फिल्म रिव्यू : पीकू
कलाकार : अमिताभ बच्चन, इरफान खान, दीपिका पादुकोण, मौसमी चटर्जी
निर्देशक: शूजीत सरकार
संवाद, स्क्रीनप्ले : जूही चतुर्वेदी
रेटिंग : 4.5 स्टार
उन दिनों मैं रांची में हॉस्टल में रहा कर रही थी. मूलत: मैं बोकारो की रहनेवाली हूं. सो, पापा जब भी मुझे स्टेशन पर छोड़ने आते. हमारे बीच काफी बातें होतीं. काफी सीक्रेट्स भी हम शेयर करते और धीरे धीरे हमारी दोस्ती गहरी होती गयी. शायद यही वजह है कि अब उनसे दोस्तों की तरह ही बातें होती हैं. नोंक झोक होती है. कभी कभी हमारी बातें सुन कर आस पास के लोग कहते भी हैं कि पापा हैं तुम्हारे ऐसे बात की जाती है...तो मेरा जवाब होता है कि पापा हैं मेरे तभी तो ऐसे बात कर रही हूं...दरअसल, हकीकत यही है कि आप जिस पर अपना पूरा हक समझते हैं.उसे ही हक से बोल भी सकते. उस रिश्ते के बीच कोई औपचारिकता नहीं होती. हालांकि शायद मेरी तरह तमाम बेटियां इतनी भाग्यशाली नहीं कि उन्हें अपने पापा के साथ औपचारिकता रखने की जरूरत नहीं पड़ती हो. लेकिन शूजीत सरकार की पीकू भी उन्हीं लड़कियों में से एक है, जो अपने पापा के बेहद करीब है और दोनों के बीच एक दोस्ती की भावना है न कि औपचारिकता की. इतनी गहराई है इस रिश्ते में कि पीकू अपने बाबा को कुछ भी कह देती है. लेकिन इस नोंक झोंक में आप पीकू की तरफ से बाबा का अनादर नहीं देखते. बल्कि एक ऐसा प्रेम है इनके बीच जो अनकहा सा है. जो अपने पापा से प्यार करती हैं. उनके लिए है ये पीकू. शूजीत सरकार बिना लाग लपेट के जिस खूबसूरती से बाबा और पीकू के रिश्ते को दर्शा गये हैं. हिंदी फिल्मों में पिता और पुत्री के बीच ऐसे रिश्ते की कहानी हम शायद ही देखना असंभव सा लगता है. बाबा यानी भॉस्कर( अमिताभ बच्चन) उस बाबा की तरह हैं, जो यह मान बैठते हैं कि चूंकि उनकी उम्र हो गयी है तो उन्हें कुछ न कुछ बीमारी तो ही जायेगी. मनगढ़ंत बीमारियों के बारे में सोचना भी एक तरह की बीमारी ही है. बाबा को कब्ज की शिकायत है. और वह हर वक्त बस इसी बात से परेशान रहते हैं कि उनका मोशन अच्छे तरीके से नहीं हुआ. दरअसल, फिल्म का अंत इस बात को सार्थक करता है कि मोशन से ही इमोशन किस तरह जुड़ा होता है. निर्देशक इस फिल्म के माध्यम से दर्शाते हैं कि बाबा का मोशन ठीक इसलिए नहीं था. चूंकि वह परेशान रहते थे. चिंतित रहते थे. वह कई चीजों से परहेज कर बैठे हैं. बाबा को नमक छुपाने की आदत थी. वह कंजूस थे.और यही सब वजह थी कि वे कब्ज के शिकार थे. दरअसल, उन्होंने कब्जीयत को खुद बुलावा दे रखा था. भास्कर व पीकू के परिवार में पीकू बाबा और एक नौकर जो कि बाबा को दिलो जान से प्यारा है. सिर्फ तीन ही सदस्य हैं. पीकू पापा से प्यार करती है. फिक्र करती है. लेकिन इजहार नहीं करती. पीकू के बााबा आम बाबा की तरह नहीं हैं. उन्हें पीकू की शादी की चिंता नहीं है. बल्कि वह तो अपनी बेटी के सेक्स लाइफ को भी जगजाहिर कर रहे हैं. शूजीत सरकार ने एक पिता की अलग छवि को बखूबी दर्शाया है. दरअसल, बाबा इस बात से असुरक्षित हैं कि अन्य लोगों की तरह उनके बुढ़ापे में उनकी बेटी यूं ही तड़पने के लिए न छोड़ दे. चूंकि इन दिनों ओल्ड एज होम में ही बुजुर्गों की जगह होती है. लेकिन शूजीत सरकार की पीकू सिखाती है कि उनकी जगह उस ओल्डएज होम में नहीं बल्कि बच्चों के दिल में है. पीकू की दुनिया बाबा की जिंदगी तक ही सीमित है. वह झल्लाती जरूर है. लेकिन बाबा की हर मर्जी मानती है. इतना कि नौकरी भी छोड़ देती है. इत्तेफाकन उसकी जिंदगी में राणा की एंट्री होती है, जो उसकी जिंदगी के प्रति नजरिये को कुछ हद तक बदलने में कामयाब होता है. निर्देशक व लेखिका जूही चतुर्वेदी ने राणा व पीकू के बीच प्रेम की स्वीकृति न दर्शा कर इन्हें आम प्रेम कहानियों से अलग कर दिया है. पीकू के घर में खाने से अधिक कांस्टीपेशन की ही बात होती है. बाबा हर बात को अपनी कब्जीयत से जोड़ देते हैं. लेकिन निर्देशक ने इसी बहाने परिवार की सोच को दर्शाया है. पीकू की तरह राणा भी अपनी मां की बकबक से परेशान है. लेकिन वह उनसे न तो दूर होगा और न उन्हें दूर करेगा. सो, पीकू और राणा से नयी पीढ़ी को सीख लेनी चाहिए कि किस तरह बुजुर्ग होने पर आपके माता पिता को प्यार की जरूरत है. जिस तरह उन्होंने आपकी बचपन में हर हठ मानी. आपकी बारी अब है मानने की. पीकू कई मायनों में सार्थक फिल्म है. और हर परिवार को जरूर देखनी चाहिए. जूही व शूजीत ने जिन बारीकियों से संवाद लिखे हैं. और दृश्य रचे हैं. वह आपको बोर नहीं होने देंगे. एक बुजुर्ग व्यक्ति को किस तरह अपने पुस्तैनी घर से बेहद लगाव होता है और उसे कुछ नहीं बस सुकून की मौत चाहिए होती है. यह फिल्म इसकी ही दास्तां हैं कि किस तरह एक बेटी को इस बात से भी सुख मिलता है कि उसक ेबाबा खुश हैं. अमिताभ बच्चन जिस तरह के किरदार में नजर आये हैं. अदभुत है. पा फिल्म के बाद इस फिल्म में उनका बच्चों सा व्यवहार, उनकी हठ पर आपको प्यार आ जायेगा. दीपिका पादुकोण हर दृश्य में चौंकाती हैं. उन्होंने बेहद स्वभाविक अभिनय किया है. इरफान खान कम संवादों में भी प्रभावित करते हैं. मौसमी चटर्जी शुद्ध बांग्ला मौसी के किरदार में आकर्षित करती हैं. मुझे लगता है कि पीकू 2015 क ीसर्वश्रेष्ठ फिल्मों में से एक है. दम लगा के हईसा के बाद दर्शकों को यह फिल्म जरूर देखनी चाहिए. यकीन मानिए पीकू और बाबा की इस स्वाभाविक दुनिया में जाकर आप इनके मुरीद हो जायेंगे. फिर उनकी बकबक बहस भी आपको बोझ नहीं लगेगी बल्कि चेहरे पर मुस्कान ही बिखेरेगी.
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