20110214

प्यार में कुछ भी सही गलत नहीं होता. प्यार तो बस प्यार होता है....



तुमको पता है मैं कौन हूं. कौन. मैं आदित्य कश्यप हूं. आदित्य कश्यप. अच्छा अच्छा जिसकी मां भाग गयी थी. सौरी सौरी हां, मैंने मैंने टीवी पर देखा था. नहीं नहीं सौरी मत कहो , जिसकी मां ने इतनी चीप हरकत की है. उसे तो यह सब सुनना ही होगा. ऐ मिस्टर अपनी मम्मी के बारे में ऐसा मत कहो. क्यों क्यों न कहूं. क्योंकि तुम्हारी मां प्रेम में थी और प्यार में कुछ भी सही गलत नहीं होता. प्यार-प्यार होता है. फिल्म जब वी मेट में आदित्य कश्यप को गीत ढिल्लन ने अपने बिंदास अंदाज में प्यार की यह परिभाषा कह डाली थी. एक ऐसी परिभाषा जिसमें ढाई आखर प्रेम का एक गहरा रहस्य छुपा है कि प्यार तो बस प्यार होता है. प्यार में कुछ भी सही गलत नहीं होता. प्यार जीवन में उस पवित्र भाव का नाम है, जिसमें आदित्य कश्यप की मां का शादी के बाद भी किसी और के साथ भाग जाना भी नाजायज नहीं, क्योंकि वह तो प्यार है न. गीत ढ़िल्लन के इस एक वाक्य ने प्यार की सार्थकता को बयां कर दिया. दरअसल, सिनेमाई कैमरे ने कई रूपों में, कई कलेवरों में एक बड़े कैनवास पर प्यार के विभिन्न रंगों की झलकियां प्रस्तुत की है. दार्शनिक रूप से जिस तरह अब तक प्यार आज भी दार्शनिकों व बुध्दिजीवियों के लिए शोध व चर्चा का विषय है. एक ऐसा विषय जिस पर आज तक कभी भी एकमत राय नहीं बन पायी. सिनेमा ने भी हर दौर में प्यार को अलग-अलग रूपों में परिभाषित किया है. ब्लैक एंड ह्वाइट के दौर से लेकर अब तक प्यार को लेकर हर बार सिनेमाई सोच बदलती रही है. लेकिन चाहे बात किसी भी दौर की जाये. सिनेमा में प्रेम के रूपों को दर्शाने के लिए हर बार. बार-बार भाषा बदली है. संवाद बदले हैं. किरदार बदले हैं. पोषाक बदले हैं. अंदाज बदले हैं. भूमिका बदली है. लेकिन आज भी प्यार का वह सार नहीं बदला. आज भी दिल ही दिमाग पर हावी है. फिर चाहे आज के सिनेमोस्कोपिक नायक-नायिका कितना भी शोर मचा ले. लव आजकल के जय सिंह की तरह अपनी गर्लफ्रेंड मीरा पंडित के साथ ब्रेकअप कर ले. या फिर खुशी खुशी दिल्ली के इंडिया गेट पर आजाद पंक्षी की तरह आजाद है तू मुझसे आजाद हूं मैं तुझसे गीत गुनगुना ले. लेकिन शाम में थक हारने के बाद उस आजाद पंक्षी की तरह ही वह अपने घोंसले में आने की चाहत रखता है. अपने परिवार अपने प्रेम के साथ. आज जब भी करियर की बात होती है. युवा की बात होती है. करियर के प्रति आज के युवा निःसंदेह सजग हुए हैं. वे करियर के आड़े किसी को नहीं आने देते. खासतौर से प्यार को तो वह अपने उज्जवल भविष्य का सबसे बड़ा द्योतक मानते हैं. ऐसे में अगर उन्हें लव आज कल के जय सिंह की तरह करियर बनाने के लिए विदेश भी जाना पड़े, अपने सामने अपनी गर्ल फ्रेंड की शादी देखनी पड़े, तो वह सबकुछ सहने के लिए तैयार है. प्यार से मुंह फेर कर अपने करियर के लिए आगे बढ़ना. और यह सोचना कि प्यार व्यार कुछ नहीं होता. सिर्फ टाइम पास है. दरअसल, यह सतही भाव है. प्यार का वास्तविक रस तो यह है कि तमाम बातों के बावजूद दिमाग पर दिल आज भी उसी कदर हावी है. जिस तरह कभी 60-70 के दौर में हुआ करता था. सच तो यह है कि जिंदगी का असली सार यही है कि हमें जीवन में प्यार चाहिए. भले ही हम करियर की कितनी ही ऊंचाईयों को न छू लें. आपको हर मोड़ पर किसी न किसी ऐसे इंसान की जरूरत है. जो प्यारा है. सिनेमाई निदर्ेशक के रूप में प्यार की उलझी-सी गुत्थी को बहुत हद तक सुलझाने की कामयाब कोशिश है इम्तियाज अली की लवआजकल. जिसमें जय वर्ध्दन सिंह (सैफ अली खान ) व 20 साल पहले का वीर सिंह( ऋषि कपूर) के प्रेम करने के तरीके में विभिन्नताएं तो दिखाई गयी हैं. लेकिन दोनों की ही प्रेम कहानियों में टि्वस्ट आता है. और अपने प्यार को पाने में सफल हो जाते हैं. जय सबकुछ भूल कर बस एक बार मीरा को अपने गले लगाता है. और उसे लगता है कि उसे पूरी कायनात मिल गयी. दरअसल, कायनात ने भी प्यार को बड़े प्यार से रचा है . इतने प्यार से कि वी शांताराम की फिल्म गीत गाया पत्थरों में भी पत्थर प्रेम से जाग जाते हैं. बैजूबावरा की संगीत के प्रेम से बारिश को भी हार मान कर जमीं पर आना ही होता है. इस प्यार का वह दिलकश जादू है कि फिल्म गुजारिश में इथान अपाहिज सोफिया के निस्वार्थ प्रेम से अपने जीवन के 12 अपाहिज व निहत्था जीवन भी खुशी खुशी गुजार लेता है. और सोफिया. 12 साल बिना किसी स्वार्थ. बिना कुछ कहे. बस दिल ही दिल में इथान से प्रेम करती है. सोफिया का प्रेम एक अपाहिज को मौत की गुजारिश करने के साथ इस कदर लोभी बना देता है कि वह गुजारिश तो मौत की करता है, लेकिन सोफिया के प्रेम की वजह से उसे इश्क जिंदगी से हो जाती है. संजय लीला ने बड़े ही खूबसूरत तरीके से एक ही कमरे में पड़े एक मायूस, निराश इंसान को भी प्यार की घुट्टी से फिर से जीने की आस जगाने की कोशिश की है. यह सहजय लीला भंसाली की सिनेमाई सोच व प्रेम का ही स्वपनीला जादू है कि सोफिया का समर्पण प्रेम दर्शकों को बिना किसी संवाद के सब कह जाता है. दरअसल, प्यार की कोई निर्धारित भाषा है भी नहीं. जब वी मेट के आदित्य व गीत की तरह प्यार राह चलते सफर में भी दो अनजाने लोगों को एक कर देता है. तो फिल्म दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे के राहुल व सिमरन को सफर में कई दिनों तक साथ रहने के बाद, एक दूसरे से बिछड़ने के बाद प्यार का एहसास कराता है. प्यार की कई परिभाषाएं गढ़नेवाले यश राज फिल्म्स के फिल्मकार आज भी प्यार क्या है? इस सवाल की तलाश में लगातार प्रयोग कर रहे हैं. अगर गौर करें, तो निदर्ेशकों ने अपनी कल्पनाशीलता से हर बार प्यार को आधार मान कर प्रयोग करने की भी कोशिश की है. फिर चाहे वह दिल तो पागल है में ट्रैंगुलर लव स्टोरी बनाना या फिर उसी ट्रैक पर कुछ कुछ होता है की कहानी गढ़ना. दिल तो पागल में राहुल प्रश्न पूछता है कि प्यार क्या है, उसकी दोस्त निशा कहती है प्यार दोस्ती है. और पूजा कहती है कि प्यार जिंदगी है. कुछ सालों के बाद फिर वही प्रश्न कुछ कुछ होता के क्लास में प्रोफेसर राहुल से करती हैं. उसके पास होता है कि प्यार दोस्ती है. अगर वो मेरी सबसे अच्छी दोस्त नहीं बन सकती है तो मैं उससे प्यार कर ही नहीं सकता. ठीक उसी वक्त उसकी बेस्ट फ्रेंड अंजलि को एहसास होता है कि दरअसल, राहुल उसका सिर्फ दोस्त नहीं. दोस्त से बढ़ कर है. अगर इन दो फिल्मों का ही तुलनात्मक अध्ययन करें तो गौरतलब बात यह होगी कि जिस दौर में दिल तो पागल है बनाई गयी थी. उस दौर में वास्तविक जिंदगी में प्रेमी युगल की नजर में प्यार जिंदगी थी. उस दौर में जीने मरने की कस्में. वायदे किये जाते थे. जिंदगी में प्यार सबसे महत्वपूर्ण अहमियत रखती थी. इसलिए उस दौर में प्यार जिंदगी थी. लेकिन कुछ सालों के बाद सवाल वही है. मगर जवाब बदल जाते हैं, क्योंकि समाज की प्रेम के प्रति सोच बदलती है. प्यार दोस्ती का रूप ले लेती है. कॉलेज में लड़के-लड़कियां आपस में अच्छे दोस्त बन जाते हैं. एक साथ अधिक से अधिक वक्त गुजारते हैं. एक दूसरे को समझने लगते हैं. और प्यार दोस्ती में बदल जाती है. लेकिन फिर धीरे-धीरे यही दोस्ती और आगे बढ़ती है. नजदीकियां बढ़ती है. प्यार में धीरे-धीरे खुलापन आ जाता है. चूंकि अब प्यार में कोई हिचक नहीं. शर्म नहीं हया नहीं. प्यार दोस्ती जो है. यही दोस्ती व नजदीकियां रिश्तों को धीरे-धीरे सलाम नमस्ते करने से भी नहीं हिचकिचातीं. और कैमरे का जूम इन होता है सलाम नमस्ते पर. जहां दो प्यार करनेवालों के लिए शादी जरूरी नहीं. बल्कि उनके लिए साथ में वक्त गुजारना अहमियत रखता है. उन्हें इस बात से भी कोई हर्ज नहीं कि वे बिना शादी के एक साथ एक ही छत के नीचे बिना किसी बेड़ियों के बिताएं. उनके लिए यह प्यार की मांग है. फिर चाहे उन्हें इसके लिए प्यार की परिभाषा लीव इन रिलेशनशिप में ही क्यों न बदलनी पड़े. लेकिन प्यार का असर व जादू तो देखिए, वाकई जब बड़े-बड़े ज्ञानी महापुरुष इस प्यार की माया को समझ नहीं पाये तो सलाम नमस्ते के नीक व जय अरोड़ा क्या समझ पाते. आखिर कार दोनों के मन मुटाव होने के बावजूद दोनों एक होते हैं. हालांकि उन्हें आपस में शादी करने में हर्ज है. लेकिन अपने प्यार की निशानी को बिना किसी शादी के बंधन इस धरती पर लाने में कोई हर्ज नहीं. यश राज के बैनर तले बनी इस फिल्म में वाकई सिध्दार्थ मल्होत्रा ने प्रेम की एक बोल्ड छवि प्रस्तुत की. जिसमें प्यार व प्यार की निशानी को इस दुनिया में लाने के लिए उन्हें किसी एग्रीमेंट या शादी जैसे बंधन की जरूरत नहीं. हां, यह सच है कि एक दौर ऐसा भी आया है जब प्यार को शादी का नाम देना प्रेमी युगलों के लिए एक बंधन बन चुका था. यानी यहां उन प्रेमी युगलों के विचार से प्यार की एक और परिभाषा उभरकर सामने आयी कि प्यार आजादी का नाम है. शादी के किसी बंधन का नहीं. लेकिन हर दौर में व खासतौर सिनेमाई प्रेम इस कदर लचीला है. व अस्थाई कि समय व दौर बदलने के साथ एक और नयी परिभाषा के सामने दर्शकों के सामने प्रस्तुत हो जाता है. किसी न किसी रूप में. अब सिनेमा के परदे पर हम किसी को पहली नजर में प्यार करते नहीं देखते. एक दूसरे के साथ लंबे समय तक रहने के बाह ही यह समझ में आता है कि वे बेहतरीन जीवनसाथी बन सकते हैं या नहीं. पहले फिल्मों में एक तिहाई फिल्म की कहानी पूरी होने के बाद होते-होते प्यार होता था, फिर गलतफहमी, फिर सुलह, फिर जमाना दुश्मन बनता था. फिर साथ मरने कौ तैयार हो जाते थे. फिर एक सुखद अंत. लेकिन अब प्रेम के पहले तीन शब्द कहते-कहते अक्सर क्लाइमेक्स आ जाता है. हां,यह कह सकते हैं कि अब प्यार में कोई दिखावटीपन नहीं है. कोई भाषणबाजी या लाग लपेट नहीं. बिल्कुल स्पष्ट हुआ है प्रेम. अगर प्यार है तो है. नहीं है तो शादी के कमिटमेंट के बावजूद अगर कोई और पसंद है तो स्पष्ट रूप से उसे छोड़ने में देर नहीं लगाते. फिल्म आइ हेट लव स्टोरीज में जब नायिका को यह अहसास होता है कि दरअसल, वह धीरे-धीरे ह्वाइट गुलाब नहीं बल्कि रंगों से भरे गुलाब को पसंद करती थी. उसकी पसंद कोई और है. जिसकी कोई भी बात उससे मेल नहीं खाती. न रहने का ढंग, न तौर तरीके. न ही पसंद नापसंद. इन तमाम असमानताओं के बावजूद उसे अंततः लव स्टोरिज से नफरत करनेवाला नायक ही प्यारा लगने लगता है. वही दूसरी तरफ कभी दिल चाहता में नायक द्वारा यह सवाल की जाने क्यों लोग प्यार करते हैं के प्रश्न पर नायिका का उसे प्यार को किसी लयमय कविता की तरह लयबध्द करना दिखाता है कैमरा तो दूसरी तरफ कुछ सालों के बाद आइ हेट लव स्टोरीज के किरदारों की तरह बिना एक दूसरे को प्यार की अहमियत समझाए एक दूसरे से पहले अलग फिर एक होते दर्शाता है कैमरा. पहले के मुकाबले अब की प्रेम कहानियां बोल्ड हुई हैं. वे खुलेपन को सहज स्वीकार रहे हैं. उन्हें इससे हर्ज नहीं कि किसी टैक्सी में बैठ कर इंडिया गेट में वे आराम से एक दूसरे को आलिंगन करने से नहीं कतराते. उन्हें जमाने की फिक्र नहीं होती. अब की प्रेम कहानियों की लड़कियां छुई-मुई या शरमाई हुई नहीं है, वे काफी तेज तर्रार होती हैं. मीरा पंडित, आल्या या नील अरोड़ा की तरह. पहले की शोखी अब शार्पनेस में बदल गयी है. शारीरिक संबंध अब टैबू नहीं है. यह संभव है कि प्रेम उसके बाद हो जाये. अब जो फिल्में बन रही हैं, वे ख्याली रूमानियत नहीं दिखाती, बल्कि थोड़ा सरकास्टिक तरीके से कहानी कहती है. रोमांटिक फिल्मों के निदर्ेशक माने जानेवाले इम्तियाज अली मानते हैं कि सिनेमा के प्रेमी किरदार दरअसल, वास्तविक जिंदगी से ही उठाये गये किरदार होते हैं. वह बनावटी नहीं होते. आप जिंदगी को गहराई व गंभीरता से देखें तो आपको फिल्मी प्रेम कहानियां हकीकत बयां करती नजर आयेंगी. आपको अपने बीच में ही कहीं कोई आल्या, गीत, आदित्य, वीर, मीरा नजर आयेगी. मेरा मानना है कि सिनेमा ने समाज में प्रेम के मायने नहीं बदले. बल्कि खासतौर से अगर मैं व्यक्तिगत तौर पर बात करूं तो मैं मानता हूं कि मेरी फिल्मों के किरदार वास्तविक जिंदगी से उठाये गये हैं. गीत व आदित्य का सफर पर मिलना बेहद स्वभाविक वाक्या है. आम जिंदगी में भी हमें किसी भी मोड़ पर किसी से भी प्यार हो सकता है. मेरे लिए प्यार मैजिक है. और मानता हूं कि यह बहुत हद तक सही भी है. अपनी दो फिल्मों में प्यार की बिंदास छवि प्रस्तुत करनेवाली दीपिका पादुकोण का मानना है कि वास्तविक जिंदगी के प्रेम प्रसंग व सिनेमाई प्रेम के किरदार एक दूसरे के पूरक हैं. हमें वहां से प्रेरणा मिलती है. और वास्तविक प्रेम युगल सिनेमा में प्रेम के स्वरूप को देख कर अपने आस-पास प्रेम की तलाश करते हैं. खासतौर से उस प्रेम की. जो उनके साथ तो होती है लेकिन उन्हें उनका आभास नहीं होता है कि वही प्रेम है. सिनेमा इस दृष्टिकोण से दो प्र्रेमियों को जोड़ने का ही काम करता है. फिल्म ब्रेक के बाद में भी आल्या ऐसी ही लड़की की कहानी है, जहां आल्या को करियर बनाना है इसलिए उसे प्रेम से ब्रेक चाहिए. जबकि वह जानती ही नहीं कि प्यार की भरपाई उसका चमकता करियर भी नहीं कर सकता. थक हारने के बाद वेक अप सीड की नेहा, फैशन की प्रियंका भी प्रेम के दो बोल के लिए तरसती है. जिंदगी के कई सफल पायदान को पार करने के बावजूद हर किसी को किसी न किसी मोड़ में प्यार की जरूरत है. फिर चाहे वह प्यार किसी भी रूप में हो. एक प्यार के लिए प्यार का समर्पण भी एक कहानी कह जाता है. तभी तो कैमरे पर यंग दिखनेवाले प्रीति व शाहरुख भी जब वीरा जारा के बुढ़े बुजुर्ग के रूप में लोगों के सामने आते हैं तो दर्शकों का उन्हें उतना ही प्यार मिलता है. ये प्यार का करिश्माई जादू ही तो है जिसने वन्स अपन इन टाइम इन इंडिया में सुल्तान मिर्जा जैसे गैंगस्टर को भी चार रुपये के पेरु को 400 रुपये बदलने में मजबूर कर देता है और अपनी महबूबा के प्रेम में लगातार आलू गोभी खाने के बावजूद चेहरे पर बोरियत महसूस नहीं होने देता. ये प्यार का ही तो करिश्मा है जो हम तुम में लड़का-लड़की की नोंक-झोंक के बावजूद लड़की की शादी होने के बावजूद. उसके विधवा होने के बावजूद उसे प्यार करने पर मजबूर कर देता है. यह प्यार का एहसास ही तो है जो फिल्म रब ने बना दी जोड़ी में सुरिंदर सोनी जैसे आउटडेटेड इंसान के साथ डांस पे चांस मारनेवाली तानी के मन में भी भाव उत्पन्न कर देता है. यह प्यार का ही एहसास है जो हमेशा साथ रहने के बाद दूर जाने पर उस साथ का एहसास कराता है और फिल्म जाने तू या जाने ना में अपनी महबूबा को जाने से रोकने के लिए एयरपोर्ट के सारे रूल्स व रेगुलेशन तोड़ने में भी गुरेज नहीं करता.वाकई जिस तरह जिंदगी में सात रंग होते हैं. लेकिन बाकी रंगों को मिला कर उनसे और भी कई रंग तैयार किये जाते हैं. हिंदी सिनेमा जगत में भी पिछले कई सालों से प्यार के उन्हीं सात रंगों को प्यार के अन्य रंगों से मिला कर प्यार के नये रंग गढ़े जा रहे हैं. वह सात रंग हैं प्यार की नजर में हमें समर्पण, समझौता, दोस्ती, आजादी, आपसी समझ, स्पष्ट संवाद और सबसे अहम एक एहसास के रूप में नजर आता है. प्यार के इन्हीं सात रंगों से रुपहले परदे पर हर दौर में कहानी गढ़ी जाती रही है. गढ़ी जाती रहेगी. जिस तरह वास्तविक जिंदगी में ढाई आखर प्रेम के असल रूप का दर्शन किसी ने नहीं किया है. वैसे ही सिनेमा में भी लगातार प्यार के स्वरूप नजर आते रहेंगे. कभी राह चलते, कभी ऐरोप्लेन में एक दूसरे से टकराते, कभी कॉलेज की गलियारों में तो, कभी टैक्सी की बैकसीट पर, कभी पड़ोस में तो कभी टेबल के नीचे, कभी सीसीडी कैमरे से बचती निगाहों में तो कभी चार रुपये के अमरूद में, कभी घड़ी की टिक-टिक में तो कभी दिल के छोटे से हिस्से में. कभी सब्जी बाजार में. लफंगे परिंदों की तरह हमेशा प्यार नये किरदार, नये कैमरे एंगल, नये एहसास, नयी कहानियां, नयी तलाश व नये आशियाने के साथ एक डाल से दूसरे डाल की तलाश में घूमता रहेगा प्यार. क्योंकि प्यार तो बस प्यार है. इसे अच्छे बुरे की परिभाषा नहीं आती, क्योंकि सिनेमाई कैमरे ने ही कभी दर्शकों को इस बात से रूबरू कराया था कि प्यार अंधा भी होता है. प्यार उम्र की सीमा नहीं देखता, क्योंकि प्यार अंधा होता है. प्यार खूबसूरती बदसूरती नहीं देखता, क्योंकि प्यार अंधा होता है. लेकिन प्यार का पूरा सार और रस इसी में है कि चाहे जो भी हो प्यार प्यार है. हर एहसास प्यार है. प्यार की खोज कहीं भी किसी भी इंसान में कभी भी मिल जाती है. क्योंकि प्यार अंधा होता है. लेकिन सबसे अहम सवाल यह है कि हम जिसे अहसास को प्यार का नाम दे रहे हैं. बशतर्े वह एहसास प्यार ही हो.

1 comment:

  1. ये प्यार भी ना हिंदी फिल्मों की सबसे बड़ी उलझन आज तक सुलझ ही नहीं पाई..और पूरी फिल्म इंडस्ट्री बड़े बड़े कहानीकार और ..डिरेक्टर कोई नहीं सुलझा पाया... अरे कोई पूरी जिन्दगी अपने प्यार को नहीं सुलझा पता तो ये क्या खा कर सुलझाएंगे...फिर भी इम्तियाज अली ने इसके कुछ पुर्जों को तो सुलझाया है ही..

    ReplyDelete