16 फरवरी 1961 में पटना का ऐतिहासिक शहीद स्मारक पहली बार जब एक फिल्म की मुहूर्त का साक्षी बना, तो आज से 50 वर्ष पहले शायद ही किसी ने यह कल्पना की होगी कि गांव की गलियों की मिट्टी की भाषा फिल्म के माध्यम से दर्शकों के दिलों तक पहुंचेगी. गंगा मईया तोहे पियरी चढ़इबो के रूप में भोजपुरी सिनेमा की नीव रखी गयी. उस लिहाज से यह वर्ष उसके 50वें वसंत का वर्ष है. किसी भी सफलता के पीछे एक लंबे संघर्ष की गाथा जुड़ी होती है. इन 50 सालों में भोजपुरी सिनेमा ने भी कई उतार चढ़ाव देखे हैं. भोजपुरी फिल्मों पर छींटाकशी हुई, ताने भी दिये गये, इसके बावजूद भी वह डटी रही. इन तमाम बातों के बावजूद हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह वर्ष उसके स्वर्ण जंयती का है. उसके सम्मान का है. उसकी सराहना का है. निःसंदेह कमियां रहीं, लेकिन साथ ही साथ उसने रुकावटों की मार झेलते हुए हजारों लोगों को रोजगार भी दिया. दरअसल, भोजपुरी को सही नेतृत्व की जरूरत है. संभावनाओं को तराशने व संवारने की जरूरत है. गांव की लाठी से मुंबई की चौपाटी तक (मुंबई में फिल्म इंडस्ट्री के रूप में स्थापित) के सफर को पूरा करने के जश्न पर अनुप्रिया अनंत व उर्मिला कोरी का यह विशेष संयोजन. तसवीरः टीना की
स्वर्ण जयंती के विशेष अवसर पर भोजपुरी सिनेमा के सबसे वरिष्ठ कलाकार राकेश पांडे से हमने अनुरोध किया कि वह इस बार रंग के इस विशेष अंक के अतिथि संपादक बनें, उन्होंने इसे सहज स्वीकार भी किया.
ताकि हमनी सब गर्व से इ कह सकी कि इ सिनेमा हमनी सब खातिर, हमनिए के लोग बना रहल बाड़ें.
sampadkiya
बिहार के गोपालगंज इलाके से ताल्लुक रखनेवाले राकेश पांडेय भोजपुरी सिनेमा के फिलवक्त सबसे वरिष्ठ कलाकार हैं. 65 वर्षीय राकेश पांडेय का बचपन भले ही हिमाचल प्रदेश में बीता हो, लेकिन अपने राज्य बिहार से वे हमेशा जुड़े रहे हैं. जब भी मौका मिलता है, वे अपने राज्य में योगदान देने में हमेशा तत्पर रहते हैं. भोजपुरी सिनेमा से उनका जुड़ाव भले ही थोड़ा विलंब से फिल्म बलम परदेसिया से हुआ, लेकिन उन्होंने व पद्दमा खन्ना ने कई ऐसी फिल्मों में काम किया, जिसने रजत जंयती मनायी. धरती मईया व भईया दूज उनमें से प्रमुख हैं.
आपन लोगन द्वारा आपन लोग खातिर सिनेमा बा
सोच रहा हूं. अगर चेन्नई में नसीर साहब उसी फिल्म में मेरे पिता का किरदार न निभा रहे होते, तो उनसे कैसे मिलता. और उनसे न मिलता, तो कैसे आज यह सौभाग्य मिलता कि भोजपुरी के स्वर्ण जयंती अवसर के पूरे होने पर मुझे यह जिम्मेदारी दी गयी है कि मैं दो शब्द कह सकूं. खुश हूं यह सोच कर कि नसीर हुसैन व असीम कुमार के सार्थक संयोजन ने एक ऐसा करिश्मा कर दिखाया, जिसे आज हम भोजपुरी फिल्मोद्योग के रूप में जानते हैं. अच्छी तरह याद है मुझे किस मेहनत, लगन व जज्बे के साथ नसीर साहब ने भोजपुरी सिनेमा व भोजुपरी भाषा, साहित्य को राष्ट्रीय स्तर पर फिल्मों के माध्यम से पहचान दिलायी थी. लंबे अंतराल तक फिनांसर की तलाश पूरी न हो सकी थी. कितनी मशक्कत से बनी थी पहली फिल्म. इंडस्ट्री का जन्म हुआ. कितने लोगों को रोजगार मिला. कितने लोग स्टार बने. हिंदी के सहायक कलाकार को भोजपुरी का स्टार बनने का मौका मिला. मैं भी उनमें से एक था. खुश होता हूंं यह सोचकर कि कितनी ईमानदार कोशिश थी वह. जब नींव पड़ी थी भोजपुरी सिनेमा की गंगा मईया के रूप में, लेकिन अफसोस होता है उसकी दुर्गति देख कर. जिस भाषा, साहित्य, मिट्टी की खुशबू, गंवई बोलचाल, गंवई लिबास को इसके जनक ने महत्व दिया था, उसका तो आज नामोनिशान नहीं. फिल्में भोजपुरी उद्योग में बनती हैं, लेकिन भोजपुर के लोकेशन पर नहीं. नसीर साहब पर उस दौर में भी ऐसा जुनून सवार रहता था जब कहीं जाते थे. फिल्म रूस गईले सईया हमार में तो वे अपने गांव से तांगा बनवा कर मुंबई लाये, फिर घोड़े मंगा कर सेट पर ही उसे खोला. सभी दंग थे, लेकिन वे संतुष्ट थे, क्योंकि उन्हें वही फील चाहिए होता था. निःसंदेह आज के दौर में तकनीकी स्तर पर सिनेमा में कई तकनीकों को जोड़ लिया गया है, इसलिए आंचलिकता उसमें नजर नहीं आती. साहित्य से जुड़ाव तो दूर की बात है. भिखारी ठाकुर, महेंद्र मिसिर को तो हम भूल ही चुके हैं. भोजपुरी सिनेमा ने जब बाजारू रूप इख्तियार किया, तो सब धराशायी हो गया. लोगों को लगने लगा अरे वाह! यह तो व्यवसाय है. 20 लाख लगाओ करोड़ों कमाओ. यानी दो फिल्म 2 करोड़. कला ने धंधे का रूप इख्तियार कर लिया. अब फिल्में महाराष्ट्र के गांव में बनने लगी हैं और हिंदी का रिमेक भोजपुरी में. अश्लीलता की कोई सीमा नहीं. हां, यह हर्ष का मौका है कि हमें एक बड़ा पड़ाव हासिल किया. लेकिन साथ ही यह उतने ही दुख की बात है. हम कैसे पूरी तरह गर्व करें 50 साल पर, जब हमने इस कला के साथ पूरा न्याय ही नहीं किया. उसे उसका सम्मान ही नहीं दिया. हां, यह सच है कि आज 400 फिल्में बन रही हैं, लेकिन 400 में 4 भी देखने लायक नहीं. गाने हैं रिमोट से उठा देंगे लहंगा. शर्म आती है कि उन लोगों पर भी जो हमारी छवि खराब कर रहे हैं. मैंने कम फिल्में की. चूंकि मैं अश्लीलता से दोस्ती नहीं कर सकता था. दर्शकों को बदल दिया गया है. उन्हें सिर्फ बुरा परोसा जा रहा है, लेकिन हकीकत यही है कि वे बेवकूफ नहीं है. अच्छी फिल्में बनायें और देखें कैसे लोग उससे जुड़ जाते हैं. मैं नहीं कहता कि गांव बदला नहीं है. उसका पहनावा नहीं बदला है. आप भी शर्ट पहनाएं, हाथों में मोबाइल दें. लेकिन इसका मतलब बदतमीजी परोसना नहीं. ललक कहां है अब. कहां गायब हो गयी उन गीतों की मिठास. शैलेंद, रफी, लता सभी माइलस्टोन ने तो भोजपुरी की ओर कदम बढ़ाया था. मीठा साहित्य है हमारे पास. मिथिलेश्वर का साहित्य भी था. रवींद्रनाथ टैगोर ने भागलपुर में साहित्य रचा. शरदचंद्र को मुजफ्फरपुर से लगाव रहा. बिदेशिया, हमारा संसार जैसी फिल्मों की पृष्ठभूमि साहित्य ही थी न. उस दौर में जब मीडिया का इतना विस्तार नहीं था, फिर भी फिल्में सुपरहिट हो रही थीं. फिर कैसे आज हम यह दावा कर सकते हैं कि गंभीर चीजें, विषयपरक चीजें दर्शकों को पसंद नहीं आयेंगी. पहल तो कीजिए. उस गर्व व सम्मान से पूरी ईमानदारी से मेहनत कीजिए. वहां की समस्या उठाइये. रोजगार, नक्सल और भी समस्याएं हैं, मुद्दे हैं. उन्हें जोड़ें और फिर सम्मान के साथ उस वर्ग को यह फिल्म दिखाएं, जिसकी जरूरत भोजपुरी सिनेमा को है. और जो इससे कट-से गये हैं. ऐसी फिल्में बने, जो पूरे परिवार के साथ मल्टीप्लेक्स में भी देखी जाये और गांव की महिलाएं भी बिना शर्म के देख पायें. क्यों नहीं हो सकता ऐसा? जरूर हो सकता है. बंगाल ने आज तक बिना नकल किये विश्वव्यापी सम्मान हासिल किया न. हम कम से कम कुछ हद तक भोजपुरी को उस मापदंड तक ला तो सकते हैं न. दरअसल, वीजन की जरूरत है. यह वर्ष हर्षोल्लास का है कि हम स्वर्ण जयंती वर्ष में प्रवेश कर चुके हैं, लेकिन साथ ही मंथन की जरूरत है. कहां कमी है, क्यों कमी है. युवा आगे आयें. चूंकि यहां संभावनाएं हैं. बस स्तर बढ़ाएं फिल्मों का, ताकि भविष्य में कुछ तो हो हमें अपनी अगली पीढ़ी को बताने के लिए, जिसे धरोहर के रूप में संजोया जा सके. और यह संभव है. 50 साल पूरे किये तो और भी आगे बढ़ेंगे. सस्नेह ः राकेश पांडेय
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2. आलोक रंजन : ऐसे बनी गंगा मईया तोहरे पियरी चढ़इबो
विश्वनाथ शाहबादी इस बात से बेहद प्रश्न रहते थे कि डॉ राजेंद्र प्रसाद अपने लोगों से भोजपुरी में ही बात करते थे. उस दौर में जब नजीर हुसैन व असीम कुमार फिल्म की कहानी लेकर तैयार थे. लेकिन उन्हें कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिल रहा था, जो पूंजी लगाये. ऐसे में विश्वनाथ शाहबादीजी ने दिलचस्पी दिखायी. उन्होंने पहले निवेशक के रूप में भोजपुरी भाषा पर भरोसा दिखाया. उस दौर में वह फिल्म ढाई लाख रुपये में बनी. फिल्म सुपर हिट हुई और फिर आगे चल कर इस क्षेत्र में कई फिल्मों का निर्माण होने लगा. निस्संदेह भोजपुरी सिनेमा के पहले दौर में आंचलिक भाषा व वहां के परिवेश को आधार मान कर जितनी भी कहानियां गढ़ी गयीं. वे सभी दर्शकों को दिल तक पहुंची. हिंदी सिनेमा में विख्यात हो चुकीं कुमकुम भोजपुरी सिनेमा की दुनिया की पहली तारिका व लोकप्रिय अभिनेत्रियों में से एक बनीं. इसके बाद देश के विभिन्न इलाके खासतौर से मुंबई व हिंदी फिल्मों में सक्रिय वे कलाकार जो बनारस, बिहार, यूपी या भोजपुर इलाके से ताल्लुक रखते हैं. सबने दिलचस्पी दिखानी शुरू की. इस तरह धीरे-धीरे भोजपुरी सिनेमा ने बढ़ना शुरू किया. सुजीत कुमार, कुणाल सिंह, असीम कुमार, राकेश पांडेय जैसे कलाकार भोजपुरी सिनेमा के धरोहर भी हैं परिचायक भी. जब भी भोजपुरी में अच्छे सिनेमा की दौर की बात की जायेगी. गंगा मईया से ही हिंदी के कई जाने माने संगीतज्ञों ने भोजपुरी में अपना योगदान दिया. मोहम्मद रफी, लता मंगेशकर जैसे महान गायकों ने भी भोजपुरी गाने गाये. शैलेंद्र व संगीतकार चित्रगुप्त की अनोखी टयूनिंग से सजी गंगा मईया ने ऐतिहासिक सफलता हासिल की. इसके बाद बलम परदेसिया, तुलसी सोहे तोहार अंगन, बिदेसिया, लागी नाही छूटे राम, भौजी व गंगा. नहियर छूटे जाय, कब होई गवनवा हमार, भौजी, इतना नाच नचावे, आइब बसंत बहार, सईया से नेहा लगइवे, गंगा, लोहा सिंह जैसी फिल्मों ने भोजपुरी सिनेमा को खास पहचान दिलायी. मैं मानता हूं कि भोजपुरी सिनेमा का पहला दौर बेहद खूबसूरत व जड़ से जुड़ा था. दूसरे दौर में भी कुछ हद तक सुजीत कुमार व कुणाल सिंह जैसे नायकों ने उस महिमा को बचाने की कोशिश की. लेकिन भोजपुरी के तीसरे दौर को देख कर बहुत आशा नजर नहीं आती. जहां लगातार फिल्में बन तो रही हैं लेकिन स्तरीय नहीं. जहां लगातार काम तो हो रहा है. तकनीकी स्तर पर. लेकिन भाषाई व वैचारिक स्तर पर अब भी सोच की कमी है.
(लेखक भोजपुरी सिनेमा के विषयों के जानकार हैं)
3. भले ही युग कोई भी रहा हो. सिनेमा का करिश्माई जादू हमेशा दर्शकों पर छाया रहा है. फिर चाहे वह बात सिल्वर स्क्रिन पर दिखनेवाले किरदार हों या फिर परदे के पीछे. दर्शकों की दिलचस्पी हमेशा ही कलाकारों के परदे के पीछे से जुड़ी बातों में रही है. भोजपुरी सिनेमा के कलाकारों व सिनेमा से जुड़ी कुछ ऐसी ही परदे की पीछे के संस्मरण पर एक नजर
काहे तु लूल लांगर के
पाठ कर तर ..
कुणाल सिंह : कुणाल सिंह भोजपुरी सिनेमा के एक ऐसे कलाकार हैं, जिन्होंने भोजपुरी सिनेमा के तीनों दौर में सक्रिय रहे हैं. भोजपुरी सिनेमा से जुड़ी कुछ वैसे ही संस्मरण सांझा करते हुए कुणाल बताते हैं कि दर्शक कलाकारों को हमेशा किरदारों के रूप में ही याद करते हैं. मुझे याद है वह दिन. फिल्म राम जइसन भईया हमार बेहद पसंद की गयी थी. उस दौर की हिट फिल्मों में से एक थी. फिल्म हिट हो चुकी थी और मैं दूसरे फिल्म के प्रोजेक्ट में व्यस्त हो चुका था. उसी सिलसिले में गंगा-ज्वाला की शूटिंग के लिए बिहार के डेहरी ओन सोन में थे. वही एक मंदिर में बैठा था. कुर्सी पर. दूर से एक बुजुर्ग महिला अपनी पोती के साथ आयी और कुणाल बबूआ कुणाल बबूआ कह कर मुझे खोजने लगी. मैं उठा. उन्हें बैठने के लिए कुर्सी थी. दरअसल मैंने राम जइसन में एक अपाहिज का किरदार निभाया था. वह मेरे पास आयीं. मेरे सिर पर हाथ फेरा पूछा. तोहार गोर ठीक बा नु अब. मैंने कहा हां, वह तो सिर्फ फिल्म थी. तो उस महिला ने बड़े ही स्नेह से हाथ फेरते हुए कहा ऐ बबुआ तू नाच गान , मारपीट करेला त बहुत नीक लागेगा इ कहां लूल लांगर के पाठ कर तर...किसी दर्शक से मिला ऐसा स्नेह मुझे आज तक याद है. एक और संस्मरण मुझे याद है. वर्ष 2004 में हम शूटिंग करने जौनपुर गये थे. वहां मैं लंच ब्रेक में बैठा आराम कर रहा था. कुछ नौजवान लड़के आये. आकर पास बैठ गये. मैंने पूछा क्या बात है. कहने लगे आपसे बात करनी है. मैंने कहा मैं हीरो नहीं हूं भई. उन्होंने कहा अरे नहीं भईया आप ही हमारे हीरो हैं. उस फिल्म में आपने क्या खूबसूरत कपड़े पहने थे. आप जब हीरोइन को आइलवयू कहते हैं तो हमें लगता है कि आप सच में कह रहे हैं. उस वक्त मुझे यह एहसास हुआ कि अगर आपने अच्छा काम किया है और दर्शकों के दिलों को छू पाये हैं तो दर्शक आपको आपके कपड़ों से भी याद रखते हैं.
प्लीज आप डबल मिनिंगवाले संवाद मत बोलियेगा
राकेश पांडेय ः पटना मेरा अपना शहर है. मुझे बेहद लगाव भी है अपने प्रदेश, अपनी माटी और वहां के लोगों से. लेकिन हां, यह भी सच था कि मेरा बचपन हिमाचल प्रदेश में बीता तो मैं शुरुआती दौर में भोजपुरी सिनेमा में आने के पक्ष में नहीं था. लगा. कि नहीं कर पाऊंगा तो न करूं. लेकिन नाजिर साहब ने मना लिया और बलम परदेसिया से शुरुआत हुई. इसके बाद दर्शकों का इतना प्यार मिला कि एक के बाद एक फिल्म बनती चली गयी और दर्शकों को खूब पसंद भी आयी. आज सोचता हूं तो आश्चर्य होता है कि उस दौर में भी जब मीडिया की पहुंच उतनी नहीं थी. लोगों से सीधा-संपर्क कर पाना मुश्किल होता था. उस दौर में भी मेरी फिल्म धरती मईया, भईया दूज ने रजत जंयती मनाई थी. दर्शकों के इसी लगाव की वजह से मुजफ्फरपुर के लोगों व श्ृंाखला से जुड़े लोगों ने भिखारी ठाकुर सम्मान देने के लिए आमंत्रित किया. मैं गया. तो सम्मान लेने के बाद. आम लोगों का पूरा समूह मेरे पास आया.और मुझसे अनुरोध करते हुए उन्होंने कहा कि प्लीज आप कभी भी अपनी फिल्मों में डबल मिनिंगवाले संवाद मत बोलिएगा. हम आपसे बहुत प्यार करते हैं और आपको इसी तरह देखना चाहते हैं. यह हम सबकी गुजारिश है.
4. ...ताकि बिहार के स्थानीय कलाकारों को मिले रोजगार के विकल्प ः नितिन चंद्रा
मीडिया समाज को शक्ल देती है और समाज मीडिया को. यह एक ऐसी व्यवस्था है, जो मीडिया के श्ािक्षा ग्रहण करनेवाले अपने पहले अध्याय में पढ़ते हैं. इस बात से बिल्कुल नकारा नहीं जा सकता कि आज के समय में मीडिया चाहे वह टीवी, सिनेमा, अखबार, रेडियो, इत्यादि हो वहर् दशकों के मत, छवि, व्यक्तित्व, लक्षण, पूर्वाग्रह और अनेको विचारों को प्रभावित करता है. सिनेमा 21वीं शाताब्दी का सबसे प्रख्यात मीडिया है और इसने हर दशक में अपनेर् दशको पर छाप छोड़ी है. चाहे वह सत्यजित रे की पाथेर पांचाली हो या, जंजीर, शोले या रंग दे बसंती, अंगरेजी फिल्म द मेटि्रक्स देखने के बाद लोग जरूरत से ज्यादा र्दाशनिक हो गये थे और सोचने लगे थे कि मेटि्रक्स जैसी चीज में ही वह जी रहे हैं.अगर कोई ये कहे कि टीवी या फिल्म का असर समाज पर नहीं है, तब तो हमें यह भी मान लेना चाहिए कि करोड़ों रुपये लगा कर बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां विज्ञापन फिल्में बनवा रही हैं और अपने उत्पाद बेच रही हैं, वह करोड़ों रुपये व्यर्थ हैं, लेकिन ऐसा है नहीं. जब हम भोजपुरी फिल्मों की बात करते हैं, तो ठीक वही असर भोजपुरी फिल्मों के दर्शक पर भी होता है. फिल्में भी अपनेर् दशकाें पर असर छोड़ती है, जो बाकी मीडिया छोड़ती है. आज का भोजपुरिया युवार् वग भी भोजपुरी सिनेमा कार् दशक बना है, उसपर भी इन फिल्माें का असर है. बुरा है यह या अच्छा ये तो हमें ही सोचना होगा. 1961 में भोजपुरी सिनेमा की शुरुआत हुई. पटना में पूरे ताम-झाम के साथ मुहूर्त किया गया. 1962 में पिछले करीब पचास सालों को मुड़ कर देखें, तो यह कहना गलत नहीं होगा कि, भोजपुरी सिनेमा का स्तर सिर्फ ग्ािरा है. यह एक कड़वा सच है. भोजपुरी सिनेमा की स्वर्ण जयंती पर मेरे जैसा भोजपुरी के लिए भावुक व संवेदनशील इंसान भोजपुरी सिनेमा के संबंध में यह बातें कह रहा है. बिहार भोजपुरी सिनेमा का सबसे बड़ा मार्केट है, सबसे ज्यादा लोग भोजपुरी फिल्में बिहार में देखते हैं. आखिरी पीढ़ी तक बिहार में यहां के लोग अपनी मातृभाषा भोजपुरी, मैथिली, मगही का इस्तेमाल गर्व से करते हैं. 80 और 90 के दशक में अधिक संख्या में हुए पलायन और दूसरी तरह बिहार की संस्कृति की अवहेलना ने आज के युवार् वग को अपनी भाषा और साहित्य से दूर कर दिया है. अब तक इसे सरकार की तरफ से भी किसी तरह का राजनीति सरंक्षण नहीं मिला है. आज भी भोजपुरी, मैथिली इत्यादि साहित्य की किताबें पुराने पुस्तकालयों में धुल चाट रही हैं. आज का युवार् वग किसी भी तरह से भोजपुरी सिनेमा से अपने आपको जोड़ नहीं पा रहा है. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में लाखों की संख्या में भोजपुरी बोलनेवाले लोग रहते हैं, लेकिन वे ये फिल्में नहीं देखते. भोजपुरी ने प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद, बिस्मिल्लाह खान, श्ािव सागर रामगुलाम, राहुल सांकृत्यायन जैसे लोगों को जन्म दिया, लेकिन इसके बावजूद भी भोजपुरी की हत्या हो रही है. आज भोजपुरी सिनेमा ने भोजपुरिया लोगों को दो वर्गों में बांट दिया है, एक वह है जो पटना के पाटलीपुत्र कॉलोनी में रहता है और भोजपुरी में घर पर बात करता है, लेकिन कभी भी भोजपुरी फिल्में नहीं देखता है, क्योंकि उसको लगता है कि भोजपुरी अश्लील है. इसके कलाकार भोजपुरी भी नहीं बोल पाते हैं. दूसरी तरफ वे लोग हैं, जो आर्थिक तंगी में रहते हैं, अश्ािक्षित हैं, तमाम तरह की सुविधाओं से वंचित हैं, इन्हीं लोगों को ही भोजपुरी फिल्मों कार् दशक बनाया गया है. ये भोजपुरी फिल्में उनका मानसिक विकास नहीं होने दे रही हैं और बहुत ही सूक्ष्म तरीके से इनकीसंवेदनशीलता और बोध की निर्मम हत्या कर रही हैं. मजे की बात यह है कि इन्हीं के पैसों पर भोजपुरी फिल्मों का व्यवसाय चल रहा है. आखिरी 5 सालों में भोजपुरी फिल्मों के निर्माण के क्षेत्र में बहुत काम हुआ, बहुत पैसे लगे, लोगों ने घाटा सहा. वहीं बहुत कमाई भी हुई, नये सितारे आये, तारीकाएं आयीं, आइटम गर्ल्स आयीं, सब कुछ मिला. बस नहीं मिली तो भोजपुरी को इज्जत. जब तक पढ़ा-लिखा और मध्यमर्-वग के लोगों को भोजपुरी फिल्मों से जोड़ने का प्रयास नहीं किया जायेगा, भोजपुरी फिल्मों का स्तर नहीं बढ़ेगा और युवार् वग इसका श्ािकार होता ही रहेगा.
युवाओं व शिक्षित वर्ग को जोड़ना होगा भोजपुरी सिनेमा से
मीडिया समाज को शक्ल देती है और समाज मीडिया को. यह एक ऐसी व्यवस्था है, जो मीडिया के श्ािक्षा ग्रहण करनेवाले अपने पहले अध्याय में पढ़ते हैं. इस बात से बिल्कुल नकारा नहीं जा सकता कि आज के समय में मीडिया चाहे वह टीवी, सिनेमा, अखबार, रेडियो, इत्यादि हो वहर् दशकों के मत, छवि, व्यक्तित्व, लक्षण, पूर्वाग्रह और अनेको विचारों को प्रभावित करता है. सिनेमा 21वीं शाताब्दी का सबसे प्रख्यात मीडिया है और इसने हर दशक में अपनेर् दशको पर छाप छोड़ी है. चाहे वह सत्यजित रे की पाथेर पांचाली हो या, जंजीर, शोले या रंग दे बसंती, अंगरेजी फिल्म द मेटि्रक्स देखने के बाद लोग जरूरत से ज्यादा र्दाशनिक हो गये थे और सोचने लगे थे कि मेटि्रक्स जैसी चीज में ही वह जी रहे हैं.अगर कोई ये कहे कि टीवी या फिल्म का असर समाज पर नहीं है, तब तो हमें यह भी मान लेना चाहिए कि करोड़ों रुपये लगा कर बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां विज्ञापन फिल्में बनवा रही हैं और अपने उत्पाद बेच रही हैं, वह करोड़ों रुपये व्यर्थ हैं, लेकिन ऐसा है नहीं. जब हम भोजपुरी फिल्मों की बात करते हैं, तो ठीक वही असर भोजपुरी फिल्मों के दर्शक पर भी होता है. फिल्में भी अपनेर् दशकाें पर असर छोड़ती है, जो बाकी मीडिया छोड़ती है. आज का भोजपुरिया युवार् वग भी भोजपुरी सिनेमा कार् दशक बना है, उसपर भी इन फिल्माें का असर है. बुरा है यह या अच्छा ये तो हमें ही सोचना होगा. 1961 में भोजपुरी सिनेमा की शुरुआत हुई. पटना में पूरे ताम-झाम के साथ मुहूर्त किया गया. 1962 में पिछले करीब पचास सालों को मुड़ कर देखें, तो यह कहना गलत नहीं होगा कि, भोजपुरी सिनेमा का स्तर सिर्फ ग्ािरा है. यह एक कड़वा सच है. भोजपुरी सिनेमा की स्वर्ण जयंती पर मेरे जैसा भोजपुरी के लिए भावुक व संवेदनशील इंसान भोजपुरी सिनेमा के संबंध में यह बातें कह रहा है. बिहार भोजपुरी सिनेमा का सबसे बड़ा मार्केट है, सबसे ज्यादा लोग भोजपुरी फिल्में बिहार में देखते हैं. आखिरी पीढ़ी तक बिहार में यहां के लोग अपनी मातृभाषा भोजपुरी, मैथिली, मगही का इस्तेमाल गर्व से करते हैं. 80 और 90 के दशक में अधिक संख्या में हुए पलायन और दूसरी तरह बिहार की संस्कृति की अवहेलना ने आज के युवार् वग को अपनी भाषा और साहित्य से दूर कर दिया है. अब तक इसे सरकार की तरफ से भी किसी तरह का राजनीति सरंक्षण नहीं मिला है. आज भी भोजपुरी, मैथिली इत्यादि साहित्य की किताबें पुराने पुस्तकालयों में धुल चाट रही हैं. आज का युवार् वग किसी भी तरह से भोजपुरी सिनेमा से अपने आपको जोड़ नहीं पा रहा है. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में लाखों की संख्या में भोजपुरी बोलनेवाले लोग रहते हैं, लेकिन वे ये फिल्में नहीं देखते. भोजपुरी ने प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद, बिस्मिल्लाह खान, श्ािव सागर रामगुलाम, राहुल सांकृत्यायन जैसे लोगों को जन्म दिया, लेकिन इसके बावजूद भी भोजपुरी की हत्या हो रही है. आज भोजपुरी सिनेमा ने भोजपुरिया लोगों को दो वर्गों में बांट दिया है, एक वह है जो पटना के पाटलीपुत्र कॉलोनी में रहता है और भोजपुरी में घर पर बात करता है, लेकिन कभी भी भोजपुरी फिल्में नहीं देखता है, क्योंकि उसको लगता है कि भोजपुरी अश्लील है. इसके कलाकार भोजपुरी भी नहीं बोल पाते हैं. दूसरी तरफ वे लोग हैं, जो आर्थिक तंगी में रहते हैं, अश्ािक्षित हैं, तमाम तरह की सुविधाओं से वंचित हैं, इन्हीं लोगों को ही भोजपुरी फिल्मों कार् दशक बनाया गया है. ये भोजपुरी फिल्में उनका मानसिक विकास नहीं होने दे रही हैं और बहुत ही सूक्ष्म तरीके से इनकीसंवेदनशीलता और बोध की निर्मम हत्या कर रही हैं. मजे की बात यह है कि इन्हीं के पैसों पर भोजपुरी फिल्मों का व्यवसाय चल रहा है. आखिरी 5 सालों में भोजपुरी फिल्मों के निर्माण के क्षेत्र में बहुत काम हुआ, बहुत पैसे लगे, लोगों ने घाटा सहा. वहीं बहुत कमाई भी हुई, नये सितारे आये, तारीकाएं आयीं, आइटम गर्ल्स आयीं, सब कुछ मिला. बस नहीं मिली तो भोजपुरी को इज्जत. जब तक पढ़ा-लिखा और मध्यमर्-वग के लोगों को भोजपुरी फिल्मों से जोड़ने का प्रयास नहीं किया जायेगा, भोजपुरी फिल्मों का स्तर नहीं बढ़ेगा और युवार् वग इसका श्ािकार होता ही रहेगा.
5. जब बॉलीवुड चला गांव की डगर
हिंदी फिल्मों की कहानी चुराने का इल्जाम झेलने वाली भोजपुरिया इंडस्ट्री ने हिंदी सिनेमा के कई दिग्गज कलाकारों का दिल भी चुराया है. अगर ऐसा नहीं होता, तो अमिताभ बच्चन, शत्रुध्न सिंहा, अजय देवगन, हेमा मालिनी, रति अग्निहोत्री और मिथुन चक्रवर्ती जैसे कलाकार समय-समय पर भोजपुरिया अंदाज में भोजपुरी सिनेमा में नजर नहीं आते. राजा ठाकुर में नजर आये शत्रुघ्न सिन्हा का कहना है कि मैं उस फिल्म से इसलिए जुड़ा, क्योंकि वह मेरी मातृ भाषा की फिल्म थी, लेकिन यह कहना भी जरूरी है कि उस फिल्म ने एक अभिनेता के तौर पर मुझे एक्साइटेड किया था. आगे भी अगर ऐसे प्रोजेक्ट्स मिलते रहे, तो मैं भोजपुरी सिनेमा में काम करता रहूंगा. भोजपुरी सिनेमा ने सिर्फ बालीवुड सितारे ही नहीं बल्कि हिंदी सिनेमा के दिग्गज निर्माताओं को भी अपनी ओर आकर्षित किया है. सुभाष घई की मुक्ता आर्ट्स, धर्मात्मा और इंद्र कुमार की मारूति इंटरप्राइजेज ने सब गोलमाल ह और डी रामानायडू ने शिवा जैसी भोजपुरी फिल्मों का निर्माण किया है. आनेवाले समय में अभिनेत्री और निर्मात्री जुही चावला भी एक भोजपुरी फिल्म का निर्माण करना चाहती हैं. इस सिलसिले में वे जल्द ही प्रकाश झा से मिलने वाली हैं.
6. भोजपुरी गीतों ने हमेशा आकर्षित किया है ः नवीन भोजपुरिया
भोजपुरी सिनेमा का मेरुदंड हमेशा से उसका गीत-संगीत रहा है. शुरुआती दौर में भोजपुरी सिनेमा में परंपराओं, रीति-रिवाजों, संस्कारों पर गीत-संगीत को केंद्र में रखा गया था. साथ ही समाज के हर पहलु को केंद्र में रख कर भोजपुरी गीत-संगीत को श्रोताओं और दर्शकों के लिए अभूतपूर्व प्रस्तुति दी जाती थी. शुरुआती दौर में जब चित्रगुप्त का संगीत और तलत महमूद, मो रफी, लता मंगेशकर, आशा भोंसले और उषा मंगेशकर की आवाज में भोजपुरी गीत सुनने को मिलते थे, उस समय लोगों के जुबान पर वे गीत रहते थे. आज भी किसी प्रौढ़ महिला या पुरुष से मिलिए, तो आपको उस दौर की एक सुखद अनुभूति का बेबाक परिचय मिल जायेगा. गीतों की मांग कुछ ऐसी है कि जुग-जुग जिअसु ललनवा की भाग जागल हो... सोहर के रूप में आज भी गाया जाता है. फिर चाहे वह मेट्रो का कोई घर क्यों न हो. पारिवारिक, सांस्कारिक, सामाजिक मूल्यों पर आधारित गीतों ने हमेशा दर्शकों को आकर्षित किया है. संगीतमय फिल्मों की मांग कुछ इतनी थी कि मिनरवा जैसे सिनेमा हॉल में उस समय भोजपुरी फिल्में अक्सर हाउसफुल रहती थीं और इसका कारण भोजपुरी फिल्मों का मेरुदंड उसका गीत-संगीत होता था, जिसमें देसी माटी की खुशबू, संस्कार के साथ साज-बाज होते थे. वह ढोलक, झाल, हारमोनियम का जमाना था, जिसके सुमधुर आवाजों ने इन गीतों के लिए एक बेहतरीन मिश्रण का काम किया. उन गीतों और फिल्मों की सफलता ही थी कि हिंदी सिनेमा 80 के दशक में अपनी कहानियों को भोजपुरिया क्षेत्र के सुगंध से सराबोर रखता था. भोजपुरी गीत संगीत का स्वर्णिम दौर शुरुआती दौर
ही था.
7. नदिया के पार का चमत्कार
गुंजा-चंदर के अवधी प्रेम का चला
भोजपुर पर जादू
भोजपुरी फिल्म न होते हुए भी मिला भोजपुरी दर्शकों का अपार प्यार
वर्ष 1982 में राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म आयी नदिया के पार. गोविंद मूनीस के निदर्ेशन में बनी इस फिल्म के किरदार थे गुंजा व चंदर. इस फिल्म की शुटिंग जौनपुर के इलाके में हुई थी. मुख्य कलाकार सचिन पिलगावकर व साधना सिंह थे. गौरतलब है कि यह फिल्म भोजपुरी भाषा की फिल्म नहीं थी, बल्कि अवधी भाषा में बनी थी. लेकिन आज तक दर्शकों की जेहन में फिल्म नदिया के पार भोजपुरी सिनेमा के रूप में ही लोकप्रिय है. इसकी खास वजह यह थी कि फिल्म की पृष्ठभूमि भोजपुरी परिवेश की थी, लेकिन फिल्म की भाषा भोजपुरी नहीं थी. आज भी दर्शक नदिया के पार की गुंजा और चंदर को नहीं भूले. हम आपके हैं कौन की देवर व जीजाजी की साली के प्रेम प्रसंग का सिलसिला वहीं से शुरू हुआ था. साधना सिंह बताती हैं कि कैसे जौनपुर इलाके में सभी महिलाएं आकर उन्हें भोजपुरी में कहती थीं- ऐ दुल्हिन आज सिंदुर काहे न लगइले बाड़ू. भोजपुरी भाषा का असर सिर्फ भोजपुरी पर ही नहीं, बल्कि हिंदी की कई फिल्मों पर भी पड़ा. अमिताभ बच्चन ने अपनी कई हिंदी फिल्मों में ठेंठ भोजपुरी बोलकर दर्शकों की वाहवाही बंटोरी और फिल्म को सुपरहिट करा दिया. फिल्म लाल बादशाह इसकी एक मिसाल है. अजय देवगन और रेखा की फिल्म लज्जा में भी अजय देवगन और रेखा ने भी अपने भोजपुरी से मिलती-जुलती संवादों से फिल्म को एक नई पहचान दिलायी.
8. रवि किशन
हमारी भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री ने इस साल पूरे 50 साल पूरे कर लिये हैं. यह बहुत गर्व की बात हैं. 16 फरवरी सन 1961 में पहली फिल्म गंगा मईया तोहे पियरी चढ़ईबो का मुर्हूत के साथ इस इंडस्ट्री की नींव पड़ी थी. इन पचास सालों में इस इंडस्ट्री ने बहुत से उतार-चढ़ाव देखे हैं. एक समय तो ऐसा लगा कि यह इंडस्ट्री नहीं बचेगी, लेकिन सारी धाराणाओं को गलत करते हुए हम एक बार फिर उठे और उसके बाद हमने पीछे मुड़कर नहीं देखा. मूलरूप से यह इंडस्ट्री तीन चरणों में विभाजित रही है. बॉक्स ऑफिस कलेक्शन के हिसाब से देखें, तो 2001 से लेकर अब तक का समय इंडस्ट्री के लिए सर्वश्रेष्ठ रहा है. मुझे उम्मीद है कि आनेवाला समय इससे भी ज्यादा बेहतर होगा. हर फिल्म इंडस्ट्री में कुछ अच्छाईयां होती हैं, तो कुछ बुराईयां भी होती हैं. इससे हमारी यह इंडस्ट्री भी अछूती नहीं है. अक्सर हमारी फिल्मों पर ऐसे आरोप लगते रहे हैं कि हम जमकर इसमें अश्लीलता परोसते हैं. जिस पर हमारे फिल्मकारों की दलील होती है कि छेड़छाड़ भरे शब्द हमारी संस्कृति का एक हिस्सा हैं. इससे हमारे शादी ब्याह तक अछूते नहीं रहते, तो फिल्में कैसी रह पाएंगी. मैं खुद इस बात को मानता हूं कि अश्लीलता थोड़ी ज्यादा हो गयी है, लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि हम अपनी फिल्मों के गीतों से छेड़छाड़ भरे शब्दों का प्रयोग एकदम बंद कर दें, क्योंकि ये हमारी संस्कृति का एक हिस्सा हैं. जहां तक अश्लीलता की बात है, तो मुझे लगता है कि हम किसी चीज को किस तरह से पेश कर रहे हैं. ये सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है. पिछले वर्ष हिंदी सिनेमा के दो गीतों मुन्नी बदनाम और शीला की जवानी ने लोगों का जमकर मनोरंजन किया था. अगर गौर करें तो इन गीतों में भी बोल्ड शब्दों का प्रयोग जमकर हुआ है, लेकिन जिस तरह से ये गीत परदे पर फिल्माया गया. इसमें अश्लीलता नजर नहीं आयी. यही काम हमारी इंडस्ट्री को भी करना चाहिए. अब मैं सिर्फ एक्टर ही नहीं रहा, निर्माता भी बन चुका हूं. सो मेरी कोशिश होगी कि मैं अच्छी फिल्में बनाऊं. मेरी ख्वाहिश ऐसी भोजपुरी फिल्म बनाने की है, जो फिल्म फेस्टिवल में जाने का दम खम रखती हों. मुझे पता है कि यह काम मुश्किल है, लेकिन नामुमकिन नहीं है. भोजपुरिया सिनेमा में योगदान के लिये मैं अपनी फिल्म बिदाई, सत्यमेव जयते , बिहारी माफिया और राष्टि्रय एवार्ड से पुरस्कृत कब होई गवना हमार का नाम लेना चाहूंगा.
9. मनोज तिवारी
यह सिर्फ हम कलाकारों के लिये ही नहीं, बल्कि यूपी और बिहार से जुड़े हर शख्स के लिये सम्मान की बात है कि भोजपुरिया सिनेमा को पूरे पचास साल हो गये हैं. जहां तक भोजपुरिया इंडस्ट्री के भविष्य की बात करें, तो मुझे लगता है कि भविष्य हमेशा ही अतीत से सुनहरा ही होता है. खासकर जब हम जमकर मेहनत करेंगे. मुझे उम्मीद है कि इंडस्ट्री से जुड़ा हर शख्स इस इंडस्ट्री को और बेहतरीन बनाना चाहता है. इन पचास सालों में इंडस्ट्री ने बहुत से बदलाव देखें हैं. कुछ इसे अच्छा तो कुछ बुरा मानते हैं. अक्सर सुनने में आता है कि हमारी फिल्मों के विषय अब देसी नहीं रहे. इसमें बुराई भी क्या है. जब यूपी बिहार की एक बड़ी आबादी दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में रहती है, तो हमें उनका भी ध्यान रखना पड़ता है. डॉन जैसी एडवांस फिल्मों के साथ-साथ नक्सलवाद की समस्या पर आधारित फिल्म रणभूमि का भी मैं हिस्सा रहा हूं. हर तरह का सिनेमा बनाना चाहिए. यही एक अच्छे इंडस्ट्री की पहचान होती है. अश्लीलता की जहां तक बात सुनने में आती है, तो मुझे नहीं लगता कि हमारी इंडस्ट्री में इतनी अश्लीलता है. एक एक्टर के तौर पर मेरा हमेशा से ऐसा प्रयास रहा है कि मैं ऐसी फिल्में कर सकूं, जिसे पूरा परिवार साथ में देख सके. मुझे नहीं लगता कि मैंने परदे पर ऐसा कुछ किया है जिसे देखने में मुझे शर्मिंदगी हो. हिंदी सिनेमा में योगदान के लिहाज से मैं अपनी फिल्म ससुरा बड़ा पइसा वाला का नाम लेना चाहूंगा.
10. विनय आनंद
हमारे भोजपुरिया सिनेमा ने पचास साल पूरे कर लिये हैं, यह बात सुनकर ही बहुत अच्छा लग रहा है. मैं अपनी तरफ से इस सिनेमा से जुड़े निर्माता, निदर्ेशक, तकनीशियन, कलाकार और हर छोटे-बड़े सदस्य को यही कहना चाहूंगा कि ये तो बस शुरुआत भर है. हमें इस इंडस्ट्री को बहुत आगे ले जाना है. हम सभी को जमकर मेहनत करनी होगी. मैं युवाओं से अपील करना चाहूंगा कि वे इस इंडस्ट्री से जुड़े और अपने नये-नये आइडियाज के जरिये इस क्षेत्रीय सिनेमा को एक अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहुंचायें. हमारे सिनेमा पर अक्सर अश्लील होने का इल्जाम भी लगाया जाता है. मुझे लगता है कि जिस तरह बॉलीवुड में अच्छी और बुरी फिल्में दोनों बनती हैं. उसी तरह हमारे सिनेमा में भी दोनों ही तरह की फिल्मों का निर्माण होता है. बस चर्चा सिर्फ अश्लील फिल्मों की ही ज्यादा होती है. अच्छी फिल्मों की कहीं भी चर्चा नहीं होती है. बैरी कंगना, दामिनी, त्रिनेत्र, बिदाई, ससुरा बड़ा पइसा वाला इसी दौर की ही फिल्में हैं. हां, हमें आत्ममंथन करना होगा और अच्छा करने के लिये और ऐसी फिल्में बनाने के लिये, जो लंबे समय तक लोगों को याद रह सके. मुझे एक और जो परेशानी नजर आती है, वह यह कि हम भोजपुरी फिल्मों के स्टार अपनी फिल्मों की अच्छी तरह से पब्लिसिटी नहीं करते हैं. हिंदी सिनेमा में शूटिंग के साथ साथ सितारे फिल्म की पब्लिसिटी के लिए भी 20 से 25 दिन देते हैं, जबकि हमारी फिल्मों में एक्टर काम करने के बाद अपनी शक्ल तक नहीं दिखाता. जैसे फिल्म से पैसे भर कमाना ही उसका काम है. जबकि अभिनय को जुनून की तरह लेना चाहिए. हमें गांव तबके में जाकर अपनी फिल्म का प्रमोशन करना चाहिए और महिलाओं को भी दर्शक वर्ग का हिस्सा बनाना चाहिए. मुझे लगता है कि जिस दिन महिलाएं हमारे दर्शक वर्ग से जुड़ गयीं, उस दिन हमारी इंडस्ट्री से अश्लीलता का नामोनिशान मिट जाएगा.
11. क्या कहते हैंं दर्शक
भोजपुरी सिनेमा से जुड़े विशेषज्ञ, आलोचक व खुद इस जगत से जुड़े वरिष्ठ कलाकारों का मानना है कि भोजुपरी की वास्तविकता खो गयी है और सिर्फ इसे अश्लीलता की चादर ओढ़ा दी गयी है. वहीं वर्तमान में सक्रिय कलाकारों व भोजपुरी जगत से जुड़े लोगों का मानना है कि दर्शक यही देखना चाहते हैं. दर्शक सिनेमा का सबसे बड़ा मुद्दा रहे हैं. इसलिए हमने सोचा कि किसी की बात पर न जाकर सीधे दर्शकों से ही पूछें कि वे भोजपुरी सिनेमा के बारे में क्या सोचते हैं और ऐसी कौन-कौन सी चीजें हैं जो वे नहीं देखना चाहते.
20 प्रतिशत ः
आइटम सांग देखना चाहते हैं
शिक्षित और युवा वर्ग ः भोजपुरी का मतलब अश्लीलता व फुहड़ता समझते हैं.
महिलाओं की नजर में औरतों का मजाक उड़ाने का जरिया बन चुका है भोजपुरी सिनेमा
क्या है सुझाव ः
निदर्ेशकों को सकारात्मक व विषयपरक चीजें दिखानी होगी. अश्लील शब्दों का इस्तेमाल न हो. औरतों पर आधारित अपशब्द गाने के बोल न बने. पारिवारिक फिल्में बनाई जायें. लोक संस्कृति को बढ़ावा मिले.
. लेखा-जोखा
1.वर्ष 1962 में रिलीज हुई थी. इसका निर्माण विश्वनाथ शाहबादी ने किया. मुख्य कलाकार कुमकुम, असीम कुमार, हेलेन, लीला मिश्रा, नसीर हुसैन. डॉ राजेंद्र प्रसाद से मिली थी प्रेरणा. ढाई से पांच लाख की पूंजी से बनी फिल्म ने करीब उस दौर 75 लाख का कारोबार किया था.
2. भोजपुरी की कुछ प्रमुख फिल्में
लागी नाहीं छूठे रामा (1963), गंगा (1965), बिदेशिया (1963), भौजी (1965), लोहा सिंह (1966),ढेर चालाकी जिन करा (1971),डाकू रानी गंगा (1976),अमरा सुहागिन (1978)
बलम परदेसिया (1979), धरती मईया, भईया दूज, तुलसी सोहे तोहार अंगना.
3.सदाबहार गाने
सोनवा के पिंजरवा में बंद भईल हे राम...,बनी जाय बन बन जोगनिया रामा...,हमे दुनिया करेला बदनाम बलमुआ तोहरे बदे...,निक सईयां बिना भवनवा नाहीं लागे सखिया...जुग जुग जिये हो ललनवा...
जल्दी जल्दी चला रे कहारवा...गोरखी पतरकी रे...
4.इतिहास के आईने में
भोजपुरी की पहली रंगीन फिल्म बनी दंगल. वर्ष 1977 में यह फिल्म बच्चू भाई शाह ने बनाई थी.
5. ससुरा बड़ा पैइसावाला से भोजपुरी के तीसरे दौर की शुरुआत. फिल्म को अपार सफलता मिली. दरोगा बाबू व आइलव यू ने चार करोड़ का व्यापार किया. धीरे -धीरे एक से डेढ़ करोड़ की बजट की फिल्में बनने लगीं.
6.1964 में फिल्म बिदेसिया में भोजपुरी के सर्वाधिक प्रतिष्ठित नाटकार व कवि भिखारी ठाकुर को गाते हुए दिखाया गया. यह एक दुर्लभ ऐतिहासिक दस्तावेज है.
7.भोजपुरी के पहले दौर में प्रेम व परिवार प्रमुख विषय थे. साथ ही सामाजिक मुद्दों पर आधारित थीं. फिल्म में स्थानीय लोकसंगीत शामिल था.
8. 1967 तक यह सिलसिला चला. फिर दस साल के बाद फिल्म बिदेसिया का निर्माण हुआ.
अनुप्रिया जी
ReplyDeleteएक संतुलित संकलन !
हर भोजपुरिया का हौसलाअफजाई करता , हर व्यक्ति के सोच को अपने अन्दर समेटे हुए यह लेख उन लोगो के लिये बहुत ही सही है जो भोजपुरी नही जानते है ।
क्योकि क्या अच्छा क्या बुरा क्या सही क्या गलत , कैसा रहा 50 साल , सब कुछ है इस संकलन मे !
धन्यवाद !
bahut sahi post. dhanyawaad.
ReplyDeleteवाह! बहुत ही अच्छा प्रयास। इसमें एक आलेख भोजपुरी सिनेमा की डिब्बा बंद पड़ी फिल्मों और इसकी वजह पर भी होता तो और आनंद आ जाता।
ReplyDeleteई फ़िल्मकार लोग भी ना बड़े जुनूनी टाइप के लोग होते हैं..बिलकुल किसान की माफिक ...पत्थर पे डूब उगा देते हैं... अब इन नासिर साहब को ही लें.. भोजपुरी में फिल्म बना के ही दम लिया...
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