20110207

राजनीति में प्रभाव नहीं तो कम से कम माहौल तो तैयार कर सकती है सिनेमा ः महेश भट्ट


फिल्मों के सहारे हिंदी भाषा को मुल्कों में मिल रही है पहचान
अभी बहुत सीखने व करने की जरूरत
बदलाव का मतलब नकल हरगिज नहीं.
विदेशी फिल्मों से लें तकनीकी सीख

हम लाख शोर मचा लें. हम लाख अफवाह फैला लें. पर सच्चाई किसी से छुप नहीं सकती और झूठ का पलरा अधिक दिनों तक भारी नहीं रह सकता. हम गलतफहमी में ही जी रहे हैं कि हमने बहुत उपलब्धियां हासिल कर ली है. जबकि हमें कई सीढ़ियां चढ़ना बाकी है. इन 60 वर्षों में हिंदी सिनेमा की उपलब्धि की बात करने से पहले हमें इस बात पर विचार करना चाहिए कि हम अब तक हिंदी सिनेमा जगत व बॉलीवुड में अंतर नहीं समझ पाये हैं. लगभग एक सदी बीत चुकी है, पर भारतीय सिनेमा का विकास विश्व के किसी भी देश के समानांतर रहा है. आज भारतीय फिल्म इंडस्ट्री कई देशों से आगे हैं. कुछ अंगरेजी पत्रकारों ने भारतीय फिल्मकारों के अमूल्य योगदान को नजरअंदाज कर कुछ नकली फिल्मकारों व उनकी फिल्मों का उपहास करने के लिए बॉलीवुड शब्द का इस्तेमाल हॉलीवुड की तर्ज पर किया. उन्हें खुद मालूम नहीं रहा होगा कि वे कितना बड़ा सांस्कृतिक नुकसान कर रहे हैं. समाज के विभिन्न क्षेत्रों की तरह हिंदी फिल्में भी नकल की राह पर चल निकली है. मेरा मानना है कि हिंदी सिनेमा खोखली हो चुकी है. हम जमीन से जुड़े रहना भूल चुके हैं, बल्कि हमें अपनी जड़ों को खुद से बिल्कुल अलग कर दिया है. मगर केवल खोखला शरीर लेकर कितने दिनों तक टिक पायेंगे. हमें स्वीकारना ही होगा कि हम नकल कर रहे हैं. हां, हमें बदलाव करना चाहिए. मगर बदलाव का मतलब केवल चोरी या नकल नहीं है. क्या हमारे भारत में विषयों की कमी है, जो हम विदेशी फिल्मों का कंसेप्ट चुराते हैं. हम चाहे कितना भी शोर मचा लें यह वास्तविकता है कि हमें अभी हिंदी सिनेमा जगत के रूप में जो पहचान मिलनी चाहिए थी, वह दुनिया में नहीं मिली है. हमें अब भी बहुत मेहनत करनी है. लगातार कोशिशें करनी होगी. सही दिशा में कोशिश. निस्संदेह तकनीक के क्षेत्र में हम खुद को आगे लाने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन केवल बातें बनाने या देखने से चीजें समझ में नहीं आयेंगी. उन्हें हमें खुद में अप्लाइ करना होगा. हिंदी सिनेमा का इतिहास भी पुराना है. जिन्होंने प्रयास किया, वे माइलस्टोन कहलाये भी. क्या दादा साहिब फाल्के, वी शांताराम,के आसिफ, बिमल रॉय, गुरुदत्त, राज कपूर, महबूब खान, सत्यजीत राय, अदूर गोपालकृष्न, यश चोपड़ा, हृषिकेश मुखर्जी जैसे फिल्मकार विदेशी फिल्मों की नकल करते थे. नहीं. उन्होंने खुद की शैली डेवलप की थी. इसलिए आज भी सिनेमा पढ़ते या पढ़ाते वक्त इन लोगों को याद किया जाता है. हिंदी सिनेमा की तो यह खासियत थी कि वह जड़, समाज से जुड़ी चीजें दिखाता था. आप गौर करके देख लीजिए. वैसे सिनेमा जिन्होंने आम आदमी को वास्तविकता में प्रभावित किया, उसे दर्शक मिले या नहीं. हिंदी की श्रेष्ठ व लोकप्रिय फिल्में शुध्द भारतीय परंपरा व समाज की फिल्में हैं. उनकी जड़ें देश की मिट्टी में हैं. देश में मौलिक फिल्मकारों की कमी नहीं है. उन्हीं के प्रयासों से फिल्म इंडस्ट्री विकसित व विस्तृत हो रही है. आप उदाहरण के रूप में थ्री इडियट्स को ही ले लें. इस फिल्म ने नौजवान युवा पीढ़ी की वास्तविकता को दर्शाया है. हकीकत बयां की है इसने. इस फिल्म एक युवा के दिल व दिमाग की सायकोलॉजी को बेहतरीन ढ़ंग से समझा है. उसने इस बात को समझा कि दिल का दिमाग से सीधा कनेक्शन है. दिल की सुनो व कुछ करो तो दिमाग भी दौड़ेगा. तो आप ही बताइए, कि आप युवा ऐसा नहीं सोचते. जरूर सोचते होंगे. हिंदी सिनेमा जगत को ऐसी ही विषयपरक फिल्मों की जरूरत है. हम हॉलीवुड की नकल कर रहे हैं. जबकि हॉलीवुड के सिनेमा दुनिया के अन्य देशों के सिनेमा से प्रभावित हैं. आज हॉलीवुड का सिनेमा विश्व की अनेक संस्कृतियों व परंपराओं के मिश्रण से आगे बढ़ रहा है. और हम एक नकल की गयी चीज को फिर से नकल कर रहे हैं. हम अपनी मौलिकता पर क्यों टिके नहीं रह सकते. हम खुद को तकनीक रूप से उनकी फिल्मों की तरह स्ट्रांग बनाना चाहिए. पर विषय तो हमारे अपने हो सकते हैं. क्या आम आदमी को छूनेवाले मुद्दे खत्म हो गये हैं भारत में. हिंदी सिनेमा जगत को डिजिटल ब्रॉडकास्टिंग से भी जोड़ने की जरूरत है. हमें अभी बहुत कुछ करना है. हम अभी बहुत पिछड़े हुए हैं. अपनी गलतफहमी को दूर करने की जरूरत है. इस भ्रम में न रहें कि हमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिल रही है. किसी आयोजन के लिए अतिथि के रूप में उपस्थित हो जाना या फिर कुछ विदेशी कैटेगरी में फिल्मों का चयन हो जाना. क्या यह हमारी उपलब्धि है. मैं नहीं मानता. हमें सीखने की जरूरत है. मगर सीखने का मतलब यह नहीं होता कि हमें विदेशी भाषा का ही दामन थामना पड़े. हां, हिंदी सिनेमा ने एक बड़ी उपलब्धि तो हासिल कि है कि इसके सहारे कम से कम दो मुल्कों का आपस में जुड़ाव हुआ हो या न हुआ हो,कम से कम कई मुल्कों में सिनेमा के माध्यम से हिंदी भाषा का सही तरीके से प्रचार-प्रसार तो हो सका है. जो शायद किसी और माध्यम से मुमकिन था. मेरा यह भी मानना है कि हम राजनीति की दुनिया में कोई प्रभाव पैदा नहीं कर सकते अलबत्ता हम एक माहौल जरूर तैयार कर सकते हैं

No comments:

Post a Comment