60 का दशक भारतीय सिनेमा के इतिहास में कई मायनों से महत्वपूर्ण है. इसी दशक को हिंदी सिनेमा जगत का म्यूजिकल एरा माना जाता है. सामाजिक विषयों पर आधारित फिल्में बनने का प्रचलन शुरू हुआ इसी दौर में. इसी एरा में के आसिफ की मुगलएआजम रिलीज हुई. फिल्म के गीत व संगीत ने नये कीर्तिमान स्थापित किये.
गोल्डन जुबली ः इसी दशक में राजकपूर की फिल्म जिस देश में गंगा बहती है, संगम, साहिब बीबी और गुलाम, देवआनंद की गाइड, बिमल रॉय की बंदिनी, एस मुखर्जी की जंगली, सुनील दत्त की मुझे जाने दो व बासु भट्टाचार्य की तीसरी कसम हिट हुईं. कहा जा सकता है कि इसी दशक से फिल्मों ने सिनेमाघरों में गोल्डन जुबली मनानी शुरू की.
1960 ः पहली बार विदेशी लोकेशन ः राजकपूर की फिल्म संगम ने पहली बार विदेशी लोकेशंस दिखाये गये.
1962-1967 ः देशभक्ति फिल्में ः इसी दशक को देशभक्ति सिनेमा दशक भी माना गया. गौरतलब है कि उस वक्त 1962 व 1965 पाकिस्तान के साथ चल रहे युध्द के दौरान संगम, आराधना व हकीकत जैसी फिल्मों को मेमोरेबल वार फिल्म के रूप में याद किया जाता है.
1960 ः वर्ष पुणे में फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान की स्थापना की गयी थी. इससे पहले यह प्रभात स्टूडियो के रूप में जाना जाता था. मद्रास में इसी वर्ष इंस्टीटयूट ऑफ फिल्म टेक्नोलॉजी की शुरुआत हुई.
1961 ः 1961 में दिल्ली में दूसरे फिल्मोत्सव का आयोजन किया गया.
1969 ः पहली बार दादा चाहेब फाल्के लाइफ टाइम अचीवमेंट की शुरुआत.
60 दशक के अंत में ः राजेश खन्ना का इमरजिंग रोमांटिक हीरो के रूप में उभरना.
लोकप्रिय हुए ः नायक-नायिकाओं में दिलीप कुमार, अशोक कुमार, वैजयंतीमाला,मधुबाला, नूतन, वहीदा रहमान.
हर सीन कुछ कहता है
सबके हाथों में पोटली
सत्यजीत रे की फिल्म पाथेर पांचाली में निदर्ेशक ने वाकई हर दृश्य को खूबसूरती से पिरोया है. खासतौर से कहानी के किरदार व उनसे जुड़े प्रोप्स का भी खासतौर से ख्याल रखा गया है. फिल्मों में इस तरह दृश्यों की कंटिन्यूटी अब कम ही देखने को मिलती है. अगर आप फिल्म देखें तो आप गौर करेंगे कि इस फिल्म में हर किरदार के पास एक पोटली है. बंडल है. दुर्गा के पास कुछ मोतियों की पोटली है, तो मां के पास बेटी के दहेज का, दादी के पास पुरानी चीजों का, पिता के पास लेखों का और अपु के खिलौनों का. वाकई स्क्रीप्ट में यह दृश्य लिखते वक्त लेखक ने कितनी बारीकी व पारखी नजर से चीजें कल्पना की होगी.
तुम बहुत याद आओगे
सेक्साफोन के जनक का जाना
13 जुलाई 2010 को उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया.मनोहारी सिंह ने भारत में सेक्साफोन जैसे कठिन वाद्य यंत्र को न केवल नयी पहचान दिलायी, बल्कि यह भी साबित किया की ऐसा कोई भी वाद्य यंत्र नहीं, जिसे बजाने की क्षमता भारतीय संगीतकार में न हो. शायद ही बॉलीवुड की नयी पीढ़ी मनोहारी दादा को पहचानती हो. और शायद ही उनकी मौत की खबर से वह सरोकार रखते हों. लेकिन दादा द्वारा बनायी गयी धुनें सदाबहार गीतों के रूप में हमेशा गूंजती रहेंगी. गौरतलब है कि सेक्साफोन बेहद मुश्किल वाद्य यंत्र है. इसे बजाने के लिए व्यक्ति को पूरी ताकत के साथ इसमें फूंक मारनी पड़ती है. मनोहारी दादा ने इसमें महारथ हासिल कर रखी थी. खासतौर से पंजम दा के साथ उनकी जोड़ी हमेशा यादगार जोड़ी मानी जाती है.
कुछ वैसे गानें जिनमें मनोहारी दादा का सेक्साफोन गूंजता है
गाता रहे मेरा दिल ः गाइड
दिन ढ़ल जाये ः गाइड
ये दुनिया उसी की ः कश्मीर की कली
बेदर्दी बालमा तुझको ः आरजू
हुई शाम उनका ख्याल आ गया ः मेरे हमदम मेरे दोस्त
जा रे उड़ा जा रे पंछी ः माया
शोले का टाइटल म्यूजिक
गा मेरे मन गया ः लाजवंती
मैं आया हूं लेकर जाम हाथों में ः अमीर गरीब
तुम्हें याद होगा जब मिले थे ः सट्टा बाजार
ओ हसीना जुल्फोंवाली ः तीसरी मंजिल
आवाज देके हमें तुम ः शालीमार
खिलते हैं गुल यहां ः शर्मीली
तुम मुझे यूं ः पगला कहीं का
आजकल तेरे मेरे प्यार के चचर्े ः ब्रह्मचारी
शोख नजर की बिजलिया ः वो कौन थी
आओ हुजूर तुमको ः किस्मत
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