एक कॉफी ने अपने विज्ञापन की पंचलाइन रखी है कि कॉफी लगाओ और लग जाओ... फिल्म बैंगिस्तान के निर्देशक करन अंशुमन से एक सवाल, ऊंट का बहूवचन ऊंटियां कब से होने लगा. छोटे परदे पर प्रसारित होनेवाले धारावाहिकों के लिए तो किसी नये घर में प्रवेश या नयी नवेली दुल्हन के घर में प्रवेश होने पर गृह प्रवेश नहीं. ग्रह प्रवेश कराया जाता है. ग्रह प्रवेश अब एक प्रचलित शब्द है. एंड टीवी के धारावाहिक एजेंट राघव में भी ऐसी ही कुछ अटपटी सी पंक्तियां हैं. दरअसल, हकीकत यही है कि हिंदी को लेकर जिस तरह से नजरअंदाजी हो रही है, बस शब्दों को फिट करने का चलन है. जो शब्द तुकबंदी में फिट बैठ जायें. वही शब्द फिल्मों व धारावाहिकों की आवाज बन जा रहे हैं. नतीजन अशुद्ध हिंदी सुनी और बोली जा रही है. खास बात यह है कि दर्शक बेपरवाह हैं और उन्हें इस बात से कोई फर्क भी नहीं पड़ रहा. वे कभी इस बात की शिकायत नहीं करते. और निर्माताओं के साथ साथ वे भी कॉफी लगाते रहते हैं.इसकी खास वजह यह भी है कि हमें आदत बन चुकी है कि हम फॉलोअर्स बनें. हमें जो दिखाया जा रहा है, सुनाया जा रहा है. हम उस पर आंख मूंध कर विश्वास कर लेते हैं. जाहिर है ऐसे में हम कभी सही गलत का फैसला कर पाने में कामयाब नहीं हो पायेंगे. यही वजह है कि लेखक व निर्माता हिंदी को लेकर उतनी गंभीरता नहीं दिखाते. पूरी फिल्म इंडस्ट्री में ही नहीं, फिल्म बिरादरी में ही हिंदी को एक क्षेत्रीय भाषा माना जाता है. यहां फिल्मों व सितारों के पीआर हिंदी भाषी पत्रकारों को रिजनल भाषी मानते हैं और उनके साथ सौतेला व्यवहार ही करते हैं. हाल ही में मनोज बाजपेयी व रवीना पर आधारित एक शॉर्ट फिल्म में हिंदी के महत्व को बखूबी दर्शाया गया है कि आज हिंदी की दुर्गति किस कगार पर पहुंच चुकी है. लेकिन हम मूक बन कर अंगरेजी को सलामी ठोक रहे हैं.
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