चश्मे का शीशा साफ़ कर

और देख आँखें खोल कर

नर्स, डॉक्टर्स, पुलिस पर किस तरह गिरा है कहर

एक बार ज़रा देख सोच कर

सही खबर के लिए कैसे भटक रहे हैं वह रोड पर

बैंक वाले भी डटे हैं हर मोड़ पर

कचरे वाले से दो बोल मीठे बोल कर

सबको तू सैल्यूट कर  

अपने मुखिया की बात सुन कान खोल कर

ओये मुंबई कर  तू बाहर मत निकल   

अब तू अपुन से पूछेगा ये सब अपुन काये को बकता है

इतना 19-20 अपुन किस हक़ से बोलता है

तो अपुन को एक इच बात कहने का है

ओये मुम्बकर, तू अपुन के हार्ट में बसता है

क्यूंकि मुंबई तू मेरी जान है

ये अपुन सीना ठोक के कहता है..