भारत में टेलीविजन की दुनिया ने एक नया रुख किया है. कई उपन्यासों को टेलीविजन का रूप दिया जा रहा है.लेकिन उन उपन्यासों के साथ न्याय तभी होगा, जब इन सारे उपन्यासों का रूपांतर सही तरीके से प्रस्तुत किया जाये. जीटीवी पर लाजवंती धारावाहिक की शुरुआत होनेवाली है तो स्टार प्लस पर गुनाहों का देवता की. यह मुमकिन है कि भारतीय टेलीविजन के निर्माताओं को कहीं न कहीं जिंदगी चैनल की लोकप्रियता का इल्म तो हो ही गया है. साथ ही साथ वे यह बात भी समझ गये हैं कि आनेवाले समय में जिंदगी पर प्रसारित होनेवाले धारावाहिक उनके लिए प्रतियोगी बन कर खड़े रहेंगे. उन्होंने कोशिशें तो शुरू की है. लेकिन यह मुक्कमल तभी हो सकती हैं, जब उपन्यासों के रूपांतर में भारतीय टेलीविजन के सोप ओपरा की तरह दिखावटीपन या बनावटीपन न हो. किसी दौर में जब गुलजार साहब, व कई वरिष्ठ कलाकारों ने टेलीविजन पर काम किया था. जिस तरह के गुणवता वाले शो हमें देखने को मिले थे. वैसे हमें फिर से मिलें. उन्हें जबरदस्ती वर्तमान दौर में दिखाये जाने वाले रंग में न रंगा जाये. कल्पना कीजिए उपन्यास के वे किरदार रंगे पोते से अगर छोटे परदे पर प्रस्तुत होंगे तो कैसा दृश्य होगा. अनुराग बसु ने कई हद तक अपने धारावाहिक सीरिज रवींद्रनाथ टैगोर की कहानियां में उपन्यास का टच रखा है. किरदारों की बातचीत के लहजे से लेकर परिवेश और पोशाक में भी. अगर हिंदी टेलीविजन के निर्माता भी वही ढांचा अपनाये तो बेहतर होगा. वरना, यह केवल औपचारिकता की ही शुरुआत मात्र मानी जायेगी. जिंदगी चैनल पर प्रसारित होने वाले धारावाहिकों की जुबान पर खासतौर से हिंदी धारावाहिकों के लेखकों को ध्यान देना चाहिए. वे कितनी समृद्ध भाषा में अपनी भावनाओं को बयां करते हैं. उपन्यास पर आधारित धारावाहिकों से ऐसी ही उम्मीदें हैं.
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