गलियों के अमिताभ बच्चन भगवान दादा. शीषर्क सुन कर एकबारगी आपको आश्चर्य जरूर होगा. लेकिन शोला जो भड़के दिल मेरा धड़के गीत में अपने अदभुत, अनोखी व अद्वितीय डांसिंग स्टेप देनेवाले भगवान दादा को आज भी उनकी गलियों में लोग अमिताभ बच्चन ही मानते हैं. जबकि दादा की मृत्यु को आठ साल बीत चुके हैं. प्रस्तुत है गलियों से निकले इस डांसिंग सुपरस्टार की जिंदगी के कुछ पहलुओं पर एक नजर.
भगवान दादा के पुराने इलाके में( परेल के चॉल इलाका) रहनेवाले एक बुजुर्ग अजित केलकर से बातचीत पर आधारित.
भगवान दा. हिंदी सिनेमा जगत के पहले डांसिंग मास्टर. न तो आज भगवान दा का जन्मदिन है या पुण्यतिथि. लेकिन इस बार भगवान दा पर चर्चा इसलिए कि हाल ही में मुंबई के परेल के उन इलाकों में चॉल में रहनेवाले लोगों की जिंदगी को जानने का मौका मिला. जहां महेश मांजरेकर की फिल्म सिटी ऑफ गोल्ड की शूटिंग हुई थी. मील मजदूरों की जिंदगी पर आधारित इस फिल्म के अधिकतर लोकेशन वास्तविक हैं. घूमने के क्रम में ही एक बुजुर्ग से मुलाकात हुई. सब उन्हें बाबा कह रहे थे. 82-83 उम्र होगी. बातों ही बातों में उन्होंने पूछा कि भगवान दादा को पहचान रही हो. वही जो डांसर थे. यह सामने उनका ही घर है. शायद तुम न पहचानो. नयी पीढ़ी की हो. फिर उन्होंने वह गीत गुनगुना दिया शोला जो भड़के दिल मेरा धड़के. ये गीत तो सुना ही होगा. आज भी डिस्को थेक में दादा का ये गाना तो बजता ही है. इस बात पर सकारात्मक जवाब सुनते ही वे बेहद तसल्ली के साथ बताने लगे कि भगवान दादा के पिता कपड़ों के मील में ही काम करते थे. यह पूछने पर कि उन्हें इतना सबकुछ कैसे पता. तो उस बुजुर्ग बाबा (अजित केलकर) ने बताया कि हमारी गलियों से निकल कर जितने सुपरस्टार हुए न उन सबकी कहानी यहां हर बच्चा-बच्चा जानता है. हमारे लिए तो वह अमिताभ बच्चन से कम नहीं. उनकी बातों से उत्सुकता जगी. बात और आगे बढ़ी. अफसोस अपनी सिर्फ एक बात की थी कि अपनी लापरवाही की वजह से यह सारी बातें न तो किसी रिकॉर्डर में कैद हो सकी और न ही कैमरे में. बहरहाल हमारी बात आगे बढ़ी. बकौल बाबा(अजित) कि यहां आज भी कई घरों में लोग उनकी तसवीर लगा कर रखते हैं, क्योंकि गलियों से निकल कर इंडस्ट्री में नाम कमाना आसान काम तो नहीं था न. भगवान दादा के पिता मील में काम करते थे. लेकिन भगवान दादा में अलग जोश व जज्बा था. वे बेहतरीन डांस करते थे. उन्होंने जब हिंदी सिनेमा जगत में एंट्री ली तो उनके बेहतरीन व अलग शैली के डांसिंग स्टेप्स देख कर ही इंडस्ट्री में उन्हें पहले डांसिंग स्टार की उपाधि मिल गयी थी. हाल में रिलीज हुई फिल्म सिटी ऑफ गोल्ड से भगवान दादा का कोई लेना देना न हो. लेकिन फिल्म में मील मजदूरों की दयनीय स्थिति व इसके वास्तविक लोकेशन देखने के बाद इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि भगवान दादा जैसे स्टार के पीछे भी एक संघर्ष की कहानी छुपी है. किसी चॉल में रहनेवाले आम इंसान के लिए सिनेमा जगत में मुकाम हासिल करना निश्चित तौर पर उतना आसान न रहा होगा.
अलबेले दादा
भगवान दादा का वास्तविक नाम भगवान आभाजी पल्लव था. इनका जन्म 1913 में हुआ. भगवान दादा शुरू से ही फिल्म बनाने का सपना देखते थे. वे मील में एक लेबर के रूप में काम करते, लेकिन ख्वाब फिल्म बनाने के देखते. वे चॉल में भी कुछ न कुछ इंतजाम करके फिल्में देख ही लेते थे. थियेटर में स्टॉल में भी फिल्म देखने के लिए पैसों की जुगाड़ कर ही लिया करते थे. शुरुआती दौर में मूक फिल्मों से मौका मिला. एक्टिंग के बाद वे ज्यादा से ज्यादा समय सेट पर देते, ताकि बारीकियां समझ पायें. उन्होंने सीखी भी. उन्होंने तय किया कि वह कम बजट की फिल्म बनायेंगे. किसी तरह उन्होंने उस वक्त 65 हजार रुपये इकट्ठे किये. उनके डांसिंग स्टेप्स में प्रॉप्स का भी खास ध्यान रखा जाता था. उन्होंने ही पहली बार सिर पर बड़े आकार की टोपी रख कर डांस करने की संस्कृति शुरू की. गीता बाली के साथ उन्होंने कई फिल्मों में अभिनय किया.
कम बजट की फिल्में
अपने निदर्ेशन के दौर में उन्होंने 1938 से 1949 तक लगातार लो बजट की फिल्मों का निर्माण किया. उनमें स्टंट व एक्शन फिल्में भी थीं. वे अपनी फिल्मों को अपनी गलियों में भी सभी लोगों को एकत्रित करके दिखाया करते थे. धीरे धीरे उन्होंने चैंबूर में जागृति पिक्स व भगवान आर्ट्स प्रोडक्शन के रूप में हाउस शुरू किया. राज कपूर ने उनकी काबिलियत को देखते हुए कहा कि भगवान तुम अच्छी और बड़ी फिल्म बनाओ. राज कपूर की राय पर भगवान दादा ने गीता बाली अभिनीत फिल्म अलबेला का निदर्ेशन किया. फिल्म का गीत शोला जो भड़के दिल मेरा धड़के बेहद लोकप्रिय हुआ. आज भी डांसिंग पार्टी में इस गीत पर युवा थिरकना जरूर पसंद करते हैं.
चॉल में जमती रहती थी मजलिस
चूंकि दादा खुद विपरीत परिस्थितियों को झेल चुके थे. उन्होंने कई चुनौतियां व जिंदगी की कठिन परिस्थितियों में पहचान पाई ती. लेकिन जाहिर है वह अपनी जमीन या जड़ को नहीं भूल सकते थे. ऐसे में उन्होंने ऐसी कई फिल्मों का निर्माण किया, जिसमें कामकाजी वर्ग व मील मजदूरों को फोकस किया गया. 1934 में प्रदर्शित हिम्मतएमर्दा ऐसी ही फिल्मों में से एक थी. यह उनकी पहली बोलती फिल्म थी. भगवान दादा से कभी मीलों के मजदूरों के साथ अपने सरोकार नहीं बदले. उन्होंने मीलों के कई होनहार व प्रतिभावान लोगों को यथासंभव अपने फिल्म निर्माण में अवसर दिलाये. सुपरस्टार बनने के बाद भी जब भी वे चॉल आते. यहां के लोगों के साथ मजलिस जमाते व जम कर मस्ती किया करते थे. गौरतलब है कि उनकी फिल्मों के गीत शाम ढले खिड़की तले तुम सिटी बजाना, शोला जो भड़के आज की पीढ़ी भी गुनगुना पसंद करती हैं.
ला शब्द से रहा विशेष लगाव
भगवान दादा को ला शब्द बेहद लगाव रहा. इसलिए उन्होंने अपनी हर फिल्म में ला शब्द का इस्तेमाल जरूर किया. यहां तक कि फिल्म के गीत लिखते समय भी उन्होंने गीतकार से आग्रह किया कि वह इन बातों को ध्यान में रखें. शोला जो भड़के उसी आधार पर लिखी गयी. अलबेला के बाद झमेला व लाबेला जैसी फिल्मों का निर्माण किया. अलबेला उस दौर की सुपरहिट फिल्म रही थी. इस फिल्म ने जुबली मनाई थी.
और नहीं बचीं फिल्मों की निगेटिव
भगवान दादा ने करीब 48 फिल्मों का निर्माण किया था. लेकिन अफसोस की बात कि अलबेला और भागमभाग छोड़ कर सभी फिल्मों का निगेटिव जल गया और नयी पीढ़ी बेहतरीन कृतियों से वंचित रह गयीं.
शोला की उपाधि
अपने दोस्तों में दादा शोला के नाम से ही लोकप्रिय हो गये थे. दोस्तों की मंडली ने ही उन्हें शोला की उपाधि दी थी.
और फिर...
और फिर धीरे-धीरे हिंदी सिनेमा जगत के डांसिंग सुपर स्टार की थिरकन धीरे -धीरे थमती गयी. हालत यह हो गयी कि उन्हें फिर से अपनी पुरानी जिंदगी में लौटना पड़ा. आर्थिक रूप से वे बेहद कमजोर हो गये थे. स्टारडम को उन्होंने कभी खुद पर हावी नहीं होने दिया था. शायद यही वजह थी कि वे अच्छे और बुरे वक्त में भी चॉल व अपनी पुरानी गलियों में आते-जाते रहे.
अनुप्रिया
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