20110207

स्लम के सेलिब्रिटी




· सलाम बांबे के बाद भटकता रहा चाय-पाव

· मुंबई वापस आने के बाद किसी ने नहीं पहचाना

· मीरा नायर से हुई थी 20 सालों के बाद मुलाकात.

· रुबीना व इस्माइल की सूध लेनेवाला कोई नहीं

सलाम बांबे का चायपाव शफिक, मंजू, स्लमडॉग मिलिनियेर के सलीम इस्माइल व तलिका बनी रुबीना को शायद आप गुगल के वीकिपीडिया में आसानी से ढूंढ निकालें, लेकिन वास्तविक जिंदगी में आज वह कहां हैं और क्या कर रहे. इसे जानने में न तो अब किसी की रुचि है और न ही जरूरत. कुछ दिनों के लिए स्लम सेलिब्रिटी बनने के बाद क्या है इनकी जिंदगी की वास्तविकता. पूरा हाल बता रही हैं अनुप्रिया अनंत

मुंबई की बड़ी-बड़ी इमारतों व तेज रफ्तार जिंदगी में बौने व छोटे बिखरे पड़े कस्बों व झुग्गी-झोपड़ियों की तरफ एक झलक झांकने की भी सूध किसी को नहीं होती. फिर अचानक एक दिन परदा उठता है और सिल्वर स्क्रिन पर वह झुग्गी -झोपड़ी, कुड़ादान, बदहाल बच्चे बिल्कुल केंद्र में आ जाते हैं और कुछ दिनों के लिए वह स्लम सेलिब्रिटी बन जाते हैं. मसलन सारे मीडिया चैनल, अखबारों में बड़ी-बड़ी तसवीरों के साथ मैगजीन के कवर पेज पर वे नजर आने लगते हैं. रेड कारपेट जैसे ग्लैमरस स्थानों में भी उनकी मौजूदगी ग्लैमरस परिधानों व कलाकारों के बीच होने लगती है. उन बच्चों के मां बाप को भी लगता है कि अब उनके बदहाली के दिन गये और अब उनके बच्चों का भविष्य सफल हो जायेगा. लेकिन उन मासूमों को तो यह पता ही नहीं कि फिल्म सिर्फ 3 घंटे की ही हो सकती है. अगर उसकी अवधि और अधिक बढ़ाई जायेगी तो वह लोगों के लिए ऊबाऊ हो जाती है. और बस यही परदा गिरता है और तमाशा खत्म हो जाता है. कुछ ऐसी ही वास्तविक कहानी है मुंबई के स्लम में रहनेवाले उन स्लम सेलिब्रिटिज बच्चों की, जिन्होंने रुपहले परदे पर फिल्मों में अभिनय किया और उनकी अभिनय की बदौलत से ही निदर्ेशकों को अंतरराष्ट्रीय पहचान मिली. लेकिन इसके बाद न तो उनकी सूध लेनेवाला कोई रहा और न ही उनकी स्थिति में कोई बदलाव आया. गौर करें तो स्लमडॉग मिलेनियर और सलाम बांबे ऐसी कुछ फिल्में हैं, जिसमें मुख्य रूप से स्लम के रहनेवाले वास्तविक बच्चों से अभिनय कराया गया. उन्हें बड़े-बड़े अवार्ड फंक्शन में जाने का भी मौका मिला. सलाम बांबे का निदर्ेशन मीरा नायर ने किया था और स्लमडॉग मिलेनियर डैनी बॉयल की फिल्म थी. गौरतलब है कि हाल ही में गोवा में हुए इफ्फी फिल्मोत्सव में सलाम बांबे की स्क्रिनिंग हुई. स्क्रिनिंग के दौरान फिल्म के बाल कलाकार भी मौजूद थे. जो अब 35 वर्ष के हो चुके हैं. फिल्म, अवार्ड फंक्शन और ग्लैमरस की दुनिया के कुछ साल बाद क्या है उनकी वास्तविक जिंदगी इसे समझा देखना बहुत जरूरी है. क्योंकि सच्चाई यह है कि उनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं होता.फिर चाहे वह सलाम बांबे के चायपाव शफिक, मंजू हो या फिर स्लमड़ॉग की रुबीना व मोहम्मद इस्माइल.

अब खुद की फिल्म बना रहा है चाय-पाव

यह सलाम बांबे के 23 साल के बाद की कहानी है. जिस पर से परदा उठा. 41वें इफ्फी फिल्मोत्सव-10 में. सलाम बांबे में काम करनेवाले बाल कलाकार अब 35 साल के हो गये हैं. वर्ष 1988 में बनीं मीरा नायर की बहुचर्चित फिल्म सलाम बांबे फिल्मोत्सव में दिखाई जा रही थी. फिल्म की कहानी मुंबई के गलियों में भटकनेवाले बच्चों की जिंदगी पर आधारित थी. फिल्म ने उस वर्ष कान फिल्मोत्सव में गोल्डन कैमरा, ऑडिशन अवार्ड जीता था. साथ ही फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त हुआ. खुद फिल्म में बाल कलाकार का किरदार निभानेवाले शफिक सईद को बेस्ट चाइल्ड आर्टिस्ट का राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल हुआ. लेकिन उसकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं हुआ. शफिक बताते हैं कि कुछ सालों के बाद उन्हें लोगों ने पहचानना बंद कर दिया. बंग्लुरु में फिलहाल वह रिक्शा चला रहे हैं. वे बताते हैं कि कैसे वह अपने कुछ दोस्तों के साथ चर्चगेट के फ्लाइओवर पर रहते थे. एक दीदी आयी. बोली बच्चा लोग ड्रामा करो. हर दिन बीस रुपये मिलेंगे. उसके बताये पते पर मैं कमानी हॉल पहुंचा. वहां काम शुरू हुआ. दो महीने तक हमने खूब मस्ती की. फिर फिल्म खत्म और फिर फ्लाइओवर के नीचे आ दया. फिल्म बनी. हिट हुई. हम सब खुश थे. सलाम बांबे के जरिये पूरी दुनिया देखी. फिर मंझदार में लाकर पटक दिया गया. पांच सितारा होटलों में ठहराया गया और फिर पटक दिया गया. फिल्म हिट होने के बाद हम बच्चों पर किसी ने ध्यान नहीं दिया. वापस बंग्लुरु चलाया गया. मीरा नायर से 20 साल के बाद मुलाकात हुई है. किसी ने कुछ भी नहीं किया हमारे लिए. सब कहते हैं करते कुछ भी नहीं. हालांकि मैं खुद सलाम बांबे के बाद क्या हुआ.खुद मेरी जिंदगी में क्या हुआ, उन बच्चों का क्या हुआ. मैं उस पर फिल्म बना रहा हूं बांबे को सलाम. सच तो यही है कि हम उनके लिए सिर्फ कठपुतली होते हैं और कुछ नहीं.

स्लमडॉग के बच्चे स्लमडॉग ही बने रहे

कुछ ऐसा ही हालएबयां स्लमडॉग के बच्चों का भी. रुबीना अली व मोहम्मद इस्माइल को ऑस्कर की रेड कारपेट के बाद सीधे स्लम की पथरीली सड़के ही नसीब हुई हैं. फिलवक्त दोनों फिर से बदहाली की जिंदगी जी रहे हैं. उनकी कोई सूध नहीं लेता. खुद रुबीना बताती है कि कभी कभी कोई कैमरावाले अंकल आते हैं बात करने. पहले ज्यादा आते ते. अब कम आते हैं. इस्माइल को तो कई ऑफर भी मिलते हैं. लेकिन मेहताना बिल्कुल निम्नस्तरीय दिया जाता है. जबकि फिल्म बनने के दौरान लोग उन्हें शिक्षित करने व जिम्मेदारी उठाने की बात करते हैं. वास्तविक कहानी कह कर खुद हिट हो जाते हैं और उन्हें गुमनामी के अंधेरों में फिर से ढकेल दिया जाता.

राजकपूर ने किया था कई फिल्मों का निर्माण

गौरतलब है कि राजकपूर एकमात्र ऐसे निदर्ेशक थे, जिन्होंने अपनी फिल्मों में झुग्गी झोपड़ी की कहानियां कही. उन्होंने स्लम के कई बच्चों के लिए प्रयास भी किया. समय-समय पर वह वहां के बच्चों को खिलौने और सामान दिया करते थे. उन्होंने कभी वहां के बच्चों को लेकर भीड़ इकट्ठा नहीं किया. बुट पॉलिश जैसी फिल्में उनमें से एक हैं.

ऐसा नहीं है कि हमने उन बच्चों के लिए कुछ नहीं किया. दरअसल उन बच्चों के लिए सलाम बालक फाउंडेशन काम करती है. हमने उसके सहारे ही बच्चों की तलाश की थी. यह उनकी जिम्मेदारी बनती है कि वह उन बच्चों के लिए कुछ करें- मीरा नायर, निदर्ेशक

फिल्में बनती हैं. हिट होती हैं. अवार्ड्स मिलते हैं उन्हें. वह कामयाब हो जाते हैं और हमें फिर से लाकर उसी झुग्गी झोपड़ी में वापस पटक दिया जाता है.

शफीक, कलाकार, सलाम बांबे

6 comments:

  1. बहुत ही सुंदर और दिल को छू लेने वाली रपट। चाय पाव का आज का फोटो होता तो चार चांद लग जाते।

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  2. मुबारक. हम तुम्हारे अनुगामी बन गए.वेरी फर्स्ट. कमेंट करने का तरीका सिम्पल करो. यह बहुत झंझटिया है.

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  3. अनु, बहुत बढिया ब्‍लाग बनाया है आपने। लिखती रहो।

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  4. सलाम हमारी महानता और करुना को जो की अपना काम निकलने के बाद भूल जाती है सबकुछ..आपकी रिपोर्ट को सलाम जो की उनकी सुध ली ...

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  5. और इसी सलाम बोम्बे के पैसे से बना सलाम बालक ट्रस्ट! जो बखूबी काम कर रहा है मगर शफीक के साथ ऐसा क्यों हुआ सलाम बालक ट्रस्ट वालों से पूछना चाहिए salaambt@vsnl.com पर मेल कीजिये और खुद ही पूछ लीजिये! या इसका लिंक भेज दीजिये उन्हें जितनी ज्यादा मेल जायेगी उतना बेहतर होगा और उनसे एक अनुरोध कीजिये की शफीक के बच्चों के लिए कुछ बेहतर हो :) तो बोलिए जय हो और लिख दीजिये एक मेल

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  6. "परफेक्टनेस का अब तक "पी" भी नहीं आया, पर फिर भी ताउम्र पत्रकारिता की "पी" के साथ ही जीना चाहती हूं। अखबारों में लगातार घटते स्पेस और शब्दों व भावनाओं के बढ़ते स्पेस के कारण दिल में न जाने कहां से स्पार्क आया.और अनुख्यान के रूप में अंतत: मैंने भी ब्लॉग का बल्ब जलाया. कोशिश यही कि अख़बार की कट कॉपी पेस्ट से इतर जिंदगी के वास्तविक व मूल रूप की कट कॉपी यहाँ पेस्ट करूं"

    प्रभावी अंदाज - शुभकामनाएं तथा शुभ आशीष

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