भाग मिल्खा भाग को अच्छी कामयाबी हासिल हुई है और इसे इस सदी की बेस्ट फिल्मों में से एक माना जा रहा है. लेकिन कुछ समीक्षक निर्देशक पर उंगली उठा रहे हैं. उनका मानना है कि यह सच है कि मिल्खा सिंह की जिंदगी में काफी संघर्ष रहा है. लेकिन जिस वक्त वे ओलंपिक में जीत के बिल्कुल करीब थे. उस वक्त उन्हें अपने पिता की दर्दनाक मौत की याद आ गयी थी. समीक्षकों का कहना है कि मिल्खा सिंह इस बहाने अपनी हार को लोगों की सांत्वना के लिए सिर्फ ऐसा दिखा रहे हैं. ऐसा हो ही नहीं सकता कि वर्ल्ड चैंपियन इस तरह की बातों को याद करके टूट नहीं सकता. लोगों का मानना है कि मिल्खा इसे बहाना बना रहे हैं. लेकिन हकीकत यह हो भी सकती है कि वाकई मिल्खा सिंह अपने परिवार की दर्दनाक मौत को याद करके उस पल दौड़ नहीं पाये हों. यह दर्द केवल वही समझ सकता है जिसने वह दर्द झेला हो. जिस तरह मिल्खा सिंह विभाजन के वक्त अपने परिवार वालों की लाशों को देख रहे थे. खून से लत पत उनका पूरा परिवार और वह लाशों पर से फिसल रहे थे. यह कोई आम मौत नहीं थी. मिल्खा के पिता कह रहे थे कि भाग मिल्खा भाग और पीछे मुड़ कर मत देखना. लेकिन मिल्खा जब पीछे मुड़ते हैं तो उन्हें अपने पिता की तलवार से कटता हुआ सिर नजर आता है. ऐसी खौफनाक बात को याद करके किस बेटे का दिल दहल नहीं उठेगा. दरअसल, वर्तमान में हम इस कदर व्यवसायिक हो चुके हैं कि हमें हर बात में कोई छल, कोई दिखावा, कोई बनावटीपन नजर आता है. क्या वाकई हिंदी सिनेमा इतनी असंवेदनशील हो गया है कि उसे भावनाओं की परवाह नहीं. भावनाएं उन्हें मजाक या बहाना लगती हैं. मेरी समझ से मिल्खा सिंह जैसे चट्टान को कोई पहाड़ी चट्टान नहीं बल्कि उनके अपनों को खोने का दर्द ही पिघला सकता था.
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20130903
मिल्खा के हार के बहाने
भाग मिल्खा भाग को अच्छी कामयाबी हासिल हुई है और इसे इस सदी की बेस्ट फिल्मों में से एक माना जा रहा है. लेकिन कुछ समीक्षक निर्देशक पर उंगली उठा रहे हैं. उनका मानना है कि यह सच है कि मिल्खा सिंह की जिंदगी में काफी संघर्ष रहा है. लेकिन जिस वक्त वे ओलंपिक में जीत के बिल्कुल करीब थे. उस वक्त उन्हें अपने पिता की दर्दनाक मौत की याद आ गयी थी. समीक्षकों का कहना है कि मिल्खा सिंह इस बहाने अपनी हार को लोगों की सांत्वना के लिए सिर्फ ऐसा दिखा रहे हैं. ऐसा हो ही नहीं सकता कि वर्ल्ड चैंपियन इस तरह की बातों को याद करके टूट नहीं सकता. लोगों का मानना है कि मिल्खा इसे बहाना बना रहे हैं. लेकिन हकीकत यह हो भी सकती है कि वाकई मिल्खा सिंह अपने परिवार की दर्दनाक मौत को याद करके उस पल दौड़ नहीं पाये हों. यह दर्द केवल वही समझ सकता है जिसने वह दर्द झेला हो. जिस तरह मिल्खा सिंह विभाजन के वक्त अपने परिवार वालों की लाशों को देख रहे थे. खून से लत पत उनका पूरा परिवार और वह लाशों पर से फिसल रहे थे. यह कोई आम मौत नहीं थी. मिल्खा के पिता कह रहे थे कि भाग मिल्खा भाग और पीछे मुड़ कर मत देखना. लेकिन मिल्खा जब पीछे मुड़ते हैं तो उन्हें अपने पिता की तलवार से कटता हुआ सिर नजर आता है. ऐसी खौफनाक बात को याद करके किस बेटे का दिल दहल नहीं उठेगा. दरअसल, वर्तमान में हम इस कदर व्यवसायिक हो चुके हैं कि हमें हर बात में कोई छल, कोई दिखावा, कोई बनावटीपन नजर आता है. क्या वाकई हिंदी सिनेमा इतनी असंवेदनशील हो गया है कि उसे भावनाओं की परवाह नहीं. भावनाएं उन्हें मजाक या बहाना लगती हैं. मेरी समझ से मिल्खा सिंह जैसे चट्टान को कोई पहाड़ी चट्टान नहीं बल्कि उनके अपनों को खोने का दर्द ही पिघला सकता था.
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