हाल में ही बांग्ला फिल्म राजकहीनी देखने का मौका मिला।फिल्म हिन्दुस्तान पाकिस्तान के विभाजन के दौरान महिलाओं की स्थिति पर आधारित है।फिल्म की कहानी एक कोठेवाली और उसके कोठे के इर्द गिर्द घूमती है कि विभाजन के दौरान उनके साथ भी क्या बदसलूकी की गई थी।और किस तरह उन्होंने अपने दम पर अंत तक लड़ाई लड़ी। इस फिल्म में निर्देशक ने हकीकत को बयां किया है। भले ही इसे रूप फीचर फिल्म का दिया गया लेकिन फिल्म हकीकत के बेहद करीब है।फिल्म में कुछ भी लागलपेट नहीं।एक महिला किस पीड़ा से गुजरती है जब वह बार बार बलात्कार की जाती है।उस पीड़ा को जिस रूप मैं निर्देशक ने प्रस्तुत किया है।वह रोंगटे खड़ी कर देता है। इस फिल्म को देखना इसलिए आवश्यक है क्योंकि उस दौर की हकीकत और दर्द को हमने लेखों और किताबों के माध्यम से देख सुना है। लेकिन इस फिल्म मैं निर्देशक ने महिलाओं के नजरिये से पूरी कहानी कहने की कोशिश की है। निर्देशक ने फिल्म की शुरुआत में ही मंटो की रचना खोल दो का जिक्र किया है।और फिल्म में सटीक तरीके से इसे शब्दार्थ भी किया है। फिल्म के कुछ दृश्य लंबे समय तक आपको याद रहेंगे। ऐसे दौर में जहां धर्म के नाम पर हो रहे विवादों की कहानी चर्चे में है। शायद ही किसी निर्देशक ने इन गलियों की खाक छानने की कोशिश की होगी। फिल्म में इस संदेश को भी देने की कोशिश की गई है कि बुरे ना हिंदू होते हैं न मुसलमान बल्कि इंसान होता है। फिल्म में सलीम नामक किरदार ने अंत तक तबायफों की मदद करता है। इस लिहाज से भी यह एक महत्वपूर्ण फिल्म है। फिल्म के अंत के दृश्यों में राष्ट्र गान को अलग रूप में दर्शाया गया है। फिल्म के अंतिम दृश्य याद रह जाते हैं और कई सवाल खुद से पूछने पर मजबूर करते हैं। इसी फिल्म के निर्देशन और निर्माण के लिए निर्देशक की मेहनत और हिम्मत की सराहना होनी चाहिए।
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20151126
ek mahtwpurn film
हाल में ही बांग्ला फिल्म राजकहीनी देखने का मौका मिला।फिल्म हिन्दुस्तान पाकिस्तान के विभाजन के दौरान महिलाओं की स्थिति पर आधारित है।फिल्म की कहानी एक कोठेवाली और उसके कोठे के इर्द गिर्द घूमती है कि विभाजन के दौरान उनके साथ भी क्या बदसलूकी की गई थी।और किस तरह उन्होंने अपने दम पर अंत तक लड़ाई लड़ी। इस फिल्म में निर्देशक ने हकीकत को बयां किया है। भले ही इसे रूप फीचर फिल्म का दिया गया लेकिन फिल्म हकीकत के बेहद करीब है।फिल्म में कुछ भी लागलपेट नहीं।एक महिला किस पीड़ा से गुजरती है जब वह बार बार बलात्कार की जाती है।उस पीड़ा को जिस रूप मैं निर्देशक ने प्रस्तुत किया है।वह रोंगटे खड़ी कर देता है। इस फिल्म को देखना इसलिए आवश्यक है क्योंकि उस दौर की हकीकत और दर्द को हमने लेखों और किताबों के माध्यम से देख सुना है। लेकिन इस फिल्म मैं निर्देशक ने महिलाओं के नजरिये से पूरी कहानी कहने की कोशिश की है। निर्देशक ने फिल्म की शुरुआत में ही मंटो की रचना खोल दो का जिक्र किया है।और फिल्म में सटीक तरीके से इसे शब्दार्थ भी किया है। फिल्म के कुछ दृश्य लंबे समय तक आपको याद रहेंगे। ऐसे दौर में जहां धर्म के नाम पर हो रहे विवादों की कहानी चर्चे में है। शायद ही किसी निर्देशक ने इन गलियों की खाक छानने की कोशिश की होगी। फिल्म में इस संदेश को भी देने की कोशिश की गई है कि बुरे ना हिंदू होते हैं न मुसलमान बल्कि इंसान होता है। फिल्म में सलीम नामक किरदार ने अंत तक तबायफों की मदद करता है। इस लिहाज से भी यह एक महत्वपूर्ण फिल्म है। फिल्म के अंत के दृश्यों में राष्ट्र गान को अलग रूप में दर्शाया गया है। फिल्म के अंतिम दृश्य याद रह जाते हैं और कई सवाल खुद से पूछने पर मजबूर करते हैं। इसी फिल्म के निर्देशन और निर्माण के लिए निर्देशक की मेहनत और हिम्मत की सराहना होनी चाहिए।
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