20130429

जीवन में शामिल सिनेमा

urmila kori


आस्था का नया नाम जय संतोषी मां

फिल्म ने आस्था को भी एक नया चेहरा और नाम दिया है- संतोषी मां. 1970 में जब ‘जय संतोषी मां’ रिलीज हुई थी, तब ऐसी किसी देवी के नाम से शायद ही कोई परिचित था. भारतीय पुराणों में भी ऐसी किसी देवी का जिक्र नहीं था. लेकिन इस फिल्म की रिलीज के बाद यह देवी पूरे देश में पूजी जाने लगीं. 16 शुक्रवार का व्रत घर-घर में आम हो चला था. यही नहीं, जब यह फिल्म सिनेमाघरों में रिलीज हुई थी तब सिनेमाघर मंदिर बन गये थे. दर्शक सिनेमाघर में नारियल फोड.कर जय-जयकार करते हुए नंगे पैर दाखिल होते थे. फिल्म के शुरू होने से पहले आरती की जाती थी. देवी के रूप में अनिता गुहा को देखकर परदे पर दर्शक फूल, पैसे और चावल र्शद्धा से फेंकते थे. जब ‘मत रो राधिके’, गीत बजता, तो महिलाएं रोने लगती थीं. सिनेमाघर के बाहर दानपेटी की भी व्यवस्था थी. आस्था को शायद ही किसी फिल्म ने इस तरह परदे पर परिभाषित किया हो.

बॉलीवुड का असर दर्शकों पर इस कदर हावी रहा कि दर्शक सितारों को भी भगवान मान बैठे. कोलकाता के दक्षिणी भाग में अमिताभ बच्चन के नाम पर एक भव्य मंदिर है. इसमें उनके जूते रखे गये हैं. मंदिर अमिताभ के पोस्टर्स से सजा हुआ है. अमिताभ चालीसा भी पढ.ी जाती है. वहां उनके प्रशंसक जो शॉल ओढ.ते हैं उस पर ऊं अमिताभ नम: लिखा है. बिग बी के अलावा कोलकाता में शाहरुख खान भी बहुत लोकप्रिय हैं. कोलकाता में शाहरुख खान के नाम पर भी मंदिर स्थापित किया जायेगा. जिसमें उनके छैंया-छैंया गीत वाला जैकेट, मोहब्बतें का वायलिन रखा जायेगा.

नेगेटिव-पॉजिटिव इफेक्ट्स

फिल्म ‘एक दूजे के लिए’ की स्पेशल स्क्रीनिंग के दौरान निर्माता एल वी प्रसाद ने शोमैन राजकपूर से जब फिल्म पर अपनी प्रतिक्रिया देने को कहा तो राजकपूर ने कहा कि अगर आप अपनी फिल्म का अंत बदल दें तो यह फिल्म सुपरहिट हो जायेगी, क्योंकि भारतीय दर्शकों को हैप्पी एंडिंग पसंद है. वे फिल्म के अंत में हीरो हीरोइन का मरना पसंद नहीं करते हैं. लेकिन एल वी प्रसाद ने राजकपूर की बात नहीं मानी. उनका फैसला सही निकला, क्योंकि दर्शकों को इस फिल्म का अंत रुला गया. इसके बाद इस तरह के अंत वाली और फिल्में भी बनीं. वह दौर था जब फिल्म के किरदार बासु-सपना की तरह ही हर प्रेमी जोड.ा अपने नाम को दीवारों पर लिखकर अपने प्यार को अमर कर देना चाहता था.

रंग दे बसंती की अमिट छाप

2006 में आयी राकेश ओम प्रकाश मेहरा की फिल्म ‘रंग दे बसंती’ ने भारतीय समाज पर अपनी अभूतपूर्व छाप छोड.ी है. फिल्म के उपशीर्षक अ जनेरेशन अवेकन ने वाकई भारतीय युवाओं को जगा दिया था. इसी फिल्म से प्रेरणा लेकर इंडिया गेट पर मोमबत्ती जला के लोगों ने जेसिका लाल और प्रियदर्शनी मट्टू की हत्या के दोषियों को सजा दिलाने लिए मोर्चा निकाला. आज भी शांति से मोर्चा निकालने के लिए फिल्म के दृश्य का इस्तेमाल किया जाता है.

गांधीगिरी की धूम

महात्मा गांधी के गांधीवादी सिद्धांत को राजकुमार हीरानी की मुत्राभाई सिरीज की फिल्मों ने जन जन तक पहुंचा दिया. अगर ऐसा न होता तो मुंबई में ट्रैफिक नियम तोड.ने पर लोगों को समझाने के लिए गांधीगिरी का फॉर्मूला न अपनाया गया होता था. फूल देकर विरोध दर्ज कराने वाला गांधीगिरी के इस हिट फार्मूले को आम से लेकर खास सभी ने समय-समय पर अपनाया है.



प्राण के नाम से नफरत

ेआम दर्शकों ने अगर सितारों को सर पर बिठाया है, तो कभी ऐसा भी हुआ है कि उनके किरदारों से नफरत भी की है. 60 और 70 के दर्शक मशहूर चरित्र अभिनेता प्राण नाम के साथ ऐसा आंतक जुड. गया था कि उस दौर में किसी को अपने बेटे का नाम प्राण रखना नागवार गुजरता था. इसी वजह से 2004 में बाकायदा प्राण के परिवार के लोगों ने प्राण नाम वाले शख्स की तलाश शुरू की. सबसे बड.ी उम्र और सबसे छोटी उम्र के प्राण नाम वाले शख्स को बाकायदा पुरस्कार भी देने की चर्चा हुई थी.आस्था का नया नाम जय संतोषी मां

फिल्म ने आस्था को भी एक नया चेहरा और नाम दिया है- संतोषी मां. 1970 में जब ‘जय संतोषी मां’ रिलीज हुई थी, तब ऐसी किसी देवी के नाम से शायद ही कोई परिचित था. भारतीय पुराणों में भी ऐसी किसी देवी का जिक्र नहीं था. लेकिन इस फिल्म की रिलीज के बाद यह देवी पूरे देश में पूजी जाने लगीं. 16 शुक्रवार का व्रत घर-घर में आम हो चला था. यही नहीं, जब यह फिल्म सिनेमाघरों में रिलीज हुई थी तब सिनेमाघर मंदिर बन गये थे. दर्शक सिनेमाघर में नारियल फोड.कर जय-जयकार करते हुए नंगे पैर दाखिल होते थे. फिल्म के शुरू होने से पहले आरती की जाती थी. देवी के रूप में अनिता गुहा को देखकर परदे पर दर्शक फूल, पैसे और चावल र्शद्धा से फेंकते थे. जब ‘मत रो राधिके’, गीत बजता, तो महिलाएं रोने लगती थीं. सिनेमाघर के बाहर दानपेटी की भी व्यवस्था थी. आस्था को शायद ही किसी फिल्म ने इस तरह परदे पर परिभाषित किया हो.

बॉलीवुड का असर दर्शकों पर इस कदर हावी रहा कि दर्शक सितारों को भी भगवान मान बैठे. कोलकाता के दक्षिणी भाग में अमिताभ बच्चन के नाम पर एक भव्य मंदिर है. इसमें उनके जूते रखे गये हैं. मंदिर अमिताभ के पोस्टर्स से सजा हुआ है. अमिताभ चालीसा भी पढ.ी जाती है. वहां उनके प्रशंसक जो शॉल ओढ.ते हैं उस पर ऊं अमिताभ नम: लिखा है. बिग बी के अलावा कोलकाता में शाहरुख खान भी बहुत लोकप्रिय हैं. कोलकाता में शाहरुख खान के नाम पर भी मंदिर स्थापित किया जायेगा. जिसमें उनके छैंया-छैंया गीत वाला जैकेट, मोहब्बतें का वायलिन रखा जायेगा.

नेगेटिव-पॉजिटिव इफेक्ट्स

फिल्म ‘एक दूजे के लिए’ की स्पेशल स्क्रीनिंग के दौरान निर्माता एल वी प्रसाद ने शोमैन राजकपूर से जब फिल्म पर अपनी प्रतिक्रिया देने को कहा तो राजकपूर ने कहा कि अगर आप अपनी फिल्म का अंत बदल दें तो यह फिल्म सुपरहिट हो जायेगी, क्योंकि भारतीय दर्शकों को हैप्पी एंडिंग पसंद है. वे फिल्म के अंत में हीरो हीरोइन का मरना पसंद नहीं करते हैं. लेकिन एल वी प्रसाद ने राजकपूर की बात नहीं मानी. उनका फैसला सही निकला, क्योंकि दर्शकों को इस फिल्म का अंत रुला गया. इसके बाद इस तरह के अंत वाली और फिल्में भी बनीं. वह दौर था जब फिल्म के किरदार बासु-सपना की तरह ही हर प्रेमी जोड.ा अपने नाम को दीवारों पर लिखकर अपने प्यार को अमर कर देना चाहता था.

रंग दे बसंती की अमिट छाप

2006 में आयी राकेश ओम प्रकाश मेहरा की फिल्म ‘रंग दे बसंती’ ने भारतीय समाज पर अपनी अभूतपूर्व छाप छोड.ी है. फिल्म के उपशीर्षक अ जनेरेशन अवेकन ने वाकई भारतीय युवाओं को जगा दिया था. इसी फिल्म से प्रेरणा लेकर इंडिया गेट पर मोमबत्ती जला के लोगों ने जेसिका लाल और प्रियदर्शनी मट्टू की हत्या के दोषियों को सजा दिलाने लिए मोर्चा निकाला. आज भी शांति से मोर्चा निकालने के लिए फिल्म के दृश्य का इस्तेमाल किया जाता है.

गांधीगिरी की धूम

महात्मा गांधी के गांधीवादी सिद्धांत को राजकुमार हीरानी की मुत्राभाई सिरीज की फिल्मों ने जन जन तक पहुंचा दिया. अगर ऐसा न होता तो मुंबई में ट्रैफिक नियम तोड.ने पर लोगों को समझाने के लिए गांधीगिरी का फॉर्मूला न अपनाया गया होता था. फूल देकर विरोध दर्ज कराने वाला गांधीगिरी के इस हिट फार्मूले को आम से लेकर खास सभी ने समय-समय पर अपनाया है.



प्राण के नाम से नफरत

ेआम दर्शकों ने अगर सितारों को सर पर बिठाया है, तो कभी ऐसा भी हुआ है कि उनके किरदारों से नफरत भी की है. 60 और 70 के दर्शक मशहूर चरित्र अभिनेता प्राण नाम के साथ ऐसा आंतक जुड. गया था कि उस दौर में किसी को अपने बेटे का नाम प्राण रखना नागवार गुजरता था. इसी वजह से 2004 में बाकायदा प्राण के परिवार के लोगों ने प्राण नाम वाले शख्स की तलाश शुरू की. सबसे बड.ी उम्र और सबसे छोटी उम्र के प्राण नाम वाले शख्स को बाकायदा पुरस्कार भी देने की चर्चा हुई थी.

हम जूनियर...बोल रहे हैं




अनुप्रिया अनंत 
फिल्म डुप्लीकेट में शाहरुख खान के डबल रोल थे. शाहरुख खान ने इस फिल्म के प्रोमोशन के दौरान बार बार यही संवाद दोहराया था कि डबल शाहरुख सिंगल रे...ये है मेरा डुप्लीकेट ...दरअसल, शाहरुख का यह संवाद उन तमाम डुप्लीकेट की जिंदगी को बयां करता है, जो हिंदी सिनेमा के सुपरस्टार की हमशक्ल  हैं तो लेकिन सुपरस्टार और उनके हमशक्ल के बीच एक सिंगल रे है. यानी एक रेखा है. और यही रेखा एक सुपरस्टार और उनके हमशक्ल के बीच की खाई को दर्शाती है. जी हां, हम बात कर रहे हैं हिंदी सिनेमा के सुपरस्टार्स के हमशक्ल यानी उनके डुप्लीकेट कहे जानेवाले हमशक्ल की, जिन्होंने शक्ल तो हूबहू सुपरस्टार की मिली. लेकिन किस्मत नहीं. मगर इन्होंने खुद की किस्मत खुद से बनायी. ये डुप्लीकेट हम आपमें से ही एक थे, सुपरस्टार के फैन. हिंदी सिनेमा के 100 साल पूरे होने के अवसर पर अनुप्रिया अनंत ने जमीन के कुछ ऐसे ही सुपरस्टार्स की जिंदगी में झांकने की कोशिश की और जानने की कोशिश की कि आखिर  कैसे ये उनकी आम जिंदगी फिल्मी हो गयी. आखिर कैसे वे किसी और के नाम की जिंदगी जीने लगे. क्या शक्ल भर मिल जाने से आपको सुपरसितारा हैसियत भी मिल जाती है.
हम उन्हें जूनियर शाहरुख़...जूनियर अमिताभ...जूनियर अनिल... के नाम से जानते हैं. कुछ लोग इन्हें डुप्लीकेट भी बुलाते हैं. ये हमें कहीं भी रास्ते पर नजर आते हैं. उनके पास सुपरस्टार्स की तरह बड़ी गाड़ियां नहीं हैं. ब्रांडेड जूते भी नहीं हैं और न ही ब्रांडेड जूते.  लेकिन फिर भी वह आम गलियों के सुपरस्टार हैं, क्योंकि बस एक चीज है. जो सुपरस्टार और उनके बीच मिलती है. वह है उनकी शक्ल. और उसी एक वजह से वे अपनी पूरी जिंदगी किसी सुपरस्टार को समर्पित कर देते हैं. कितने लोग जानते होंगे कि अमिताभ बच्चन के हमशक्ल में नजर आनेवाले व्यक्ति का वास्तविक नाम फिरोज है. आरिफ खान को लोग जाने या ना जाने लोग उन्हें जूनियर अनिल कपूर के नाम से जरूर जानते हैं. अनिल कपूर के हमशक्ल व जूनियर अनिल कपूर के नाम से विख्यात आरिफ से जब मैंने एक सवाल किया कि ऐसी कौन सी चीज है जो आप कर सकते हैं, अनिल नहीं. उन्होंने इसका बहुत सटीक जवाब दिया. मैं अनिल कपूर बन सकता हूं. लेकिन अनिल कपूर आरिफ नहीं बन सकते. आरिफ की यह बात दर्शाती है कि वे जानते हैं कि शक्ल पा लेने से कोई सुपरस्टार नहीं हो जाता. लेकिन इसके बावजूद वे खुश हैं कि उन्हें अनिल कपूर की शक्ल की वजह से ही एक पहचान मिली. रोजी रोटी मिली. वरना, वे वर्धा के आम फैन में से ही एक थे. वे शुरुआती दौर में अनिल कपूर की फिल्में देखते थे और फिर उनकी कॉपी किया करते थे. धीरे धीरे उनकी तरह बाल रखने लगे. मोहल्ले की लड़कियां उनके पीछे दीवानी हो गयीं, क्योंकि उनकी शक्ल अनिल से मिलती थी. इस चक्कर में जेल भी गये. सो, बाद में एक परिचित ने उन्हें समझाया कि उन्हें मुंबई जाना चाहिए. और वहां किस्मत आजमाना चाहिए. यह अनिल कपूर की मिलतीजुलती शक्ल पाने का ही नतीजा था कि उन्होंने अनिल कपूर के नाम पर कई अनिल कपूर नाइट शो किये. खुद माधुरी पहली बार जब आरिफ से मिली तो वह कंफ्यूज हो गयी थीं. मुंबई के विले पार्ले में खेल फिल्म की शूटिंग हो रही थी.  और वहीं पास में मैं अपने शो की तैयारी कर रहा था. वहां माधुरी भी थीं. तो सारे बच्चे माधुरी से आॅटोग्राफ लेकर मेरे पास आ जा रहे थे. माधुरी को वाकई लगा कि अंदर अनिल हैं. बाद में माधुरी को जब पता चला कि मैं अनिल नहीं हूं तो उन्होंने अनिल को ये बात बतायी. अनिल आये और उन्होंने मुझे गले लगा लिया. बोला जो भी काम करो अच्छा है. मैं अनिल कपूर को अपना गुरु मानता हूं. मैं जानता हूं कि मैं 100 करोड़ की फिल्म नहीं बना सकता. अनिल बना सकते हैं. बस यही एक काम है, जो मैं अनिल की तरह नहीं कर सकता...वरना( अनिल के अंदाज में बात करते हुए) अपुन राम लखन वाला लखन ही तो हैं. आरिफ मानते हैं कि वे लुकलाइक होने के बावजूद केवल अनिल कपूर के जूनियर के रूप में नहीं जाने जाते हैं. भले ही वह परदे के सामने आकर कोई अलग काम न कर सकें. लेकिन परदे के पीछे वे पुकार किसान की नामक फिल्म का निर्देशन कर रहे हैं. वह मानते हैं कि अनिल कपूर का नाम उनके लिए अन्नदाता रहा. इसलिए वे उसकी इज्जत करते हैं. लेकिन वे साथ ही यह कहना नहीं भूलते कि मैं अपनी पहचान बना रहा हूं. इससे स्पष्ट होता है कि आरिफ में अपनी पहचान बनाने की भूख आज भी जिंदा है. वही फिरोज जो जूनियर अमिताभ बच्चन के रूप में विख्यात हैं खुद को आम जिंदगी में जूनियर अमिताभ नहीं मानते. उनका कहना है कि अगर वे बिना गेटअप के किसी के सामने आ जायें तो लोग कभी उन्हें अमिताभ नहीं मानेंगे. दरअसल, वह परफॉरमर हैं. और अमिताभ की तरह एक्टिंग करते हैं. हां, जब वह उनके गेटअप और मेकअप में होते हैं सिर्फ उसी वक्त वह अमिताभ के डुप्लीकेट होते हैं. वरना, वे आमतौर पर एक सामान्य जिंदगी जीते हैं. उन्होंने खुद को अमिताभ की छवि में कैद नहीं कर रखा है. फिरोज को जब अमिताभ से  फिल्म कोहराम के दौरान पहली बार अमिताभ से मिलने का मौका मिला तो अमिताभ ने फिरोज से कहा कि अच्छा काम करते हो. करते रहो...फिरोज के लिए अमिताभ के यही दो शब्द उनके लिए हौंसला बन गये. फिरोज बताते हैं कि आज कई हमशक्ल आ चुके हैं. और उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता.चूंकि उनकी एक अलग दुनिया है. वे साउथ की फिल्मों में मुख्य विलेन का किरदार निभाते हैं और वे वहां जूनियर अमिताभ नहीं फिरोज होते हैं. सो, वे अपने काम से संतुष्ट हैं.  जूनियर नाना पाटेकर उर्फ केटी अनानाड़ा राव के जूनियर नाना पाटेकर बनने की कहानी औरों से बेहद अलग है. वे व्यवसायी थे. लेकिन उनके बिजनेस पार्टनर ने उन्हें धोखा दे दिया. गम में दाढ़ी बढ़ा ली. गांव वालों से चिढ़ाना शुरू कर दिया कि नाना नाना...फिर राव की पत् नी ने भी यकीन दिलाया कि वह नाना की तरह दिखते हैं. उस वक्त राव को गुस्सा भी बहुत आता था. सो, इस तरह उनके गम ने उन्हें जूनियर नाना बनाया. और मुंबई पहुंचा दिया. राव इन दिनों सीआइडी समेत कई फिल्मों में काम करते हैं. जहां वे राव के रूप में ही काम करते हैं. देव आनंद के हमशक्ल माने जानेवाले किशोर भानुशाली की सोच इन सबसे बेहद अलग हैं. वे मानते हैं कि वे खुशनसीब हैं कि उन्हें देव आनंद साहब की शक्ल मिली. लेकिन कई बार यह उनके लिए परेशानी का ही सबब बनती है, क्योंकि उन्हें कोई दूसरे किरदार नहीं मिलते. लोग उन्हें देव आनंद की मिमिकरी तक ही सीमित रखना चाहते हैं. कई फिल्मों में उन्हें छोटे मोटे किरदार मिले हैं, जिन्हें करना उन्हें पसंद नहीं हैं. वे मानते हैं कि कभी कभी हमशक्ल होना कैद भी बन जाता है. ताउम्र. कई बार लोगों के उपहास का कारण बनना होता है. इनसे ठीक विपरीत शत्रुघ्न सिन्हा के हमशक्ल बलबीर सिंह राजपूत अपने अभिनय को एंजॉय करते हैं. वे पार्लियामेंट वाला वाक्या याद दिलाते हुए कहते हैं कि अगर हम जैसे हमशक्ल नहीं होते तो कैसे पता चलता कि संसद में कितनी चौकसी है कितनी नहीं. उस दिन तो खुद शत्रुघ्न सिन्हा ने भी माना था कि जो काम हम नहीं कर पाये, हमारे हमशक्ल ने की. इसी तरह अहमदाबाद में एक बार ट्रैफिक रुल को समझाने के लिए ट्रैफिक पुलिस ने स्टार्स के डुप्लीकेट्स की मदद ली थी.  बलबीर मानते हैं कि हम में से कई लोग ऐसे थे जिन्हें शायद कोई नहीं जानता. इतनी बड़ी आबादी में कौन सा आम आदमी पहचान बना पाता है. लेकिन अगर हम उस भीड़ में भी अलग हो पाये तो यही खास बात है. दरअसल, यही हकीकत भी है कि सुपरस्टार्स के हमशक्ल होने की वजह से भले ही उन्हें वही किस्मत न मिली हो. कई बार उपहास का सामना करना पड़ा हो. मजाक बनना पड़ा हो. एक ही सीमा में कैद होने का दर्द हो. लेकिन इन तमाम बातों के बावजूद वे इस बात से खुश भी हैं और नाखुश भी कि वे सुपरस्टार नहीं. उनके चेहरे पर कहीं संतुष्टि है तो कहीं दर्द है. कहीं पहचान न बना पाने का तो उधार की जिंदगी जीने का दुख भी. कुछ ने इसे अपनी किस्मत मान लिया है तो कुछ इसे अपने किस्मत का चमकता सितारा. तमाम बातों के बावजूद वे इस बात से भी वाकिफ हैं कि हां, वे जानते हैं कि वे भी स्टार्स हैं...भले ही उनका आशियाना आसमां नहीं. मगर ठिकाना जमीन तो है. चलते चलते एक बात गौर करनेवाली है कि जिस तरह हिंदी सिनेमा में पुरुष सुपरस्टार्स को कॉपी कर या उनकी शक्ल या नकल करने की होड़ रही. वैसी महिला  सुपरस्टार्स में नहीं रहीं. जिस तरह पुरुष सुपरस्टार्स के डुप्लीकेट्स को आज सभी पहचानते हैं. महिला सुपरस्टार्स की डुप्लीकेट न के बराबर हैं या कोई हैं भी तो उतनी लोकप्रिय नहीं.सो, इससे दो बातें स्पष्ट होती हैं कि यहां भी पुरुषों को ही दबदबा है. या फिर हिंदुस्तानी लड़कियां कट्रीना, करीना जैसी सुंदर, सुडौल तो दिखना चाहती हैं . लेकिन कट्रीना-करीना-सी दिखना उन्हें मंजूर नहीं.

हकीकत और फसानों की एक सदी : तब्बसुम



आप उन्हें बेबी तब्बसुम के नाम से जानते हैं. टेलीविजन के इतिहास में शायद ही किसी सेलिब्रिटी टॉक शो को इतनी लोकप्रियता मिली होगी जितनी फूल खिले हैं गुलशन गुलशन को मिली थी. 21 सालों तक लगातार बेबी तब्बसुम के संचालन में इस शो का प्रसारण किया जाता रहा. इस शो की लोकप्रियता की खास वजह यह थी कि इस शो में हिंदी सिनेमा जगत की लगभग सारी हस्तियां शामिल होती थीं और सभी बहुत अनौपचारिक बातें किया करते थे. चूंकि खुद बेबी तब्बसुम भी ढाई साल की उम्र से ही हिंदी सिने जगत का हिस्सा थीं. तब्बसुम ने अपने 67 साल इस इंडस्ट्री को दिये हैं. वे हिंदी सिनेमा की रग रग से वाकिफ हैं. हर सदी से वाकिफ हैं.  ऐसे में जब भारतीय सिनेमा 100वें साल में प्रवेश कर रहा है, तो बेबी तब्बसुम ने बेहतरीन शख्सियत और कौन होतीं. हिंदी सिनेमा व हिंदी सिने जगत की हस्तियों के साथ पली बढ़ी तब्बसुम की जिंदगी सिनेमा में ही रची बसी है. हिंदी सिनेमा के  100 साल के अवसर पर बेबी तब्बसुम ने अपनी यादों के पिटारे में से हस्तियों के व्यक्तिगत जीवन से जुड़े कुछ ऐसी ही दिलचस्प किस्से अनुप्रिया अनंत से सांझा कीं...

आधी इंडस्ट्री की गोद मैं खेली, आधी इंडस्ट्री मेरी गोद में खेली
आप मेरा और हिंदी सिनेमा का रिश्ता कितना गहरा और गाढ़ा है. इसका अनुमान आप  इस बात से लगा सकती हैं कि हिंदी सिनेमा के 100 साल पूरे होने जा रहे हैं. और मैं फिलवक्त 70 साल की हूं. और इस इंडस्ट्री को मैंने 67 साल दे दिये.  लेकिन देखिए मैंने अपनी पहली फिल्म 1946 में साइन की थी. फिल्म का नाम नरगिस ही था. फिर 1951 में ही फिल्म दीदार में मुझे नरगिस आपा के बचपन का किरदार निभाने का मौका मिला था. उस वक्त मुझे नाम मिला बेबी तब्बसुम और आज भी मुझे जब कोई सम्मान मिलता है तो बेबी तब्बसुम के नाम से ही मिलता है. किसी कलाकार को और क्या चाहिए कि सीनियर सीटिजन होने के बाद भी लोग उसे बेबी तब्बसुम के नाम से ही पुकारते हैं.  शायद यही वजह है कि मैं कभी दिल से बुढ़ी नहीं हुई. दरअसल, हकीकत यह है कि आधी इंडस्ट्री की गोद में मैं खेली और आधी इंडस्ट्री को मैंने गोद में खिलाया है. मैं राजकपूर की गोद में खेली हूं और मैंने करीना, करिश्मा रणबीर को अपनी गोद में खिलाया तो इस तरह आप कह सकते हैं कि मैंने सिनेमा की पूरी सदी को जिया है. मैंने ढाई साल की उम्र से ही काम शुरू कर दिया था. तो आप खुद देख लें. मैं पिछले 67 साल से इस इंडस्ट्री का हिस्सा हूं. मेरी पहली फिल्म उस वक्त बीआर चोपड़ा अंकल जर्नलिस्ट थे और मैं उस वक्त लगभग आठ फिल्मों में बाल कलाकार के रूप में काम कर चुकी थीं. बीआर चोपड़ा आये थे. मेरा इंटरव्यू लेने. उस वक्त उन्होंने मुझसे कहा था कि तुम बहुत टैलेंटेड हो. मैं जब भी फिल्म बनाऊंगा तो तुम्हें जरूर अपनी फिल्म में लूंगा और उन्होंने अपना वादा भी पूरा किया. उन्होंने अपनी पहली फिल्म 1951 में बनायी. अफसाना. उसमें उन्होंने मुझे युवा वीणा का किरदार दिया था. बैजयंतीमाला जी ने भी जब अपने करियर की शुरुआत की थी. उस वक्त तक मैंने
18 फिल्मों में काम कर लिया था.

मधुबाला ने कहा था कभी पार्लर मत जाना
मधुबाला आपा से मैं बेहद करीब थी. मैंने उनके साथ आराम फिल्म में काम किया था. मधुबाला आपा की यह खूबी थी कि वह सुपरस्टार होते हुए भी बहुत डाउन टू अर्त थी और अपने छोटों बड़ों सबको स्रेह और सम्मान देती थी. एक बार हम यूं ही सेट पर बैठे थे. मैंने उनसे पूछा कि आप इतनी खूबसूरत कैसे हैं. इसका राज तो बताइए तो उन्होंने कहा था कि एक तो तुम कभी भी पार्लर मत जाना, चूंकि जहां तुम पार्लर गयी. समझो तुम्हारी खूबसूरती को ग्रहण लगा. और एक काम हर दिन करना. ककड़ी का जूस पिया करो. हर दिन. और इसे चेहरे पर लगाया करो. तुम हमेशा खूबसूरत दिखोगी और सच ये है कि मैं आज भी उनके इस सीक्रेट को अपनाती हूं. एक दिन मधुबाला आपा ने मुझसे पूछा कि तब्बसुम तू सुंदर भी है. टैलेंटेड भी है. फिर क्यों नहीं तुम कभी लीड हीरोइन बनती. तो मैंने जवाब में कहा पता नहीं तो उन्होंने हंसते हंसते ही इंडस्ट्री की हकीकत बता दी थी कि जब तक तुम अपने माता पिता को लेकर सेट पर आती रहोगी. कभी ये तुम्हें टॉप हीरोइन नहीं बनायेंगे. अब उन्होंने क्यों ऐसा कहा था. आप समझ सकती हैं.मधुबाला आपा ने ही कहा था कि कभी शादी के बाद फिल्मों में मत लौटना. मैं उनकी कंपनी को काफी एंजॉय करती थी. हम खूब हंसते थे और मैं उन्हें खूब चुटकुले भी सुनाती थी.

सुरैया कहती थीं कोई नहीं पूछता कि कैसे गुजार रही हूं
सुरैया आपा भले ही दुनिया की नजरों से दूर हो गयी थीं. लेकिन मेरे दिल के वे हमेशा करीब रहीं. उनके पास पैसे, शोहरत की तो कभी कमी नहीं थीं. लेकिन इसके बावजूद वे हमेशा तन्हां रहीं. उनसे एक दिन फोन पर मैंने पूछा आपा कैसी गुजर रही है...तो उन्होंने एक शेर कहते हुए जवाब दिया तब्बसुम कैसी गुजर रही है, सभी पूछते हैं...कैसे गुजार रही हूं...यह कोई नहीं पूछता. उनके इन्हीं शब्दों में दरअसल, उन्होंने अपने दिल का पूरा हालएबयां किया था कि वे कितनी तन्हां है. दकअसल, सुरैया आपा की यह बात हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की वास्तविक तसवीर दिखलाता है कि हम यहां उगते सूरज को ही सलाम करते हैं. लेकिन फिर कैसे जिंदगी बीतती है कोई नहीं जानता. यह फिल्म इंडस्ट्री की बड़ विडंबना है कि यहां  कोई बीमारी इन्हें खोखला कर जाता है. कोई मुफलिसी में मरता है तो किसी की जान तन्हाई ले लेती है. सुरैया, मधुबाला, मीना कुमारी, राजेश खन्ना को क्या कभी दौलत की कमी रहीं. लेकिन इनकी मौत की वजह तन्हाई रही. नरगिस, बेबी नाज, राज कपूर जैसे शख्सियत बीमारी की वजह से जान खो बैठे. शमशाद बेगम ने भी अपनी मृत्यु से कुछ दिनों पहले कहा था कि तब्बसुम ये इंडस्ट्री मुर्दापरस्त है. यहां मुर्दों की पूछ होती है. मरने के बाद सभी पूछते हैं. जिंदा रहने पर कोई महत्व नहीं देता. बेबी नाज की मौत पर इंडस्ट्री से केवल मैं और अमीन सयानी मौजूद थे.
नरगिस के रहा खास लगाव
मुझे नरगिस आपा से बेहद लगाव रहा. एक बार जब उन्हें मैंने अपने शो फूल खिले हैं गुलशन गुलशन में बुलाया और उनसे उनके रोमांस के किस्सों के बारे में जानना चाहा तो उन्होंने हंसते हुए कैमरे के सामने मेरी तरफ ईशारा करते हुए जवाब दिया था कि देखो इस लड़की को इसे मैंने गोद में खेलाया है और आज मुझसे मेरे रोमांस के किस्से पूछती है. मैं कहना चाहंूगी कि नरगिस इस दुनिया की उन चूनिंदा लोगों में से थीं, जो वाकई दिल की बहुत साफ महिला थीं. मैं उन्हें भी खूब शेरो-शायरी सुनाया करती थी. मैंने फिल्म दीदार, जोगन में साथ साथ काम किया था. नरगिस की मां जद्दनबाई चाहती थीं कि नरगिस दिलीप कुमार से शादी कर लें. जबकि नरगिस उस वक्त राजकपूर से प्यार करती थीं. नरगिस उन लोगों में से एक थीं, जिन्होंने कभी अपने प्यार के बारे में छुपाने की कोशिश नहीं की. सुनील दत्त साहब से शादी होने के बाद जब मैं सुनील साहब से मिली तो उन्होंने मेरा नाम टैबसम कह कर पुकारा था. मैंने उन्हें टोका कहा कि मेरा नाम तब्बसुम है. फिर वह हंस पड़े थे. नरगिस आपा को खाना बनाने और खिलाने का बेहद शौक था. हम कई बार घर पर खाना बनाया करते थे.

और यूं राज साहब ने रखा निम्मी का नाम
मेरे पापा हिंदू थे. मां मुसलिम थीं. सो, मेरे पापा ने मां को इज्जत देते हुए मेरा नाम तब्बसुम रखा था और मां मुझे पापा को इज्जत देते हुए किरण बाला के नाम से पुकारती थी. और मेरा प्यार का नाम किन्नी था. राज कपूर ने मेरे पापा और मां से कहा कि अरे आपकी बेटी का नाम आप फिल्मों में बेबी तब्बसुम क्यों देते हैं. कितना कठिन है ये नाम. पंजाबी इसे टैबसम कह देंगे...कोई कुछ और कह देगा.तो बेबी किन्नी नाम दिया करो. उस वक्त वे फिल्म बरसात की शूटिंग कर रहे थे. उसमें एक नयी लड़की कास्ट हो रही थी.उस नयी लड़की का नाम नवाब बानो था. राज अंकल ने कहा कि मैं इसका नाम किन्नी रख देता हूं. मैं वही पैर पटक पटक कर रोने लगी कि नहीं अंकल आप मेरा नाम उसे नहीं दे सकते...राज अंकल हंसने लगे और उन्होंने कहा कि चल फिर किन्नी नहीं निम्मी रख देता हूं और इस तरह नवाब बानो से वह निम्मी बनीं. मुझे राज अंकल बड़ीबी बुलाते थे. क्योंकि मेरा उच्चारण अच्छा था और मैं उनके उच्चारण को हमेशा ठीक किया करती थी.

दिलीप साहब के बाल ठीक किये थे मैंने
ैदुनिया के लिए वे दिलीप कुमार थे. मेरे लिए वह दिलीप भईया थे. मैं उस वक्त फिल्म जोगन में काम कर रही थी. हम महाराष्टÑ में ही आप्टे रिवर के पास शूटिंग कर रहे थे. दिलीप भईया अपने बालों को हमेशा गिरा कर रखते थे. और उन्हें पसंद नहीं था कि कोई उनके बाल छूएं. लेकिन मैं उनके बाद छू लिये थे और बालों को ठीक करते हुए कहा था कि बाबूजी बालों का स्टाइल ठीक कर लो वरना, गली के लड़कें आपकी नकल करने लगेंगे. उन्होंने भी उस वक्त कहा था कि किसी की इतनी मजाल नहीं थी. लेकिन बेबी तुमने मेरे बाल छू लिये. वे मुझे सेट पर कई बार चॉकलेट दिया करते थे. मैंने फिल्म मुगलएआजम के लिए भी शूटिंग की थी. मैंने मधुबाला की युवावस्था को निभाया था. लेकिन मेरे भाग कट गये थे फिल्म में. उस सेट पर भी हमने खूब मजे किये थे. दिलीप साहब ने ही के आसिफ से बोल कर सेट पर सबके लिए उनके पसंद के खाने का इंतजाम करवाया था. उस वक्त मधुबाला और दिलीप साहब के लिए मुगलई आता था. दुर्गा खोटे के लिए मराठी व्यंजन, पृथ्वीराजकपूर के लिए पंजाबी डिश आता है. आप बताएं आज के दौर में क्या कोई निर्माता या निर्देशक इतना करेगा किसी फिल्म के सेट पर.
वह दौर प्यार का था अपनत्व का था
मुझे याद है मैंने अमित जी ( अमिताभ) के साथ कई स्टेज शो किये थे. एक बार मेरे पैर में फ्रैक्चर था. और मैं स्टेज पर थी. अचानक शो के दौरान ही आग लग गयी. मैं परेशान थी. चिल्ला रही थी कि मुझे बचाओ. मैंने देखा उस भगदड़ मे ं भी अमित जी ने मेरा हाथ पकड़ रखा था. उनका यही प्यार और अपनत्व उन्हें दरअसल, सुपरस्टार बनाता है. उस दौर में लोग एक दूसरे की मदद के लिए हमेशा आगे आते थे.अब कहां वैसे गाने बनते हैं.
वह दौर शेरो शायरी, गाना बजाना, मौज मस्ती का होता था. सिर्फ फिल्मों से हमारे रिश्ते न जुटते थे न टूटते थे. उस वक्त इस इंडस्ट्री में भी दोस्त बनते थे जो ताउम्र आपका साथ निभाते थे. मधुबाला की मौत के बाद नरगिस और मैं उन लोगों में से थे जो सबसे पहले उनके घर पहुंचे थे. लेकिन इन 100 सालों में इंडस्ट्री खोखली हुई है. यहां अब लोग एक दूसरे से रंजीश रखते हैं. इस बात का दुख रहेगा .

गलियों में बॉलीवुड








photo caption : BAP
उर्मिला-अनुप्रिया
दादा साहेब फाल्के ने जब ठानी थी कि वे फिल्में बनायेंगे. उस दौर में वे चाय के हैंडल में भी कैमरा एंगल तलाशते थे. उनके दोस्तों को यह उनकी पागलपंती लगती थी. लेकिन दादा साहेब की यही पागलपंती बरकरार रही और भारतीय सिनेमा का उदय हुआ. और आलम यह हुआ कि इस सिनेमा का जादू इस कदर लोगों के सिर चढ़ कर बोलने लगा कि लोगों की आम जिंदगी में बॉलीवुड शामिल हो गया. और आलम यह हुआ कि कब सिनेमा घरों से गलियों में आ पहुंची और कब गलियों से घरों में पहुंच गयी. पता ही नहीं चला. मिथुन का लोकप्रिय डांसिंग स्टाइल, उनका हेअर स्टाइल गली मोहल्ले के हर लड़के का स्टाइल बन गया. कभी धमे्रंद्र तो कभी जीतेंद्र, कभी अमिताभ तो कभी अनिल कपूर हर किसी के अंदाज को गलियों के राजकुमार ने कॉपी करना शुरू कर दिया. गली मोहल्ले के छोटे छोटे दुकानों में दुकान जितनी बड़ी नहीं होती थी. फिल्मों के एक्टर एक्ट्रेस के पोस्टर उतने बड़े होने लगे. गलियों में स्थित ब्यूटी पार्लर की ब्रांड अंबैस्डर पहले  मधुबाला फिर  दिव्या भारती, फिर माधुरी दीक्षित और आज के दौर में कट्रीना कैफ बन गयी. मुंबई में आज भी मीरा रोड में स्थित एक ब्यूटी पार्लर का नाम मधुबाला के नाम पर है. जहां मधुबाला की आज भी बहुत बड़ी सी पोस्टर है. गलियों में आज भी किस कदर बॉलीवुड लोकप्रिय है. इसका एक बेहतरीन उदाहरण रंजीत दहिया द्वारा मुंबई की गलियों की दीवारों पर बनाई गयी बॉलीवुड की लोकप्रिय हस्तियां हैं. आपने दीवार पर दीवार शायद ही देखी होगी. लेकिन अगर आप कभी मुंबई आयें तो बांद्रा इलाके में आपको दीवार के अमिताभ, मोगेंबो, अनारकली की बेहतरीन तसवीर दिखेगी. 100 साल के सिनेमा को समर्पित रंजीत का यह योगदान दरअसल दर्शाता है कि गलियों में भी बॉलीवुड आज भी कितना जवां हैं और कितना युवा है.

चोर बाजार में रचा-बसा  बॉलीवुड
चोर बाजार के बारे में एक कहावत लोकप्रिय है कि विक्टोरिया की गिटार गुम हो गयी थी. लोगों ने उस वक्त विक्टोरिया को कहा था कि वह जाकर चोर बाजार में तलाशें वहां उन्हें गिटार मिल जायेगी. दरअसल, चोर बाजार वाकई मुंबई में स्थित एक अलग दुनिया है. यहां एक अलग ही तरह का बॉलीवुड बसता है. जहां की दीवारें
बॉलीवुड को अगर गलियों में तलाशना हो तो एक बार साउथ मुंबई स्थित चोर बाजार की सैर जरूर करनी चाहिए.  यहां आपको हिंदी फिल्मों की क्लासिक फिल्मों के पोस्टर्स आज भी मिल जायेंगे. यहां आपको शोहराब मोदी के जमाने के प्रोजेक्टर से लेकर मीना कुमारी की पाकिजा की फिल्म के फर्स्ट डे फर्स्ट शो का टिकट भी मिल सकता है. मिलन लूथरिया ने फिल्म वन्स अपन अ टाइम में इस्तेमाल किये गये बॉटल व गन उन्होंने चोर बाजार से ही खरीदे थे. द डर्टी पिक्चर्स में एक बड़े से नगाड़े पर डांस करते नजर आ रहे हैं. वह नगाड़ा चोर बाजार का ही था. जब भी अनिल कपूर ने रियलिस्टिक किरदार निभाये हैं. फिर चाहे वह वो सात दिन से लेकर मिस्टर इंडिया तक़ उन्होंने अपने कपड़ों की खरीदारी चोर बाजार से ही की है. वहां सारे पुराने फर्निचर भी मिलते हैं. संजय लीला भंसाली ने फिल्म देवदास व अपनी अन्य फिल्मों के लिए जिन एंटिक फर्निचरों का इस्तेमाल किया है वे चोर बाजार के ही फर्निचर हैं. आमिर की आगामी फिल्म पीके में एक सीन में स्कर्ट पहने एक पुराना रेडियो सुनते नजर आ रहे हैं. उस रेडियो की तलाश आमिर ने चोर बाजार से ही की है. शुरुआती दौर में सलमान खान आमतौर पर भी अपने कपड़े चोर बाजार से ही खरीदते थे. चूंकि यहां पुराने दौर के सारे कपड़े भी मौजूद हैं. राजकुमार गुप्ता ने आमिर फिल्म की शूटिंग चोर बाजार में ही की थी.

 खाने में भी रहा बॉलीवुड का खजाना 
 दिल्ली में एक रेस्टोरेंट में करीना के नाम पर साइज जीरो पिज्जा की बिक्री होने लगी. मुंबई में एक मिठाई की दुकान है, बॉबी देओल के नाम पर केक है. साउथ मुंबई के नूर अहमदाबादी होटल में संजय दत्त चिकन फेमस है. रमजान के वक्त यह बेहद  हिट होता है. चेन्नई के एक पांच सितारा होटल में जितेंद्र के नाम पर थाली परोसी जाती है. चूंकि उस दौर में जीतेंद्र चेन्नई में काफी लोकप्रिय थे. वर्ष 2004 की बात है. रांची के रातू रोड स्थित छप्पनभोग दुकान की कई मिठाईयों के नाम अभिनेत्रियों के नाम पर स्थित थे. माधुरी दीक्षित के नाम पर वहां की स्वादिष्ट मिठाई थी. हॉलेंड में एक टयूलिप के खास फूल को ऐश्वर्य राय का नाम दिया गया है. स्वीटरजरलैंड में यश चोपड़ा इस कदर लोकप्रिय थे कि वहां के एक झील का नाम यश चोपड़ा के नाम पर रखा गया है. बांद्रा में स्थित लोकप्रिय लकी बिरयानी सलमान खान की पसंदीदा बिरयानी है. और उनकी वजह से ही यह पूरे मुंबई में पसंद की जाती है.


सिनेमा ने कैसे शहर गढ़े


अनुप्रिया -उर्मिला


गब्बर सिंह जब घोड़े पर सवार होकर आता था तो रामगढ़ में सन्नाटा छा जाता था. वर्ष 1975 से पहले रामगढ़ रांची के निकट स्थापित एक छोटे से स्थान का ही नाम था. जिससे पूरी दुनिया वाकिफ नहीं थी. लेकिन फिल्म शोले के बाद रामगढ़ शोले के रामगढ़ के रूप में विख्यात हुआ. शोले बनने के बाद अब जब भी रामगढ़ की चर्चा होती, लोग उसे शोले का रामगढ़ ही मानते हैं. फिल्म गुलाम के हिट गीत आती क्या खंडाला से पहले मुंबई व महाराष्टÑ से दूर रहनेवालों को शायद ही जानकारी थी कि खंडाला नामक कोई स्थान भी है. लेकिन फिल्म के एक गीत ने इस स्थान को लोकप्रिय बना दिया. सज्जनपुर , पालनखेत, मांडवा जैसे ऐसे कई स्थान हैं, जो सिनेमा की ही देन हैं. इन स्थानों को लोग आमतौर पर नहीं जानते थे. लेकिन फिल्मों ने इन शहरों को गढ़ा है. कुछ स्थान तो वाकई थे, लेकिन परिचित नहीं थे. सिनेमा ने उन्हें परिचित बनाया तो कुछ शहरों को फिल्मों ने खुद गढ़ा है. दरअसल, हिंदी सिनेमा में निर्देशकों ने अपनी सहुलियत और फिल्म की कहानी के मुताबिक सिनेमेटिक लिबर्टी लेते हुए इन स्थानों का इस्तेमाल किया. कुछ वास्तविक स्थान रहे तो कुछ नाम गढ़े गये. दरअसल, किसी भी फिल्म के महत्वपूर्ण तत्व में शहर की अहम भूमिका है. चूंकि कोई भी फिल्म किसी शहर की पृष्ठभूमि के बगैर अपनी कहानी नहीं कहता. निस्संदेह मुंबई व दिल्ली हमेशा से ही फिल्मकारों का पसंदीदा शहर रहा है. लेकिन ऐसे भी कई अनोखे और अलग तरह के शहर रहे, जिन्हें फिल्मकारों ने अपनी फिल्मों के लिए चुना और ये फिल्म ही उन शहरों की पर्याय बनी. हाल ही में अपने दोस्तों के साथ हमें अलीबाग जाने का मौका मिला अलीबाग मुंबई के टूरिस्ट प्लेसेज में से एक है. अलीबाग जाने के लिए मांडवा के बंदरगाह पर ही मुंबई से जानेवाली शीप रुकती है. हमारे साथ शीप में मौजूद लगभग सभी लोग मांडवा का नाम बार बार पुकार रहे थे और फिल्म अग्निपथ के सारे संवाद दोहरा रहे थे. यह फिल्म अग्निपथ में मांडवा गांव के इस्तेमाल का ही नतीजा था कि आज भी दर्शक मांडवा के नाम का जिक्र होते ही फिल्म की कहानी में खो जाते हैं. यह फिल्म की लोकप्रियता का ही कारण है कि आज अलीबाग के साथ साथ मांडवा का गांव भी हर किसी की जुबां पर है. सिनेमा के 100 सालों में वाकई सैकड़ों शहरों के नाम ऐसे हैं, जो फिल्मों की वजह से अस्तित्व में आये. कुछ नाम आज भी  स्थापित हैं
 शोले का रामगढ़
रमेश सिप्पी ने  कर्नाटक का रम्मनागढ़ स्थान फिल्म शोले के लिए चुना. इसकी खास वजह यह थी कि यह स्थान पूरी तरह से पहाड़ों से घिरा था और शोले की कहानी के मुताबिक यह स्थान बिल्कुल उपयुक्त था. चूंकि फिल्म में डाकू व गांव वालों की कहानी कहनी थी. और ऐसे माहौल के लिए यह स्थान बिल्कुल उपयुक्त था. फिल्म शोले की पूरी शूटिंग इसी स्थान पर हुई थी. रमेश सिप्पी ने ही इसे रामगढ़ का नाम दिया था. आर्ट  डायरेक्टर राम येड़कर ने शोले का पूरा सेट तैयार किया था. फिल्म में नैचुरल लाइट की भी जरूरत थी, जो इस स्थान पर पूरी तरह से मौजूद थी. उस वक्त हाइवे से रम्ननागढ़ के लिए सड़क बनवाई गयी थी. ताकि सभी आसानी से शूटिंग के लिए पहुंच पायें. रमेश सिप्पी के इसी काम की वजह से वहां के लोगों ने उस स्थान का सिप्पी नगर दे दिया था. एक  आम स्थान को देश व्यापी पहचान शोले ने ही दिलायी. आज यह लोगों के लिए टूरिस्ट प्लेस है. हाल ही में शाहिद कपूर यहां गये थे. सिर्फ यह देखने कि आखिर शोले का रामगढ़ कैसा नजर आता है. शोले की पूरी शूटिंग इस स्थान पर हुई थी. सिवाय जेल के शॉट के. वे शॉट केवल मुंबई के राज कमल स्टूडियो में फिल्माया गया है. फिल्म में जहां गब्बर का डैन था. उसके पीछे ही ठाकुर की हवेली तैयार की गयी थी. फिल्म बनने के बाद भी रामगढ़ दर्शकों के जेहन में जिंदा थी. फिल्म बनने के बाद भी लोग जब भी इस स्थान पर जाते. वे अपने टूरिस्ट गाइड को सबसे अधिक पैसे इसी स्थान पर जाने के लिए देते थे. कर्नाटक सरकार जल्द ही इस स्थान को थीम पार्क में बदल रही है. इस स्थान पर जो भी इसकी देख रेख के लिए स्टाफ सभी गब्बर के गेटअप में ही नजर आयेंगे. रामगढ़ के शोले, रामगढ़ की मौसी, रामगढ़ की धन्नो और रामगढ़ के जय वीरू और बसंती हिंदी सिनेमा में हमेशा याद किये जाते रहेंगे.
मांडवा
नाम: विजय दीनानाथ चौहान, गांव मांडवा
फिल्म अग्निपथ में मांडवा गांव को लेने की खास वजह यह थी कि विजय दीनानाथ चौहान का किरदार बहुत हद तक वास्तविक मुंबई के डॉन मान्या सुर्वे पर आधारित था और वास्तविकता में मान्या सुर्वे मांडवा बंदरगाह का इस्तेमाल अपने काले धंधे के लिए इस्तेमाल करता था. मान्या ही नहीं. ब्रिटिश सरकार भी मांडवा बंदरगाह का इस्तेनाल इसलिए करती थी, क्योंकि मांडवा मुंबई के निकट भी है लेकिन छोटे से गांव होने की वजह से यह कानून की नजरों से दूर था. यहां कानून की नाक के नीचे धंधे होते थे. लेकिन कानून को जानकारी नहीं होती थी. यही वजह थी कि फिल्म में भी इसी स्थान का नाम इस्तेमाल किया गया. जबकि पुराने अग्निपथ की शूटिंग गोवा में हुई थी और अग्निपथ के नये संस्करण की शूटिंग दमन में की गयी थी.  इतिहासकार भी मानते हैं कि उस मांडवा फोर्ट का इस्तेमाल ब्रिटिश भी करते रहे थे.
खंडाला
 वर्ष 1998 में आमिर खान ने फिल्म गुलाम के एक गीत में रानी मुखर्जी से पूछा था कि आती क्या खंडाला...पूरे देश  में अचानक खंडाला लोकप्रिय हो गया. छोटे छोटे शहरों के लोगों ने भी जानकारी हासिल कर ली थी कि खंडाला नाम का भी कोई स्थान है. दरअसल, गीतकार  समीर ने अपने गीत में ही खंडाला की खूबसूरती दर्शा दी थी कि बरसात के सीजन में ही खंडाला का असली मजा है. इस गीत से पहले लोग खंडाला नामक स्थान से वाकिफ नहीं थे. लेकिन इस गाने के लोकप्रिय होने के बाद गली मोहल्ले के हर टपोरी अपनी प्रेमिका को यही गीत गाकर रिझाते थे. इस गाने का ही यह प्रभाव था कि इसके बाद मुंबई आनेवाले टूरिस्ट खंडाला की सैर किये बगैर नहीं लौटते थे. गाने का ही असर है कि आज खंडाला आकर्षक टूरिस्ट स्पॉट बन चुका है.
और पहलगांव बना बेताब वैली
राहुल रवेल की फिल्म बेताब से सनी देओल और अमृता सिंह ने अपने फिल्मी करियर की शुरुआत की थी. इस फिल्म पूरी शूटिंग कश्मीर के पहलगांव में हुई थी. इस फिल्म की शूटिंग के बाद इस स्थान का नाम बेताब वैली रख दिया गया था. पहलगांव से ही कुछ दूरी पर स्थित गुलमर्ग में ही एक स्थान में बर्फबारी होती है  और वहां बीचोबीच एक मंदिर स्थित है, जहां फिल्म आप की कसम  जय जय शिव शंकर...फिल्माया गया था. वहां के लोग आज भी इसे जय जय शिव शंकर मंदिर के नाम से ही जानते हैं. फिल्म बॉबी का गीत हम तुम एक कमरे में बंद हो...इस गाने की शूटिंग भी जिस कॉटेज में हुई थी. उस स्थान का नाम ही रख दिया गया है बॉबी हट . वहां के टूरिस्ट आज भी इन स्थानों की सैर कराना नहीं भूलते.
सज्जनपुर गांव
सज्जनपुर यूं तो मध्य प्रदेश के रेवा डिविजन का हिस्सा है. लेकिन श्याम बेनेगल की फिल्म वेलकम टू सज्जनपुर के बाद सज्जनपुर लोकप्रिय स्थानों में से एक हो गया. हालांकि फिल्म में श्याम बेनेगल ने सिनेमेटिक लिबर्टी लेते हुए इसे उत्तर प्रदेश का गांव दिखाया है. लेकिन वास्तविकता में यह मध्य प्रदेश का एक गांव हैं.
पीपली गांव
पीपली उत्तर प्रदेश और हरियाणा के बीच स्थित एक छोटा सा गांव हैं, जो कभी अस्तित्व में रहते होते हुए भी चर्चे का विषय नहीं था. लेकिन आमिर खान की फिल्म पीपली लाइव के बाद से यह स्थान अचानक चर्चे में आ गया. वहां फिल्म की रिलीज के बाद ही वहां की जमीन के दाम में 33 प्रतिशत इजाफा हो गया था. वहां के सरपंच गिरिराज सिंह के शब्दों में मैं खुद हैरत में था कि आखिर अचानक लोग यहां फार्म लैंड्स खरीदने में दिलचस्पी क्यों ले रहे हैं. बाद में मुझे समझने में आया कि यह फिल्म पीपली लाइव का असर है. और दिलचस्प बात यह थी कि पीपली लाइव के मेकर्स या आमिर खान को भी इस बात की जानकारी नहीं थी कि वाकई पीपली नामक कोई स्थान है. उन्होंने तो इसे सिनेमेटिक लिबर्टी लेते हुए गढ़ लिया था. इस फिल्म की शूटिंग मध्य प्रदेश के बदवई में हुई थी. जबकि पीपली वाकई अस्तित्व में है.
वाई
जब प्रकाश झा ने फिल्म मृत्युदंड की शूटिंग वाई में की थी. उस वक्त वहां केवल एक होटल थे. सारे स्टार्स फिल्म की शूटिंग के बाद पंचगनी जाते थे. लेकिन प्रकाश झा की फिल्में मृत्युदंड, गंगाजल, अपहरण के बाद यह स्थान बॉलीवुड के निर्देशकों की नजर में आया. फिलवक्त बॉलीवुड की अधिकतर फिल्मों की शूटिंग वाई में हो रही है. यह स्थान मुंबई से काफी नजदीक है और यहां के सारे लोकेशन फिल्म की कहानियों से मेल खाते हैं. फिलवक्त चेन्नई एक्सप्रेस, दबंग1, दबंग 2, गुलाब गैंग,  मेंटल जैसी आधी दर्जन फिल्मों की शूटिंग यही होती है. आज वहां 10 से 12 होटलों की शुरुआत हो चुकी है. वर्तमान में यह बॉलीवुड का पसंदीदा शूटिंग लोकेशन में से एक है.
पालनखेत
पालनखेत एक लोकप्रिय हिल स्टेशन है. लेकिन फिल्म राजा हिंदुस्तानी ने इसे और भी लोकप्रिय बना दिया. इसके बाद कई फिल्मों की शूटिंग यहां शुरू हो गयी.
काशीपुरा गांव
बड़ौदा जिले के काशीपुरा गांव में मदर इंडिया की शूटिंग हुई थी. यह स्थान सुनील दत्त को इतनी पसंद आयी थी कि उन्होंने अपनी दूसरी फिल्म डाकू और जवान की शूटिंग इसी स्थान पर की थी. सुनील दत्त ने इस गांव के लिए विकास के लिए भी काफी कुछ किया था. यही नहीं वे अपने बच्चों को लेकर जाते थे. इस कदर सुनील दत्त को उस गांव से लगाव हो गया था कि वहां के एक व्यक्ति की मौत पर दत्त साहब उस गांव में गये थे. वहां के गांव वालों के लिए वह फेस्टिव सीजन होता था. जब वहां फिल्मों की शूटिंग होती थी. दत्त परिवार के लिए यह गांव परिवार बन चुका था.
अररिया
फिल्म तीसरी कसम की पृष्ठभूमि में अररिया गांव दर्शाया गया है. यह गांव वाकई बिहार का वास्तविक गांव है.इस फिल्म के बाद यह गांव अचानक दर्शकों की जुबां पर चढ़ गया था. हालांकि इस फिल्म की शूटिंग बिहार के ही पुर्णिया के नजदीक स्थित भोकराया गांव में की गयी थी. कई सालों बाद फिर इसी गांव में हालिया रिलीज हुई फिल्म  जीना है तो ठोक डाल की शूटिंग यहां की गयी.

 भिंडी बाजार ( भेंडी बाजार)
दरअसल, मुंबई का यह स्थान भेंडी बाजार है. लेकिन बॉलीवुड ने ही इस स्थान को भेंडी से भिंडी बाजार बना दिया और लोगों ने इसे इसी नाम से पुकारना शुरू कर दिया.भिंडी बाजार आमतौर पर मुंबई का एक आपराधिक स्थानों में से एक माना जाता है. फिल्म भिंडी बाजार में भी इसकी यही छवि प्रस्तुत की गयी है. लेकिन दरअसल भेंडी बाजार एक गायिकी का घराना है. खासबात यह है कि इस घराने का बॉलीवुड से कनेक् शन रहा है. उस्ताद अमद अली खान से स्वर कोकिला लता मंगेशकर, मन्ना डे ने शिक्षा ली है. वही आशा भोंसले व पंकज उदास ने मास्टर नवरंग से, पंडित रमेश नांदकरणी से महेंद्र कपूर ने तालिम ली है.
धोबी घाट
किरन राव की फिल्म धोबी घाट के बाद से मुंबई के महालक्ष्मी के निकट स्थित धोबी घाट बेहद लोकप्रिय हो गया. हाल ही में शूटआउट  एट वडाला की शूटिंग यही हुई है.
इनके अलावा फिल्म शांघाई में दिखाया गया भारतनगर( मुंबई के बीकेसी इलाके में स्थित), गैंग्स आॅफ वासेपुर ( धनबाद के इलाके में मौजूद वासेपुर इलाका अब हर किसी की जुबां पर हैं.




बांबे टॉकीज : कद्रदानों ने ही कूड़ादान बना दिया...



उर्मिला कोरी
हिंदी सिनेमा के 100 साल के अवसर पर जब हम एक विशेष आयोजन की तैयारी कर रहे थे. इसी दौरान फिल्म के इतिहास के पन्ने पलटते हुए हमारी नजर टिकी एक ऐसे स्टूडियो पर, जो कभी हिंदी सिनेमा के सर्वश्रेष्ठ तकनीकी स्टूडियो में एक था. जिज्ञासा हुई कि क्या आज भी बांबे टॉकीज अस्तित्व में है भी या नहीं. सिनेमा के 100 साल को समर्पित इसी नाम से तो फिल्म का भी निर्माण किया जा रहा है तो निश्चित तौर पर बांबे टॉकीज भी जिंदा होगा. सो, हम तमाम सवालों के साथ निकल पड़े बांबे टॉकीज की खोज में. मगर अफसोस,कभी अछूत कन्या व हिंदी सिनेमा को विशेष योगदान देनेवाला यह बांबे टॉकीज आज स्टूडियो नही ं शौचालय बन चुका है. कभी बन बन चिड़िया बन के डोलूं रे में सुंदर सुंदर वृक्ष नजर आते थे. जिस स्टूडियो का कद्रदान हिंदी सिने जगत था. आज वह कूड़ादान बन चुका है. वर्तमान में बांबे टॉकीज क्या है. कैसा है. आंखोंदेखा हाल बयां कर रही हैं

मुंबई के मलाड पश्चिम में एसवीरोड और लिंक रोड के बीच स्थित है बॉम्बे टॉकीज.  लेकिन शायद ही कोई इस नाम से इसे जानता है. शायद ही किसी को पता हो कि हिंदी सिनेमा के दिग्गज  दिलीप कुमार, मधुबाला, देविका रानी, अशोक कुमार, लीला चिटनीस, महमूद,राजकपूर, सरस्वती देवी(पहली महिला संगीतकार), कवि प्रदीप, लता मंगेशकर, आशा भोंषले, किशोर कुमार और मन्ना डे जैसी प्रतिभाए  ने अपना कैरियर यहीं से शुरू  किया था.वहां के लोगों के लिए तो वह जगह अब सिर्फ बी टी कंपाऊंड है या सिर्फ बीटी. उस जगह का कितना गौरवशाली अतीत सिनेमा से जुड़ा है. किसी को इसकी न तो परवाह है और न फिक्र. वहां काम कर रहे एक युवक रतन से जब इस बारे में पूछा तो वह कहता है कि इससे हमें क्या लेना देना मैडम, हां उसके पास काम कर रहा है एक दूसरा शख्स जरूर कहता है कि हां अभी एकाध साल से कुछ एक रिपोर्टर लोग आने लगा है जिससे अपुन को मालूम हुआ कि यहां कभी फिल्म स्टूडियो हुआ करता था. जहां शूटिंग होती थी. लेकिन इससे अपना पेट नहीं भरने वाला. मुंबई में तो हर एक गली नुक्कड़ पर कभी न कभी शूटिंग हुआ ही होगा. उस शख्स ने इस बात को बड़ी आसानी से कह दिया क्योंकि उसे पता नहीं कि भारतीय सिनेमा के इतिहास में बॉम्बे टॉकीज का अहम योगदान है. शायद उस शक्स ने सही ही कहा है. सिने जगत के लोगों ने भी इसे आम स्थानों में से ही शायद एक मान लिया है तभी तो अब वह इस धरोहर की सुध भी नहीं लेते.
यह बीस और तीस के दशक की बात है फिल्में बैनर के नाम से बिकती थी. जिसमें प्रभात, राजकमल, कलामंदिर और बॉम्बे टॉकीज का नाम सबसे अहम था. खासकर बॉम्बे टॉकीज को अत्यधिक संसाधनों से युक्त अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप बेहतरीन स्टूडियो माना जाता था. कहा जाता है कि  इस स्टूडियो का तीन हजार फिल्म संदर्भ ग्रंथ वाला अपना विशाल पुस्तकालय था. बॉम्बे टॉकीज के संस्थापक हिमांशु रॉय ने उच्च शिक्षा प्राप्त प्रतिभाओं को इस संस्था से जोड़ा था. इंग्लैंड व जर्मनी के  कई कुशल तकनीशियनों ने बॉम्बे टॉकीज में काम किया जिनमें मूक फिल्मों(लाइट आॅफ एशिया, शिराज, ए थ्रो आॅफ डाइस) के प्रसिद्ध निर्देशक फ्रांजओस्टेन भी शामिल थे.लेकिन आज इसकी स्थिति बद से बदतर नजर आती है. बी टी कंपाऊंड यानि बॉम्बे टॉकीज के गेट पर ही आपको कूड़े कचरे का ढेर मिल जायेगा. सिर्फ यही नहीं हिमांशु रॉय के आॅफिस और बंगले की एक दीवार जो अब भी बी टी कंपाऊंड के बीचोंबीच खड़ी है. वह लघुशंका की जगह बन चुका है. हां एक पत्थर पर हिमांशु राय रोड़ लिखा दिख जाता है. जो कभी सरकार ने उस जगह को नाम दिया था.  दो स्टूडियो फ्लोर आज भी जर्जर अवस्था में ही सही लेकिन जीवित हैं जहां कभी दिलीप कुमार,देवआनंद और राजकपूर ने काम किया था लेकिन वहां अब सिर्फ कारखाने ही कारखाने हैं और उनसे निकलने वाला मशीनों का जबरदस्त शोर जिनके नीचे लाइटस कैमरा एक्शन की आवाजें कब का दम तोड़ चुकी हैं लेकिन इस जगह की न तो सरकार और न ही फिल्म इंडस्ट्री को सुध है.हिंदी सिनेमा जल्द ही अपने १०० साल पूरे करने जा रहा है. भारतीय सिनेमा के इस खास मौके को सेलिब्रेट करने के लिए फिल्म जगत के मशहूर डायरेक्टर्स करण जौहर, जोया अख्तर, अनुराग कश्यप और दिबाकर बनर्जी एक फिल्म बना रहे है. जिसका नाम है बॉम्बे टॉकीज लेकिन असली बॉम्बे टॉकीज की किसी को परवाह नहीं है. हिंदी सिनेमा के धरोहर को सहेजने में जुटे और बॉलीवुड में पोस्टर ब्वॉय के नाम से मशहूर  एसएम एम अउसाजा साफ शब्दों में कहते हैं कि हिंदी सिनेमा में बे दिल वाले लोग रहते हैं तभी तो इस धरोहर को कोई बचाने के लिए आगे नही ंआ रहा है. वैसे यह नई बात नहीं हैइस इंडस्ट्री में लोग वही पैसे लगाते हैं जहां पैसे मिलते हैं. हिंदी सिनेमा के लिए जमीन तैयार करने में बॉम्बे टॉकीज का अहम योगदान है लेकिन आज वह धरोहर खुद जमीनदोज हो रहा है. कुछ आम लोगों ने मिलकर सरकार से इसे बचाने की अपील भी की थी. बकायदा सरकार को अर्जीयां भी भेजी गयी थी लेकिन सरकार ने इस मामले में आंखे मूंद ली है. जिससे यह बात साफ हो गयी है कि हमारी आनेवाली पीढ़ी सिनेमा के इतिहास के समृद्ध इतिहास को जाने या न जाने इसमे इंडस्ट्री और सरकार की कोई रूचि नही ंहै . कुछ सालों के बाद बांबे टॉकीज स्टूडियो का अस्तित्व  विकीपीडिया से भी गायब हो जायेगा. वाह कितनी अनोखी बात होगी न? आनेवाली पीढ़ी अब जब भी बांबे टॉकीज का नाम लेंगी तो उन्हें अनुराग कश्यप, जोया, करन , दिबाकर की फिल्म का ही जिक्र मिलेगा. न कि हमारी सांस्कृतिक धरोहर बांबे टॉकीज स्टूडियो का .


बॉम्बे टॉकीज कंपाउड १८ एकड़ में फैला हुआ है. इस स्टूडियों की शुरुआत हिमांशु रॉय और देविका रानी ने १९३४ में की थी. बॉम्बे टॉकीज की पहली फिल्म १९३५ में रिलीज हुई जवानी की हवा थी. अपने अस्तित्व के बीस सालों में बॉम्बे टॉकीज ने 102 फिल्मों का निर्माण किया. खास बात यह है कि बॉम्बे टॉकीज ने अपनी फिल्मों के माध्यम से समाज की रुढियों और मान्यताओं को हमेशा ही चुनौती दी थी. फिल्म के निर्माण का सिलसिला १९५२ में बंद हो गया. कंपनी की आर्थिक दशा बिगड़ने की वजह से मालिकों ने स्टूडियों प्रबंधन कामगरो को दे दिया. जिसके बाद बॉम्बे टॉकीज के बैनर तले फिल्मों का निर्माण बंद हो गया. हाल ही में बॉम्बे टॉकीज के संस्थापको में से एक राज नारायण दुबे के पौत्र अभय कुमार ने  बॉम्बे टॉकीज के बैनर के नाम से फिर से फिल्में बनाने की घोषणा की है.दो फिल्में जल्द ही शूटिंग फ्लोर पर जाने की तैयारी में है. 






दर्शक हैं तो सिनेमा है, सिनेमा है तो सुपरस्टार हैं...

इस तीन मई को भारतीय सिनेमा सौ साल का हो जायेगा. सिनेमा के इस सफर की जब भी बात होती है, तो जिक्र होता है, सुपरस्टार्स का, अभिनेत्रियों के हुस्न और अदाओं का. लेकिन, अभिनेताओं को आसमान का सितारा बनानेवाले, सिनेमा को एक जुनून, एक धर्म में तब्दील कर देनेवाले करोड.ों गुमनाम दर्शकों की बात कहीं नहीं होती. सिनेमा को जीनेवाले इन्हीं दर्शकों को समर्पित १०० साल के सिनेमा पे ये विशेष आयोजन 


photo caption: ranjit dahiya BAP
अनुप्रिया- उर्मिला
मुंबई के एक छोटे से इलाके तीन बट्टी से जब एक मवाली जग्गूदादा  फिल्मों का जैकी श्राफ बनता है. चैंबूर के चॉल से आया एक दुबला पतला बड़े बड़े बालों के बीच छोटा सा मुंह वाला लड़का जब यहां आता है और (अनिल कपूर)सुपरस्टार बन जाता है. पंजाब के छोटे से गांव में टयूबल लगानेवाला मुंबई आकर सिने प्रेमियों का हीमैन बन जाता है. माटुंगा के पॉश बिल्ंिडंग की सीढ़ियों पर रहनेवाला,आलू-प्याज बेचनेवाला (मिथुन) हिंदी सिनेमा का जिम्मी स्टार बन जाता है. विरार का एक मामूली का छोकरा (गोविंदा) स्ट्रीट डांसर से बॉलीवुड का डांसिंग स्टार बन जाता है. जब एक बस कंडक्टर भारतीय सिनेमा का सबसे बड़ा सुपरस्टार( रजनीकांत ) बनता है.  वर्ली के चॉल का एक आम आदमी, जो कभी फिल्म सेट पर आर्टिफिशियल ज्वेलरी पहुंचाता था. वह हिंदी सिनेमा का जंपिंग जैक स्टार के नाम से हमेशा के लिए अमर हो जाता है. किराशन तेल बेचनेवाला बॉलीवुड का बादशाह बन जाता है. दिल्ली के एक कमरे से मुंबई के सबसे महंगे स्थान पर अपनी रियासत ( मन्नत) के रूप में खड़ा करता है. तब वह मन्नत सिर्फ शाहरुख खान की मन्नत न होकर भारत के हर एक आम आदमी के लिए इबादत की जगह बन जाती है. और तभी सिनेमा के तार जुड़ते हैं भारत के हर एक आम आदमी से. चूंकि यही वह सुपरस्टार हैं, जो आम लोगों के बीच से निकल कर खास बन गये हैं. तब एक आदमी उनकी जिंदगी को अपने सपने में जीता है. और यही से नींव पड़ती है एक आम आदमी और एक सुपरस्टार के कभी न बदल पानेवाले रिश्ते की. पुणे में स्थित शाहरुख खान की एक महिला प्रशंसक ने अपना नाम शाहरुख खान के नाम पर शाहरुख ही रखा है. तभी एक सुपरस्टार सिर्फ सुपरस्टार नहीं रहता. वह आम आदमी के परिवार का हिस्सा हो जाता है. अमिताभ बच्चन अब इलाहाबाद में नहीं रहते. लेकिन आज भी हर इलाहाबादी में अमिताभ बच्चन बसते हैं.  मुंबई आने पर अमिताभ की झलक मिले न मिले प्रतिक्षा के सामने लोग अपनी तसवीरें लेना नहीं भूलते. चूंकि भले ही उस तसवीर में अमिताभ हो न हो. आम आदमी के लिए एक तसल्ली जरूर होती है कि उन्होंने उनके घर को तो देख लिया. उनके लिए उतना ही काफी है. मुंबई आने के बाद शायद ही इलाहाबाद व उत्तर प्रदेश का कोई भी शख्स ऐसा हो,जो भईया के घर के दर्शन न करना चाहें. यह भईया कोई और नहीं अमिताभ बच्चन हैं. फिल्म घायल में सनी देओल के किरदार भी जब मुंबई दर्शन के लिए निकलता है तो यही बात दोहराता नजर आता है कि हमको भईया का घर दिखा दो. आज भी अमिताभ के घर प्रतिक्षा के बाहर हजारों लोग अमिताभ की प्रतिक्षा करते हैं. और यह सिलसिला बदस्तूर जारी है. शायद यह अमिताभ के फैन्स द्वारा उन्हें शिद्दत से दिया गया स् नेह ही है, जो अमिताभ को भी हर रविवार अपनी व्यस्त शेडयूल के बावजूद दो मिनट के लिए ही सही मगर रूबरू जरूर होते हैं. आम दर्शक के लिए उनकी एक ही झलक ही उनके सपने को पूरा कर जाती है. अनुराग कश्यप ने अपनी फिल्म बांबे टॉकीज का विषय ही यही चुना है. चूंकि वे खुद भी कभी अमिताभ के फैन हैं. तमाम आलोचनाओं के बावजूद यह दर्शक ही हैं जो सलमान खान को  वर्तमान का बॉक्स आॅफिस किंग बनाते हैं. समीक्षक मानते हैं कि उन्हें अभिनय नहीं आता. लेकिन दर्शकों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. आज भी मुंबई से लेकर छोटे शत्तरों के सिंग थियेटर का अकेला राजा सलमान ही है. दर्शक उनकी फिल्में बार बार देखते हैं, ताकि उनकी फिल्म को बॉक्स आॅफिस पर सफलता मिले. वे साइकिल से बांद्रा की सड़कों पर निकलते हैं तो उनके फैन भी साइकिल पर सवार हो जाते हैं. सुपरस्टार्स का जन्मदिन सिर्फ उनका या उनके परिवार वालों का दिन नहीं होता. ये दर्शक ही हैं, जो इसे राष्टÑीय उत्सव का दर्जा दे देते हैं. वे केक, फूल और तोहफे लेकर घंटों अपने सुपरस्टार के घर के बाहर खड़े रहते हैं. उन्हें उस वक्त किसी बात की न तो फिक्र होती है और न ही वह खुद को लज्जित समझते हैं. क्योंकि उनका सिर्फ एक ही लक्ष्य होता है. वह है उनके सुपरस्टार से मिलना.  दरअसल, दरवाजे पर खड़े अपने सुपरस्टार की एक झलक पाने के लिए ललायित दर्शकों के लिए वह आम झलक नहीं होती, बल्कि उनके सपने होते हैं, जो वे सुपरस्टार की नजर से जीने की कोशिश करते हैं. हर दर्शक यह मान लेता है कि वह सुपरस्टार विशेष कर उनके लिए ही आया है. वे उनकी एक झलक पाकर भी खुद को दुनिया के सबसे सौभाग्यशाली लोगों में से मानने लगते हैं. मन्नत में कभी शाहरुख की झलक मिले न मिले. लेकिन मन्नत के सामने शाहरुख के पसंदीदा स्टाइल में तसवीरें लेने की परंपरा आज भी बदस्तूर जारी है. दरअसल, वे आम नायक जिन्होंने आम जिंदगी से अपनी खास पहचान बनाई, आम लोगों के बीच से उठ कर शीर्ष स्थान हासिल किया. वे नायक आम जिंदगी को अधिक प्रभावित करते हैं. ये आम दर्शकों का प्यार है या पागलपन. लेकिन राजेश खन्ना को पहला सुपरस्टार बना देती है. यह आम दर्शकों का एक सुपरस्टार के प्यार में पागल होना ही था, जो चोट राजेश को लगती और दवाई उनके पोस्टर्स को लगती थी. लेकिन दर्द दर्शकों के दिल में होता था. उस दौर में राजेश के जन्मदिन पर उनका बंगला गार्डेन बन जाता था. चूंकि ट्रक भर भर कर उन्हें फूल भेजे जाते थे. यह लड़कियों का देव आनंद के लिए क्रेजी होना ही था. जो देव आनंद पर ब्लैक रंग के कपड़े पहनने पर पाबंदी लगा दी गयी थी. चूंकि उस दौर में लड़कियां उन्हें ब्लैक कपड़े में देख कर इस कदर पागल हो जाती थीं कि उन पर काबू रख पाना कठिन होता था. यह आम दर्शकों का अपने सुपरस्टार को पूजा जाना ही है, जो जमशेदपुर के पप्पू सरदार के लिए माधुरी दीक्षित को देवी बना देता है.
इन आम दर्शकों का ही पागलपन, जूनून, शिद्दत, स्रेह, पूजा या आप इसे कोई भी नाम दे दें. दरअसल, बॉक्स आॅफिस का लेटेस्ट तमगा 100 करोड़ क्लब कभी टिक नहीं सकता. अगर ये आम दर्शक न हो तों. हिंदी सिनेमा ने अपने 100 साल दर्शकों की इसी पागलपंती, प्यार, मोहब्बत के सहारे ही पूरा किया है.क्योंकि ये दर्शक ही है जो एक आम आदमी को सुपरस्टार बनाता है.
 दर्शक हैं तो सिनेमा है और सिनेमा है तो सुपरस्टार हैं...

20130416

डायन में विश्वास नहीं करता



इमरान हाशमी ने  अपनी सुझबूझ से अपनी किसिंग ब्वॉय की छवि को तोड़ कर एक वर्सेटाइल एक्टर के रूप खुद को निखारा.  सिनेमा के विशेषज्ञ उन्हें आनेवाले समय के बेहतरीन अभिनेताओं में से एक मान रहे हैं. 
इमरान  हाशमी इन दिनों सोच समझ कर अलग विषयों की फिल्मों का चयन कर रहे हैं. उन्होंने एक थी डायन का चुनाव भी कई बातों को ध्यान में रख कर किया है. बातचीत इमरान से

इमरान, क्या आप डायन जैसी चीजों में पर विश्वास करते हैं?
विश्वास नहीं करता, लेकिन मैंने ऐसी कई कहानियां जरूर सुनी है. जहां इस तरह की कई बातें होती रही हैं. लेकिन इस तरह की कहानियां बहुत इंटरेस्टिंग लगती हैं मुझे. मुंबई में रह कर भी मेरे दोस्तों यारों ने कई बार ऐसी कहानियां सुनाई है तो मुझे मजा आता है.इन सबको सुन कर. हालांकि मैं खुद इस तरह की किसी भी अंधविश्वास बातों पर मेरा भरोसा नहीं.और मेरे जान पहचान के ऐसे कई लोग हैं, जिन्होंने  इस तरह की कहानियों को अपनी वास्तविक जिंदगी में महसूस किया है.सो, मुझे लगता है कि ऐसे विषय फिल्मों की कहानियों का हिस्सा हो सकते हैं.

एक थी डायन के किरदार के बारे में बताएं और कैसी तैयारी की है आपने.
मेरे किरदार का नाम बिजॉय है. मैं इस फिल्म में एक मैजिशियन बना हूं. इल्यूजनिष्ट है. फिल्म में दो फेजेज में बिजॉय की कहानी है. एक तो बचपन का फेज है.जहां वह एक औरत से मिलता है और मानता है कि ये औरत एक डायन है. हालांकि उसकी फैमिली उसे कहते रहते हैं कि तुम पागल हो. लेकिन इवेन्शुअली वह सारी चीजें जब वह बड़ा होता है तो उसके साथ होती है. वही औरत उसकी जिंदगी में दोबारा वापस आती है. यही फिल्म का अहम हिस्सा है. फिल्म का अहम और दिलचस्प सस्पेंस यह भी है कि  फिल्म में तीन औरते हैं. तो तीनों में से आखिर कौन डायन है. यह फिल्म का खास सस्पेंस है.

किस तरह की तैयारी की है आपने?
मैं इस फिल्म में चूंकि इल्यूजनिष्ट का किरदार निभा रहा हूं तो मैंने एक मैजिशियन बनने की थोड़ी सी कला सीखी है. अतूल एक इल्यूजनिष्ट हैं, जिन्होंने इस फिल्म के लिए मेरी तैयारी करवाई है.उन्होंने कई सारे मैजिक इक्पमेंट दिखाये हैं, कई तरह के मैजिक सिखाये हैं. साथ ही हमने फिल्म के एक ड्रीम सीक्वेंस के लिए तीन चार दिनों का एक वर्कशॉप किया था. जिसमें हमने लाइव आॅडियंस के साथ यह परफॉर्म किया था तो वह काफी दिलचस्प पहलू रहा.

अब आप अलग तरह की फिल्मों का चुनाव कर रहे हैं  तो कोई खास स्ट्रेजी तय किया है ?
स्ट्रेजी तो नहीं बनाई है. लेकिन हां, मुझे अब स्क्रीप्ट अच्छी मिलने लगी है और लोगों ने भी मेरी काबिलियत को पहचाना है कि अब लोग मुझे सीरियसली लेने लगे हैं. मुझे ध्यान में रख कर स्क्रिप्ट लिखी जा रही है. मैं भी अब इन बातों का ध्यान रखने लगा हूं कि अगर मुझे कोई किरदार मिल रहा है तो एक तरह के किरदार बिल्कुल न निभाऊं. खुद को रिपीट न करूं और अगर रिपीट भी करूं तो उसमें कोई नयी बात हो. वह पुरानी नहीं लगनी चाहिए.  मैं ट्रेडिशनल मेनस्ट्रीम फिल्में न करता हूं और न ही करना चाहता हूं. किरदारों की प्राथमिकता वाले किरदार. खासतौर से फिल्म शांघाई ने इसमें मेरी बहुत मदद की. उस फिल्म में जो मेरा किरदार था. उस तरह का किरदार मैंने पहली बार निभाया था. मेरे लुक, मेरे किरदार की जितनी तारीफ हुई. मुझे भी लगा कि मुझे ऐसी फिल्में करनी चाहिए, जहां आपके किरदार के कई शेड्स हों. परफॉरमेंस को और उम्दा बनाने की कोशिश करते हैं तो लोगों का परशेप्शन खुद ब खुद बदलता ही जाता है.

क्या आप डायेरक्टर स के एक्टर हैं?
मैं बिलिव करता हूं कि जब भी मैं कोई फिल्म करूं.जो भी निर्देशक चाहते हैं. मैं वैसा करता हूं. लेकिन कई बार जब मैं काम करता हूं तो मुझे लगता है कि उस किरदार को लेकर मेरा अपना प्वाइंट आॅफ व्यू है. तो निर्देशक मेरी बात सुनते हैं और उसे अपनी स्क्रिप्ट में शामिल करते हैं. तो इस रूप में आप कह सकते हैं कि मैं डायरेक्टर्स एक्टर हूं

मां ने कहा तो कर ली एक्टिंग



अपनी मां की ख्वाहिशों को पूरा करना ही उनका लक्ष्य है. मां की इच्छा थी कि बेटी मॉडलिंग करे. तो, वह मॉडलिंग की दुनिया में आयीं और मिस इंडिया का खिताब भी हासिल किया. फिर मां की ही इच्छा थी कि बेटी बॉलीवुड में आये, तो उन्होंने तय किया कि वह फिल्मों में अभिनय करेंगी. उनके लिए मां ही उनकी जिंदगी है. बात हो रही है मिस इंडिया रह चुकीं पूजा चोपड़ा की, जो जल्द ही फिल्म ‘कमांडो’ से बॉलीवुड में एंट्री कर रही हैं. 
पूजा चोपड़ा फिल्म कमांडो से बॉलीवुड में अपनी पहली शुरुआत कर रही हैं. अपनी इस शुरुआत को लेकर वह बहुत उत्साहित हैं. लेकिन सबसे ज्यादा खुशी इस बात की है कि उनकी मां का यह सपना भी वह पूरा कर रही हैं. बातचीत पूजा से

 पूजा, अगर मिस वर्ल्ड पेजेंट में आपको पैरों में चोट नहीं आयी होती तो क्या आप अभी फिल्मों में काम कर रही होतीं.
गर मेरे पैरों में चोट नहीं लगी होती तो पता नहीं क्या कर रही होती. इनफेक्ट जब मैं यह रिगरेट अपने दोस्तों के साथ शेयर करती हूं कि यार अगर पैर नहीं टूटता और स्टेज पर जाकर हारती तो शायद इतना बुरा नहीं लगता. लेकिन पैर टूटा और मैं प्रतियोगिता से बाहर कर दी गयी थी तो वह गिला तो हमेशा रहेगा ही. वह हर्ट रहेगा ही. लेकिन मेरे दोस्त हमेशा मुझे समझाते हैं कि क्या पता अगर तेरा पैर टूट नहीं टूटा होता तो तू वह मिस वर्ल्ड की प्रतियोगिता जीत गयी होती तो शायद तू फिल्म में नहीं होती. या फिर नहीं जीतती तो भी फिल्म नहीं होती. तुझे फिल्मों में आना था और अच्छा करना था. इसलिए भगवान ने तेरा पैर तोड़ा . तो दोस्तों की बातें सुन कर लगता है. शायद मुझे बॉलीवुड में आना था. इसलिए ऐसा हुआ मेरे साथ.

तो कैसे मिली फिल्म कमांडो? 
आॅडिशन और सिर्फ आॅडिशन. कोई आसान रास्ता नहीं चुना. 100 लड़कियों का आॅडिशन हो चुका था. मैं सबसे लास्ट लड़की थी. मेरे एक कास्टिंग डायरेक्टर ने मेरे फोटोज विपुल शाह को भेजे थे.  फिर विपुल शाह से लगभग एक घंटे मेरी मीटिंग हुई, फिर कहा कि एक स्क्रीन टेस्ट दे दीजिए. मेरे स्क्रीन टेस्ट से उन्हें लगा कि मैं सिमरन का किरदार निभा पाऊंगी, क्योंकि सिमरन का किरदार भी मेरी तरह ही बिंदास किरदार है. जैसे मैं भी बहुत बातूनी हूं. फिल्म में सिमरन भी बातूनी है.

पूजा, यह आपकी पहली फिल्म है तो क्या आपको कोई खास बातें सोच रखी थी या कोई शर्ते या कुछ सीमाएं?
नहीं, ऐसा तो कोई खास क्राइटेरिया नहीं बनाया था.बस मेरा क्राइटेरिया यही था कि अगर मैं इस फिल्म से अपने करियर की शुरुआत कर रही हूं तो कम से कम या तो एक्टर या तो प्रोडयूसर या तो प्रोडक् शन हाउस किसी एक को जरूर जानती रहूं. और इस फिल्म के साथ ऐसा ही हुआ. मैंने विद्युत के साथ पहले काफी  मॉडलिंग की है और विपुल शाह की फिल्में देखी हैं. क्योंकि मैं एक न्यूकमर हूं तो मैं कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थी. इस फिल्म के साथ सबसे बड़ी खास बात यह थी कि फिल्म की स्क्रिप्ट बेहतरीन है और मुझे इस फिल्म में सिर्फ नाच गाने के लिए नहीं रखा गया है. लोगों को लग रहा है कि फिल्म केवल एक् शन फिल्म है. लेकिन फिल्म में रोमांस भी है और साथ ही साथ मुझे भी स्टंट करने के मौके मिले हैं. एक् शन इसकी यूएसपी है. लेकिन रोमांस भी इसका अहम हिस्सा है तो मेरे लिए यह फिल्म बेहद दिलचस्प थी.

 आपकी जिंदगी में आपकी मां की अहम भूमिका रही है?
मां की अहम भूमिका नहीं. मेरी मां ही मेरी जिंदगी है. वह खुश रहें. यह मेरे लिए सबसे बड़ी खुशी है. मैं फिल्मों में भी मां के लिए ही आयी हूं. मैंने जब मिस इंडिया का खिताब जीत लिया था तो मुझे लगा मां का सपना पूरा कर दिया है और अब मां के लिए एक रेस्टोरेंट खोल दूं. ताकि उन्हें किसी और के अंडर काम करने की जरूरत न पड़े. लेकिन जब मां को मैंने यह बात बतायी तो वे शांत हो गयीं.बोली तू ऐसा सोच रही है. मैं तो सोच रही थी कि अब तूम फिल्मों में जाओगी. दरअसल, मां को प्रियंका, ऐश्वर्य बेहद पसंद हैं और दोनों ही मिस इंडिया का खिताब जीतने के बाद फिल्मों में आयी और कामयाब रही तो मां का भी यही सपना था और मुझे मां की खुशी पूरी करनी थी. उन्होंने कहा कि एक्टिंग कर लो तो कर ली. कह देंगी बाय बोल दो तो बाय बोल कर चली जाऊंगी.

आपके किरदार के बारे में बताएं.
फिल्म में मेरा जो किरदार है. वह फिल्म का सेंट्रल किरदार है.फिल्म  में मेरे और विलेन के बीच की लड़ाई है और उस बीच में विद्युत आते हैं. फिल्म में हीरोइन और विलेन के कई एक् शन सीक्वेंस हैं. फिल्म में ऐसा नहीं होगा कि मेरा सिमरन का किरदार है. वह सिर्फ दो तीन गानों में डांस करके कहीं खो जायेगा.

आपने कभी ऐसा सपना देखा था कि ऐसी फिल्म से शुरुआत करूंगी या अब लगता है कि चलो एक सपना पूरा हुआ. 
मैं दरअसल एक स्पॉइलटेड चाइल्ड हूं और भगवान से मेरी बहुत लड़ाई होती थी. जब मैं ब्यूटी पेजेंट से बाहर हुई थी. लेकिन शायद भगवान ने मेरी सुन ली और मुझे यह मौका दे दिया. अब लगता है शायद सपने से ज्यादा बढ़ कर मिला है.

 देख रहे हैं कि आपके सामने चिप्स की प्लेट है.क्या आप फिटनेस का ख्याल नहीं रखतीं?
नहीं ऐसा नहीं है कि मैं फिटनेस का ख्याल नहीं रखती. पहले मैं कम खाकर रह जाती थी. लेकिन मुझे विद्युत ने समझाया कि ज्यादा खाओ और ज्यादा बर्न करो. क्योंकि इससे मैं फिजिकली स्ट्रांग रहूंगी तो अब ज्यादा खाती हूं और ज्यादा कैलोरी बर्न करती हूं. थैंक्स टू विद्युत.

गॉड आॅफ टेलीविजन




वह दौर दूरदर्शन का था. उस दौर में लोगों के लिए मनोरंजन का सीधा माध्यम टेलीविजन था. उस वक्त टेलीविजन पर कई धारावाहिक प्रसारित नहीं होते थे. चुनिंदा धारावाहिक ही प्रस्तुत होते थे. लेकिन इसके बावजूद उन धारावाहिकों के  समर्पित दर्शक थे. समर्पित भी इस कदर कि धारावाहिक aरामायण के राम ही उनके लिए ईश्वर का रूप थे. वे रविवार के दिन का इंतजार पूरे सप्ताह करते. रामानंद सागर निर्मित रामायण ने जिस कदर दर्शकों के दिलों में आस्था जगाई थी. वे आज भी बरकरार है. किसी ने राम को नहीं देखा था. लेकिन रामायण में राम का किरदार निभानेवाले अरुण गोविल ही पूरे भारत के लिए भगवान राम बन गये. लोगों ने भगवान राम की छवि अरुण गोविल में देखनी शुरू कर दी. जगह जगह उनकी पूजा की जाने लगी. लोगों ने उनके पैर छूने शुरू कर दिये. वे भक्त की तरह उनकी पूजा करने लगे. नतीजन आज तक अरुण गोविल उस किरदार से बाहर नहीं निकल पाये. आज भी दर्शक उन्हें उन्हें उसी शिद्दत और श्रद्धा से याद करते हैं. उनके बाद कई रामायण बने. कई कलाकारों ने राम की भूमिका निभायी. लेकिन जो लोकप्रियता और प्यार अरुण गोविल को मिला. वह आज तक किसी राम को नहीं मिला. कोलकाता में रहनेवाली 52वर्षीय  फुलकली देवी अपने फ्लैशबैक में जाकर बताती हैं कि उस दौर में वे किस तरह रामायण की फैन थी. चूंकि रामायण केवल एक दिन प्रसारित होता था. सो, वे उस दौर में रामायण के वीडियो मंगा कर वीसीपी पर देखा करती थीं. उनके जेहन में आज भी अरुण गोविल की वह छवि बरकरार है, जब रामायण की शुरुआत में राम कमल के फूल पर आते थे. वह देखते ही फुलकली देवी व उनका पूरा परिवार उन्हें हाथ जोड़ कर प्रणाम करता था. कुछ इसी तरह मैं भी धारावाहिक रामायण से पहली बार रूबरू अपनी दादी की वजह से हुई थी. दादी अरुण गोविल के नाम से न तो वाकिफ थी और न ही उनके नाम जानने में कोई दिलचस्पी थी. मुझे अच्छी तरह याद है किस तरह हमारा पूरा परिवार रविवार के दिन सुबह फ्रेश होकर रामायण देखा करता था. दादी की सख्त हिदायत थी कि जब रामायण चल रहा हो, कोई खाना नहीं खायेगा और टीवी की तरफ कोई पैर फैला कर नहीं बैठेगा. मेरे पड़ोस में रहनेवाली आंटी रामायण प्रसारित होने पर टीवी पर फूल चढ़ाया करती थी. उनकी अवधारणा थी कि यह फूल श्रीराम के चरणों में चढ़ाये जा रहे हैं.  वे उस धारावाहिक को दरअसल, धारावाहिक नहीं, बल्कि पूजा मानती थी और चूंकि पूजा पाठ स्वच्छता से किया जाना चाहिए. सो, वे सारी चीजें करतीं. दरअसल, हकीकत यही है कि रामायण, जय श्री कृष्णा, महाभारत जैसे धारावाहिकों ने भारतीय दर्शकों के मानस पटल को इस कदर प्रभावित किया था कि वे वास्तविक जिंदगी में भी उन किरदारों को आम इंसान न मान कर भगवान का दर्जा दे बैठे. भारतीय दर्शक ऐसे भी आस्था प्रेमी हैं. और ऐसे में जब आम इंसान पहली बार भगवान के रूप में दर्शकों के सामने आये. और जिस निश्चछलता से उन्होंने अपने किरदारों को जिया. वे दर्शकों के जेहन में आज भी जिंदा हैं. फिर चाहे वह जय श्री कृष्णा के स्वपनिल जोशी हों, महाभारत के कृष्ण का किरदार निभानेवाले नीतिश भारद्वाज हों या फिर  रामायण के अरुण गोविल हों. हिंदी टेलीविजन के इतिहास में जो लोकप्रियता इन धार्मिक धारावाहिकों से इन कलाकारों ने अर्जित की. ये किरदार उनके  लिए माइलस्टोन तो साबित हुए. लेकिन वे कभी इन किरदारों से बाहर नहीं निकल पाये. चूंकि दर्शकों ने उन्हें निकलने नहीं दिया. दरअसल, एक खास वजह यह भी थी कि इन सभी  किरदारों ने पूरे समर्पण व आस्था के साथ अपने अपने किरदारों को निभाया. किसी ने राम को नहीं देखा था. किसी ने कृष्ण को नहीं देखा था. इन सभी की छवि ग्रंथों के पन्नों तक ही सीमित थी. ऐसे में जब वे एक एक कर परदे पर अवतरित हुए तो लोगों ने मान लिया कि यह ईश्वर का ही अवतार है. अरुण गोविल जिस तरह शालीनता से अपने शब्दों का इस्तेमाल करते, जिस तरह बड़ों का आदर करते. लोगों ने मान लिया कि यही पुरुषोतम राम हैं. ठीक उसी तरह बाल कृष्णा की भूमिका में स्वपनिल की शरारतें दर्शकों को हमेशा भाती रहीं. महाभारत के श्री कृष्ण नीतिश भारद्वाज जिस तरह अर्जुन के सारथी और गीता के उपदेश जिस समझदारी और ज्ञानी की तरह दिया करते. लोगों को विश्वास हो गया कि अगर कृष्ण होते तो ऐसे ही होते. इन सभी पात्रों की लोकप्रियता देखते हुए बाद के दौर में कई निर्माताओं ने धार्मिक धारावाहिकों का निर्माण किया. कई कई रामायण बने. कई कृष्ण पर आधारित कहानियां बनी. लेकिन जो लोकप्रियता और प्यार इन कलाकारों को मिला. वैसी आस्था अन्य को नहीं मिली. लेकिन वह इतिहास एक बार फिर से दोहराया है लाइफ ओके पर प्रसारित होनेवाले धारावाहिक  देवों के देव  महादेव ने. इस धारावाहिक में महादेव शिव की भूमिका निभा रहे मोहित रैना वर्तमान में टेलीविजन के सबसे लोकप्रिय अभिनेता हैं. बुढ़े-बुजुर्ग ही नहीं. लड़कियां भी मोहित की फैन हैं. आज के दौर में जहां धार्मिक धारावाहिकों की लोकप्रियता पूरी तरह विलुप्त हो चुकी थी. ऐसे में मोहित रैना ने महादेव के रूप में फिर से साबित कर दिया है कि अब भी किसी धार्मिक धारावाहिक को कामयाबी मिल सकती है. आज के दौर में जहां एक तरफ लोग धार्मिक ढकोसलों के खिलाफ बननेवाली फिल्म ओह माइ गॉड को सराह रहे हैं. वही वह आज भी मोहित रैना को महादेव के किरदार में नहीं, भगवान शिव का अवतार ही मानते हैं. आज जबकि ज्ञान के केंद्र उसके माध्यम इतने विकसित हो चुके हैं. लेकिन इसके बावजूद दर्शकों की भावनाएं अपने ईश्वर के लिए नहीं बदली. मोहित ने इससे पहले भी कई धारावाहिकों में काम किया है. लेकिन महादेव में उन्हें जो लोकप्रियता मिली है वह अब से पहले कभी नहीं मिली थी. इससे स्पष्ट है कि इतने सालों के बावजूद दर्शकों का वर्ग बदल चुका है. लेकिन दर्शकों की भावनाएं, उनकी संवेदनाएं आज भी वही हैं. जहां वे आज भी एक कलाकार को आम व्यक्ति से भगवान बना देते हैं. फुलकली देवी जिस शिद्दत से राम के रूप में अरुण गोविल के रूप में पूजती थी. इन दिनों वे मोहित रैना को पसंद करती हैं. लेकिन हकीकत यह है कि ये सभी कलाकार जिन्होंने भगवान के किरदारों को निभाया है. आज वे उनकी वास्तविक जिंदगी पर इस कदर हावी है कि कभी कभी इन कलाकारों को खुद के वजूद खोने का डर लगा रहता है. वे भगवान कहलाना पसंद नहीं करते. लेकिन लोग उन्हें मानते हैं. वे लोगों की भावनाओं से खेलना नहीं चाहते. लेकिन वे मजबूर हैं. अरुण गोविल टेलीविजन कभी किसी और किरदार में इसलिए फिट नहीं बैठ पाये कि लोगों ने उन्हें और किसी किरदार में स्वीकार ही नहीं किया. अरुण ने फिल्मों में भी काम करने की कोशिश की. लेकिन उन्हें लोकप्रियता नहीं मिली. उन्होंने कई नेगेटिव किरदार ठुकराये. जरा सोचें और गहराई से इनकी जिंदगी में झांकने की कोशिश करें तो एक कलाकार ने खुद को लोगों की आस्था पर कुर्बान ही कर दिया. हर कलाकार की इच्छा होती है कि वे एक ही जिंदगी में कई किरदार निभाये. लेकिन कभी कभी उनकी लोकप्रियता ही उनकी सीमा बन जाती है. दरअसल, धार्मिक किरदारों को निभाते हुए इन कलाकारों न सिर्फ अपने व्यवहार, अपनी जीवनशैली बल्कि अपनी भाषा के साथ साथ शारीरिक मेहनत भी करनी होती है. कभी कभी दर्शकों के अत्यधिक प्रेम की वजह से वास्तविक जिंदगी में वे सारे किरदार उन पर हावी हो जाते हैं.

.नहीं चाहता भगवान कहलाना 
मोहित रैना, महादेव का किरदार निभा रहे हैं
हर कलाकार का यह सपना होता है कि वे लोकप्रियता हासिल करे. आज मुझे भी खुशी होती है कि मैं दर्शकों को पसंद आ रहा हूं. लेकिन साथ ही साथ तकलीफ भी होती है. जब मैं महसूस करता हूं कि किस तरह दर्शक मुझे भगवान शिव मानने लगे हैं और किस तरह वे भावनात्मक रूप से मुझसे जुड़ गये हैं. ऐसे में आप बतौर कलाकार बंध जाते हैं. आप एक साथ फिर कई किरदार नहीं निभा पाते. क्योंकि लोगों से आपको वह स्वीकारता नहीं मिलती. लोगों का आप पर विश्वास अच्छा है. लेकिन अंधविश्वास अच्छा नहीं. मैं जब जिम जाता हूं तो कई बुजुर्ग महिलाएं मेरे पैर छूने की कोशिश करती हैं. तब मुझे बहुत तकलीफ होती है. कई लोग मुझे हॉस्पिटल आने को कहते हैं कि आप आइए, आपके आने से मेरा बच्चा ठीक हो जायेगा. वे मानने लगे हैं कि मेरे रूप में भगवान शिव अवतरित हुए हैं. जबकि हम सिर्फ वह किरदार निभा रहे हैं. मैं वास्तविक जिंदगी में बिल्कुल शिव की तरह नहीं हूं. हां, मैंने इस किरदार को निभाते हुए यह जरूर जाना कि भगवान शिव कैसे थे. उनकी क्यों इतनी महिमा है. लेकिन लोगों ने भगवान शिव के रूप में जो मुझे महिमामंडित कर दिया है. वह नहीं होना चाहिए. मैं वास्तविक जिंदगी में लार्जर देन लाइफ जिंदगी बिल्कुल नहीं जीता.  हां, यह जरूर है कि चूंकि मैं यह किरदार निभा रहा हूं तो मैं अपने शारीरिक बनावट पर काम करता हूं. काफी मेहनत करता हूं खुद को फिट रखने के लिए, क्योंकि हमें अधिकतर वक्त बिना कपड़ों के शूटिंग करनी पड़ती हैं और कोई भी दर्शक भगवान शिव को मोटा होते हुए नहीं देख सकता. तो मैं चाह कर भी कई घंटों की शूटिंग के बावजूद जिम जाता हूं. वर्कआउट करता हूं. कभी कभी जब मैं आम जिंदगी जीने की कोशिश करता हूं तो थोड़ी मुश्किलें आती हैं. अगर कभी गुस्सा आया है किसी पर तब भी आप सड़क पर बुरी तरह रियेक्ट नहीं कर सकते. किसी को खरी खोटी नहीं सुना सकते, क्योंकि आप भगवान शिव हैं. ऐसे मैं मैं रैना को मिस करता हूं.यह अलग बात है कि मैं पार्टी नहीं करता. लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं कि कभी मैं पार्टी करना चाहूं तो लोग कहें देखो शिव बना फिरता है और पार्टी कर रहा है. कभी कभी बुजुर्ग महिलाओं या दुखी परिवार वाले लोग मुझसे मिलने आते हैं कि मेरे आशीर्वाद से सब ठीक हो जायेगा. तो उस वक्त खोफ्त होती है. ऐसे किरदारों को निभाते वक्त आप 24 घंटे उसी किरदार को जीते रहते हैं. लेकिन दर्शकों के प्यार से अभिभूत भी हूं. इसी प्यार के लिए कभी मेहनत करता था. पहले जो धारावाहिक किया. उसमें लोगों ने उतना प्यार नहीं दिया था. बस, डर एक ही बात का लगता है कि कभी वास्तविक जिंदगी में कुछ चीजें हो जायें और फिर अचानक से लोगों की छवि टूट जाये. तो, मैं लोगों को भ्रम में नहीं रखना चाहता. जितनी कोशिश यही करता हूं कि लोगों को बताऊं कि मैं सिर्फ अभिनय कर रहा हूं. भारतीय दर्शकों की यह खूबी और खामी दोनों है कि वे आस्तिक बहुत ज्यादा हैं और वे काफी इमोशनल हैं. मेरी एक भी भूल को वह कभी माफ नहीं कर पायें शायद.
अरुण गोंविl, रामायण के राम
मुझे आज भी याद है. गुजरात के जिस इलाके में जिस गांव में हम रामायण की शूटिंग किया करते थे. वहां हजारों की संख्या में लोग आते थे. मुझसे मिलने. वे आकर सेट पर यही कहा करते थे कि वे श्रीराम के दर्शन के लिए आये हैं. वे मेरे लिए मंदिर बनवाने तक को तैयार थे. वे मुझे देखने नहीं मेरे दर्शन के लिए आते थे. मैं किसी ट्रेन से जाता तो लोग उठ कर हाथ जोड़ कर खड़े हो जाते. गरीब मुझसे आकर कहते कि उनकी मदद करूं. ऐसे में बहुत तकलीफ होती थी कि मैं भी तो उनकी तरह ही आम आदमी हूं. उस दौर में बस कंडक्टर बताया करते मुझे कि किस तरह जब तक रामायण का प्रसारण होता था. वह बस नहीं चलाता था. दरअसल, मैं मानता हूं कि हर व्यक्ति इस दुनिया में परेशान है और हर कोई भगवान की शरण में जाकर शांति महसूस करता है. वह पूरी जिंदगी भगवान की खोज में लगा रहता है और ऐसे में जब हम कलाकार भगवान के रूप में उनके सामने आते हैं वे हमें ही अपना भगवान मान लेते हैं. उस दौर में लोग मुझे छूना चाहते थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि उन्होंने भगवान को छू लिया है. उनके चेहरे पर जो उल्लास होता था. इस्टर्न यूपी के एक गांव में हम गये थे. वहां किसी ने हमें देख लिया था. पूरे गांव में हल्ला हो गया कि रामजी आ गये हैं. अब हर घर में रामायण का पाठ करने लगे लोग़. राम का किरदार निभाते निभाते जो मेरी जिंदगी में बदलाव आया वह यह कि मैं पहले से ज्यादा लॉजिकल हो गया था. रियल लाइफ में काफी रिजनिंग करने लगा था.जो शायद परिवार और दोस्तों के बीच ठीक नहीं था. मैं इस बात से खुश हूं कि लोगों ने मुझे जो प्यार दिया है. वह ऐतिहासिक प्यार है. कभी न खत्म होने वाला प्यार है. लेकिन मैं सिर्फ और सिर्फ राम बन कर ही रह गया. इस बात का थोड़ा तो मलाल है. राम की भूमिका निभाते निभाते लोगों ने मान लिया था कि मैं पुरुषोतम हूं. कोई गलतियां नहीं कर सकता. वे मेरी एक भी चूक को माफ नहीं करते.  यही नहीं मैं कभी पार्टियों में अगर कभी थोड़ा अलग खाना खाने लगूं तो लोग आंखें दिखाते थे कि मैं ऐसा क्यों कर रहा हूं जैसे मैं कोई पाप कर रहा हूं. आज भी मैं इन बातों का ख्याल रखता हूं कि किसी को दुखी न करूं. तो कहीं थोड़ी सीमा महसूस होती है. लेकिन एक लीजेंसी जो मुझे मिली है. हर कलाकार को नहीं मिल पाती तो इस बात की खुशी भी है. और संतुष्टि भी.
नीतिश भारद्वाज, महाभारत के  कृष्ण 
मैं मानता हूं कि महाभारत में कृष्ण का किरदार निभाने से मुझे सबकुछ मिल गया. खासतौर से जीवन जीने का एक मार्ग दिखा दिया. कृष्ण को निभाने के बाद जीवन ने इतनी सारी चुनौतियां सामने रख दी कि अब गीता को जीना पड़ता है. निस्संदेह गीता में जीवन का पूरा रहस्य है. लेकिन चूंकि लोगों ने मुझे कृष्ण बना डाला. अब गीता को जीता हूं मैं. मुझे लोगों का बहुत ज्यादा प्यार मिला और लोग आज भी मुझे याद करते हैं. ये मेरे लिए गर्व की बात है. प्यार से ज्यादा लोगों का विश्वास है कि ये व्यक्ति कभी कोई गलत काम नहीं कर सकता. तो शायद लोगों के आस्था की वजह से ही कभी गलत रास्ते पर जाने के बारे में सोचा भी नहीं. लोगों के प्यार ने ही बार बार रोक लिया. जब गलतियां होती भी तो उसे खत्म करने की कोशिश करता लगता कि अरे लोग क्या कहेंगे. मुझे उन लाखों लोगों का विश्वास नहीं तोड़ना है. गीता में भी लिखा है कि आप जैसा आचरण रखेंगे, लोग मानस भी वैसा ही अनुशरण करेंगे. कृष्ण के किरदार ने मेरी हिंदी भाषा का दुरुस्त किया. मेरा ज्ञान का लेवल बढ़ाया. अच्छा लगता है जब लोग आज भी कहते हैं कि वे कैलेंडर में भगवान कृष्ण की जगह मेरी तसवीर लगाते हैं. जयपुर में जब मैं शूटिंग कर रहा था. वहां हमें कुरुक्षेत्र की लड़ाई का सीक्वेंस करना था. लेकिन वहां भीड़  तब तक खत् म नहीं हुई, जब तक उन्हें कृष्णजी के दर्शन नहीं हुए.मैं लगभग 2 घंटे तक वहां कृष्ण बन कर रहा था वहां. यह दर्शकों का प्यार था. उनकी आस्था थी. जो मैं कभी नहीं भूलंूगा. लोग मेरी पत् नी से भी पूछते थे कि वह राधा हैं मेरी या मेरी रुकमीणी. कृष्ण की जिंदगी ने मेरी जिंदगी को काफी स्प्रिचुअल बनाया. कृष्ण जी गायों के साथ रहे मैं भी पहले वेटनरी डॉक्टर रहा. फिर कृष्ण जी महान राजनीतिज्ञ थे. मैं भी कुछ समय के लिए राजनीति में रहा. कृष्ण की जिंदगी में जितनी वर्सेटीलिटी थी. मेरी जिंदगी में भी थी. तो शायद मेरा जन्म ही को इंसीडेंस ही रहा कि मेरे व्यवहार में बहुत कुछ कृष्ण की जिंदगी से मिलता जुलता रहा. लेकिन मैंने जो भी किया. मैं उससे संतुष्ट हूं. खुश हूं. आज भी.

बॉलीवुड की मेनस्ट्रीम का चेहरा नहीं मैं : कोंकणा सेन शर्मा


 कोंकणा सेन शर्मा उन अभिनेत्रियों में से एक है, जिन्होंने भारतीय संस्कृति को अपने अभिनय में बरकरार रखा है. वे अपने किरदारों के साथ प्रयोग करती हैं. उनके व्यक्तित्व की यही खासियत है कि वह एक साथ देसी, बोल्ड, बिंदास हर तरह के किरदार बखूबी निभाना जानती हैं. इस बार वह एक थी डायन से दर्शकों के सामने आ रही हैं. 

कोंकणा, आपकी फिल्मों का चुनाव बिल्कुल अलग होता है. आपकी उपस्थिति के साथ ही दर्शकों का नजरिया फिल्म को लेकर बदल जाता है. लोग मानने लगते हैं कि फिल्म बेहतरीन होगी. चूंकि आप उनमें हैं. तो किस तरह आपने दर्शकों का विश्वास जीता है?
एक अभिनेत्री के लिए इससे अच्छी बात और क्या होगी कि उसे दर्शकों का इतना प्यार मिले. मैं जिस फिल्म में रहूं. उस पर लोगों का विश्वास हो कि फिल्म अच्छी है तो यह सार्थकता है हमारे काम की. हम इसी के लिए तो मेहनत करते हैं. दूसरी बात यह भी है कि लोगों ने मुझ पर विश्वास करना शुरू किया, क्योंकि मैंने अपनी फिल्मों से उन्हें निराश नहीं किया है. मैंने कभी एक इमेज में बंधना पसंद नहीं किया. लोग मुझसे जब मिलते हैं. तो शायद पहली बार में उन्हें लगे ऐसा कि मैं थोड़ी तुनकमिजाजी हूं. घमंडी हूं. लेकिन धीरे धीरे मेरे मिजाज से वे वाकिफ हो जायेंगे कि मैं भी फन लविंग हूं और वही अप्रोच मैंने अपनी फिल्मों के किरदारों में भी रखा है. मैंने कभी दावा नहीं किया कि मैं सर्वश्रेष्ठ हूं. लेकिन मैंने जो काम किया है वे बेकार के काम नहीं हैं. सोच समझ कर अच्छी फिल्में और अच्छे किरदारों वाले किरदार चुने हैं.

 एक थी डायन आपके जॉनर की फिल्म नहीं लगती. लेकिन एक थी डायन चुनने की कोई खास वजह?
ऐसी कौन सी अभिनेत्री होगी जो विशाल भारद्वाज जैसे निर्देशक के बैनर की फिल्म नहीं करनी चाहेगी.  मैं खुद विशाल जी की बहुत बड़ी अडमायरर हूं. उनके एसथेटिक्स मुझे बहुत पसंद हैं. और तब खासतौर से जब फिल्म मेरे पिता मुकुल शर्मा की कहानी पर आधारित हो. एकता कपूर वर्तमान में हिंदी सिनेमा में कमर्शियल हिट देनेवाली निर्मात्री में से एक हैं. साथ ही बालाजी फिल्मस ने हिंदी सिनेमा की अच्छी हॉरर फिल्में दी हैं. अब जब आप हॉरर फिल्म कर रहे हो तो बालाजी से अच्छा आॅप् शन और क्या होगा. बालाजी की लास्ट हॉरर फिल्म रागिनी एमएमएस के बारे में मैंने सुना था,देखा नहीं है. लेकिन लोगों ने इसे पसंद किया था. इसके बाद और कई कारण थे. फिल्म में मेरा जो किरदार है. वह कितने सारे शेड्स में है. किसी फिल्म में जब इतने सारे महत्वपूर्ण कारक हों तो फिल्म को न कहने का तो सवाल ही नहीं उठता.

लेकिन हमने सुना पहले एकता नहीं चाहती थीं कि आप इस फिल्म का हिस्सा बने?
देखिए, कोई भी निर्माता जब किसी फिल्म पर पैसे लगाता है तो वह बहुत सारी चीजें सोच कर चलता है. कई डिस्क शन होते हैं. कई बातें होती हैं. तबजाकर आप अपनी फिल्म का लीड किरदार तय करते हैं. तो ऐसे में एकता क्या चाहती थी क्या नहीं मुझे पता नहीं. लेकिन विशाल की पहली पसंद मैं ही थी फिल्म के लिए. ये मुझे पता है.

आपके पिता की एक छोटी सी कहानी ने कैसे फिल्म का रूप लिया.
दरअसल, मेरे पापा मुकुल शर्मा ने कई सालों पहले सिर्फ तीन पेज की कहानी लिखी थी. और उन्होंने किसी मैगजीन में इसे प्रकाशित करने के लिए भेजा था और वहां प्रकाशित हुई भी. विशाल जी ने वही से देखा था. उन्होंने उसे पढ़ कर पापा को फोन किया था. पापा और विशाल जी अच्छे दोस्त हैं. पापा की जो कहानी है, उसमें बस इतना ही था कि किसी की जिंदगी में कैसे एक इविल आती है और दुनिया बदलती है उसकी. उस वक्त ये डायन और इतने सारे कैरेर्क्ट्स नहीं थे. इसे बाद में जब फिल्म का रूप दिया जाने लगा तो  फिर सारे कैरेक्टर्स डेवलप किये गये हैं.

त्फिल्म में आपके साथ और भी कई कलाकार हैं. ऐसे में कितना कठिन होता है अपने किरदार को पहचान दिला पाना.
देखिए, मैं मानती हूं कि मल्टीस्टारर फिल्मों में कोई बुराई नहीं है. बस आपके कैरेर्क्ट्स अच्छे होने चाहिए. इससे पहले भी तो मैंने मल्टीस्टारर फिल्में की हैं. लाइफ इन अ मेट्रो में भी मेरा किरदार अगर आपको याद हो तो. इस फिल्म में जितने किरदार हैं. उन सबकी उतनी कहानियां हैं. कल्कि, हुमा दोनों ही वर्तमान हिंदी सिनेमा की बेहतरीन अभिनेत्रियां हैं. इमरान हाशमी ने धीरे धीरे इंडस्ट्री में जो पहचान बनाई है. वह काबिलेतारीफ है.

आपने अपनी जिंदगी में कभी ऐसा अनुभव किया है,कि आपको महसूस हुआ हो कि हां, ये एविल घोस्ट जैसी चीजों में हकीकत होती है. सीधे शब्दों में कहें तो  क्या आप भूत प्रेत जैसी चीजों में विश्वास करती हैं? चूंकि आपके पिता ने खुद यह कहानी लिखी है.
नहीं, मैं डायन वायन पर विश्वास नहीं करती. लेकिन कभी कभी एविल नॉकिंग जैसी चीजें महसूस की हैं. कभी कभी जब आप कहीं गांव में जायें. तो महसूस किया है मैंने. और कई कहानियां भी सुनी है. गांव में कभी कभी रात को अंधेरे में आइ डू फील कभी कभी होती है हॉटिंग. लेकिन मेरे पास कोई प्रूफ नहीं और मैं ये चीजें साबित करने की कोई कोशिश भी नहीं करना चाहती. एक थी डायन फिल्म है. फिक् शनल फिल्म है. ऐसा कुछ नहीं है कि सच्ची घटनाओं पर फिल्म है तो बस इसे फिल्म की तरह ही देखें. मैं सुपरटिशस बिल्कुल नहीं हूं. मैं कुछ पहनती भी नहीं हूं कुछ भी जो अंधविश्वास को बढ़ावा दे और न ही मानती हूं.

लेकिन कोंकणा आप इस फिल्म का हिस्सा हैं और लोगों को आप पर इतना भरोसा होता है तो ऐसे में जब आप ऐसी फिल्म का हिस्सा होती हैं तो लोग इस पर विश्वास नहीं करने लगेंगे.
नहीं, मैं नहीं मानती, कोई एक फिल्म लोगों को इतना इंफ्लुएंस करेंगी. मैं नहीं मानती. देखिए, लोगों का अपना एजुकेशन भी होना चाहिए, माता पिता की अपब्रिंिगंग होती है. सिनेमा फन के लिए. हम डरना पसंद करते हैं. मैं तो थियेटर में बैठ कर हॉरर फिल्में देखते हैं तो उसमें मजा आता है. मेरा मानना है कि फीरर इज द बिग पार्ट आॅफ एंटरटेनमेंट . खुद हॉरर फिल्में देखते वक्त हम तय करने की कोशिश करते हैं अरे यार यह सही होगा कि नहीं. तो ये जो बिलिव और नॉट टू बिलिव के बीच का जो कंफ्यूजन लाइन है न वही हॉरर फिल्मों की जान है.

संजय का सिलसिला



संजय लीला भंसाली ने तय किया है कि वे अपनी फिल्म बाजीराव मस्तानी का निर्माण अगले साल शुरू कर देंगे. संजय की यह फिल्म पिछले 14 साल से डिब्बे में बंद थी. इसकी वजह थी कि संजय यह फिल्म ऐश्वर्य राय बच्चन और सलमान खान के साथ बनाना चाहते थे. लेकिन दोनों में अलगाव के बाद उनका यह सपना पूरा नहीं हो पाया. अब उन्होंने यही फिल्म रणबीर कपूर, दीपिका पादुकोण और कट्रीना कैफ को लेकर बनाने का निर्णय लिया है. लेकिन फिलवक्त दीपिका पादुकोण और कट्रीना दोनों में ही इस बात की जंग हो रही है कि वे मस्तानी का किरदार निभाना चाहती हैं. जबकि फिल्म में बाजीराव की पत् नी का भी किरदार है. एक दौर में कुछ ऐसी ही स्थिति फिल्म सिलसिला के साथ भी हुई थी. इस फिल्म में जया बच्चन और रेखा ने साथ साथ काम किया था. लेकिन दोनों ने एक दूसरे से बात नहीं की थी और यश चोपड़ा ने उनसे वादा लिया था कि वे बिना किसी झगड़े के फिल्म की शूटिंग पूरी करेंगी और उन्होंने किया भी. सिलसिला की सारी लोकप्रियता रेखा को मिली थी. जया की अनदेखी हुई थी. शायद वर्तमान में अभिनेत्रियां उस सिलसिले को दोहराना नहीं चाहतीं. यहां भी रणबीर कपूर हैं और दीपिका कट्रीना में रणबीर कपूर की वजह से ही मनमुटाव हैं. लेकिन ये अभिनेत्रियां अपने प्रोफेशनलिज्म को अपने पर्सनल रिश्तों पर हावी नहीं होने देना चाहतीं. इसलिए वे चाहती हैं कि वे साथ काम तो करें. लेकिन मुख्य किरदार उन्हें मिले. दरअसल, वर्तमान में हिंदी सिनेमा में अभिनेता हो या अभिनेत्री अपने किरदारों को लेकर काफी गंभीर हो गये हैं. सतर्क हो गये हैं. वे आपसी रंजिश के कारण हाथ से आये बेहतरीन किरदारों को खोने देना नहीं चाहते. चूंकि इन दिनों अच्छे किरदारों वाली फिल्म भी कम बन रही है. सो, वे चाहते हैं कि उन्हें जो भी मौका मिले वे इसका इस्तेमाल करें.

द मेकिंग आॅफ बांबे टॉकीज



हिंदी सिनेमा में इन दिनों भारतीय सिनेमा जगत के 100 साल पूरे होने के अवसर पर तरह तरह की तैयारियां की जा रही हैं. आगामी 3 मई को यह जश्न मनाया जायेगा. अनुराग कश्यप, करन जौहर, दिबाकर बनर्जी और जोया अख्तर भी मिल कर फिल्म बांबे टॉकीज का निर्माण कर रहे हैं. इस फिल्म की खासियत यह है कि इस फिल्म को बनानेवाले मेकर्स फिल्म बनाने के लिए आसानी से तैयार नहीं हुए थे. फिलवक्त इन चारों निर्देशकों का नाम सामने आ रहा है. लेकिन हकीकत यह है कि इस विजन को पूरा करने का मुख्य श्रेय जाता है. आशी को. आशी फ्लाइंग यूनिकॉर्न नामक एक स्वतंत्र प्रोडक् शन हाउस का संचालन कर रही हैं और वे इसी तरह छोटे छोटे फिल्मों का निर्माण कर रही हैं. आशी की उम्र अभी बेहद कम है. उनके जेहन में यह बात सबसे पहले आयी थी कि हिंदी सिनेमा के 100 साल के पूरे होने पर ऐसी कोई फिल्म बननी चाहिए. आज से ढाई साल पहले ही उन्होंने इसकी तैयारी भी शुरू कर दी थी. सबसे पहले उन्होंने अनुराग कश्यप से बात की. वे तैयार हुए. फिर एक पार्टी में दिबाकर बनर्जी और अनुराग की बात सुन कर जोया ने मन बनाया और जोया ने ही करन को इस फिल्म को बनाने के लिए मनाया. इस फिल्म की खासियत यह भी है कि इस फिल्म में चार अलग अलग कहानियां  हैं और चारों निर्देशकों को इस फिल्म को बनाने के लिए केवल डेढ़ करोड़ रुपये मिले थे. जोया ने करन से वादा लिया था कि वह किसी भी हाल में अपना कोई पैसा नहीं जोड़ेंगे. करन के लिए यह पहला अनुभव है जब वह किसी शॉर्ट फिल्म का निर्माण कर रहे हैं और वे इस बात से बेहद खुश भी हंै. वाकई इस फिल्म की योजना व सोच के लिए आशी की सराहना की जानी चाहिए और आशी की तरह ही कई नये स्वतंत्र युवा निर्माताओं को पहल करनी चाहिए.

दीवार पर बॉलीवुड



शनिवार की शाम मुंबई के हिंदी सिनेमा के चाहनेवालों के लिए खास रही. खास इस लिहाज से कि उनके प्रिय सितारें उस दिन सड़क पर थे. टोलियों में. लेकिन ये सितारें खुद नहीं, बल्कि उनके स्ट्रीट पर बने पोस्टर्स सड़क पर थे और हिंदी सिनेमा के प्रेमी टोलियों में बांद्रा इलाके में घूम रहे थे. हिंदी सिनेमा के 100 साल पूरे होने के अवसर पर बॉलीवुड आर्ट प्रोजेक्ट द्वारा यह कार्यक्रम आयोजित किया गया था, जिसमें चित्रकारों की एक टोली जिन्होंने घूम घूम कर मुंबई की दीवारों पर हिंदी सिनेमा की बेहतरीन फिल्मों व हिंदी सिनेमा के बेहतरीन किरदारों की पेंटिंग बनाई है. सभी इस मार्च का हिस्सा थे. हिंदी सिनेमा के इन कलाकारों की पेंटिंग बनाने के लिए इस प्रोजेक्ट के तहत बिल्कुल आम स्थानों की तलाश की गयी थी. बांद्रा इलाके में जहां एक तरफ मोगेंबो की तसवीर थी तो दूसरी तरफ दीवार के अमिताभ बच्चन की. और जिस तरह चित्रकार रंजीत दाहिया और टोनी पीटर ने ये सारी रचनाएं बनाई है. वह लाजवाब हैं. ये सभी तसवीरें बोलती नजर आती हैं. हिंदी सिनेमा के 100 साल पूरे होने पर जश्न मनाने का यह भी अनोखा तरीका था और जिसे मीडिया से भी जरूर सहयोग मिलना चाहिए थे. पिछले 1 साल से लगातार चित्रकार इन पेंट्ंिग्स को पूरा करने में जुटे हुए थे. अपनी लगन से उन्होंने इसे पूरा भी किया. और अब मार्च के माध्यम से वे लोगों के बीच भी पहुंचे. इस प्रोजेक्ट की सबसे पहले शुरुआत फिल्म अनारकली की पेंटिंग से शुरू की गयी थी.यह पहली बार था. जब दीवार पर दीवार नजर आयी,चूंकि इससे पहले तक दीवारों पर फिल्मों के सिर्फ पोस्टर लगाये जाते थे. लेकिन रंजीत व टोनी ने इसे अपनी कल्पनाशीलता से एक अलग ही रूप दिया जो कि काबिलेतारीफ है. हिंदी सिनेमा को समर्पित यह अंदाज भी वाकई बेहद निराला है.

बांसूरी गुरु को समर्पित



भारत के मशहूर बांसूरी वादक हरिप्रसाद चौरसिया के बेटे राजीव चौरसिया ने अपने पिता पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाई है. फिल्म का नाम बांसुरी गुरु रखा गया है. एक बेटे की तरफ से एक पिता को इससे बेहतरीन तोहफा और क्या होगा कि उन्होंने अपने पिता की विरासत को फिल्म के रूप में सहेजने की कोशिश की और पहल भी की. दरअसल, भारत में इस तरह की फिल्मों या भारत के लीजेंडरी शख्सियत के काम के डॉक्यूमेंटेशन की कोई खास परंपरा नहीं रही है. ऐसे में अगर हरिप्रसाद चौरसिया पर ऐसी फिल्म बनती है, तो निश्चित तौर पर हम हरिप्रसाद जी की जिंदगी से जुड़े कई पहलुओं से वाकिफ होंगे, क्योंकि एक बेटे से बेहतरीन तरीके से अपने पिता की जिंदगी को कौन दर्शा सकता है.हमने अब तक हरिप्रसाद जी का सिर्फ एक पहलू देखा है. लेकिन इस फिल्म में उनकी इलाहाबाद में बिताये गये उनक े पल, उनकी फिल्मों की तरफ रुझान फिर संगीत की तरफ किस तरह रुझान हुआ. इसका पूरा चित्रण प्रस्तुत किया जा रहा है. इससे पहले एनएफडीसी ने सिद्दिश्वरी, हंस अकेला, संसचारी, स्वादी त्रिरुणाल जैसी फिल्में भी भारत के संगीत से संबंध रखनेवाले शख्सियतों पर बनाई है. और यह सभी आज के दौर में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं.सो, भारत में ऐसी डॉक्यूमेंट्री फिल्में बननी ही चाहिए. दरअसल, हिंदी सिनेमा जगत को भी चाहिए कि वे अपने पूवर्जों जिन्होंने हिंदी सिने जगत में महत्वपूर्ण योगदान दिया. उन पर ऐसी फिल्मों का निर्माण करें. खालिद मोहम्मद ने एक अच्छी शुरुआत की है. वे श्याम बेनगल जैसे निर्देशकों पर अपनी एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म की श्र्ृांख्ला तैयार कर रहे हैं. हिंदी सिनेमा के लिए यह बेहद जरूरी है कि वह अपने ऐतिहासिक धरोहरों को संजोयें ताकि आनेवाली पीढ़ी इन शख्सियत के काम को देख पायें और उनके योगदान को समझ पायें.

20130408

दिल सच्चा और चेहरा झूठा



हाल ही में विश्व विख्यात निर्देशक स्पीलबर्ग जब मुंबई आये थे. उस दौरान एक खास कार्यक्रम का आयोजन किया गया था. अमिताभ बच्चन के साथ एक विशेष बातचीत में स्पीलबर्ग  ने अपने फिल्मी  करियर के बारे में विस्तार से चर्चा की. उन्होंने न सिर्फ अपनी कामयाबी, बल्कि अपनी जिंदगी के वे सारे तार खोले, जब वह असफल रहे. जब उन्होंने भी किसी को धोखा दिया. उन्होंने बहुत ईमानदारी से अपनी जिंदगी के सारे पन्ने खोल कर रख दिये. शायद स्पीलबर्ग भारत के सिनेमा से संबंध रखते तो वे खुल कर अपनी पूरी बातें नहीं रख पाते. चूंकि हिंदी सिनेमा जगत की शख्सियत सच बोलने की हिम्मत नहीं रखती. हिंदी सिने जगत का हर शख्स मुखौटा पहन कर रहता है. वे हमेशा अपनी वाहवाही सुने के आदि हो जाते हैं. वे कभी भी मीडिया में अपने बारे में कोई भी नकारात्मक बातें नहीं सुन पाते. चूंकि यहां सेलिब्रिटिज अपनी इमेज को ही बरकरार रख कर ही टिके रह सकते हैं. जबकि भारत से बाहर आप कहीं भी जायें, या विश्व स्तर के सेलिब्रिटिज से मिलें तो वे आपसे खुल कर अपने व्यक्तित्व की सारी बातें कह जाते हैं. वे बनावटी बनने की कोशिश नहीं करते. हिंदी सिने जगत को स्पीलबर्ग से यह बात जरूर सीखनी चाहिए कि किस तरह वे इतने बड़े निर्देशक होकर भी अपनी बात सच्चाई से सबके सामने रखते हैं. दरअसल, इसी बात को दूसरे पहलू से देखें तो हिंदी सिनेमा जगत के दर्शक भी उन्हीं कलाकारों की जिंदगी जानने में दिलचस्पी लेते हैं. जो बंद किताब हैं. शायद यही वजह है कि सेलिब्रिटिज अपने व्यक्तित्व को पूरी तरह से लोगों के सामने नहीं खोलते. लेकिन अगर यह सोच बदले तो शायद सिनेमा से दर्शकों का लगाव और नजदीकी शायद और बढ़े. चूंकि फिर वे अपने आइडल की वास्तविक छवि देख पायेंगे और खुद ही तय कर पायेंगे कि कौन सच्चा है कौन झूठा

भारत के लिए नये तरह की एक् शन फिल्म होगी कमांडो : विपुल शाह



विपुल शाह जब भी फिल्में लेकर आते हैं. दर्शकों को उम्मीद रहती है कि वे कुछ अलग जरूर परोसेंगे. बतौर निर्माता इस बार वे कमांडो लेकर आ रहे हैं, जो एक् शन से भरपूर है.विपुल का दावा है कि कमांडो में जिस तरह के एक् शन दृश्य दिखाये गये हैं, वे बॉलीवुड में नये तरह का प्रयोग होगा.

कमांडो बनाने की प्लानिंग कैसे हुई? 
मैं एक अलग तरह की एक् शन फिल्म बनाना चाहता था. और विधुत इसके लिए कमाल के एक्टर साबित हुए, क्योंकि उन्होंने मार्शल आर्टस में गजब की ट्रेनिंग कर रखी है और भी कई तरह के आटर््स आते हैं उन्हें. तो मुझे लगा कि विधुत के साथ इस तरह की कोई फिल्म बनाई जाये. साथ ही मैं चाहता था कि मैं कोई ऐसा एक् शन फिल्म बनाऊं., जो बिल्कुल अलग हो. ऐसा एक् शन किया जाये जो भारत में इससे पहले कभी नहीं हुआ हो. आपने अगर ट्रेलर देखा होगा तो आप खुद इस बात का अनुमान लगा सकते हैं कि कमांडो किस तरह की फिल्म होगी और हमें जिस तरह के रिस्पांस मिल रहे हैं वह कमाल के रिस्पांस मिल रहे हैं.

विधुत नये हैं तो कोई रिस्क महसूस नहीं किया?
हां, हर निर्माता के लिए यह बड़ी बात होती है कि वह जिस एक्टर का चुनाव कर रहा है, क्या वह फिल्म का फेस बन पायेगा या नहीं और चूंकि हम एक् शन फिल्म बना रहे हैं तो जाहिर सी बात है कि हम इसमें किसी तरह के कॉमेडी हीरो को तो नहीं ले सकते थे. विधुत में वह सारी क्वालिटीज नजर आयी और इसलिए हमने उन्हें चुना.
भारत में फिर से एक् शन फिल्मों की वापसी हो रही है. बदल रहा है ट्रेंड? हॉलीवुड से क्यों इंस्पायर क्यों रहती है
नहीं मैं नहीं मानता कि हमारी हर फिल्में वहां से इंस्पायरड हैं. देखिए वहां के सिनेमा अलग है. यहां का सिनेमा अलग है. आज अगर हमारी फिल्म का बजट 100 करोड़ है तो उनका 5000 करोड़ ेहोगा. जितने में यहां साल भर की फिल्में बनती हैं. वहां एक फिल्म बनती है. होता अक्सर यह है कि हमारे पास वह बजट नहीं होता. हमारी आॅडियंस वैसी नहीं है. दूसरी बात है कि वह अपनी हर फिल्म बनाने में वक्त लगाते हैं. वे काफी तैयारियां करते हैं और उसमें भी पैसे खर्च करते हैं. हमारे यहां वह कल्चर नहीं है. फिर देखा देखी की बात कहां से आती है.

किस तरह के ट्रेनर्स को बुलाया आपने इस फिल्म के लिए?
हमने हॉलीवुड व विदेश से लगभग चार ट्रेनर को बुलाया है. जो कि साउथ अफ्रीका से हैं. फ्रांस से हैं. फ्रांस के सबसे चर्चित एक् शन निर्देशक को हमने बुलाया इसलिए कि लोगों को यहां कुछ नया लगे. वे आम तरह की एक् श्न फिल्में देख कर बोर हो चुके हैं. उनके साथ नौ लोगों की टीम आयी. हमने चार महीने तैयारी की है. मुझे लगता है कि हमने कुछ तो नया हासिल जरूर किया है.

आप किस आधार पर बाहरी ट्रेनर्स को बुलाते हैं?
हम उनका काम देखते हैं और उसके बाद ही हम तय करते हैं कि हम किन्हें शामिल करना है.
क्या आमतौर पर जो फिल्में बनती हैं, उनकी तूलना में  ए क् शन फिल्मों का बजट अधिक होता है?
जी बिल्कुल, क्योंकि आपको कई एक् श्न निर्देशक को बुलाना होता है. वे कई महीने यहां रहते हैं. फिर शूटिंग के दौरान गाड़ियां अलग तरह की इस्तेमाल होती हैं. कितने सारे इक्वीपमेंट बर्बाद किये जाते हैं. काफी कुछ खर्च होता है. लेकिन आॅडियंस को चार्म होता है कि वे एक् श्न फिल्म देखें.

आपने क्यों नहीं डायरेक्ट की यह फिल्म
मुझे लगा कि इस फिल्म में निर्माता की भूमिका अहम है. चूंकि मुझे ही तय करना था कि फिल्म का हीरो कैसा होगा. एक् शन कैसा होगा जो भारत में कभी नहीं दिखा हो. नया लड़का लड़की, म्यूजिक निर्देशक हैं. निर्देशक फर्स्ट टाइमर है तो इन सारी बातों में निर्माता की भूमिका अहम हो जाती है तो मुझे लगा कि दिलीप घोष नये निर्देशक हैं. उन्हें मौका देना चाहिए. टीम के जोश के साथ मैं हूं.

बॉक्स आॅफिस का कितना प्रेशर है आप पर, जब आप नये लोगों को लांच करते हैं तो?
प्रेशर तो बड़े स्टार के साथ भी होता है. हर शुक्रवार फिल्म पर प्रेशर होता है. वैसे ही एक रिस्क होता है कि न्यू कमर को देखने आयेंगे या नहीं. साथ ही अगर फिल्म फ्लॉप हो जाती है तो इसका सीधा असर न्यू कमर के करियर पर भी होता है तो फिल्म मेकिंग तो है ही अपने आप में एक बड़ा रिस्क़. लेकिन एक फायदा भी है कि आपको नये लोगों के साथ उत्साह से काम करने का मौका मिलता है. नये लोग आपके साथ विश्वास के साथ पूरे जोश से काम करते हैं और ऐसे में फिल्म तो अच्छी बनेगी ही.

पूजा चोपड़ा से  उम्मीदें
पूजा चोपड़ा बेहतरीन अभिनेत्री हैं, ज्यादा तैयारी नहीं करतीं. बिंदास रहती हैं और हमारे किरदार के लिए यही अहम चीजें थीं. उनमें. जिसकी वजह से हमने उन्हें कास्ट किया.

होली गीतों के बदलते रंग



निर्देशक अनुभव सिन्हा ने हाल ही में बप्पी लाहिरी व जैजी बी की जुगलबंदी के साथ होलिया गीत प्रस्तुत किया है. इस गाने में हिंदुस्तानी व वेस्टर्न दोनों अंदाज में प्रस्तुत किया गया है. यूटयूब पर यह गीत बेहद लोकप्रिय हो रहा है. इसे काफी दर्शक भी मिल रहे हैं. धर्मा प्रोडक् शन की आगामी फिल्म ये जवानी है दीवानी में भी होली पर आधारित एक गीत शामिल किया गया है. होली का यह गीत भी आज के अंदाज में यानी कि रीमिक्स अंदाज की होली में बना गीत है. दरअसल, वर्तमान में जिस तरह होली मनाने के तरीके बदले हैं. उसी तरह उनके गानों का अंदाज भी बदला है. किसी दौर में होली में ढोल, नगारा व मंजिरा बजती थी. लोगों की टोली सजती थी. फगवा गीत गाये जाते थे. लोग गली गली में घूम कर नाचा करते थे. लेकिन अब होली के फगवा गीतों ने होली रेन डांस का रूप ले लिया है. अब रीमिक्स गानों पर रेन डांस होता है. पूरी पकौड़ों की जगह शराब ने ले ली है. शाम को दोस्तों व सगे संबंधियों के पैर पर अबीर डालने की परंपरा अब खत्म हो चुकी है. खासतौर से मुंबई जैसे इलाकों में तो होली का मतलब रेन डांस व सुबह की होली ही होती है. अब दही बड़े या पुए नहीं बनते. बल्कि कबाब और वोडका वाली पानीपुरी ही लोगों का पसंदीदा आहार होता है. रीमिक्स गानों पर, टमाटर की होली खेली जा रही है तो कहीं पानी के टब में होली हो रही है. जैसे जैसे फिल्मों ने अपना रूप बदला है. होली ने भी अपना रूप बदल लिया और इसी को ध्यान में रखते हुए फिल्मों में होली के गीतों का फिल्मांकन भी हो रहा है. याद कीजिए, अमिताभ बच्चन का गीत रंग बरसे, भिगे चुनर वाली...यह गीत आज भी लोकप्रिय है. लेकिन आज के गीत केवल रेन डांस के फव्वारों में ही उड़ जा रहे हैं. तसल्ली बस इतनी है कि कम से कम फिर से फिल्मों में होली के गीतों की वापसी तो हुई है.

कैंसर को मात देते कलाकार



 मनीषा कोईराला भारत लौट आयी हैं और उन्होंने टिष्ट्वटर पर अपनी तसवीर भी पोस्ट की है, जिसमें वह मुस्कुराती हुई नजर आ रही हैं. कैंसर से जूझने के बाद  वह पहली बार इस तरह अपने दर्शकों से रूबरू हो रही हैं. मनीषा के इस हौसले को सलाम. किसी दौर में मोहक मुस्कान से करोड़ों दर्शकों का दिल जीतनेवाली मनीषा ने वाकई बीमारी के बाद अपने इस तसवीर को दर्शकों के सामने रख कर साबित कर दिया है कि उनमें वह हिम्मत है कि वह चकाचौंध से दूर होकर भी मुस्कुरा रही हैं. मनीषा की जिंदगी में कई उतार चढ़ाव आते रहे. कभी शीर्ष पर रहनेवाली इस अभिनेत्री ने खुद को नशे में चूर कर कई गलत निर्णय लिये जिंदगी में. विशेष कर जीवनसाथी चुनने में वे असफल रहीं. लेकिन जिस कदर वह फिर से कैंसर जैसी बीमारी को हरा कर कदम ताल करने को तैयार हैं. इसकी दाद देनी होगी. चूंकि मनीषा इस बात से बखूबी वाकिफ हैं कि यह इंडस्ट्री खूबसूरत अभिनेत्रियों का है. न कि उम्रदराज अभिनेत्रियों का. लेकिन इसके बावजूद वे फिल्मों में काम करना जारी रखेंगी तो सिर्फ इसलिए ताकि दर्शक समझ पायें कि वह जिंदगी से हारी नहीं हैं. और यही वजह है कि उन्होंने फिल्मों में वापसी करने की ठानी है.वरना, बीते जमाने की मशहूर अभिनेत्री साधना जिन्होंने मीडिया से सिर्फ इसलिए दूरी बना ली, क्योंकि उनका मानना है कि अब वह उतनी खूबसूरत नहीं रहीं, कि लोग उन्हें देखना पसंद करेंगे. नरगिस भी एक दौर में जब कैंसर से जूझ रही थीं. उन्होंने जब अचानक पहली बार खुद का चेहरा आईने में देखा तो वह चौंक गयी थीं. चूंकि उन्होंने अपने बाल खो दिये थे. लेकिन फिर भी उन्होंने खुद को संभाला और सक्रिय रहीं. दरअसल, हकीकत यही है कि ये सारी अभिनेत्रियां वास्तविक जिंदगी में फाइटर हैं, जिन्होंने जिंदगी की अहम जंग जीतने की कोशिश जारी रखी.

मिसेज स्टार्स की टूटती बेड़ियां



शाहरुख खान की कंपनी रेड चिल्ली प्रोडक् शन में उनकी पत् नी गौरी खान की अहम भूमिका है. अब तक उनका नाम केवल क्रेडिट के रूप में जाता था. लेकिन अब गौरी खान ने तय किया है कि वह खुद प्रोडक् शन के काम को देखेंगी. उन्होंने शुरुआत चेन्नई एक्सप्रेस से की है. फिल्म की फाइनल एडिटिंग से पहले सारे रफ कट्स उन्हें दिखाये जा रहे हैं. उनकी रजामंदी के बाद ही शॉट्स आगे बढ़ाये जा रहे हैं. स्पष्ट है कि गौरी खान भी अब द खान की पत् नी के तगमे यानी मिसेज खान की उपाधि से ऊब चुकी हैं. वह चाहती हैं कि अब वह अपनी कार्यकुशलता का इस्तेमाल करें. सो, उन्होंने एक नयी जिम्मेदारी उठाने की तैयारी कर ली है. इरफान खान ने भी अभी हाल ही में घोषणा की है कि वे अपने प्रोडक् शन के काम में अपनी पत् नी सुतापा को भी शामिल करेंगे और सुतापा ही कोर टीम बनायेंगी. आमिर खान की भी स्क्रिप्ट सेलेक् शन टीम में उनकी पत् नी किरन राव अहम भूमिका निभाती हैं. यही नहीं आमिर के सारे प्रोजेक्ट्स पर वे अपनी राय रखती हैं और आमिर भी उन्हें सलाह मशवरा करते हैं. आमिर खान प्रोडक् शन की फिल्मों में किरन राव का नाम भी सिर्फ औपचारिक रूप से नहीं जाता. बल्कि वे फिल्म की मेकिंग में पूरी तरह से शामिल होती हैं. स्पष्ट है कि अब स्टार्स भी अपनी पत् िनयों को केवल मिसेज बना कर रखना नहीं चाहते. वे अब उन्हें भी वह सम्मान देने की कोशिश कर रहे हैं, जिनकी वह हकदार है. सनी देओल ने भी अपनी पत् नी लींडा को फिल्म यमला पगला दीवाना 2 से पहली बार बतौर लेखिका बॉलीवुड में आने का मौका दे दिया है. दरअसल, यह स्टार्स की तरफ से एक सार्थक कदम है. और इससे निश्चित तौर पर एक नयी बयार शुरू होगी. जिससे स्टार्स की पत् िनयां भी अपनी एक खास और खुद की इमेज बना पाने में सफल होंगी.