20110913

और खाऊगली बन गयी उस दिन मौत की गली...



पहले 1993, फिर 2003 और अब फिर से 13 जुलाई 2011. तीन अलग अलग वर्ष. लेकिन निशाना एक.झवेरी बाजार. मुंबई के दक्षिण हिस्से में स्थित यह स्थान खासतौर से सोने के व्यापार के लिए जाना जाता है. सेंट्रल लाइन की लोकल से चलें, तो मसजिद सबसे निकटम स्टेशन. मुंबई की मुंबा देवी के शक्तिपीठ की वजह से भी विश्व विख्यात. और वहीं गलियों को पार करते चलें तो आप आ पहुंचेंगे खाऊ गली में. या यूं कह लें नास्ता गली. आम दिनों में यह गली लोगों का कम पैसेंो में पेट भरने के लिए चर्चित है. लेकिन फिलवक्त यहां चर्चा की वजह भोजन नहीं 13 जुलाई 2011 में हुए धमाकों से प्रभावित हुए लोगों हैं. बार-बार निशाने पर आखिर क्यों है झवेरी बाजार. पिछले तीन धमाकों में साक्षी रहे कुछ ऐसे ही लोगों से फोटोग्राफर अनुराग उत्सव के साथ अनुप्रिया अनंत व उर्मिला कोरी ने झवेरी बाजार के इलाके में जाकर मुलाकात की. यहां प्रस्तुत है पूरा आंखों देखा हाल.

जहां शाम में ग्राहकों की वजह से पैर रखने की जगह नहीं होती.वहां फिलवक्त यहां नजारा कुछ और है. व्यापारियों से लेकर आस पास के गली-कूचे में छोटी सी गुमटी लगा कर अपनी जिंदगी का गुजारा करनेवाले सभी व्यक्ति सख्ते में हैं. वजह. चूंकि जान तो सबको प्यारी है और हर बार लगातार झवेरी बाजार को निशाना बनते देख, उनके मुख से बस यही बात निकलती है. क्या पता अगली बार यह दुकान रहे. इसी गली के पास कुछ हो जाये. धमाकों की आवाज की तो अब आदत सी लग गयी है इस क्षेत्र को. नास्ता खाऊ गली दक्षिण मुंबई की लोकल से सफर करनेवालों के लिए शाम को खुद को रिफ्रेश करने का खास स्थान है. चूंकि इस गली में सस्ते में स्वादिष्ट हल्के फुल्के नास्ते मिल जाते हैं. खास वजह शाम को दफ्तर से लौटते वक्त मससिद, सैनटर्न रोड, ग्रैंट रोड यहां के निकटतम लोकल स्टेशनों में से एक हैं. सो, लोग यहां आते ही हैं. गौरतलब है कि इस बार जहां बम धमाके हुए हैं, वह मुख्यतः खाऊ गली के रास्ते में हुए. जहां आस-पास की दुकानें तो व्यापारियों की है. लेकिन जिस जगह धमाके हुए हैं, वह स्थान मुख्यतः बिल्कुल निम्न वर्ग में काम करनेवाले मजदूरों, चाय नास्ता पहुंचानेवाले आम लोगों खोमचे लगा कर अपना गुजारा करनेवाले लोगों का है. जान उनकी गयी है. झवेरी बाजार मुख्यतः निवास स्थान नहीं है. वहां लोग अपनी रोजी रोटी के लिए ही आते हैं. दूर मुंबई के इलाकों से भी कई व्यापारी वहां अपनी दुकानें स्थापित कर चुके हैं. इसकी वजह से वहां हर तरफ बस दुकाने ही नजर आती हैं. सड़क तो नजर ही नहीं आती. यहां सोने, चांदी, होजियरी प्रायः उपयोग में लानेवाली हर चीजों की थोक व्यापार होता है. यही वजह है कि यह सबसे भीड़भाड़वाला इलाका है. और शायद बार-बार इसे निशाना बनाने की वजह भी.

तसवीरें अच्छे रखना, फिर काम आयेगा, क्योंकि फिर धमाका होगा.

यहां पहुंचने पर हमारे लिए झवेरी बाजार में बकायदा उसी स्थान पर निवास करनेवाले लोगों को ढूंढ़ना बहुत मुश्किल था. चूंकि जो घायल हैं, उनके परिजन अस्पताल में हैं. फिर भी लोगों से बातचीत करने में हमें कुछ लोगों से बातचीत करने का मौका मिला. जो मुख्यतः वही के निवासी हैं और पिछले तीन धमाकों के साक्षी भी रह चुके हैं. उन सभी आक्रोश हैं. शोभ है. अफसोस व्यक्त करने की बजाय उनके चेहरे से गुस्सा फूट रहा है. लेकिन वह यह भी जानते हैं कि इसका कोई असर नहीं होगा. पिछले बम धमाकों के बारे में बातचीत करने पर उनका गुस्सा हम पर ही फूट पड़ता है. लिख कर क्या होगा. फिर इंतजार करो. फिर धमाका होगा. चाहे तो यह सारी तसवीरें जो ले रहो हो. अच्छे रखना. भविष्य में भी काम आयेगा. क्योंकि फिर धमाका होगा, क्योंकि झवेरी बाजार को अब तो आदत-सी हो गयी है. फिलवक्त झवेरी बाजार में उस गली को छोड़ दें तो फिर से वहां लोग अपने कामों पर लग गये हैं. वहां सन्नाटा तो है. लेकिन लोगों के मन में. सड़क पर तो जिंदगी फिर से दौड़ती नजर आ रही है. चूंकि वे भी जानते हैं अगर आज नहीं कमायेंगे तो कल खायेंगे क्या और खिलायेंगे क्या. दरअसल, यही तो है मुंबई की मजबूरी.

भाईजान गये और लौट के ही न आये

1. जावेद असीम, लोहे के सामान के थोक विक्रेता, पिछले 18 साल से झवेरी बाजार से थोड़ी दूर पर निवास स्थल.( तीन धमाकों के साक्षी रहे)

खाऊ गली, जहां बकायदा इस बार धमाके हुए. उससे कुछ ही दूरी पर स्थित है जावेद असीम की दुकान. जावेद पिछले 18 साल से इसी स्थान पर अपनी दुकान संचालित करते हैं. उनसे बातचीत करने पर हमें पता चला कि वर्ष 2003 में हुए बम धमाकों में उन्होंने अपने एक रिश्तेदार को खोया था. वे उनके साथ ही दुकान में हाथ बंटाते थे. इस बार बम धमाकों के दौरान भी वह दुकान में ही थे. लेकिन कुछ ही दूरी पर धमाका हुआ तो वे सन्न रह गये थे. जावेद की बातों में आक्रोश था. वह दुखी थे और बातचीत करने के लिए तैयार नहीं थे. बमुश्किल उनसे आग्रह करने पर ऐसा लगा कि वर्ष 2003 में अपने को खोने का गम इस बार के धमाके ने उन घाव को फिर से ताजा कर दिया. जावेद की शब्दों में...पिछले 18 साल से हूं यहां. पहले गोरेगांव में था. अब्बू की जिद्द पर हम सभी यहां आये. रोजी-रोटी का सवाल है. कर भी क्या सकते थे. यहां बिक्री अधिक होती है. व्यापार है. यहां. लेकिन हर बार एक धमाका होता है और हमारी जिंदगी थम जाती है. तीन धमाकों का तो मैं साक्षी रहा हूं. डर लगता है. लेकिन शायद हम अब ढींट भी हो गये हैं. अपनी पत्नी को कह कर आता हूं न लौटा तो गम न करना. यह स्थिति है यहां की. परिवार यहां भेजने से डरता है. लेकिन कर भी क्या सकते हैंं. वर्ष 2003 में मेरे गांव से आये मेरे दूर के भाई को खोया था मैंने. वे दुकान के लिए कुछ लेने बाहर गये थे और फिर गली में गये और वापस ही नहीं लौटे.किसको दोष दूं. हो भी क्या जायेगा. देखिए लगा तो है आपके ऊपर( सीसीटीवी की तरफ इशारा करते हुए) देखें, कैमरा है. पिछले 3 साल से देख रहा हूं. लेकिन कभी चलता नहीं है. खिलौना है खिलौना. जानबूझ कर इसी जगह को निशाना बनाते हैं. ताकि हिंदू मुसलिम में फुट आये.

मासूमों की जान जाये तो क्या फर्क पड़ेगा

2.नसीम अख्तर , झवेरी बाजार में छाते का व्यापार, (पिछले 22 साल से यहां स्थापित. इस बार धमाके में बेटा मुस्ताख अहमद बुरी तरह घायल, तीन धमाकों के साक्षी रहे)

धमाका छोटा हो या बड़ा. किसी मासूम की तो जान जाती ही है न. लेकिन उसका मोल क्या.कौन पूछता है. कहते कहते फूट-फूट कर रोने लगते हैं नसीम अहमद, जिनका बेट मुस्ताख अहमद इस बार के धमाके की वजह से घायल है. जो उस दिन खाऊ गली में रोजाना की तरह नास्ते के लिए गया था. फिलवक्त नसीम के बेटे जेजे अस्पताल में भर्ती हैं, और घायल हैं. नसीम बताते हैं कि पिछले 13 सालों में जब भी धमाके होते हैं और फिर इस पर कार्यवाही होती है तो लगता है कि हम सुरक्षित हो जायेंगे. लेकिन किसे क्या फर्क पड़ेगा. जानबूझ कर नास्ता गली ही चुना, ताकि जान मासूम की जाये, क्या फर्क पड़ता है मैडम. आप कभी आना देखना कैसे छोटा छोटा मासूम लोग यहां अपना रोजी रोटी के लिए खोमचा लगा कर गुजारा करता है. सैंडविच लगा कर ुगुजारा करता है. क्या कहें अब हम. चाह कर भी झवेरी बाजार छोड़ कर नहीं जा पाते. कहां जायेंगे. कहीं तो सुरक्षित नहीं हैं हम. जिस दिन धमाका हुआ. लोग बताये. हम दौड़ कर गये. बाप रे. दिल निकल कर बाहर आ गया. जब देखा कि मुस्ताख भी घायल है. अल्हा का शुक्र है कि जान बची उसकी. अल्ला किसी को ऐसा दिन न दिखाये. बेटा घायल है. और इससे ज्यादा क्या कहेंगे.आप लिख देंगी तो क्या सब ठीक हो जायेगा. किसी व्यापारी का तो कुछ नहीं होता न. मासूम ही निशाना बनता है बेचारा. कोई कुछ नहीं करेगा. फिर हो जायेगा धमाका. देख लीजियेगा, तीन धमाका तो मेरे सामने हो गया है. क्या पता. अगली बार हम ही को अल्ला इस धमाके में बुला ले. मत पूछिये और कुछ.

पार्किंग की जगह नहीं लेकिन लगी रहती गाड़ियां

3. मोहम्मद अश्फाख, ड्राइ फ्रूट्स की छोटी सी दुकान से पूरे परिवार का गुजारा, खाऊ गली में स्थित है दुकान. पिछले 18 साल से झवेरी के चॉल में निवास, इस बार के धमाके में चाचा रहमद अश्फाख बुरी तरह घायल)

मोहम्मद अश्फाख का पूरा परिवार हमें जेजे अस्पताल में मिला. वह बातचीत के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे. परिवार में दो महिलाएं. एक बुजुर्ग व दो जवान बेटें नजर आये. किसी अपने को जख्मी हालत में देखने का गम व मायूसी उनके चेहरे पर साफ नजर आ रही थी. उनमें आक्रोश था और उनका गुस्सा हम पर ही फुट निकला. कई बार पूछने पर आपका कोई घायल है...मोहम्मद अश्फाख के शब्दों नहीं तो क्या हम पूरा परिवार के साथ यहां पार्टी मना रहे हैं क्या. दिखता नहीं आपको. आपलोग केवल कैमरा से फोटो ले लेंगे. दुख समझ नहीं सकते,जिस पर बीतती है. वही जानता है. और कोई नहीं समझ सकता. परिवार के दूसरे सदस्य राशिद के शांत करने पर राशिद हमसे बात करना शुरू करते हैं और बताते हैं कि उनका परिवार झवेरी के चॉल में रहता है.पिछले 18 सालों से उनके बुजुर्ग यही धंधा कर रहे हैं. ड्राइ फ्रूट्स की छोटी सी दुकान है. लेकिन ठीक ठाक चलती है. तीन धमाकों के उनका परिवार साक्षी रहा है. लेकिन उन्हें नहीं पता था कि इस बार वे अपने चाचा को ही इस अवस्था में पायेंगे. वे बताते हैं कि उन्हें वर्ष 2003 का धमाका तो अच्छी तरह याद है. उस वक्त तो और कम भीड़ थी यहां. लेकिन धीरे धीरे यहां भीड़ बढ़ती जा रही है. यही वजह है कि भीड़भाड़ का इलाका ही निशाना बनता है. वे कहते हैं कि सोने के व्यापारियों को जान बूझ कर टारगेट किया जाता है. लेकिन जान जाती है पानी पिलानेवाले, चाय पिलानेवाले, खोमचा लगानेवाले आम मासूमों की. वे बताते हैं कि इस बार धमाके के दिन चाचा शाम के वक्त नमाज पढ़ कर लौट रहे थे. तभी धमाका हुआ. वर्ष 2003 में पूरी धज्जी उड़ी थी इस जगह की. आप मैडम खुद जाकर देखें. वहां पर पार्किंग का कोई जगह नहीं है. लेकिन सबलोग ट्रेन से जानेवाला लोग वहां गाड़ी लगाता है. तो जगह कहां से आयेगा. कोई भी बम रख कर जा सकता है. आम दिनों में पुलिस भी कहां रहती है यहां. अभी तो यहां मजलिस है. देखिए जाकर. सारा चैनलवाला लोग है. पुलिस है. लेकिन अब क्या. कुछ महीनों बाद ही फिर धमाका होगा. वरना अगर पुलिस चाहे न तो तो कोई यूं ही छाता में, टिफिन में बम रख कर नहीं जायेगा. अभी पॉलीथिन चेक करने से क्या होगा. जिसको जो करना था. हो गया. कोई मरा तो हमारा मरा न.

लगता है धमाका देख कर बड़ा हुआ हूं

4. रहमान, एक होटल में चाय पहुंचाने का काम करते हैं. उनका बचपन झवेरी में बीता है. परिवार के पालन पोषण के लिए छोटी उम्र से ही इसी काम में जुट गये. और साथ ही केबल लगाने का भी काम. तीन धमाकों के साक्षी

रहमान का बचपन झवेरी से कुछ दूरी स्थित मोहम्मद अली रोड में बीता है. वे यहां के चप्पे चप्पे से वाकिफ हैं. वे बताते हैं कि बचपन से लेकर अब तक यहां बस धमाकों की बातें ही सुनता आया हूं. बहुत जल्दी काम में जुट गया था. सो, अब थोड़ा समझने भी लगा हूं. राजनीति की बातें. जान बूझ कर सब किया गया है. ताकि सबलोग आपस में लड़े. एक दूसरे पर शक हो. फिर आयी गयी हो जाये. वे बताते हैं कि 93 का तो नहीं जानता. लेकिन 2003 में मेरे दोस्त लोग के परिवार का कई लोग घायल हुआ था. खुद मेरा एक दोस्त भी. अल्हा का शुक्र है कि अब तक हमारे परिवार या मुझे कुछ नहीं हुआ. वरना, जिंदगी का क्या ठिकाना. उस वक्त भी तो सब पुलिस सब आया था. मंत्री भी. लेकिन कहां कुछ होता है. जान तो जाती ही है. अब देखिए न आप ही सोचें क्या करेगा.कोई. इधर बिक्री होता है तो दिन ब दिन भीड़ बढ़ता जाता है. सबको तो पेट पालना है. धमाका करनेवाला लोग जानता है कि ये सब एरिया पर कुछ लोग मरा भी तो कुछ नहीं होगा. वो तो ताज में, ओपेरा होता है तब बड़ा लोग को प्रभाव पड़ता है तो नेता लोग भी हड़बड़ा जाता है. वरना हम सबका क्या. हमको तो ऐसा लगता है कि हम धमाका देख ही बड़े हो गये हैं. क्या पता अगला नंबर किसका हो.कोई उपाय नहीं होगा. कुछ नहीं ोगा.

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