संगीत के मामले में भारत सदा से समृद्ध रहा है लेकिन आज के दौर में हमारे पैर संगीत में जमने की बजाय उखड़ते जा रहे हैं. विशेष रूप से फिल्म संगीत में गिरावट आती जा रही है और उसकी वजह है विषय. अच्छे बदलाव को हमेशा वेलकम किया जाता रहा है और किया जाता रहेगा. लेकिन अफसोस की बात है कि पिछले दस सालों से हम अपना कल्चर भूलते जा रहे हैं. अब हम वेस्टर्न कल्चर के इतने अधीन हो चुके हैं कि हमारे खान पान, हमारे लिबास, हमारे व्यवहार में भी वेस्टर्न कल्चर का प्रभाव बढता जा रहा है. हमारे समय में बडों से आंखें भी नहीं मिलाई जाती थी. यह मेरा मानना है कि कुछ लोग और कुछ ऐसी ताकतें हैं जो हमारे भारत के कल्चर को तहस नहस करना चाहती हैं. हमारे देश में हर जाति के लोग रहते हैं. सभी अपना अपना लिबास पहनते हैं. ईसाई समाज में स्कर्ट पहनने का रिवाज़ है, जो हमारे हिंदू समाज में नहीं है लेकिन हमें इसमें भी कोई आपित्त नहीं क्योंकि वह उनका कल्चर है. और मैं सभी कल्चर का सम्मान करता हूं. मुझे दुख इस बात का है कि हमारी लड़कियां ऐसे कपडे पहन रही हैं जिनके बारे में बात भी नहीं कर सकते. अगर किसी प्रोफेशन की मांग छोटे छोटे कपड़े पहनना है तो ठीक क्योंकि यह उनका रोजगार है. मैं फैशन की बजाय प्रोफेशन को महत्व देता हूं. अगर घर की बहू बेटी मां इस तरह के लिबास पहनने लगे तो हमारा हिंदुस्तान कहां जाएगा ? वेस्टर्न कल्चर से प्रभावित होते होते अब यह हाल है कि हमनें उनकी छोटी छोटी बातों को भी अपनाना शुरू कर दिया है. अगर मैं यह कहूं तो कतई गलत नहीं होगा कि हमारी फिल्मों में ८० प्रतिशत प्रभाव विदेशी सभ्यता का है. बचे हुए 20 प्रतिशत में कहीं हिंदुस्तान नजर आता हो तो कह नहीं सकता. हिन्दुस्तान में नारी सुन्दरता को हमेशा सर्वोपरि माना गया है. कुदरत ने नारी को सुंदर ही इसलिए बनाया है कि वह नर को आकर्षित करें. लेकिन उस आकर्षण में भी कहीं खुलापन नहीं होता. आदिवासी समाज में भी अभावों के बावजूद जो कपडे पहनें जाते हैं वह भी अंग ढंकने के लिए पर्याप्त होते हैं. मेरा मानना है कि आज के संगीत के पैर उखडने की सबसे बडी वजह आज की फिल्में हैं. और यह बात मुझे काफी डिस्टर्ब करती है. जो फिल्में हमनें बनाई थी क्या वह फिल्में नहीं थी ? आजकल फिल्में हिट कराने के लिए 100 करोड़ तक प्रमोशन के लिए लगा दिए जाते हैं और उसके बावजूद फिल्में हिट नहीं होती. उन फिल्मों में जो गाने होते हैं उन्हें मैं गाना भी नहीं कहता. इलेक्ट्रॉनिक रिदम पर सब कुछ सेट होता है. पहले सभी गानें सभी तालों की जननी कहरवा पर आधारित होती थी जिसे चार मात्रा या चार बीट कहते हैं. अब चार बीट को आधा कर गाने सेट किये जाते हैं. ऐसे गीतों को पाने के लिए नायिकाओं में होड़ लगी रहती है, जिन्हें आइटम सॉंग भी कहते हैं. लोगों को उनका डांस बहुत अच्छा लगता है लेकिन मेरे हिसाब से वह डांस नहीं है. मैं उसे मात्र बॉडी मूवमेंट कहता हूं. आज हर हीरोइन सेक्सी कहलाना चाहती है. वह इसमें खुद को प्राऊड समझती है.
हम विकास के नये पायदान तय करते जा रहे हैं, लेकिन आज भी हमारे देश में कई ऐसे लोग हैं जो किसी कारणवश पढ़ नहीं सके हैं. यहां पढ़े लिखों से मेरा मतलब ग्रेज्युएट होना नहीं बल्कि साक्षर होना है. मैं समझता हूं मैंने ऐसे लोगों को हमेशा अपने गीत संगीत से शिक्षित करने का प्रयत्न किया है. कुछ शब्द, कुछ बोल जानबूझकर गीतों में इस्तेमाल किये हैं जिसे मेरे किसान और मजदूर भाई सुनें और उसका अर्थ जानें. इसे मैं अपना मिशन मानता हूं जिसमें मैं पूरी तरह से कामयाब हुआ हूं.
फिल्मों में मैं के. एल सहगल की एिक्टंग से प्रभावित होकर आया था. मूल रूप से मैं जालंधर के छोटे से शहर राहों का रहनेवाला हूं लेकिन अक्सर मुझे मीडिया ने ग्राम वासी कहा है. सो मैं सभी से यह बात साफ कर देना चाहता हूं कि मैं एक ऐसे शहर से हूं जहां बी.एम.सी., अस्पताल, स्कूल, टूरिस्ट बंगले, पुलिस थाना जैसी सभी सुविधाएं थी जो गांव में मिलना मुमिकन नहीं है. इसके अलावा बड़ी बड़ी झीलें थी, जिनमें समुद्री बत्तखें भारी मात्रा में आती थी. वहां बनें टूरिस्ट बंगलों में अंग्रेज शिकार के इरादे से रहने आते थे. इन सबमें सबसे बड़ी बात यह थी कि हमारा स्टेशन टर्मिनस था. वहां से लाहौर और दूसरी जगह के लिए लंबी दूरी की ट्रेनें चलती थी. उस समय वहां लॉरी चलती थी जिन्हें मसद कहते थे. उनमें भोंपू लगे रहते थे. उसकी आवाज़ दूर से ही सुनकर हम जान जाते थे कि यह लॉरी है. उन दिनों ऐसी र्इंटें नहीं थी बल्कि छोटी छोटी र्इंटे हुआ करती थी. र्इंटों में रेत की जगह चूना मिलाकर घर बनाया जाता था. हमारा पूरा शहर उसी से बना था. उन दिनों सिनेमा को बाइस्कोप और सिनेमाघर को मंडुआ कहते थे. सिनेमाघर के अलावा ड्रामा और थियेटर कंपनी को भी मंडुआ ही कहा जाता था. उन दिनों जालंधर पांच डिस्ट्रिक्ट डिविजन का हेडक्वार्टर हुआ करता था और यही उसकी खूबी थी. मेरे बड़े भाई जान जालंधर में ट्रांसपोर्ट का बिजनेस करते थे. हर हफ्ते शनिवार को हम वहां जाते और रविवार रात को घर लौट आते. शनिवार को स्कूल का आधा दिन होता था. दोपहर 12 बजे हम सब भाई बहन आते और जल्दी जल्दी कुछ खाकर दोपहर 2 बजे की ट्रेन से रवाना हो जाते. उन दिनों कोयले से ट्रेनें चलती थी जिनसे पूरा कपड़ा खराब हो जाता था. उसी दौरान डीजल से चलनेवाली ट्रेनें शुरू हुर्इं. उसमें सिर्फ एक डिब्बा होता था. उसका भाड़ा भी बहुत था. लेकिन हम उसी डीजल ट्रेन से जाते थे. भाईजान स्टेशन पर हमें लेने आते और साथ ही सिनेमा की टिकटों की बुकिंग करके आते. सिनेमा देखने के दौरान हमारे खाने पीने का भी पर्याप्त प्रबन्ध वह करते थे. हर हफ्ते पहले दिन ही हम दो शो जरूर देखते थे. उन दिनों मैं पांचवी कक्षा में था और मेरी उम्र यही कोई दस साल रही होगी.
राहों से जालन्धर जाते समय एक छोटा सा स्टेशन पड़ता था खटकड कलां. जब कभी यात्रा के दौरान हमारे अब्बा जान साथ होते तो वह हम सभी भाई बहनों को उस स्टेशन पर उतारते और पिंड (गांव) को सलाम और प्रणाम दोनों करवाते. यह मेरे वालिद का ही प्रभाव था कि फिल्म इंडस्ट्री में आने के बाद मैंने ही सलाम और प्रणाम दोनों करने की शुरुआत की. मुझसे पहले हिंदू भाई प्रणाम और मुस्लिम भाई सलाम करते थे. खैर, खटकड कलां स्टेशन पर हम सभी को उतारकर सलाम और प्रणाम करने की वजह बताते हुए उन्होंने हमें कहा था, ‘’इसी पिंड विच भगत सिंह जन्म्यासी (इसी गांव में भगत सिंह जन्मा था).’’ फिर वह हमें भगत सिंह की कहानी सुनाते कि किस कदर हमें आजादी दिलाने के लिए उन्होंने मशक्कत की. यही वजह है कि मैं अपने खून में भगत सिंह को महसूस करता हूं. मैंने संगीत के जरिए ही आज़ादी की लड़ाई लड़ी है और जीती है. मैं आज भी खुद को भगत सिंह मानता हूं और यही कहता हूं कि मैं कभी अपने संगीत को नीचा होने नहीं दूंगा. मैं अपनी मातृभूमि के दामन पर कोई धब्बा लगने नहीं दूंगा. अपने पूरे फिल्मी करियर में मैंने कभी कोई घटिया गाना नहीं दिया. फिल्मी, नॉन फिल्मी सभी को मिलाकर 600 से भी अधिक गाने मैने बनाये लेकिन कोई गीत किसी का कॉपी नहीं किया. सभी बेजोड़ और अपने आपमें अनोखे हैं. खैर, जालंधर पहुंचकर हम सिनेमा देखते. सिनेमा में मुख्य रूप से हम के. एल. सहगल की फिल्में देखना खूब पसंद करते थे. उनकी एक्टिंग इतनी नैच्युरल होती थी कि लगता ही नहीं था कि वह एक्टिंग कर रहे हैं. उन्हें देखकर मुझे लगता था अरे इसमें कौन सी बड़ी बात है, इनकी तरह एिक्टंग तो हम भी कर सकते हैं. उनकी एिक्टंग के साथ उनकी गायकी का मैं इतना कायल हो गया था कि बचपन में ही तय कर लिया कि चाहे जो हो जाए के एल सहगल जैसा नायक बनना है. इसके लिए मैं दस साल की उम्र में घर से भागकर दिल्ली चला आया था लेकिन फिर जैसे तैसे घरवाले मुझे घर ले गये.
हमारे मुस्लिम समाज में उन दिनों कोई भी संगीत को प्रोफेशन नहीं बनाता था क्योंकि लाखों में कोई एक ही बुलन्दी पर पहुंच पाता था. और बाकी लोग भूखे मरते थे. गानेवाले बजानेवालों के अलावा शायरों को भी हेय दृष्टि से देखा जाता था. क्योंकि उनकी माली हालत अच्छी नहीं होती थी. यही वजह थी कि घरवाले बच्चों को संगीत के प्रति डिसकरेज करने के साथ साथ पनिशमेंट भी देते थे. जहां तक मेरे परिवार की बात है तो मेरे परिवार का माहौल काफी साहित्यिक था. हमारे घर में बहुत बड़ी लाइब्रेरी थी. कहानी, कविताओं के अलावा कमोबेश सभी शायरों की किताबें थी. किताबों की तरह ही बडे बडे कलाकारों के ग्रामोफोन रिकॉर्ड्स भी आते रहते थे. उन सभी रिकॉर्ड्स को सुनकर बाकायदा हमारे यहां उस पर चर्चा होती. तब तो हम बच्चे थे लेकिन उन चर्चाओं को सुनकर हमें बहुत अच्छा लगता. मुस्लिम माहौल होने के बावजूद हमारे यहां भजनों के भी रिकॉर्ड्स आते जो बड़े चाव से सुने जाते.
मैंने कभी मीडिया से अपने लिए ना किसी सकारात्मक आर्टिकल की फरियाद की और ना ही अवार्डस की. मैंने पूरे लगन से सिर्फ और सिर्फ अपना काम किया. यही वजह है कि मेरे गीतों को बच्चे बच्चे ने गाया. मैंने पूरी प्रतिबद्धता से अपना काम किया. ऐसा नहीं है कि मेरे जीवन में कभी कोई परेशानी नहीं आई. फिर भी अपने करियर में मैंने हर वो चीज पाई जिसकी मैंने तमन्ना की थी. मैंने शुरू से क्वांटिटी की बजाय क्वालिटी में विश्वास किया है. मैंने भले ही 60 फिल्में और 9 सीरियल किये हों लेकिन मैंने अपने नेशन को 9 रत्न दिये हैं जिनमें गजल, गीत, शबद, नाद, किर्तन शामिल हैं. खैय्याम एक स्टायल है किसी से नहीं मिलता. आपको खैय्याम के काम की स्टायल बडे बडे संगीतकारों में मिलेगी लेकिन खैय्याम सिर्फ खैय्याम में ही मिलेंगे. मैं समझता हूं जहां जहां भी मेरे भजनों की, मेरे गज़लों की और मेरे गीतों की झलक मिली उस संगीतकार ने मुझे इज़्ज़त बख्शी. मैंने अधिकतर कवियों और शायरों के साथ काम किया. मुझे खुशी है कि जिस तरह का साहित्यिक माहौल मुझे घर पर मिला वही माहौल मुझे फिल्मों में भी मिला. रिकॉर्डिंग के दौरान माहौल ऐसा होता था जैसे हम खुदा की इबादत कर रहे हों. दरअसल हमारी रिहर्सल्स इतनी जबर्दस्त होती थी कि वन गो में हमारी रिकॉर्डिंग सक्सेसफुली हो जाती थी.
संगीत के मद्देनजर इस माहौल को मैं बहुत अच्छा तो नहीं कहूंगा लेकिन जिस तरह फिल्मों में इन दिनों सूफी कलाम लिए जा रहे हैं उनसे मुझे आशा की किरण नजर आई है. हालांकि मैं यह भी कहता हूं कि पूराने गानों में जो मेलोडी हुआ करती थी वह आज नदारद है. फिर भी मैं उम्मीद करता हूं कि कुछ प्रोड्यूसर्स और संगीतकारों की वजह से वह मेलोडी वापस आ जाए. आज गानें सुनने की बजाय देखने की चीज बन चुकी है सो मैं बहुत ज्यादा गाने नहीं सुनता. फिर भी अपने लोगों से मैं यह कहना चाहूंगा कि आप चाहे जो भी करें लेकिन अपनी तहज़ीब ना छोडे. साथ ही मैं यह भी कहना चाहता हूं कि क्या हमारी हिन्दुस्तानी नारियां जब हिन्दुस्तानी लिबास पहनती हैं तो सुन्दर नहीं लगती ? अगर यकीन ना हों तो देवियों को देखिये. मैं यह नहीं कहता कि वह देवी बन जाएं लेकिन उनका अन्दाज़ ऐसा हो कि वह खूबसूरत भी लगें और भद्र भी. मैं ऐसे लिबास में यकीन नहीं करता जो लोगों को जानवर बना दे. जमाना बदल रहा है और बदलना भी चाहिए लेकिन यह बदलाव सकारात्मक होना चाहिए. हमारे जमाने में स्ट्रिप क्लब होते थे जो एक बन्द कमरे में होता था. लेकिन आज यह खुले आम हमारे टेलीविजन और फिल्मों में होता है. अब गानों की शुरूआत मधुर धुनों की बजाय फास्ट पेस इलेक्ट्रॉनिक गिटार की बेसुरी चींख से होता है. देखिए इंस्ट्रूमेंट चाहे इंडियन हो या वेस्टर्न उनसे निकलने सात सुर ही हैं. यह भी गलत नहीं कि इलेक्ट्रॉनिक रिदम अब हमारी संगीत की जरूरत बन चुकी है. अगर किसी एक इंडियन इंस्ट्रूमेंट का इस्तेमाल हम करना चाहें तो अब वह मुमिकन भी नहीं इससे रिकॉर्डिंग में क्लैरिटी नहीं आएगी. इलेक्ट्रॉनिक रिदम अब हमारी जरूरत बन चुके हैं लेकिन ध्यान देनेवाली बात यह है कि आप उसका इस्तेमाल कैसे करते हैं. और सबसे बडी बात इलेक्ट्रॉनिक रिदम का इस्तेमाल सबसे पहले मैंने कल्याण जी भाई के साथ किया था. हालांकि मेडिकल साइंस ने यह चेतावनी दे दी है कि यदि आप लगातार लाऊड म्युजिक सुनते रहें तो आप धीरे धीरे मेंटल सीकनेस का शिकार हो जाएंगे. एक बुरी बात मैं जो देख रहा हूं वह है सिंगिंग से जुडे लोगों में ड्रग्स का सेवन. अब इसे पैसा और पोजिशन से जोडकर देखा जाने लगा है.
मैं मानता हूं कि मैं आजाद हूं. आजाद इस दृष्टिकोण से कि मैंने कभी किसी की वजह से या किसी से प्रभावित होकर काम नहीं किया. मैंने वही किया तो मुझे करना था. सो, मैं खुद को हमेशा आजाद महसूस करता हूं. मैं तो जिस देश था. वहां आजादी की गाथाएं सुनाई जाती थी. फिर मैं क्यों कहूंगा कि मैं आंदोलनकारी नहीं. मैं खुश हूं संतुष्ट हूं.
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