दिबाकर और यशराज का कोलैबोरेशन कैसे? दिबाकर अपनी तरह की फिल्में बनाने में माहिर हैं, जबकि यशराज दिबाकर के मिजाज से बिल्कुल विपरीत फिल्में बनाते हैं. ऐसे में दोनों साथ-साथ? क्या यह सिर्फ एक इत्तेफाक है?
सबसे पहले तो मैं यह बिल्कुल नहीं मानता कि यशराज बिल्कुल अलग फिल्में बनाते हैं. यशराज वही फिल्में बनाते हैं, जो भारतीय दर्शक देखते हैं और मेरे भी दर्शक वही हैं. यशराज की फिल्में उन्हीं सिनेमाघरों में रिलीज होती हैं, जहां मेरी होती हैं. और आप अगर कहें कि यशराज की फिल्में अलग हैं, तो इसका मतलब यही है कि कोई चाइनीज खाने आया है, तो आप उसको कहें कि कल तुमने चाइनीज खाया था, तो आज तुम इंडियन कैसे खा रहे हो! दोनों ही खाना है. लोगों को दोनों पसंद है. अगर हर कोई मेरी जैसी ही फिल्में बनाने लगे, तो सबकुछ कितना बोरिंग हो जायेगा या फिर हर कोई यशराज जैसी फिल्में बनाये, तो वह भी कितना बोरिंग होगा. फिल्मों का मजा ही है कि हर शुक्रवार अलग-अलग चीजें देख सकें. इसलिए अगर हमारे बीच अलगाव है, तो वह ज्यादा इंटरेस्टिंग है. हमारा को-प्रोडक्शन इसलिए हुआ है क्योंकि यशराज ने पहली बार को-प्रोडक्शन किया है. वह इसलिए ऐसा कर रहा है ताकि फिल्म को देख कर लोग कहें कि अरे ऐसी फिल्म तो यशराज ने पहले नहीं बनायी. इसका मतलब है कि यशराज का जो रेंज है, वह और बढ. रहा है. यशराज को जरूरत थी कि वह जिस तरह की फिल्में बनाते हैं, उससे अलग फिल्म बनायें, को-प्रोडक्शन के जरिये. उनका अपने क्रियेटिव विजन के बारे में अपना एक आइडिया हो. दोनों मिल कर एक नये क्रियेटिव विजन के साथ चलें.
इससे आपकी फिल्मों को क्या फायदा होगा? आप तो अपने बैनर से फिल्में बनाते रहे हैं.
मेरी हर फिल्म एक दूसरे से अलग होती है. इसलिए उसको डिस्ट्रीब्यूट कैसे करें, उसकी मार्केटिंग कैसी होनी चाहिए या प्रोड्यूस कैसे किया जाये, इसका पहले से कोई एक्सपीरियंस नहीं होता है. ‘खोसला का घोंसला’ से पहले ऐसी कोई फिल्म नहीं बनी थी. ‘ओये लकी आये’ के साथ भी ऐसा ही था. मैंने जब ‘लव सेक्स और धोखा’ जैसी फिल्म बनायी, तो हमको पता ही नहीं था कि ऐसी फिल्म को कैसे दर्शकों तक पहुंचाएं. उस वक्त एक अच्छे प्रोड्यूसर, अच्छे डिस्ट्रीब्यूटर, अच्छी मार्केटिंग कंपनी जिसे न सिर्फ इंडिया, बल्कि पूरी दुनिया की ऑडियंस की परख हो, की जरूरत होती है. ऐसे में किसी अच्छे स्टूडियो से जुड.ना अच्छा है. हालांकि, मैंने जो भी पार्टनरशिप चुनी, जैसे यूटीवी, बालाजी, पीवीआर के साथ काम किया, ये सारे प्रोडक्शन हाउस अपनी-अपनी जगह पर सक्सेसफुल हैं. बिल्कुल वैसे ही यशराज है. फिल्मों की कुछ ऐसी चीजें हैं, जो यशराज बहुत ही खूबसूरती से करता है. जैसे यशराज नये टैलेंट में इनवेस्ट करता है, जिससे इंडियन फिल्म इंडस्ट्री को कितने ही नये स्टार मिलते हैं. यशराज से लॉन्च करके उन्हें आगे के लिए तैयार किया जाता है. दूसरी बात है कि यशराज पहले जैसी फिल्में बनाता था, पिछले तीन चार सालों से उससे कांशियसली अलग तरह की फिल्में बना रहा है. नये एक्टर, नये तरह का म्यूजिक लाया गया है. मुझे ये सारी चीजें अच्छी लगती हैं.
आप यशराज की फिल्में देखते हैं?
जी बिल्कुल देखता हूं. मैं हर तरह की फिल्में देखता हूं. मैं फिल्मेकर हूं. ये अलग बात है कि कुछ चीजें मुझे अच्छी लगती हैं, कुछनहीं. लेकिन यशराज की फिल्मों को देख कर यह जरूर लगता है कि उनका अपना एक विजन है और वह अपने विजन से हट नहीं रहे हैं. अब आप चाहे उनके विजन से सहमत हों या न हों. मेरी फिल्मों में भी वही है. आप चाहें मेरी फिल्म से सहमत हों या न हों, आपको इतना पता है कि वह ऐसे ही बनायेगा. उसका अपना विजन है और हर फिल्म में वह विजन आगे जाता है. मैं भी अपने विजन से अलग नहीं होता. तो जब दो विजनरी एक साथ काम करते हैं, तो मेरे हिसाब से कुछ अच्छा होता है.
आपने अप्रोच किया यशराज को?
नहीं. आदित्य चोपड.ा ने मुझे अप्रोच किया था, क्योंकि उनके जेहन में को-प्रोडक्शन का एक आइडिया था और वह सोच रहे थे कि किस प्रोड्यूसर-डायरेक्टर के साथ काम करें. नम्रता राव, जो मेरी बहुत पुरानी सहयोगी व नामचीन एडिटर हैं, उन्होंने यशराज की काफी फिल्में एडिट की हैं. उनकी वजह से हम दोनों की मीटिंग हुई. पूरे तीन चार महीने के बाद हमने निर्णय लिया.
व्योमकेश बख्शी का विषय जेहन में कैसे आया ?
मैं पिछले 25 साल से इस विषय पर फिल्म बनाना चाह रहा हूं. मैं जब 14 साल का था, मैंने व्योमकेश पर किताब पढ.ी थी और तबसे यह किरदार मुझे रोमांचित करता है. मैं सोच ही रहा था तब से कि यह फिल्म कब बनाऊं. ‘खोसला का घोंसला’ के बाद मैंने दूसरी फिल्म जो बनानी चाही थी, वह यही थी. लेकिन उस वक्त शायद निर्माताओं को मुझ पर विश्वास नहीं था कि मैं इतनी बड.ी फिल्म बना सकूंगा. लेकिन अब पांच फिल्मों के बाद सोच बदल गयी है.
ऐसी क्या खास बात है इस विषय में, जिसने आपको इतना रोमांचित किया?
व्योमकेश बख्शी मेरे अनुसार इंडिया का सबसे अनूठा डिटेक्टिव है. एक ऐसा डिटेक्टिव, जिसमें दर्शकों को सारे रस मिल जायेंगे. यह एक ऐसा डिटेक्टिव है, जिसकी अपनी एक रोमांटिक लाइफ है. जिसको पता भी नहीं था कि वह डिटेक्टिव बनेगा. कॉलेज से निकलने के बाद घटनाएं कुछ ऐसी हुईं कि वह डिटेक्टिव बन गया. वह एक ऐसा डिटेक्टिव है जिसक े बारे में 35 साल तक उसके राइटर ने लिखा. इस डिटेक्टिव पर 1939 में पहली बार किताब आयी थी और आज करीब 75 सालों के बाद भी बंगाल में यह बेस्ट सेलर है. इसलिए व्योमकेश बख्शी इंडिया का असल सरलोक होम्स है. व्योमकेश बख्शी कीकहानियां भारत में सबसे ज्यादा लैंग्वेज में ट्रांसलेट हुई हैं. पिछले 20 से 22 सालों में सिर्फ एक टीवी सीरीज आयी थी इस विषय पर. उसके बाद से किसी ने हिंदी फिल्म में व्योमकेश बख्शी को इंट्रोड्यूस नहीं किया. और मेरे हिसाब अभी नयी तरह की फिल्मों का दौर है. नये तरह के एक्टर आ रहे हैं इसलिए यह बेस्ट टाइम है जब व्योमकेश बख्शी को बडे. परदे पर लाया जाये. हिंदी सिनेमा में आजतक खालिस डिटेक्टिव किसी ने नहीं दिखाया है. यह पहली बार होगा. दूसरी बात है कि असली डिटेक्टिव होता क्या है, यह हिंदी फिल्म में न तो किसी ने देखा है और न ही दिखाया है. हिंदी फिल्मों में तो जेम्स बांड और रोमियो को मिला कर कुछ खिचड.ी पका दी जाती है. वैसी फिल्मों को डिटेक्टिव जॉनर का नहीं कह सकते.
यह फिल्म तो 1940 के बैकड्रॉप में होगी. फिल्म में कोलकाता दिखाया जायेगा. कितना कठिन होगा उस दौर के कोलकाता को तैयार करना ?
मेरे लिए यह चैलेंज है, और चैलेंज होता है तभी तो मजा आता है फिल्म मेकिंग का. हां, लेकिन 1942 का कोलकाता बहुत ही सुंदर, एंडवेंचरस, रोमांटिक और डार्क था. वह अब नहीं है. उसको हमको फिर से तैयार करना होगा. उसे बनाना होगा स्पेशल इफेक्ट्स के जरिये, व बडे. बडे. सेट के जरिये. वह बीता हुआ सपना है जो आज मिल ही नहीं सकता. वह हमारी फिल्म में आयेगा ताकि इस फिल्म के जरिये आप बीते हुए कलकत्ता की छवि देख सकें. यही चैलेंज है कि वह फील ला पाऊंगा या नहीं.
जिस दौर में व्योमकेश बख्शी पर टीवी सीरीज आयी थी, उसमें केवल कहानियां दिखायी गयी थीं. आपकी फिल्म में व्योमकेश किस रूप में नजर आयेगा ?
टीवी में आपको पता है कि एक-एक कर कहानियां आती रहेंगी. आप देख रहे हैं कि कहानियां एक के बाद एक आ रही है, तो उसमें ज्यादा सेटिंग एटमॉसफेयर, या फिर कैरेक्टर की डेप्थ की जरूरत नहीं है. सीधे सीधे बता दो. हो गया. लेकिन फिल्मों में से ऐसा नहीं हो सकता. सबसे खास बात यह है कि शरदेंदु की कहानियां बहुत ही जबरदस्त हैं. जिन्होंने शरदेंदु को नहीं पढ.ा है उन्हें यह नहीं मालूम कि लिखते वक्त वह अपने कैरेक्टर और सेटिंग को इतना अच्छा बनाते थे कि आंखों के सामने पूरी कहानी फिल्म की तरह दिखती है. वह चीज टीवी सीरीज में नहीं थी लेकिन मेरे व्योमकेश में होगी पहली बार. वह जो लिखते थे, उनका जो ओरिजनल विजन था, वो मैं अपनी फिल्म से लाने की कोशिश कर रहा हूं. वह आभास या इशारों में जो बोल देते थे, उसमें भी एक कैरेक्टर होता था. सारी चीजें जो हम पढ. चुके हैं बचपन में, वह अच्छे तरीके से बडे. परदे पर ही दिखाया जा सकता है. वह सब मेरी फिल्म में होगा. व्योमकेश बख्शी कोलकाता के लिटरेचर के लीजेंड हैं.
हमारे फिल्ममेकर हमेशा बाहर की कहानियों या लिटरेचर से प्रभावित होते रहे हैं. व्योमकेश बख्शी ने क्यों नहीं अब तक हिंदी फिल्म के निर्देशकों को आकर्षित किया?
मुझे लगता है कि पिछले 20-25 सालों में हमारे निर्देशकों ने अपने देश की किताबें पढ.नी बंद कर दी हैं. जो हिंदी फिल्में बनाते हैं, वो हिंदी किताबें नहीं पढ.ते या हिंदी ठीक से बोल ही नहीं पाते. जो इंगलिश की बेस्ट सेलर कहानियां होती हैं, वे उसे मानते हैं, उसे पढ.ते हैं. वे जो पढ.ते हैं, वही बनाते हैं. पहले के डायरेक्टर पढ.ते थे. उनके पास किताबें होती थीं. वे एक-दूसरे को किताब देते थे पढ.ने के लिए. पहले के स्क्रिप्ट राइटर, खुद राइटर होते थे. कम ही लोगों को यह जानकारी होगी कि शरदेंदु बॉम्बे में स्क्रिप्ट राइटर थे. उन्होंने बॉम्बे टॉकीज के लिए एसएस बनर्जी नाम से कई फिल्मों की स्क्रिप्टिंग की है.
वह लगभग 10 से 15 सालों तक फिल्मों के लिए लेखन करते रहे. वह बहुत बडे. राइटर थे और उन्होंने बहुत कुछ लिखा है बांग्ला में. आप पुराने स्क्रिप्ट राइटर को ही ले लीजिए, उन सभी लोगों ने या तो उपन्यास लिखे हैं, या कविता और कहानियां लिखी हैं. इसलिए अगर लिटरेचर न हो, तो सिनेमा खड.ा नहीं हो सकता. जितना ऊंचा लिटरेचर होगा, सिनेमा की ऊंचाई उतनी ज्यादा होंगी, क्योंकि पहले चार फ्लोर तो लिटरेचर ही बनायेगा. उसके बाद ही आप उसके ऊपर बिल्डिंग बना सकेंगे. अगर ये चार फ्लोर छोटे हो गये, तो सिनेमा भी छोटा हो जायेगा. आजकल समस्या यह है कि हम अपने देश की साहित्यिक किताबें नहीं पढ.ते. लेकिन मैं भाग्यशाली हूं कि बचपन में हिंदी मीडियम स्कूल में गया, इसलिए हिंदी पढ.ना मुझे अच्छा लगता है. बंगाली हूं, तो घर पर बंगाली पढ.ता था. घर पर पढ.ने लिखने का हमेशा माहौल था. यह सब मेरी फिल्ममेकिंग के लिए फायदेमंद रहा है.
सुशांत को ही व्योमकेश के रूप में क्यों चुना?
इस बार मेरी फिल्म व्योमकेश प्योर एंटरटेनमेंट है. अब तक जो फिल्में करता आया हूं, उसमें कुछ संदेश होता था. लेकिन इस बार प्योर एंटरटेनमेंट है. और मुझे लगता है कि सुशांत चूंकि टेलीविजन पर एक लाउड शो में जहां सब शोर मचा रहे हैं, शांत होकर अपना किरदार निभा लेता है, तो जो टीवी में अच्छा एक्टर है, वह फिल्म में तो होगा ही. सुशांत को देख कर मुझे लगता है कि वह जितना ऊपर से शांत है, अंदर उसके उतना ही तूफान है. और मेरा व्योमकेश का किरदार भी ऐसा ही है. इसलिए सुशांत को छोड. कर मैं किसी और के बारे में सोच ही नहीं सकता. दिबाकर और यशराज का कोलैबोरेशन कैसे? दिबाकर अपनी तरह की फिल्में बनाने में माहिर हैं, जबकि यशराज दिबाकर के मिजाज से बिल्कुल विपरीत फिल्में बनाते हैं. ऐसे में दोनों साथ-साथ? क्या यह सिर्फ एक इत्तेफाक है?
सबसे पहले तो मैं यह बिल्कुल नहीं मानता कि यशराज बिल्कुल अलग फिल्में बनाते हैं. यशराज वही फिल्में बनाते हैं, जो भारतीय दर्शक देखते हैं और मेरे भी दर्शक वही हैं. यशराज की फिल्में उन्हीं सिनेमाघरों में रिलीज होती हैं, जहां मेरी होती हैं. और आप अगर कहें कि यशराज की फिल्में अलग हैं, तो इसका मतलब यही है कि कोई चाइनीज खाने आया है, तो आप उसको कहें कि कल तुमने चाइनीज खाया था, तो आज तुम इंडियन कैसे खा रहे हो! दोनों ही खाना है. लोगों को दोनों पसंद है. अगर हर कोई मेरी जैसी ही फिल्में बनाने लगे, तो सबकुछ कितना बोरिंग हो जायेगा या फिर हर कोई यशराज जैसी फिल्में बनाये, तो वह भी कितना बोरिंग होगा. फिल्मों का मजा ही है कि हर शुक्रवार अलग-अलग चीजें देख सकें. इसलिए अगर हमारे बीच अलगाव है, तो वह ज्यादा इंटरेस्टिंग है. हमारा को-प्रोडक्शन इसलिए हुआ है क्योंकि यशराज ने पहली बार को-प्रोडक्शन किया है. वह इसलिए ऐसा कर रहा है ताकि फिल्म को देख कर लोग कहें कि अरे ऐसी फिल्म तो यशराज ने पहले नहीं बनायी. इसका मतलब है कि यशराज का जो रेंज है, वह और बढ. रहा है. यशराज को जरूरत थी कि वह जिस तरह की फिल्में बनाते हैं, उससे अलग फिल्म बनायें, को-प्रोडक्शन के जरिये. उनका अपने क्रियेटिव विजन के बारे में अपना एक आइडिया हो. दोनों मिल कर एक नये क्रियेटिव विजन के साथ चलें.
इससे आपकी फिल्मों को क्या फायदा होगा? आप तो अपने बैनर से फिल्में बनाते रहे हैं.
मेरी हर फिल्म एक दूसरे से अलग होती है. इसलिए उसको डिस्ट्रीब्यूट कैसे करें, उसकी मार्केटिंग कैसी होनी चाहिए या प्रोड्यूस कैसे किया जाये, इसका पहले से कोई एक्सपीरियंस नहीं होता है. ‘खोसला का घोंसला’ से पहले ऐसी कोई फिल्म नहीं बनी थी. ‘ओये लकी आये’ के साथ भी ऐसा ही था. मैंने जब ‘लव सेक्स और धोखा’ जैसी फिल्म बनायी, तो हमको पता ही नहीं था कि ऐसी फिल्म को कैसे दर्शकों तक पहुंचाएं. उस वक्त एक अच्छे प्रोड्यूसर, अच्छे डिस्ट्रीब्यूटर, अच्छी मार्केटिंग कंपनी जिसे न सिर्फ इंडिया, बल्कि पूरी दुनिया की ऑडियंस की परख हो, की जरूरत होती है. ऐसे में किसी अच्छे स्टूडियो से जुड.ना अच्छा है. हालांकि, मैंने जो भी पार्टनरशिप चुनी, जैसे यूटीवी, बालाजी, पीवीआर के साथ काम किया, ये सारे प्रोडक्शन हाउस अपनी-अपनी जगह पर सक्सेसफुल हैं. बिल्कुल वैसे ही यशराज है. फिल्मों की कुछ ऐसी चीजें हैं, जो यशराज बहुत ही खूबसूरती से करता है. जैसे यशराज नये टैलेंट में इनवेस्ट करता है, जिससे इंडियन फिल्म इंडस्ट्री को कितने ही नये स्टार मिलते हैं. यशराज से लॉन्च करके उन्हें आगे के लिए तैयार किया जाता है. दूसरी बात है कि यशराज पहले जैसी फिल्में बनाता था, पिछले तीन चार सालों से उससे कांशियसली अलग तरह की फिल्में बना रहा है. नये एक्टर, नये तरह का म्यूजिक लाया गया है. मुझे ये सारी चीजें अच्छी लगती हैं.
आप यशराज की फिल्में देखते हैं?
जी बिल्कुल देखता हूं. मैं हर तरह की फिल्में देखता हूं. मैं फिल्मेकर हूं. ये अलग बात है कि कुछ चीजें मुझे अच्छी लगती हैं, कुछनहीं. लेकिन यशराज की फिल्मों को देख कर यह जरूर लगता है कि उनका अपना एक विजन है और वह अपने विजन से हट नहीं रहे हैं. अब आप चाहे उनके विजन से सहमत हों या न हों. मेरी फिल्मों में भी वही है. आप चाहें मेरी फिल्म से सहमत हों या न हों, आपको इतना पता है कि वह ऐसे ही बनायेगा. उसका अपना विजन है और हर फिल्म में वह विजन आगे जाता है. मैं भी अपने विजन से अलग नहीं होता. तो जब दो विजनरी एक साथ काम करते हैं, तो मेरे हिसाब से कुछ अच्छा होता है.
आपने अप्रोच किया यशराज को?
नहीं. आदित्य चोपड.ा ने मुझे अप्रोच किया था, क्योंकि उनके जेहन में को-प्रोडक्शन का एक आइडिया था और वह सोच रहे थे कि किस प्रोड्यूसर-डायरेक्टर के साथ काम करें. नम्रता राव, जो मेरी बहुत पुरानी सहयोगी व नामचीन एडिटर हैं, उन्होंने यशराज की काफी फिल्में एडिट की हैं. उनकी वजह से हम दोनों की मीटिंग हुई. पूरे तीन चार महीने के बाद हमने निर्णय लिया.
व्योमकेश बख्शी का विषय जेहन में कैसे आया ?
मैं पिछले 25 साल से इस विषय पर फिल्म बनाना चाह रहा हूं. मैं जब 14 साल का था, मैंने व्योमकेश पर किताब पढ.ी थी और तबसे यह किरदार मुझे रोमांचित करता है. मैं सोच ही रहा था तब से कि यह फिल्म कब बनाऊं. ‘खोसला का घोंसला’ के बाद मैंने दूसरी फिल्म जो बनानी चाही थी, वह यही थी. लेकिन उस वक्त शायद निर्माताओं को मुझ पर विश्वास नहीं था कि मैं इतनी बड.ी फिल्म बना सकूंगा. लेकिन अब पांच फिल्मों के बाद सोच बदल गयी है.
ऐसी क्या खास बात है इस विषय में, जिसने आपको इतना रोमांचित किया?
व्योमकेश बख्शी मेरे अनुसार इंडिया का सबसे अनूठा डिटेक्टिव है. एक ऐसा डिटेक्टिव, जिसमें दर्शकों को सारे रस मिल जायेंगे. यह एक ऐसा डिटेक्टिव है, जिसकी अपनी एक रोमांटिक लाइफ है. जिसको पता भी नहीं था कि वह डिटेक्टिव बनेगा. कॉलेज से निकलने के बाद घटनाएं कुछ ऐसी हुईं कि वह डिटेक्टिव बन गया. वह एक ऐसा डिटेक्टिव है जिसक े बारे में 35 साल तक उसके राइटर ने लिखा. इस डिटेक्टिव पर 1939 में पहली बार किताब आयी थी और आज करीब 75 सालों के बाद भी बंगाल में यह बेस्ट सेलर है. इसलिए व्योमकेश बख्शी इंडिया का असल सरलोक होम्स है. व्योमकेश बख्शी कीकहानियां भारत में सबसे ज्यादा लैंग्वेज में ट्रांसलेट हुई हैं. पिछले 20 से 22 सालों में सिर्फ एक टीवी सीरीज आयी थी इस विषय पर. उसके बाद से किसी ने हिंदी फिल्म में व्योमकेश बख्शी को इंट्रोड्यूस नहीं किया. और मेरे हिसाब अभी नयी तरह की फिल्मों का दौर है. नये तरह के एक्टर आ रहे हैं इसलिए यह बेस्ट टाइम है जब व्योमकेश बख्शी को बडे. परदे पर लाया जाये. हिंदी सिनेमा में आजतक खालिस डिटेक्टिव किसी ने नहीं दिखाया है. यह पहली बार होगा. दूसरी बात है कि असली डिटेक्टिव होता क्या है, यह हिंदी फिल्म में न तो किसी ने देखा है और न ही दिखाया है. हिंदी फिल्मों में तो जेम्स बांड और रोमियो को मिला कर कुछ खिचड.ी पका दी जाती है. वैसी फिल्मों को डिटेक्टिव जॉनर का नहीं कह सकते.
यह फिल्म तो 1940 के बैकड्रॉप में होगी. फिल्म में कोलकाता दिखाया जायेगा. कितना कठिन होगा उस दौर के कोलकाता को तैयार करना ?
मेरे लिए यह चैलेंज है, और चैलेंज होता है तभी तो मजा आता है फिल्म मेकिंग का. हां, लेकिन 1942 का कोलकाता बहुत ही सुंदर, एंडवेंचरस, रोमांटिक और डार्क था. वह अब नहीं है. उसको हमको फिर से तैयार करना होगा. उसे बनाना होगा स्पेशल इफेक्ट्स के जरिये, व बडे. बडे. सेट के जरिये. वह बीता हुआ सपना है जो आज मिल ही नहीं सकता. वह हमारी फिल्म में आयेगा ताकि इस फिल्म के जरिये आप बीते हुए कलकत्ता की छवि देख सकें. यही चैलेंज है कि वह फील ला पाऊंगा या नहीं.
जिस दौर में व्योमकेश बख्शी पर टीवी सीरीज आयी थी, उसमें केवल कहानियां दिखायी गयी थीं. आपकी फिल्म में व्योमकेश किस रूप में नजर आयेगा ?
टीवी में आपको पता है कि एक-एक कर कहानियां आती रहेंगी. आप देख रहे हैं कि कहानियां एक के बाद एक आ रही है, तो उसमें ज्यादा सेटिंग एटमॉसफेयर, या फिर कैरेक्टर की डेप्थ की जरूरत नहीं है. सीधे सीधे बता दो. हो गया. लेकिन फिल्मों में से ऐसा नहीं हो सकता. सबसे खास बात यह है कि शरदेंदु की कहानियां बहुत ही जबरदस्त हैं. जिन्होंने शरदेंदु को नहीं पढ.ा है उन्हें यह नहीं मालूम कि लिखते वक्त वह अपने कैरेक्टर और सेटिंग को इतना अच्छा बनाते थे कि आंखों के सामने पूरी कहानी फिल्म की तरह दिखती है. वह चीज टीवी सीरीज में नहीं थी लेकिन मेरे व्योमकेश में होगी पहली बार. वह जो लिखते थे, उनका जो ओरिजनल विजन था, वो मैं अपनी फिल्म से लाने की कोशिश कर रहा हूं. वह आभास या इशारों में जो बोल देते थे, उसमें भी एक कैरेक्टर होता था. सारी चीजें जो हम पढ. चुके हैं बचपन में, वह अच्छे तरीके से बडे. परदे पर ही दिखाया जा सकता है. वह सब मेरी फिल्म में होगा. व्योमकेश बख्शी कोलकाता के लिटरेचर के लीजेंड हैं.
हमारे फिल्ममेकर हमेशा बाहर की कहानियों या लिटरेचर से प्रभावित होते रहे हैं. व्योमकेश बख्शी ने क्यों नहीं अब तक हिंदी फिल्म के निर्देशकों को आकर्षित किया?
मुझे लगता है कि पिछले 20-25 सालों में हमारे निर्देशकों ने अपने देश की किताबें पढ.नी बंद कर दी हैं. जो हिंदी फिल्में बनाते हैं, वो हिंदी किताबें नहीं पढ.ते या हिंदी ठीक से बोल ही नहीं पाते. जो इंगलिश की बेस्ट सेलर कहानियां होती हैं, वे उसे मानते हैं, उसे पढ.ते हैं. वे जो पढ.ते हैं, वही बनाते हैं. पहले के डायरेक्टर पढ.ते थे. उनके पास किताबें होती थीं. वे एक-दूसरे को किताब देते थे पढ.ने के लिए. पहले के स्क्रिप्ट राइटर, खुद राइटर होते थे. कम ही लोगों को यह जानकारी होगी कि शरदेंदु बॉम्बे में स्क्रिप्ट राइटर थे. उन्होंने बॉम्बे टॉकीज के लिए एसएस बनर्जी नाम से कई फिल्मों की स्क्रिप्टिंग की है.
वह लगभग 10 से 15 सालों तक फिल्मों के लिए लेखन करते रहे. वह बहुत बडे. राइटर थे और उन्होंने बहुत कुछ लिखा है बांग्ला में. आप पुराने स्क्रिप्ट राइटर को ही ले लीजिए, उन सभी लोगों ने या तो उपन्यास लिखे हैं, या कविता और कहानियां लिखी हैं. इसलिए अगर लिटरेचर न हो, तो सिनेमा खड.ा नहीं हो सकता. जितना ऊंचा लिटरेचर होगा, सिनेमा की ऊंचाई उतनी ज्यादा होंगी, क्योंकि पहले चार फ्लोर तो लिटरेचर ही बनायेगा. उसके बाद ही आप उसके ऊपर बिल्डिंग बना सकेंगे. अगर ये चार फ्लोर छोटे हो गये, तो सिनेमा भी छोटा हो जायेगा. आजकल समस्या यह है कि हम अपने देश की साहित्यिक किताबें नहीं पढ.ते. लेकिन मैं भाग्यशाली हूं कि बचपन में हिंदी मीडियम स्कूल में गया, इसलिए हिंदी पढ.ना मुझे अच्छा लगता है. बंगाली हूं, तो घर पर बंगाली पढ.ता था. घर पर पढ.ने लिखने का हमेशा माहौल था. यह सब मेरी फिल्ममेकिंग के लिए फायदेमंद रहा है.
सुशांत को ही व्योमकेश के रूप में क्यों चुना?
इस बार मेरी फिल्म व्योमकेश प्योर एंटरटेनमेंट है. अब तक जो फिल्में करता आया हूं, उसमें कुछ संदेश होता था. लेकिन इस बार प्योर एंटरटेनमेंट है. और मुझे लगता है कि सुशांत चूंकि टेलीविजन पर एक लाउड शो में जहां सब शोर मचा रहे हैं, शांत होकर अपना किरदार निभा लेता है, तो जो टीवी में अच्छा एक्टर है, वह फिल्म में तो होगा ही. सुशांत को देख कर मुझे लगता है कि वह जितना ऊपर से शांत है, अंदर उसके उतना ही तूफान है. और मेरा व्योमकेश का किरदार भी ऐसा ही है. इसलिए सुशांत को छोड. कर मैं किसी और के बारे में सोच ही नहीं सकता.
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