20130903

जिंदगी की पाठशाला है मिल्खा की जिंदगी : फरहान



फरहान, इतना कठिन किरदार और वह भी एक ऐसी शख्सियत का किरदार जो अपने आप में एक खास हस्ती हैं तो कैसे फरहान बने सेल्युलाइड के मिल्खा सिंह?
यह सवाल को आपको राकेश ओमप्रकाश मेहरा से पूछनी चाहिए. उन्होंने मुझे फोन किया और कहा कि उनके पास एक कहानी है जो वह मुझे सुनाना चाहते हैं. मैंने कहा बिल्कुल मैं सुनूंगा. मैंने पहले की राकेश की सारी फिल्में देख रखी हैं तो मुझे पता है कि राकेश किस मिजाज के निर्देशक हैं. हम मिले और उन्होंने मुझे 20-25 मिनट में ये कहानी सुनायी.मिल्खा सिंह की जिंदगी पर बेस्ड थी. मुझे कहानी तो बहुत अच्छा लगी. 20-25 मिनट की कहानी से ही मैंने अपना इमोशनल कनेक् शन महसूस किया.ताज्जुब भी हुआ कि इतना कुछ उनकी जिंदगी में हुआ है और कितना कम पता है हमको. तो ये एक सुनहरा मौका भी था कि इस प्रोजेक्ट से जुड़ कर हम दूसरे लोगों को भी बता सकें कि उनके जो लेजेंड हैं. मिल्खा सिंह. वह कैसे लेजेंड बने. तो मुझे बहुत सही लगा.मुझे लगा मैं सीखूंगा भी काफी कुछ.

 बायोपिक फिल्में दो तरह से बनती हैं. एक तो जीवित व्यक्ति पर आधारित होती है. एक जो नहीं होते उनपर. तो कितना मुश्किल रहा मिल्खा सिंह पर बायोपिक फिल्म का किरदार निभाना?
बायोपिक फिल्म बनाते वक्त भले ही वह व्यक्ति जीवित हो या नहीं. एक कलाकार की तो जिम्मेदारी होती है कि वह उनकी तसवीर को दर्शकों के सामने सही तरीके से प्रस्तुत करे, क्योंकि दर्शक उस कलाकार के रूप में अपने लेजेंड को देख रहे होते हैं. जहां तक इस फिल्म की बात है तो मेरे लिए आसान था. चूंकि मेरे पास रिसर्च के विकल्प अधिक थे. मैं जो समझना चाहता था. जानना चाहता था. वह मंै मिल्खा सिंहजी से मिल कर पूछ सकता था. जान पाता था.उस वक्त वे कैसा महसूस कर रहे थे. जब वहघटनाएं जो फिल्मों में दिखाई गयी हैं. यह सब समझने की कोशिश की मैंने. लेकिन फाइनली जब आप काम पर उतरते हैं तो यह जिम्मेदारी उस कहानी की होती है, उस निर्देशक की होती है.तो सच कहूंगा किसी ने आप पर भरोसा किया है, तभी खुद पर फिल्म बनाने की इजाजत दी है.अपनी जिंदगी की कहानी देकर. उसकी इज्जत करना बहुत जरूरी है. मुझे खुशी है कि उन्होंने पूरे परिवार के साथ फिल्म देखी.सबको बहुत अच्छी लगी. उन्हें लगा कि उन्होंने राकेश और प्रसून को कहानी देकर अच्छा किया. अच्छी च्वाइस दिया.

इस फिल्म के लिए आपने खुद को कैसे फरहान से मिल्खा सिंह में बदल लिया. चूंकि इस फिल्म में आप पूरी तरह मिल्खा सिंह ही नजर आ रहे हैं?
यह कमाल तो कास्टिंग का है कि उन्होंने मुझे ऐसे किरदार के लिए चुना. इस फिल्म को मैंने टोटली डेढ़ साल दिये हैं. सितंबर 2011 से जनवरी 2013 तक़. जब शूटिंग खत्म हुई. सितंबर में प्रीपरेशन शुरू किया है. मतलब उनकी जिंदगी को पूरी तरह से एक्सपीरियंस करना तो बहुत मुश्किल था. वह वक्त अलग था. दुनिया अलग थी, जब वह पले बढ़े. और सोसाइटी डिफरेंट थी. लेकिन उनका जो एथेलेटिक साइड था. वह एक्सपीरियंस करना बहुत जरूरी था. तो बिल्कुल लाइफस्टाइल चेंज किया. डेढ़ साल के लिए. मैं चाहता था कि जो सबसे कम मेरे दिमाग में क्योशन मार्क हो वह यह हो कि जब हम रिसेज कर रहे हैं, या जो एथेलेटिक क्वालिटी है फिल्म की.उसके बारे में ज्यादा नहीं सोचना है. जब शूटिंग का वक्त आये. तब तक सबकुछ मशीन की तरह बॉडी में बैठ जाना चाहिए.तो मैं जब वहां हूं तो राकेश के साथ सीन के बारे में डिस्कस करते थे. फिल्म के जरिये हम क्या बताना चाहते हैं. उसके बारे में सोच सकते हैं. ये नहीं कि कैसे करेंगे,कैसे इतना भागेंगे. वगैरह वगैरह.पहले छह महीने बिल्कुल एक एथेलिट जैसे ट्रेनिंग करते हैं. मैंने बिल्कुल वही ट्रेनिंग की. जो उसका डायट होता है, लाइफस्टाइल होता है . सब मैंने किया.

आपने  कहा है कि यह आपके लिए सबसे अहम फिल्म है?
हां, चूंकि  इस फिल्म से मैं बतौर सिर्फ अभिनेता नहीं, बल्कि इंसान के रूप में इनरिच हुआ हूं. मिल्खासिंह जी की जिंदगी से आपको बहुत कुछ सीखने का मौका मिलता है और फिर जब आप ऐसी फिल्म करते हो तो आप यही सोचते हो कि किस तरह आप उस फिल्म को अपना बेस्ट दें. चूंकि आप ऐसी फिल्म करते वक्त अपने बारे में नहीं, उस शख्सियत के बारे में सोचता है.सारी मुश्किलें काम आसान हो जाता है. मिल्खा सिंह की जिंदगी खुद में पूरी की पूरी पाठशाला है. जिसके हर पहलू से आपको कुछ न कुछ सीखने का मौका मिलता है और सीखते रहना चाहिए.

अपने स्कूल के दिनों में क्या आप स्पोर्ट्स में दिलचस्पी लेते थे. 
हां, मुझे हर तरह के स्पोर्ट्स पसंद है. मैं आज भी ढेर सारे स्पोर्ट्स देखता हूं. मैं अपने स्कूल में शॉर्ट डिस्टेंस के लिए दौड़ा करता था. 100 200 40 0 डिले इन सभी में मैं पाटर््स लेता था.मैंने कुछ मेडल्स भी मिले हैं. लेकिन बाद में स्पोर्ट्स नहीं खेलता. बाद में मैंने स्वीमिंग में अच्छा करना शुरू किया था. स्वीमिंग में काफी दिनों तक जुड़ा रहा था. वॉलीबॉल, फुटबॉल खेलता रहता हूं.

मिल्खा सिंह का किरदार निभाते हुए. जैसा कि आपने कहा कि उनके संघर्ष की कहानी हर किसी को प्रेरित करती है तो कभी आपको अपने संघर्ष के दिन याद आये?
हर व्यक्ति जिसने संघर्ष से अपनी जगह बनायी है. मुकाम हासिल किया है. वह हर व्यक्ति इस कहानी को देखने के बाद अपने संघर्ष के दिनों को या द करेगा ही. गौर करें तो मैंने अब तक जितनी फिल्मों में अभिनेता का किरदार निभाया है. फिर चाहे वह रॉक आॅन हो, या लक बाय चांस , सभी में मैं सेल्फीस बना हूं. लेकिन यह पहली बार है. जब मैं संघर्षशील व्यक्ति बना हूं. और यही वजह है कि इस फिल्म ने मुझे पूरी तरह से झकझोर कर रख दिया है. सच कहूं तोमिल्खा सिंह जैसा संघर्ष मेरी जिंदगी में नहीं रहा. इसलिए तो मैं ताज्जुब में था कि कोई व्यक्ति इतनी मेहनत भी कर सकता है. इतने धैर्य से भी आगे बढ़ सकता है. यह सब सीखा मैंने
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