हाल ही में अविनाश अरुण की फिल्म किला देखने का मौका मिला. यह फिल्म एक ऐसी मां और बेटे की कहानी है, जिनके पिता नहीं हैं और मां की स्थांतरण नौकरी है और न चाहते हुए भी बार बार मां का तबादला होता है और बेटा न चाहते हुए भी उसका हिस्सा बनता है. यह एक बच्चे की अंर्तद्वंद की कहानी है, जो हर पल अपने पिता की कमी महसूस करता है. दोस्तों से घिरे रहने के बावजूद उसके मन में एक अकेलापन है, जिसे दूर करने की कोशिश वह अपने तरीके से करता है. मां के साथ उसे पुणे जैसे शहर को छोड़ कर एक गांव आना पड़ता है. वहां बमुश्किल उसके कुछ लड़के दोस्त बनते हैं.लेकिन एक गलतफहमी की वजह से वे उनसे भी दूरियां बना लेता है. इस फिल्म में इस बात को बखूबी दर्शाया गया है, कि आप जब अपने किसी को खो देते हैं तो आपको किसी को भी खोने का डर कैसे हर पल सालता है. वह बच्चा भी इस बात से दुखी होता है कि उनके दोस्तों ने उसका साथ नहीं दिया. लेकिन जब गलतफहमी दूर होती है तब तक फिर से उसे मां के साथ किसी और स्थान के लिए रवाना होना पड़ता है. अविनाश अरुण ने किला के माध्यम से उन तमाम परिवारों की कहानी कही है, जो अपनी नौकरी की वजह से एक स्थान छोड़ कर अन्य स्थानों पर जाते हैं. किस तरह एक बच्चे की पढ़ाई को नुकसान होता है और किस तरह धीरे धीरे जब वह स्थान अपना सा लगता है कि वापस उसे मोह माया तोड़ कर जाना पड़ता है. किला एक मासूम सी कहानी है, जिसे हर पेरेंट्स को अपने बच्चों के साथ अवश्य थियेटर में देखना चाहिए. मराठी सिनेमा में लगातार इतनी खूबसूरत कहानियां बन रही हैं. किला आपके बचपन की दुनिया की दोबारा सैर कराती है, जहां से आपका लौटने का हरगिज मन नहीं होगा. फिल्म की भाषा मराठी है. लेकिन यह दिल को छूती है. चूंकि दिल की कोई भाषा नहीं होती.
No comments:
Post a Comment