20130903

अमोल गुप्ते, तारे जमीन पर के लेखक व स्टैनली का डिब्बा के निर्देशक


मैं मानता हूं कि सबसे पहली जो जरूरत है कि हम किस तरह अपनी संस्कृति को बचाने की कोशिश कर रहे हैं और अपने बच्चों को क्या सीख दे रहे हैं. अगर हम फ्लैशबैक में जायें तो 60-70 का सिनेमा था. जब हम बच्चे थे. हमारे माता पिता हमें साहित्यकारों की किताबें पढ़ने को देते थे. सिनेमा के मास्टर्स कहे जानेवाले निर्देशकों की फिल्में तो उस वक्त बनती थीं. तो वे फिल्में हमने बचपन के दौर में ही देखी तो जाहिर सी बात है कि उन फिल्मों का हम पर प्रभाव रहा होगा. चंूकि आपके बचपन में जो चीजें देखी जाती है , या दिखाई जाती है. उसका प्रभाव बहुत ज्यादा होता है. उस पर संस्कृति को बचाने के लिए, संस्कृति पर आधारित फिल्में बनती थी. बड़े बड़े राइर्ट्स की किताबों कहानियों पर िफल्में बनती थीं तो उसकी वजह से हमारा बचपन समृद्ध रहा. हमें कहा जाता था कि प्रभात की पुरानी फिल्में देखो और यह परवरिश में दी गयी चीजें आज भी हमारे साथ है. उस दौर में तो टीवी भी नहीं था. 70 के दशक से टीवी की शुरुआत हुई. बांबे टीवी की बात कर रहा हूं. उस वक्त तो लोकल टीवी में भी सांस्कृतिक कार्यक्रम दिखाये जाते थे. और उसको बढ़ावा देने की कोशिश होती थी. तो क्या वह एंटरटेनमेंट नहीं था. बच्चों पर उसका अच्छा प्रभाव रहा. बच्चे अपनी संस्कृित को देख पाये. समझ पाये. और उसको साथ लेकर चल पाये. सभ्यता संस्कृति से एक कनेक् शन हो पाया. लेकिन धीरे धीरे जैसे जैसे टीवी का बाजारीकरण हुआ. 90 के बाद. अब केवल टीवी व फिल्मों में इस कदर वाहियातपन हावी हो चुका है कि उसका सीधा प्रभाव बच्चों पर तो पड़ता ही है. अब तो मुझे लगता है कि बच्चों को टीवी दिखाने से अच्छा है कि उन्हें जंगल घूमा लाओ. बच्चे कहीं से घूम कर आयें और आकर टीवी आॅन करते हैं तो चैनल पर सर्च करते रह जाते हैं. उनके पास कुछ भी नहीं होता. देखने के लिए. इन दिनों रियलिटी शोज की भरमार है. रियलिटी शोज में बच्चों को रुलाते हैं. माता पिता को बुला कर उन्हें रुलाते हैं और अपने शो बेचते हैं. मैं पूछता हूं कि क्या बच्चों को उनका बचपन जीने का हक नहीं. क्यों उन्हें शुरू से कंपीटीटिव माहौल में लाकर आप खड़ा कर देते हैं. क्यों माता पिता को  लालच है कि बचपन से ही बच्चा लोकप्रिय हो जाये. टैलेंट है तो उन्हें अच्छी ट्रेनिंग दो न. क्यों उनसे चाइल्ड लेबर कराते हैं आप. क्यों. आप जो बना रहे हैं. जो परोस रहे हैं. वही तो बच्चों तक पहुंच रहा है. पेरेंट्स इस बात को लेकर तसल्ली में हैं कि बच्चे पॉपुलर हो रहे हैं. लेकिन हकीकत यह है कि अभी से बच्चों को ग्लैमरस की दुनिया की खुशबू दिलाते हैं तो निश्चित तौर पर उन्हें वह लालच आयेगा ही. अगर अपने बच्चों के टैलेंट को निखारना चाहते हैं तो उन्हें निखरने का मौका दें. आप दुनिया में झांक कर देखें. 140 देशों में लगभग 40 देश हैं जो बेहतरीन बच्चों पर फिल्में बना रहे हैं. भारत में तो बच्चों पर फिल्में ही नहीं बन रहीं तो जाहिर सी बात है. बच्चे बड़ों की ही चीजें देखेंगे और उससे प्रभावित होेंगे. वक्त से पहले वह बड़े बन ही जायेंगे.चिल्ड्रेन सोसाइटी आॅफ इंडिया को कितनी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. उन्हें फंड नहीं मिलते अच्छी फिल्मों के लिए. ऐसे में हम कैसे सोच सकते हैं कि बच्चों पर फिल्में बन पायेंगी. मुझे लगता है कि एक और खास बात कि बच्चों को बच्चे समझना बंद करना चाहिए.लोगों को समझना होगा कि बच्चों को हल्के में न लें. उन पर कुछ भी फिल्म नहीं बन सकती. या यूं न सोचें कि उन्हें कुछ भी दिखा दो फर्क नहीं पड़ेगा. फर्क पड़ेगा. बुरा दिखाओगे तो बुरा ही पड़ेगा. बच्चों  को भी रिस्पेक्ट करना जरूरी है. वह भी इंसान हैं और उनके पास भी समझ है. तो उन्हें दुतकारने की बजाय उनकी मानसिकता को देखते हुए फिल्में और धारावाहिक बनाये जाने चाहिए.  उन्हें चॉकलेट थमाने जैसा कोई भी फिल्में मत दिखा दो. क्योंकि आपको लेट नाइट शो देखना है तो बच्चों को भी वही शो दिखा रहे हैं. यह सही नहीं है. इसका गलत प्रभाव तो पड़ेगा ही. दूसरी बात जो मुझे लगती है वह यह है कि बच्चों को बचपन से सिनेमा को विषय के रूप में पढ़ाना चाहिए. इससे क्या होगा कि वह शुरू से ही समझ पायेंगे कि सिनेमा सिर्फ मनोरंजन का जरिया नहीं है. वह ऐनालिटिकल होकर देखेंगे और फिर खुद जज कर पायेंगे कि क्या उन्हें देखना चाहिए क्या नहीं क्या अच्छा है क्या बुरा है. लेकिन हमारे यहां तो ऐसा माहौल ही नहीं है. सिनेमा तो एक कला है. अंतरराष्टÑीय कला है. जो अभी केवल भारत में 100 साल पुराना है. बाकी सारी कलाएं तो कई साल पुरानी है. तो इसे देखना समझना तो आसान है. लेकिन लोग इस कला को समझते नहीं तो बच्चों को क्या समझायेंगे. मैं बॉलीवुड को कला मानता ही नहीं. वह कला का हिस्सा नहीं हैं.  फिल्में बनती हैं तो नाट्य शास्त्र की जानकारी होनी जरूरी है. आपको किताबों, उपन्यास की जानकारी होनी चाहिए, कला की जानकारी होनी चाहिए, तब आप फिल्म बना पायेंगे और अपने आनेवाले जेनरेशन को भी समृद्ध कर पायेंगे, लेकिन वर्तमान में बॉलीवुड तो इससे कोसो दूर है. आप देखें कि अब तक जो फिल्में बनी हैं बच्चों पर उन्होंने असर किया है. भले ही उसे बॉक्स आॅफिस पर सफलता न मिली हो. लेकिन हकीकत यही है कि उन्होंने गहरा असर छोड़ा है. यह पेरेंट्स को चाहिए कि अगर कोई बच्चों पर आधारित फिल्म बन रही है तो उन्हें दिखायें और वह निर्देशकों से भी डिमांड करें कि उन्हें वैसी फिल्म देखनी ही है. मेरा मानना है तभी पॉजिटिविटी आ पायेगी. तभी बच्चे अच्छी चीजें फिल्मों और टीवी से सीख पायेंगे. वरना, वे केवल बुरी चीजें ही लेंगे. साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि बच्चे क्या सीख रहे हैं. क्या असर हो रहा है. वह दोस्तों से कैसे बातें कर रहे हैं. चूंकि बच्चे जल्दी प्रभावित होते हैं .किसी चीज को देख कर आकर्षित होते हैं. सो, उन पर निगरानी रखनी होगी. और अगर आपको लगता है कि आपका बच्चा अच्छी चीजें सीख रहा है तो यह आपकी गलतफहमी है. यह आपको अभी नहीं आज से 10 सालों के बाद पता चलेगा. जब पूरी तरह से हम खोखले हो चुके होंगे. टीवी या सिनेमा अगर अच्छी चीजें दिखायेगी, कल्चरल चीजें दिखायेंगी तो जाहिर सी बात है बार  बार बच्चे उसे देखेंगे तो महसूस करेंगे कि हमें यह सीखना चाहिए. फिर वह अपने माता पिता से उस बारे में पूछेंगे तो माता पिता को भी लगेगा कि वैसी चीजें दिखाई जायें. तब उन्हें भी जरूरत महसूस होगी. आज तो न तो बच्चों के लिए कार्यक्रम है और न ही फिल्में. क्योंकि मेकर्स उन्हें ध्यान में रख कर किसी भी शो का निर्माण नहीं करते. मेरा बस यही मानना है कि यह कला का अपमान है. हम अपने बच्चों को क्या दे रहे हैं इस पर हमें ही सबसे अधिक सोचना चाहिए. वरना, वह बुरी चीजें सीखेंगे और हम दोष बच्चों को देंगे जबकि दोष हमारा है कि हम बच्चों को क्या दिखा रहे हैं. क्या दे रहे हैं. पेरेंट्स को चाहिए कि बच्चों को साहित्य पढ़ाये. अपने देश के कल्चर, इतिहास को उन्हें दिखाये. उन्हें समझायें., तभी उसे समृद्ध बना पायेंगे.

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