मेरा मानना है कि हम बड़े अगर यह सोचते हैं कि इन दिनों टेलीविजन या सिनेमा में सबकुछ बुरा ही परोसा जा रहा है और इसलिए बच्चों को इससे दूर रखना चाहिए. तो यह सोच हमारी बिल्कुल गलत है. चूंकि मैं मानता हूं कि वर्तमान में जिस तरह से दुनिया बदल रही है. तकनीक हर दिन बदल रहे हैं और जिस तरह की फिल्में अब बनने लगी है. मुझे लगता है कि बच्चों को फिल्मों से अवगत कराना चाहिए. चूंकि अब दौर यह नहीं कि आप केवल बच्चों को बच्चे समझ कर रह जायें. बच्चे अब दिमागदार हो गये हैं और मुझे लगता है कि उनक ेविकास के लिए यह अच्छा है. टेलीविजन पर जितने कार्यक्रम आते हैं. सभी बुरे ही होंगे. यह सोच गलत है. मेरा मानना है कि कौन बनेगा करोड़पति जैसे रियलिटी शोज बच्चों ज्ञान वर्धक ही होते हैं. हां, यह सच है कि पहले जितने क्वीज शो आते थे. अब उनकी संख्या कम हो गयी है. मुझे लगता है कि क्वीज शो की संख्या बढ़ाने की जरूरत है. दूसरी बात है. हर बार सिनेमा और टीवी पर दोष मढ़ा जाता है कि वह बच्चों को बिगाड़ रहे हैं. बुरी चीजें दिखा रहे हैं. मैं पूछता हूं कि हाल में बनी उन फिल्मों का नाम बता दें जिसका असर बच्चों पर बुरी तरह हुआ हो. मुझे तो लगता है कि अगर आप बहुत छोटे बच्चों की बात कर रहे हैं तो उनमें शुरुआती दौर में तो उतनी समझ ही नहीं होती कि वह यह समझ पायें कि क्या सही है क्या गलत. वह सिर्फ ज्यादातर कार्टून देखना ही पसंद करते हंै. अगर थोड़े बड़े बच्चों की बात कर रहे हैं तो मैं तो देखता हूं कि वे तो भारत के शोज देखते ही नहीं. वे भारत की फिल्में देखते ही नहीं. आज कल के बच्चे हमसे ज्यादा समझदार हो चुके हैं. वे खुद इस बात को जानते हैं कि उनके लिए क्या सही है क्या गलत. वे रोचक चीजें देखना पसंद करते हैं और देश विदेश की चीजें. तो वह तो देख ही रहे हैं. ऐसे में आप उन पर पाबंदी नहीं लगा सकते. मुझे तो लगता है कि वर्ल्ड सिनेमा देखने से उनकी सोच में और इजाफा होता है. वे खुद को इनहांस करते हैं. यह अच्छी बात है कि बच्चे ज्यादा से ज्यादा मीडियम से जुड़ें. हां, अगर कुछ ऐसी चीजें हैं जो बच्चों को नहीं देखनी चाहिए तो यह उनके पेरेंट्स को चाहिए कि उन्हें प्यार से समझाये. लेकिन मुझे तो लगता है कि बच्चों पर प्रभाव के दृष्टिकोण से बहुत बुरी चीजें नहीं हुई. आप देखें न कि फिल्म दबंग के बाद वह बेल्ट डांस कितना फेमस हुआ. बच्चे हर जगह वह बेल्ट डांस करना चाहते हैं. वे सलमान खान को सलमान के नाम से नहीं दबंग या चुलबुल पांडे या फिर बॉडीगार्ड के नाम से जानते हैं. वजह उन्हें अच्छा लगता है कि जिस तरह वह कार्टून फिल्मों में देखते हैं कि उनके कार्टून इसी तरह अपने दुश्मनों को मारता गिराता है. तो उन्हें अच्छा लगता है और वे एंजॉय करते हैं. बहुत छोटे बच्चों की बात की जाये तो मैं देखता हूं कि वे कार्टून देख कर अच्छी चीजें सीखते हैं. चंूकि आप गौर करेंगे तो अधिकतर कार्टून शोज या धारावाहिक में मूल्यों नैतिक मूल्यों की काफी बात की जाती है. उतनी नैतिक मूल्यों की बातें किसी और दौर में हुआ करती थी. बच्चा उसे देखता है और फिर सीखता है कि हमें कैसे अपने बड़ों का मान करना चाहिए. अपने दोस्तों का साथ देना चाहिए, वे वैसा करते हैं. क्योंकि वे उन्हें आइडिल मानने लगते हैं. तो इस लिहाज से आप देखें वह बच्चों के लिए पाठशाला ही तो है. बच्चे शाहरुख सलमान को नहीं जानते. उनके किरदारों को जानते हैं. इससे स्पष्ट है कि वे केवल मनोरंजन के रूप में इसे ले रहे हैं. बाजार में इतने गेम्स आते हैं फिल्मों पर, गिफ्ट्स, किताबें. कॉपियों, बॉटल में छोटा भीम बना रहता है और बच्चों की इच्छा होती है कि वे उसे ही खरीदें .चूंकि थोड़ी देर के लिए ही सही उन्हें लगता है कि वह उस दुनिया में चले गये हैं. तो मुझे इसमें कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं दिखता. हां, अगर बच्चे किसी फिल्म या टीवी से अपशब्द सीख रहे हैं, तो यह सोचनीय मुद्दा है. तब आपको इस पर सोचना होगा. लेकिन इसके लिए आप फिल्मों की मेकिंग को दोष नहीं दे सकते. आज कल तो हर तरह की फिल्में आ रही हैं. अच्छे विषयों की फिल्में. चाहिए कि पेरेंट्स इसे लेकर सतर्क हों कि उनके बच्चों को वह किस तरह की फिल्में दिखाना चाहते हैं. िकस तरह की नहीं. वे अगर किसी एडल्ट फिल्म को देखने जा रहे हैं तो वहां बच्चों को न ले जायें. बच्चा कोई गंदे शब्द का इस्तेमाल करे. लेकिन मैं नहीं मानता कि बच्चों पर जो प्रभाव होता है. उसका पूरा दोष फिल्म और टीवी को दिया जाना चाहिए. घर परिवार में आपका क्या माहौल है. बच्चा उससे भी तो सीखता है. बच्चा अगर किसी गाने की बोल याद कर लेता है तो वह बोल भी याद कर लेता है. जो माता पिता से सुनता है. किसी दौर में से न समथिंग टू अनुपम अंकल जैसे जो शो थे. उसमें बच्चे कितनी मासूमियत से वे बातें भी कह जाते थे जो उन्हें नहीं कहना अपनी मां पापा की बातें. तो यह इसलिए होता था. क्योंकि वे अपने माता पिता के बातों के कहने के अंदाज को भी कैप्चर कर लेते हैं तो सिर्फ टीवी और सिनेमा को दोष नहीं दिया जा सकता. हां, मैं यह जरूर कहना चाहूंगा कि पूरी तरह से बच्चों पर आधारित फिल्में अब कम बनने लगी हैं. लेकिन ऐसा नहीं कि ऐसी कोई फिल्म नहीं बन रही. जो बच्चे नहीं देख सकते. जो फिल्में बच्चों को नहीं देखनी चाहिए. उसके लिए वैसे भी उन्हें सर्टिफाइड किया ही जाता है तो मुझे नहीं लगता कि इसमें किसी भी तरह की कोई परेशानी होनी चाहिए.मेरा यह भी मानना है कि हिंदी सिनेमा में लगातार जिस तरह के विषयों पर फिल्में बनने लगी हैं. यह दर्शकों को नयी चीजें दे रही है. अब केवल हंसने हंसाने के लिए फिल्में नहीं बन रहीं. दूसरी तरफ देखिए कि किस तरह हॉलीवुड की फिल्में आ रही हैं लगातार भारत में रिलीज हो रही हैं तो दर्शक अब चाहते हैं कि वैसी फिल्में भारत में भी बने. खासतौर से बच्चों में इसे लेकर काफी जागरूकता है. फिल्मों के बारे में वह दिलचस्पी रखते हैं. वे जानते हैं कि देश दुनिया में क्या चीजें हो रही हैं. वर्ल्ड सिनेमा में कितनी बेहतरीन फिल्में बन रही हैं तो मुझे लगता है कि ऐसे विषयों का तो खास असर हो रहा है बच्चों पर. सिनेमा और टीवी ने तो बच्चों को सोचने पर मजबूर किया है कि अब वह कई करियर आॅप् शन के बारे में सोचने लगे हैं. यह सिनेमा और टीवी का ही प्रभाव है. मुझे लगता है कि अब टीवी इंडस्ट्री में जिस तरह के तकनीकों का इस्तेमाल हो रहा है. जिस तरह से बदलाव हो रहे हैं. अब चीजें आसान हुई हैं और बच्चों पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा है. बच्चे अब ज्यादा अपटू डेट रह रहे हैं. जहां तक बात है बाल कलाकारों को काम करवाने की तो मेरा बस कहना है कि बच्चे हैं तो उनकी पढ़ाई की हानि न हो और उन्हें अत्यधिक श्रम न कराया जाये. शेष जहां , जिन फिल्मों, जिस धारावाहिक में किरदार बच्चों को हैं तो उन्हें तो शामिल करना ही होगा. हां, यह हो सकता है कि मेकर्स इस बात का ख्याल रखें कि वे जिस तरह के किरदारों में बच्चों को दिखा रहे हैं. वे किरदार बच्चों को उत्तेजित न करें. वे बच्चों का मनोरंजन करे. उसका ऐतिहासिक महत्व बढ़ाये. तो इसमें कोई संदेह नहीं कि बच्चे अच्छी चीजें ही लेंगे टीवी से. फिल्मों से.
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20130903
रमेश सिप्पी, निर्देशक
मेरा मानना है कि हम बड़े अगर यह सोचते हैं कि इन दिनों टेलीविजन या सिनेमा में सबकुछ बुरा ही परोसा जा रहा है और इसलिए बच्चों को इससे दूर रखना चाहिए. तो यह सोच हमारी बिल्कुल गलत है. चूंकि मैं मानता हूं कि वर्तमान में जिस तरह से दुनिया बदल रही है. तकनीक हर दिन बदल रहे हैं और जिस तरह की फिल्में अब बनने लगी है. मुझे लगता है कि बच्चों को फिल्मों से अवगत कराना चाहिए. चूंकि अब दौर यह नहीं कि आप केवल बच्चों को बच्चे समझ कर रह जायें. बच्चे अब दिमागदार हो गये हैं और मुझे लगता है कि उनक ेविकास के लिए यह अच्छा है. टेलीविजन पर जितने कार्यक्रम आते हैं. सभी बुरे ही होंगे. यह सोच गलत है. मेरा मानना है कि कौन बनेगा करोड़पति जैसे रियलिटी शोज बच्चों ज्ञान वर्धक ही होते हैं. हां, यह सच है कि पहले जितने क्वीज शो आते थे. अब उनकी संख्या कम हो गयी है. मुझे लगता है कि क्वीज शो की संख्या बढ़ाने की जरूरत है. दूसरी बात है. हर बार सिनेमा और टीवी पर दोष मढ़ा जाता है कि वह बच्चों को बिगाड़ रहे हैं. बुरी चीजें दिखा रहे हैं. मैं पूछता हूं कि हाल में बनी उन फिल्मों का नाम बता दें जिसका असर बच्चों पर बुरी तरह हुआ हो. मुझे तो लगता है कि अगर आप बहुत छोटे बच्चों की बात कर रहे हैं तो उनमें शुरुआती दौर में तो उतनी समझ ही नहीं होती कि वह यह समझ पायें कि क्या सही है क्या गलत. वह सिर्फ ज्यादातर कार्टून देखना ही पसंद करते हंै. अगर थोड़े बड़े बच्चों की बात कर रहे हैं तो मैं तो देखता हूं कि वे तो भारत के शोज देखते ही नहीं. वे भारत की फिल्में देखते ही नहीं. आज कल के बच्चे हमसे ज्यादा समझदार हो चुके हैं. वे खुद इस बात को जानते हैं कि उनके लिए क्या सही है क्या गलत. वे रोचक चीजें देखना पसंद करते हैं और देश विदेश की चीजें. तो वह तो देख ही रहे हैं. ऐसे में आप उन पर पाबंदी नहीं लगा सकते. मुझे तो लगता है कि वर्ल्ड सिनेमा देखने से उनकी सोच में और इजाफा होता है. वे खुद को इनहांस करते हैं. यह अच्छी बात है कि बच्चे ज्यादा से ज्यादा मीडियम से जुड़ें. हां, अगर कुछ ऐसी चीजें हैं जो बच्चों को नहीं देखनी चाहिए तो यह उनके पेरेंट्स को चाहिए कि उन्हें प्यार से समझाये. लेकिन मुझे तो लगता है कि बच्चों पर प्रभाव के दृष्टिकोण से बहुत बुरी चीजें नहीं हुई. आप देखें न कि फिल्म दबंग के बाद वह बेल्ट डांस कितना फेमस हुआ. बच्चे हर जगह वह बेल्ट डांस करना चाहते हैं. वे सलमान खान को सलमान के नाम से नहीं दबंग या चुलबुल पांडे या फिर बॉडीगार्ड के नाम से जानते हैं. वजह उन्हें अच्छा लगता है कि जिस तरह वह कार्टून फिल्मों में देखते हैं कि उनके कार्टून इसी तरह अपने दुश्मनों को मारता गिराता है. तो उन्हें अच्छा लगता है और वे एंजॉय करते हैं. बहुत छोटे बच्चों की बात की जाये तो मैं देखता हूं कि वे कार्टून देख कर अच्छी चीजें सीखते हैं. चंूकि आप गौर करेंगे तो अधिकतर कार्टून शोज या धारावाहिक में मूल्यों नैतिक मूल्यों की काफी बात की जाती है. उतनी नैतिक मूल्यों की बातें किसी और दौर में हुआ करती थी. बच्चा उसे देखता है और फिर सीखता है कि हमें कैसे अपने बड़ों का मान करना चाहिए. अपने दोस्तों का साथ देना चाहिए, वे वैसा करते हैं. क्योंकि वे उन्हें आइडिल मानने लगते हैं. तो इस लिहाज से आप देखें वह बच्चों के लिए पाठशाला ही तो है. बच्चे शाहरुख सलमान को नहीं जानते. उनके किरदारों को जानते हैं. इससे स्पष्ट है कि वे केवल मनोरंजन के रूप में इसे ले रहे हैं. बाजार में इतने गेम्स आते हैं फिल्मों पर, गिफ्ट्स, किताबें. कॉपियों, बॉटल में छोटा भीम बना रहता है और बच्चों की इच्छा होती है कि वे उसे ही खरीदें .चूंकि थोड़ी देर के लिए ही सही उन्हें लगता है कि वह उस दुनिया में चले गये हैं. तो मुझे इसमें कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं दिखता. हां, अगर बच्चे किसी फिल्म या टीवी से अपशब्द सीख रहे हैं, तो यह सोचनीय मुद्दा है. तब आपको इस पर सोचना होगा. लेकिन इसके लिए आप फिल्मों की मेकिंग को दोष नहीं दे सकते. आज कल तो हर तरह की फिल्में आ रही हैं. अच्छे विषयों की फिल्में. चाहिए कि पेरेंट्स इसे लेकर सतर्क हों कि उनके बच्चों को वह किस तरह की फिल्में दिखाना चाहते हैं. िकस तरह की नहीं. वे अगर किसी एडल्ट फिल्म को देखने जा रहे हैं तो वहां बच्चों को न ले जायें. बच्चा कोई गंदे शब्द का इस्तेमाल करे. लेकिन मैं नहीं मानता कि बच्चों पर जो प्रभाव होता है. उसका पूरा दोष फिल्म और टीवी को दिया जाना चाहिए. घर परिवार में आपका क्या माहौल है. बच्चा उससे भी तो सीखता है. बच्चा अगर किसी गाने की बोल याद कर लेता है तो वह बोल भी याद कर लेता है. जो माता पिता से सुनता है. किसी दौर में से न समथिंग टू अनुपम अंकल जैसे जो शो थे. उसमें बच्चे कितनी मासूमियत से वे बातें भी कह जाते थे जो उन्हें नहीं कहना अपनी मां पापा की बातें. तो यह इसलिए होता था. क्योंकि वे अपने माता पिता के बातों के कहने के अंदाज को भी कैप्चर कर लेते हैं तो सिर्फ टीवी और सिनेमा को दोष नहीं दिया जा सकता. हां, मैं यह जरूर कहना चाहूंगा कि पूरी तरह से बच्चों पर आधारित फिल्में अब कम बनने लगी हैं. लेकिन ऐसा नहीं कि ऐसी कोई फिल्म नहीं बन रही. जो बच्चे नहीं देख सकते. जो फिल्में बच्चों को नहीं देखनी चाहिए. उसके लिए वैसे भी उन्हें सर्टिफाइड किया ही जाता है तो मुझे नहीं लगता कि इसमें किसी भी तरह की कोई परेशानी होनी चाहिए.मेरा यह भी मानना है कि हिंदी सिनेमा में लगातार जिस तरह के विषयों पर फिल्में बनने लगी हैं. यह दर्शकों को नयी चीजें दे रही है. अब केवल हंसने हंसाने के लिए फिल्में नहीं बन रहीं. दूसरी तरफ देखिए कि किस तरह हॉलीवुड की फिल्में आ रही हैं लगातार भारत में रिलीज हो रही हैं तो दर्शक अब चाहते हैं कि वैसी फिल्में भारत में भी बने. खासतौर से बच्चों में इसे लेकर काफी जागरूकता है. फिल्मों के बारे में वह दिलचस्पी रखते हैं. वे जानते हैं कि देश दुनिया में क्या चीजें हो रही हैं. वर्ल्ड सिनेमा में कितनी बेहतरीन फिल्में बन रही हैं तो मुझे लगता है कि ऐसे विषयों का तो खास असर हो रहा है बच्चों पर. सिनेमा और टीवी ने तो बच्चों को सोचने पर मजबूर किया है कि अब वह कई करियर आॅप् शन के बारे में सोचने लगे हैं. यह सिनेमा और टीवी का ही प्रभाव है. मुझे लगता है कि अब टीवी इंडस्ट्री में जिस तरह के तकनीकों का इस्तेमाल हो रहा है. जिस तरह से बदलाव हो रहे हैं. अब चीजें आसान हुई हैं और बच्चों पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा है. बच्चे अब ज्यादा अपटू डेट रह रहे हैं. जहां तक बात है बाल कलाकारों को काम करवाने की तो मेरा बस कहना है कि बच्चे हैं तो उनकी पढ़ाई की हानि न हो और उन्हें अत्यधिक श्रम न कराया जाये. शेष जहां , जिन फिल्मों, जिस धारावाहिक में किरदार बच्चों को हैं तो उन्हें तो शामिल करना ही होगा. हां, यह हो सकता है कि मेकर्स इस बात का ख्याल रखें कि वे जिस तरह के किरदारों में बच्चों को दिखा रहे हैं. वे किरदार बच्चों को उत्तेजित न करें. वे बच्चों का मनोरंजन करे. उसका ऐतिहासिक महत्व बढ़ाये. तो इसमें कोई संदेह नहीं कि बच्चे अच्छी चीजें ही लेंगे टीवी से. फिल्मों से.
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