हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में इन दिनों एक नए ट्रेंड की शुरुआत हुई है। कई निर्देशक जिनके जेहन में अपनी फिल्म को लेकर संदेह होता है। वे सभी मीडिया वालों के लिए प्रेस शो का आयोजन नहीं करते। उनकी कोशिश होती है कि वे फिल्म की रिलीज से एक दिन पहले रखे जाने वाले प्रेस शो में अपनी फिल्म को न दिखाएँ। इससे होता यह है कि उनकी फिल्म के बारे में एक दिन पहले से नकारात्मक चर्चाएं नहीं होती हैं और कम से काम फिल्म की रिलीज में उन्हें अच्छी ओपनिंग मिल जाती है। हाल ही में एक निर्देशक ने भी इसी वजह से फिल्म की स्क्रीनिंग नहीं रखी। उन्होंने मीडिया के कुछ ऐसे समीक्षक, जिन्हे पैसे लेकर फिल्मों को स्टारों से सजाने की आदत है। सिर्फ उन्हें फिल्म के प्रीमियर में शामिल किया। फिल्म की रिलीज के बाद जब समीक्षकों ने फिल्म में कमियां तलाशनी शुरू की तो उसी निर्देशक ने ट्विटर पर जाकर बातें बनानी शुरू कर दी, कि समीक्षकों को कुछ नहीं आता। उन्हें फिल्म समीक्षकों को जोकर कह कर भी काफी खरी खोटी सुनायी। वे बार बार ये बात दोहरा रहे कि उन्हें समीक्षकों की राय से कोई मतलब नहीं। इससे फिल्म के बॉक्स ऑफिस कलेक्शन पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। अगर उन्हें वाकई फर्क नहीं पड़ता है तो वे समीक्षकों से नाराज क्यों हैं। क्यों उन्हें अपना काम नहीं करने दे रहे। अगर वाकई दर्शक फिल्मों के स्टार या रिव्यु पढ़ कर फिल्म देखने नहीं जाते तो फिर इस फिल्म को अच्छे कलेक्शन मिलने चाहिए। फिलवक्त तक रिपोर्ट अच्छी नहीं है। दरअसल ,निर्देशकों ने अपने दिमाग में यह बात बिठा ली है कि फिल्मों को किसी समीक्षा की जरुरत नहीं और समीक्षकों को फिल्मों का कोई ज्ञान नहीं है। यह उनकी गलतफहमियां हैं। पिछले हफ्ते रिलीज हुई फिल्म तलवार माउथ पब्लिसिटी की वजह से ही कामयाब हो रही है। ऐसी कई छोटी बजट की अच्छी फिल्में होती हैं जो फिल्मों के अच्छे रिव्यु की वजह से ही आम दर्शकों तक पहुँच पाती है। वरना ऐसी फिल्मों के लिए दर्शकों का थेयटर पहुंचना कठिन होता है। सो, फिल्म को भी एक ऐसी तीखी आँखों की जरुरत है , जो किरकिरी बनने पे उसे हटाने की कोशिश करें।
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