अपना करियर 1948 में शुरू किया था. पहले पांच साल मैं शर्माजी के नाम से संगीत देता रहा था. लोग मुझे उसी नाम से पहचाने थे. फिर मैंने अपने असली नाम खय्याम से काम करने लगा. उस दौर में दिलीप कुमार, राज कपूर और देवानंद जैसे अभिनेताओं का दौर था. आज 15 अगस्त व 26 जनवरी के दिन जब अपने गीत सुनता हूं ( वह सुबह कभी तो आयेगी) तो एक सुकून मिलता है कि हमने ऐसी चीजें कृत की कि लोग उसे आज सांस्कृतिक धरोहर के रूप में सुन रहे हैं. शामे गम की कसम और वो सुबह कभी तो आयेगी उसी दौर के गीत हैं. वह बड़े शायरों और कवियों का दौर था. आज मैं सोचता हूं तो अच्छा लगता है कि इतने बड़े शायरों और कवियों के साथ काम करने का मौका मिला. देवानंद के साथ कई बार उनके निदर्ेशन में काम करने का मौका मिला. वे उस वक्त के बड़े कलाकार थे. उनकी फिल्मों का संगीत भी बहुत बेहतरीन और एक अलग अंदाज में पेश होता था. उनकी फिल्मों के गानों में पश्चिमी संगीत की झलक अधिक मिलती थी. फिल्म कभी-कभी के गीत मेरे पसंदीदा गीतों में से एक हैं. साहिर लुधियानवी के गीत व मेरे संगीत से सजे फिल्म के गीतों ने इतिहास रचा. मेरा मानना है कि पहले संगीत अपने दम पर हिट हुआ करता था. उसे किसी तरह के प्रचार की जरूरत नहीं पड़ती थी. उसे किसी ग्लैमरस म्यूजिक लांच या मीडिया या प्रेस कांफ्रेंस की जरूरत नहीं पड़ती थी. लेकिन अब संगीत के साथ ऐसा नहीं होता. लताजी के साथ काम के अनुभव मेरे जीवन के बेहतरीन पलों में से एक हैं. लता जी के साथ मैंने कई गाने बनाये. वैसे तो बहुत से गाने हैं और सभी मुझे अच्छे लगते थे. मुझे एक गाना याद है रजिया सुल्तान का ऐ दिले नादान. रजिया सुल्तान कमाल अमरोही साहब की फिल्म थी. वैसे तो यह गाना सामान्य था. धुन भी सरल थी. लेकिन लता के आवाज में इस गीत में चार चांद लग गये थे. उमराव जान के गाने भी बेहद लोकप्रिय हुए. उमराव जान के गाने क्लासिक हुए.
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