20110207

खुशियों की चुस्की लेकर देखो तो सही ः कबीर


सुब्रमनियम. दलशाद, विक्रमजीत, अमित-अनीता व शालिनी. इनमें कोई समानता नहीं. सभी एक दूसरे से जुदा. फिर भी इनकी जिंदगी आकर मिलती है लक्की कैफे हाउस में. हमारी वास्तविक जिंदगी में भी तो कुछ ऐसी ही है. अलग नजरिया होते हुए भी अजनबियों से एक अटूट रिश्ता. फिल्म तुम मिलो तो सही के माध्यम से निदर्ेशक कबीर सदानंद ने आम इंसान की जिंदगी के कुछ ऐसे ही अनछुए पहलुओं को छूने की कोशिश की है, जिन्हें वह धीरे-धीरे भूलता जा रहा है. रील लाइफ की तरह रियल लाइफ में भी कबीर रिश्तों को सबसे ज्यादा अहमियत देते हैं.

कॉफी हाउस का जिंदगी में अहम भूमिका

इंसान चाहे कितना भी व्यस्त हो. कितना भी बड़ा इंसान बन जाये, लेकिन एक जगह ऐसी जरूर होती है, जहां हर कोई अपना सबसे ज्यादा समय भी बिताता है और फिर वह जगह उसके लिए अपनी हो जाती है. खासतौर से यंगस्टर्स कॉफी हाउस में शाम की कॉफी पीने और गप्पे लड़ाने बेहद जाते हैं. लेकिन धीरे-धीरे अब यह प्रचलन भी खत्म हो रहा है. पहले शाम की चाय या कॉफी छोटे छोटे कॉफी हाउसेस में हुआ करती थी. लेकिन अब तो लोगों के पास इसके लिए वक्त ही नहीं. जबकि अगर आज भी आप अपनी जिंदगी से कुछ पल निकाल कर अपनों के बीच बैठ कर एक शाम ही बीता के देखें, आपको कितना सुकून मिलता है. दरअसल, आप गौर करें तो आप पायेंगे कि हमारी जिंदगी से खुशियों की चुस्की गायब हो गयी. उसे ढ़ूंढ़ना जरूरी है. अब तो भागदौड़ की इस जिंदगी में इंसान घर बातचीत नहीं, आंखों में नींद व थकावट लेकर आता है.

सभ्यता-संस्कृति कभी बूढ़ी नहीं होती

जब मैं दिल्ली में पढ़ाई करता था, तो एक पराठेवाला हुआ करता था. उसके पराठे बेहद प्रसिध्द थे. मैंने और मेरे दोस्तों ने वहां लगभग 10 सालों तक लगातार पराठें खाये हैं. कुछ दिनों पहले जब मैं वहां गया.पराठेवाले को पैसे देने लगा. तो उसने कहा कि बड़े हो गये हो तो पैसे दे रहो हो. हमारे लिए तो बच्चे ही हो. उस पराठेवाले से हमारा जुड़ाव हमारी संस्कृति की वजह से ही थी, क्योंकि संस्कृति से ही रिश्ते बनते हैं.

खो रहा है इरानी कॉफी हाउस का वजूद

हर शहर की अपनी संस्कृति होती है. कभी वक्त था जब मुंबई की पहचान इरानी कॉफी हाउस की वजह से होती थी. कोई भी बाहर से आता तो यह जरूर कहता कि चलो इरानी कॉफी हाउस चलते हैं. लेकिन अब धीरे-धीरे इसका वजूद खो रहा है. एक दौर था, जब लोग हर शाम वक्त मिलने पर इरानी कॉफी हाउस में बातचीत के लिए मिलते थे, लेकिन अब तो लोगों के पास परिवार के लिए वक्त नहीं तो फिर कॉफी हाउस तो दूर की बात है. अपनी फिल्म (तुम मिलो तो सही) में लक्की कॉफी को सांस्कृतिक धरोहर के रूप में दिखाने का यही उद्देश्य भी था.

खुशियों मुट्ठी भर हों, लेकिन परिवार का साथ हो

मुझे खुशियों का ओवरफ्लो नहीं चाहिए. जितनी भी खुशी मिले, उसे परिवार के साथ बांट सकूं. बस. इससे सुकून मिलता है. जिसके लिए रात दिन मेहनत कर रहा हूं . उसके लिए ही वक्त नहीं. ऐसे में परिवार कैसे बनेगा. मेरी जिंदगी में मेरे परिवार की बहुत एहमियत है. मैं अपने बीवी-बच्चों से जितना प्यार करता हूं और जितना उनका ख्याल रखता हूं उतनी ही इज्जत और प्यार अपने मां-पापा को भी देता हूं. साथ ही अपनी पत्नी के पिता का भी आदर करता हूं. मुझे खुशी है कि मेरी फिल्म को पारिवारिक फिल्म की कैटेगरी में शामिल किया गया. बुजुर्ग भी जाकर इस फिल्म को देख रहे हैं. खुद मेरे फादर इन लॉ ने कई वर्षों के बाद मेरी फिल्म देखी और मुझसे कहा कि साफ सुथरी फिल्म है. मैं उन मां बाप का मर्म समझ सकता हूं , जिन्हें कुछ वक्त के बाद ओल्ड एज होम भेज दिया जाता है, जो बिल्कुल सही नहीं.मेरी फिल्म में बहुत हद तक इस बात पर स्ट्रेस किया गया है.

वीकेंड केवल बच्चों के नाम

मेरे वक्त पर मेरे परिवार का पूरा हक है. मैं अपने बच्चों से उनकी खुशियां नहीं छीन सकता. शनिवार-रविवार सिर्फ उनके लिए. मुझे पता है कि अब उनकी छुट्टियां शुरू होनेवाली हैं. उनसे मेरी उम्मीदें होंगी. अगस्त से मैं अपने नये प्रोजेक्ट पर लग जाऊंगा.इसलिए उनकी छुट्टियों में उनको पूरा वक्त दूंगा.

मां की हाथों की बनी कॉफी बेहद पसंद

मैं कॉफी का शौकीन हूं और मां के हाथों की बनी कॉफी सबसे ज्यादा पसंद है मुझे.

मुंबई के पसंदीदा इरानी कैफे हाउस

कोलाबा का इरानी कैफे, मोंडिका, लक्की कैफे, सीजन डॉग.

वास्तविक जिंदगी से ही आते हैं कंसेप्ट

फिल्म में झूलेवाला सीन मेरे दिमाग में तब आया जब मैं नाना के पुणेवाले घर में गया था. वहां उनके घर के बाहर झूला देखा, जिस पर बैठ कर नाना बेहद खुश दिख रहे थे. तो मैंने उसी वक्त उस झूले को फिल्म में शामिल कर लिया.

ईरानी जिस तरह पहले छोटे-छोटे कप में कॉफी परोसा करते थे. हमने भी फिल्म में पूरा कॉफी हाउस कुछ उसी तरह तैयार करने की कोशिश की है.

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