20110823

चिल्लर पार्टी में दक्षिण ब्राह्माण पिता की भूमिका में अजय

दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं. एक तो वो जिन्हें अपने बारे में बताना पड़ता है कि वो कौन हैं और दूसरे वो जिनके बारे में दुनिया बताती हैं कि वो कौन है...अमिताभ बच्चन जब विजू के रूप में यह संवाद फिल्म बुङ्ढा होगा तेरा बाप में बोलते हैं तो पूरा थियेटर तालियों से गूंज उठता है.

तारीफ करनी होगी फिल्म के संवाद लेखक कि जिन्होंने फिल्म के अभिनेता के लिए बेहतरीन शब्दों का इस्तेमाल किया. फिल्म दर्शकों को बेहद पसंद आ रही है और खासतौर से इसके संवाद. हिंदी सिनेमा में हम भले ही लेखकों को खास मान नहीं देते. लेकिन सच्चाई यही है कि लेखक ही अभिनेता को पहचान दिलाते है. कुछ ऐसा ही कर दिखाया है अजय कुमार ने भी.

अजय कुमार बिहार से हैं. बिहार से गहरा लगाव होने के कारण अजय की हिंदी बेहतरीन है. और यही वजह है कि उन्हें बुङ्ढा होगा तेरा बाप में अपने दोस्त इनाममुल में संवाद लिखने का मौका मिला. बतौर सिर्फ लेखक ही नहीं, बल्कि अभिनेता के रूप में भी अजय ने अपनी खास पहचान बना ली है. आज रिलीज हो रही फिल्म चिल्लर पार्टी में भी उन्होंने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. फिल्म में उन्होंने मुंबई में रह रहे एक दक्षिण भारतीय की भूमिका अदा की है.

अजय बताते हैं कि जब वह इस फिल्म के ऑडिशन के लिए गये थे. उन्हें फिल्म में चयनित नहीं किया गया था. चूंकि उनका लुक किरदार से मेल नहीं खा रहा था. लेकिन कास्टिंग निदर्ेशक मुकेश छाबड़ा ने निदर्ेशक विकास बहल से बात की कि उन्हें 15 दिन का समय दिया जाये. इसके बाद अजय ने खुद ही अपने गेटअप में बदलाव किया. उन्होंने वे सारी चीजें की, जो उस किरदार के लिए चाहिए था. फिर ऑडिशन हुआ और उन्हें फिल्म मिल गयी. उन्होंने फिल्म में एतक ब्राह्मण पिता का किरदार निभाया है.

अजय बताते हैं कि उन्हें बुङ्ढा होगा में संवाद लिखने का मौका रामगोपाल वर्मा की वजह से मिला. वह रामगोपाल को अपनी कहानी सुनाने गये थे. राम ने उनसे कहा कि उनके एक दोस्त फिल्म बना रहे हैं उन्हें जल्दी है. तुम संवाद लिख सकते हो तो लिख दो. अजय और उनके दोस्त से मिल कर फिर संवाद लिखा और निदर्ेशक जगन्नाथ को फिल्म पसंद आयी. इसके अलावा भी अजय पिछले कई सालों से नाटक के क्षेत्र में सक्रिय रहे हैं. साथ ही वह कॉमेडी का महामुकाबला व कॉमेडी सर्कस के लेखन से भी जुड़े रहे हैं. जल्द ही वे फिल्म देसवा में भी नजर आयेंगे.

हाल ही में उन्हें अमिताभ बच्चन के साथ जस्ट डायल के विज्ञापन में भी काम करने का मौका मिला है. इसके अलावा उन्होंने फिल्म डबल धमाल के मेकिंग के लिए भी लेखन किया है. अजय कहते हैं कि वे भविष्य में अच्छी कहानियां लिखना और फिल्में बनाना चाहते हैं. अजय ने अबतक कई नाटकों का मंचन व लेखन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी किया है. जल्द ही वह अपनी लिखी कहानी पर काम शुरू करेंगे.

रा.वन : हिंदी सिनेमा में तकनीकी रूप से नया माहौल करेगा तय


मैं यह बात बिल्कुल स्वीकार नहीं करता कि भारत में हम कुछ अलग नहीं कर पा रहे. चूंकि अब वक्त बदल रहा है. और हमारी कोशिशें जारी हैं. मैं अभी से तो इस बारे में बहुत कुछ नहीं कह सकता. लेकिन इतना जरूर कहूंगा कि हम तकनीकी रूप से रा.वन को एक शानदार रूप देनेवाले हैं.

यह बात बिल्कुल सही है कि भारत में जब हम किसी कहानी को दर्शाते हैं तो हमें इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि उसमें भावना भी हो. रा.वन को हम तकनीकी रूप से बेंचमार्क इसलिए मान सकते हैं कि इस फिल्म में हमने कई नयी तकनीकों को जोड़ने की कोशिश की है. हम लगातार इस पर काम कर रहे हैं. हमारी पूरी टीम काम कर रही है.

फिल्म रा.वन में एक कहानी भी है. लेकिन फिल्म में 60 प्रतिशत काम विजुअल इफेक्ट्स का है. लगभग 37 सीक्वेंस हमने विजुअल इफेक्ट्स पर काम किया है. विजुअल इफेक्ट्स पर आधारित सीक्वेंस शूट करना अपने आप में बहुत मुश्किल काम है. आप गौर करेंगे कि लगभग इस फिल्म में हमनें 3500 शॉट्स लिये हैं. जो कि आसान काम नहीं है. रा.वन के लिए कई सारे स्टूडियोज में हम काम कर रहे हैं. ऐसे में कॉर्डिनेशन एक दूसरे के साथ बात कर हर फ्रेम को परफेक्ट करना जरूरी है. एक एक फ्रेम को बारीकी से देखना एक महत्वपूर्ण काम है. अगर एक भी गलती छूटती है तो वह बड़े फ़्रेम में नजर आयेगी.

मैं मानता हूं कि रा.वन में पूरी टीम काम कर रही है. हां, यह हमारे लिये चुनौती है कि हमें शाहरुख खान के सुपरमैन किरदार को वास्तविक भी दिखाना है. हम लगातार 24 घंटे काम कर रहे हैं. रेडचिलिज से लगभग 300 आर्टिस्ट और 650-700 लोग पूरे विश्व के स्टूडियोज में काम कर रहे हैं. रा.वन के माध्यम से हम भारत में कई नयी तकनीकों को लाने का प्रयास कर रहे हैं. साथ ही हमारी कोशिश यह भी है कि तकनीक के रूप से हम कुछ नये प्रयोग कर लोगों के सामने रखें. मैं मानता हूं कि वीएफएक्स जैसे काम में सबसे मुश्किल यह होता है कि हमें किसी शॉट में अगर कोई गलती हो तो उसे सुधारने में उस फ्रेम को सुधारने में बहुत वक्त लगता है.

मैं इस फिल्म के बजट के बारे में तो अभी नहीं बता सकता. लेकिन यह फिल्म महंगी है. चूंकि हमने इसमें सारे नये तकनीक को जोड़ा है. मैं यह भी मानता हूं कि रा.वन के बाद इस फिल्म से नयी सोच बनेगी. निदर्ेशक इस तरह की फिल्मों को बनाने का जोखिम उठायेंगे. भारत में खासतौर से यह माहौल बनेगा कि लोग वीएफएक्स पर आधारित फिल्मों की शुरुआत करेंगे. रा.वन में ऐसी कई चीजें होंगी जो आपको थ्रील करेगी. अचंभित करेगी. लेकिन फिलहाल उस बारे में नहीं बता सकता. हां, इतना जरूर कहूंगा कि शाहरुख खान ने एक नयी सोच, तकनीक के साथ एक जोखिम भरा और कठिन प्रोजेक्ट को करने की हिम्मत दिखाई है.

शेष तो फिल्म की रिलीज के बाद ही दर्शक ही तय करेंगे. लेकिन इतना जरूर है कि रा.वन को हम फिल्म में नये तकनीकी की शुरुआत की एक पहल तो मान ही सकते हैं.

(केतन यादव, सीइओओ व वीएफएक्स प्रोडयूसर, रेड चिल्ली)

बचपन के इंद्रधनुषी रंग



फिल्म ः चिल्लर पार्टी

कलाकार ः इरफान खान, सनथ मेनन, रोहन ग्रोवर, नमन जैन, अरनव खन्ना, विशेष तिवारी, चिन्मय चंद्रणसुख, वेदांत देसाई, दिविज हांडा, श्रेया शर्मा.

निदर्ेशक ः नितेश तिवारी, विकास बहल

रेटिंग ः 4 स्टार

चिल्लर पार्टी फिल्म का ही एक गीत है. अब एक ही थाली के चट्टे बट्टे हैं...फिल्म के गीत के बोल हैं. ये तो मुर्गियों के चुज्जे से निकले...ये तो जलेबियों के टुकड़े हैं...चाशनी से उभरे हैं. टेड़े-मेड़े. लेकिन मीठे भी हैं. फिल्म का यह गीत फिल्म की पूरी कहानी बयां कर देता है. जिस तरह जलेबी वाकई टेढी-मेढी होने के बावजूद मुंह में जाते ही मिठास घोल देती है. कुछ इसी तरह चिल्लर पार्टी की पूरी गैंग भी है. वे सीधे हैं. लेकिन चलने के लिए रास्ता थोड़ा हट कर चुनते हैं. वे गलतियां तो करते हैं. लेकिन अपनी गलती होने पर जल्द ही माफी भी मांग लेते हैं. वे मुर्गियों के चुज्जे की तरह तितर बितर हैं. लेकिन फिर भी खूबसूरत हैं. सौम्य हैं. चिल्लर पार्टी के बच्चों की इससे सटीक व्याख्या और कुछ नहीं हो सकती. फिल्म ने बचपन के खूबसूरत हसीन पलों को दर्शकों के सामने तो रखा ही है. साथ ही यह भी प्रस्तुत करने की कोशिश की है कि उन्हें बच्चा समझ कर आप कुछ भी नहीं कर सकते. वे ईमानदार हैं मासूम हैं तो जानकार भी हैं. आप उन्हें बस लॉलीपॉप देकर नहीं फुसला सकते. साथ ही अगर वह चाहें तो सत्ता पर बैठे शक्तिशाली व्यक्ति को भी बता सकते हैं कि वह क्या हैं, दरअसल, चिल्लर पार्टी फिल्म के रूप में कई मायनों से एक पूरा पैकेज है, जिसमें बचपन की खूबसूरत कहानी है. अभिभावकों का बच्चों के प्रति सही दायित्व है.साथ ही कई अहम मुद्दों पर प्रकाश डालने की भी कोशिश की गयी है. फिल्म में पटकथा के माध्यम से यह दर्शाने की कोशिश की गयी है कि वह नेता तभी तक शक्तिशाली है. जब तो उसके पास लोगों का सहयोग है. मतलब लोकतंत्र की सही परिभाषा को दर्शाने की कोशिश की गयी है. इसके साथ ही जिंदगी में एक सच्चे दोस्त का साथ क्या होता है. इसे भी खूबसूरती से प्रस्तुत किया गया है. मीडिया की प्रचलित परिभाषा व उसकी महत्वपूर्ण भूमिका को भी दर्शकों के समक्ष रखने की कोशिश की गयी है. चिल्लर पार्टी बच्चों के लिए बनाई गयी अन्य फिल्मों से खुद को इसलिए अलग कर पाती है, चूंकि अन्य फिल्मों की तरह इसमें अभिभावकों के खुंखार रवैये को दिखाने की बजाय उन्हें बच्चों का साथ देते हुए दिखाया गया है. बशतर्े कि बच्चे सही हों. फिल्म के किरदारों को बेहद सोच समझ कर तैयार किया गया है. यह फिल्म समाज के वर्तमान स्थिति की वास्तविक छवि प्रस्तुत करती है. जिस तरह समाज में हमेशा शांत रहनेवाला व्यक्ति जब अचानक बोलता है तो वह कमाल कर जाता है. कुछ इसी तरह फिल्म में साइलेंसर के मुख से महत्वपूर्ण समय निकली आवाज पूरी कहानी को मोड़ देती है. फिल्म की कहानी चंदन नगर कॉलोनी की है. कॉलोनी में बच्चों की गैंग है. लेकिन कोई एक दूसरे को उनके वास्तविक नाम से नहीं बुलाते. सभी के अपने नाम हैं. जो उन्हें उनके स्वभाव के मुताबिक दिये गये हैं. जो पढ़ने में तेज है वह इनसाइक्लोपीडिया है, मस्ती करनेवाला जंघिया, जो बिल्कुल शांत रहता है. वह साइलेंसर है. इसी तरह अकरम( चूंकि अच्छी बॉलिंग करता है), सेकेंड हैंड( हमेशा बड़े भाई के कपड़े पहनता है), अफलातून( हर काम में पारंगत) पनौती( जो कहे उसका उल्टा होता) है.अचानक एक फटका अपने कुत्ते ( बीड़ू) को लेकर आता है. वह वहां के लोगों की कार साफ करने की नौकरी करता है. पहले चिल्लर उसे पसंद नहीं करती. फिर उसे टीम में शामिल कर लेती है. फटका भले ही अनपढ़ है, लेकिन उसके पास कई इनोवेटिव आइडिया है. वह अच्छा बॉलर भी है. फिल्म में एक पुरुष जो कि लड़कियों की आवाज में बात करता है. उसे आरजे बनने की सलाह दे देता है. लेकिन अचानक एक दिन कुछ ऐसा होता है. जब सारे बच्चे दोस्ती के लिए कुछ भी करने को तैयार होते हैं. फिल्म में कुछ भी बनावटी दिखाने की कोशिश नहीं कि गयी. मंत्री को गलत सबक सिखाने के लिए बच्चे वही चीजें करते हैं जो वे सुनते या देखते रहे हैं और अपने किताबों के अच्छी पंक्तियों से ही वह इसका जवाब देते हैं. यही वजह है कि फिल्म की ईमानदार कोशिश दर्शकों के सामने आती है. फिल्म में हर बच्चे ने अपना किरदार बखूबी निभाया है. खासतौर से जंघिया के किरदार ने बच्चों का भरपूर मनोरंजन किया है. कह सकते हैं कि बच्चों के विभिन्न रंगों का इंद्रधनुष है यह फिल्म. जहां एक ही फिल्म में लगभग सारे नजर जाते हैं. हिंदी सिनेमा में ऐसी फिल्मों की सख्त जरूरत है. चिल्लर पार्टी अंगूर का वह पेड़ है, जिसके कुछ खट्ठे हैं ,कुछ मीठे. लेकिन फिर भी लाजवाब हैं. निदर्ेशन के रूप में नितेश विकास ने मिल कर बेहतरीन पटकथा, बेहतरीन किरदार, महत्वपूर्ण मुद्दे और बिना तामझाम के एक ईमानदार कोशिश की ै.

फिल्म रिव्यू ः ऑल्वेज कभी कभी


कलाकार ः अली फजल, जोया मोरानी, जिसेली, सत्यजीत दुबे

निदर्ेशक ः रोशन अब्बास

रेटिंग ः 2

ऑल्वेज कभी कभी से पहली बार रोशन अब्बास अपने निदर्ेशन की पारी की शुरुआत कर रहे हैं. फिल्म शाहरुख खान के रेड चिली प्रोडक्शन की है. जाहिर है. फिल्म से उम्मीदें दर्शकों को बहुत होंगी. चूंकि शाहरुख युवाओं और कॉलेज पर आधारित फिल्मों के नायक रहे हैं. उन्होंने अब तक कुछ कुछ होता है.दिल तो पागल है और मोहब्बतें जैसी शानदार फिल्में दी है. जाहिर है. ऐसे में शाहरुख खान के बैनर तले बन रही फिल्म से भी उम्मीदें बढ़ती हैं. खासतौर से तब जब फिल्म का शीर्षक कुछ अलग सा हो. रोशन अब्बास निदर्ेशन से पहले तक टेलीविजन पर बतौर एंकर नजर आते रहे हैं. फिल्म ऑल्वेज कभी कभी निस्संदेह शीर्षक की वजह से दर्शकों को फिल्म देखने के लिए आकर्षित करेगी. लेकिन फिल्म देखने के बाद दर्शक मायूस हो सकते हैं. फिल्म की कहानी में प्रेम कहानी भी है. स्कूल की मस्ती भी है. नये चेहरे भी हैं. जिससे उम्मीद की जाती है कि वे कुछ अलग प्रस्तुत करने की कोशिश करेंगे. लेकिन फिल्म उस लिहाज से भी निराश करती है. फिल्म की कहानी चार दोस्तों की है. अभी सभी स्कूल में ही पढ़ते हैं. समीर खन्ना, ऐश्वर्य धवन, नंदिनी और तारीक नकवी एक ही स्कूल में पढ़ते हैं.लेकिन वे चारों चार तरीके से सोचते हैं. सभी किसी न किसी रूप में अपने अभिभावकों से नाराज हैं. तारीक के पिता चाहते हैं कि वह खानदानी परंपरा को आगे बढ़ाये और एमआइटी में ही जाये. ऐश्वर्य अपनी मम्मी के सपने को पूरा करने के लिए मॉडल बनना जबरन स्वीकार करती है. समीर अपने पिताजी के तानों से परेशान है और नंदिनी के माता-पिता व्यवसायी माता पिता है. सो, उनके पास अपने बच्चों के लिए वक्त नहीं. सभी अपने अभिभावकों की नजरअंदाजगी व अत्यधिक दबाव से परेशान हैं. ऐसे में वह एक उपाय ढूंढ निकालते हैं और अपने प्ले के माध्यम से पुरानी पीढ़ी को नयी पीढ़ी के बारे में बताते हैं. गौर करें. तो हाल ही में रिलीज हुई फिल्म शैतान की नायिका कल्की का किरदार भी अपने माता-पिता के नजरअंदाजगी का शिकार है. दूसरी नायिका अपनी बहन की वजह से जबरन मॉडल बनना स्वीकार करती है. कुछ इसी तरह फिल्म थ्री इडियट्स में अभिभावकों की दबाव से फरहान तय करता है कि वह इंजीनियर ही बनेगा. ऑल्वेज कभी कभी ने जिस तरह अपना विषय चुना था. उस वक्त निदर्ेशक को कम से कम इस बात का ध्यान रखना चाहिए था कि ऑल्वेज कभी कभी सारी फिल्मों का मिश्रण न लगे और फिल्म से कोई नयी कहानी और नया एंगल निकल कर सामने आये. पिछले कई सालों से लगातार फिल्म निदर्ेशकों ने अभिभावकों को खलनायक के रूप में प्रस्तुत करनेवाली कहानियां प्रदर्शित की है. फिर चाहे वह फिल्म उड़ान हो, थ्री इडियट्स, शैतान, टर्निंग 30, तारे जमी पे हो. लेकिन हमें वाकई इस बात पर गहराई से सोचना चाहिए कि क्या वाकई आज के अभिभावकों का एंटीना ( ऑल्वेज कभी कभी के संदर्भ) में हमसे मेल नहीं खाता. ऑल्वेज कभी कभी और शैतान मेट्रो की कहानियां हैं और उड़ान छोटे से शहर जमशेदपुर की.क्या अब भी अभिभावकों की मानसिकता में कोई बदलाव नहीं आया? इस बात पर प्रश्न चिन्ह इसलिए, क्योंकि अब धीरे धीरे बदलाव चुके हैं. नयी पीढ़ी के साथ पूरी तरह अभिभावक कदमताल कर रहे हैं.फिर क्यों निदर्ेशकों को उन्हें सबक सिखाने की जरूरत पड़ रही है. ऑल्वेज कभी कभी उस लिहाज से बेहद ही कमजोर फिल्म है. फिल्म का यह दावा कि कहानी टीनऐजर्स की है. निराधार साबित होती दिखती है. बेहतर होता कि रोशन फिल्म को कॉलेज की थीम पर लेकर जाते. चूंकि फिल्म में नंदिनी का हद से ज्यादा बिंदास होना, प्रेगनेंसी टेस्ट, पार्टी, पब जाना. मेट्रो के स्कूलों के बच्चों के लिए आम बात हो.लेकिन छोटे शहर के बच्चे ऐसे नहीं होते. ऐसे में जाहिर है रोशन को उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए कि छोटे शहर के युवा दर्शक भी फिल्म देखें.फिल्म के कलाकारों ने निस्संदेह ताजगी के साथ अपने किरदार को निभाया है. जिसेली में संभावनाएं हैं. लेकिन फिल्म में उन्हें अधिक मौके दिये ही नहीं ये.

फिल्मों में प्रयोगों के बहुमूल्य मणि(रत्न) रहे मणि कौल


(बासु चटर्जी, फिल्म निदर्ेशक मणि कौल के फिल्मों का गंभीर रूप से अध्ययन समझ रखनेवाले. )

मणि कॉल फिल्मकारों के फिल्मकार थे. वे जितने उम्दा फिल्मकार थे. उसकी खास वजह यह थी कि वह जिंदगी को दार्शनिक तरीके से देखते थे. और यही वजह है कि उनकी फिल्मों में जिंदगी की फिलॉसपी नजर आयी है. उन्होंने दर्शन और काव्यशास्त्र को ही भारतीय सिनेमा में दर्शाने की कोशिश की. अरस्तू और प्लेटो की दार्शनिक पध्दतियों पर आधारित विश्व सिनेमा को भी उन्होंने जनमानस तक पहुंचाया. लेकिन इसके बावजूद यह बेहद दुख की बात है कि हममे से कई लोग उन्हें या उनके काम को जानते नहीं. आज भी हम उन्हें तब याद कर रहे हैं या कहीं कहीं उनके काम की चर्चा उस वक्त हो रही है, जब वह हमारे बीच है ही नहीं. जबकि सच्चाई यह है कि सिनेमा को एक वैज्ञानिक सोच देने में भी मणि कॉल का जवाब नहीं था. उनके काम के बारे में जब जब चर्चा हुई है. लोगों ने यही माना है कि उनकी फिल्में सिर्फ एलिट लोगों को ही समझ आयेगी. इसकी खास वजह यह रही है कि शुरुआती दौर से लेकर अब तक हमारे देश में सिनेमा को मनोरंजन माना जाता रहा है. और जो व्यक्ति सिनेमा को मनोरंजन से परे किसी और रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश करता है. उसे अचानक ही लोग किसी श्रेणी में बांट देते हैं और यह मान बैठते हैं कि उनकी फिल्में सिर्फ उन्हें ही या किसी खास वर्ग को समझ में आयेगी और ऐसी फिल्में बनानेवाले को जबरन (मास) से अलग कर दिया जाता है. जबकि मेरा मानना है कि मणि कौल की फिल्मों ने हिंदी सिनेमा में कई रूप से दशा और दिशा दिखाई है. उनके किसी इंटरव्यू में मैंने पढ़ा था कि वह मुंबई आये थे अभिनेता बनने के लिए. उनके चाचा मुंबई में फिल्म निदर्ेशक थे. महेश कॉल नाम था उनका. उनके निवेदन पर ही उन्हें फिल्म इंडस्ट्री में आने की रजामंदी मिली. उनकी सलाह पर ही उन्होंने पुणे के फिल्म स्कूल में समय बिताया. उन्होंने अपनी बातचीत में बताया था कि उन्होंने जब रॉबर्ट ब्रेसो की पिकपॉकेट देखी तो उसने उनका नजरिया बदल दिया था. उसके बाद वह बस ब्रेसो में ही रम गयी. उनकी सोच व नजरिये का ही यह नतीजा था कि उन्होंने अपनी शुरुआत फिल्म इंडस्ट्री में डॉक्यूमेंट्री बनाने से की थी. इसके बाद कई वर्षों के बाद उन्होंने वर्ष 1968 में पहली फीचर फिल्म बनायी. उनकी फिल्मों की खास बात मुझे यह लगी कि फिल्मों में वह थियेटर, गीत-संगीत और गीतों का भरपूर इस्तेमाल करते थे. जिसका कम से कम अब की फिल्मों में तो जरा भी इस्तेमाल नहीं होता. उनकी फिल्मों की खासियत यह रही कि गंभीर होने के बावजूद उन्होंने दर्शकों से ताल बिठा कर रखने की कोशिश की. एक बार किसी प्रेस वार्ता के दौरान उन्होंने कहा था कि आज भी फिल्मों के निर्माण का भूगोल नहीं बदला है. कुल 25 राज्यों में आधे से अधिक फिल्में बन रही हैं. हिंदी फिल्मों का स्थान तीसरा है. लेकिन स्तर देखें तो उसमें काफी फर्क आया है. मणि इस बार पर हमेशा असंतोष जताते थे कि हम दूसरों की नकल कर रहे हैं. वे इस बात को एक बड़े खतरे के रूप में देखते थे कि भारतीय भाषाओं में अमेरिकी फिल्में डब कर क्यों दिखायी जाती हैं. इस वजह से भी हमारा हिंदी सिनेमा जगत कमजोर होता जा रहा है. उन्होंने हमेशा इस बात को उजागर करने की कोशिश की है कि भारतीय सिनेमा अपनी पहचान दरअसल खोता जा रहा है. उनका मानना था कि हमारे पास बहुत कुछ है जिसे हम अपने सिनेमा में दिखा कर वास्तविकता प्रदान कर सकते हैं. लेकिन हम ऐसा कर नहीं रहे. मणि ने अपनी पहली फिल्म से ही अपनी अलग सोच को जाहिर कर दिया था. उसकी रोटी उनकी पहली फिल्म थी. जो मोहन राकेश की कहानियों पर आधारित थी. उनकी फिल्मों की खास वजह यह भी रही कि उन्होंने अपनी फिल्मों में कल्पना के आधार पर कई खूबसूरत सिंबल का इस्तेमाल किया है. उन्होंने भारत की कलाकृतियों को भी खूबसूरत तरीके से लोगों तक पहुंचाया है. अपनी फिल्मों के माध्यम से. उन्होंने जब जब जिस भी माध्यम से मुनासिब समझा. मुमकिन हो सका. गीत संगीत का इस्तेमाल किया. सच कहूं तो उनकी फिल्में देख कर यही महसूस होता था कि वे लघु कहानियां जो किताबों में हैं वह अचानक उनकी फिल्मों के माध्यम से उठ कर चलने लगती हैं. एक बात और गौर करने की थी कि उन्होंने अपनी हर फिल्म में अपना अलग विजन शो करने की कोशिश की. उनकी फिल्म दुविधा उसकी रोटी से बिल्कुल अलग थी. उन्होंने दुविधा में मानवशास्त्रीय मुद्दों को उजागर करने की कोशिश की थी. उनकी कोशिश होती थी कि वह अपने दर्शकों को अपनी फिल्मों से वर्तमान में या इतिहास के सामाजिक-राजनीतिक आर्थिक रूप की स्थिति की जानकारी दे सकें. अगर उनकी फिल्म सत्ते से उठा आदमी की बात करें तो उन्होंने एक बेहतरीन फिल्म बनायी. उन्होंने फिल्म में सूत्रधार की भूमिका जोड़ी. कह सकते हैं कि उसी वक्त से फिल्मों में सूत्रधार का प्रचलन शुरू हो गया. उन्होंने सिर्फ फीचर फिल्म. बल्कि डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के माध्यम से भी कई महत्वपूर्ण काम किये. उनमें धु्रपद प्रमुख हैं. कहना होगा कि

उनका कार्य एक इनसाइक्लोपीडिया की तरह है, जिसमें जीवन का रोमांच भी रस भी है. मणि उन भारतीय फिल्मकारों में से एक हैं, जिनका काम सत्यजीत रे की तरह वर्ल्ड सिनेमा में हमेशा याद किया जाता रहेगा. उनके काम की चर्चा होती रहेगी. चूंकि सच्चाई भी है. संकेत भी है और साथ ही एक सामाजिक-राजनैतिक चेतना भी. अपने नाम की तरह ही वे फिल्मों में महत्वपूर्ण रत्न के रूप में हमेशा यााद आते रहेंगे.