चुनावी माहौल है। हर तरफ, हर पार्टी बस इसी कोशिश में हैं कि मतदाताओं को रीझा कर ज्यादा से ज्यादा वोट बटोर लिए जाएं। ठीक उसी तरह जैसे बॉलीवुड और कोई भी फिल्म इंडस्ट्री की यही कोशिश होती है कि वह अपने फिल्मी प्रोमोशन में ज्यादा से ज्यादा दर्शकों को लुभाये। इन दिनों एक राजनैतिक पार्टी शोर मचा रही। वह अपने पंचलाइन में अपने नाम का इस्तेमाल कर रही न कि पार्टी के नाम का. स्पष्ट है कि वह भी इस बात से वाकिफ है कि उसका नाम ही ब्रांड है। फिल्मों में भी आमतौर पर अगर अभिनेता बड़ा होता है तो एलपीजी निर्देशक के बारे में जानने में न दिलचस्पी लेते हैं और न ही उनके बारे में फिल्मी प्रोमशन में कोई शोर शराबा होता। बाद में अगर जब फिल्म अच्छी हुई तो इक्के दुक्के लोग कहते नजर आते हैं कि अरे इस फिल्म का निर्देशक कौन है। हाल के दौर में देखें तो ऐसे कई निर्देशक हैं, जो लो प्रोफाइल रहना ही पसंद करते हैं। अभिषेक बर्मन जिन्होंने फिल्म टू स्टेट्स बनाई है , उनकी एक भी तस्वीर इंटरनेट पर भी नजर नहीं आती। बताते चलें कि अभिषेक बर्मन ने ही गूगल री यूनियन विज्ञापन का निर्माण किया था। कुछ इसी तरह फिल्म भूतनाथ के निर्देशक नितेश तिवारी भी चर्चों में फिल्म के बाद आये। फिल्मी प्रोमोशन में तो अमिताभ बच्चन ही छाए रहे। इन दिनों जिस तरह से धुंआधार प्रोमशन होते हैं लेकिन बाद में फिल्में खोखली नजर आती हैं कुछ ऐसा ही हाल चुनावों में भी होता है , दरअसल, चुनाव और चुनावी प्रोमोशन किसी फिल्मी प्रोमोशन से कम नहीं। इन दिनों नेता भी ट्रेलर और लुभावने पोस्टर से मतदाताओं को बेवकूफ बनाते नजर आते हैं। वे जानते हैं कि उनका बाजार कहाँ हैं सो,वे बार बार वही जाते। सिनेमा के लोगों को भी अब ये बात चूँकि समझ आ चुकी है कि उनका बाजार छोटे शहरों में है। सो ये शहर शहर डोलते नजर आते हैं। लेकिन यह निर्भर मतदाताओं पर करता है कि वह किस तरह मत देते वक़्त गंभीरता से सोचें और ठीक उसी तरह जब वह फिल्मों का चुनाव भी करते हैं तो उसमे भी सतर्कता बरतें। वरना शिकारी तो आएगा। दाना डालेगा। निर्भर आप पर करता है कि लोभ से उसमे फंसना है या नही. फिल्में भी चुनाव की तरह महतवपूर्ण हैं
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