इस रविवार की रात गुलजार के साथ गुजरी. गुलजार के साथ होने के लिए गुलजार के साथ होना अनिवार्य नहीं. चूंकि गुलजार हर मोड़ पर साथ है. हर माहौल में साथ हैं. हम चार दोस्तों की मंडली थी. और लगभग 4 घंटे गुलजार पर बातें होती रहीं. लेकिन चारों ही दोस्तों में से किसी को भी ऊब नहीं आयी. वजह स्पष्ट है. गुलजार की रचना हमेशा हर माहौल, हर मौके पर गुलजार हैं. वह प्रासंगिक हैं. एक दोस्त ने कहा कि वह दिन दूर नहीं होगा जब बच्चों को गुलजारवाद पढ़ाया जायेगा. दरअसल, गुलजार के शब्द न तो साहित्य के हैं और न ही शायरी के और न ही कविता के. शायरी उर्दू का अदब है. हिंदी की नरमियत कविता है. और इन दोनों में ही जिन शब्दों को दरकिनार कर दिये गये थे. उन्हें गुलजार ने आकार दिया. वे अल्लहड़ शब्द जो कभी फिल्मों का हिस्सा नहीं थे. उन्हें गुलजार ने सहारा दिया. गुलजार के पास ध्वनिनात्मक शब्दों का खजाना है. गुलजार लिखते हैं कि धम धम धड़ैया...टन टन टैनन... इससे पहले किस गीतकार ने गीतों के शब्दों में भी ध्वनि डाली थी. गुलजार का यह आॅब्जरवेशन है कि वह जूते के चुर्र चुर को भी महसूस करते हैं. तो सड़कों की ढैन ढैन भी महसूस करते हैं. वे लैपटॉप और उसकी फाइलों के साथ दिल की तलाश करते हैं. वे हनी सिंह के हॉर्न ओके प्लीज में भी नजर आते हैं. गुलजार मुंबई में रहते हुए भी पूरे हिंदुस्तान के आम आदमी के घरों में झांकते हैं और बात कह जाते हैं. ये गुलजारवाद है. गुलजार मर्द बन कर औरत के बारे में लिखते हैं... तेरी कमर पर नदी मुड़ा करती थी. और दूसरे ही पल वह औरत बन कर कहते हैं... एक 100 सोलह चांद की रात और तुम्हारे कांधे का तिल.स्पष्ट है कि गुलजार एक हैं, लेकिन उनके कई रूप हैं. वह संपूर्ण हैं. यही गुलजारवाद है.गुलजार के दिल में एक बच्चा भी बसता है और एक बुजुर्ग भी.
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