20110915

हिंदी सिनेमा भारतीय सिनेमा का पर्याय नहीं ः डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेद्वी


(हिंदी दिवस पर विशेष)


हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है. यह मानने में मुझे कोई कोताही नहीं है. लेकिन इसके बावजूद जब प्रदेशों के विभाजन के बाद अलग अलग भाषाओं में बात होने लगी. तब से मैं मानता हूं कि हिंदी केवल हिंदी भी प्रादेशिक भाषा बन चुकी है. जबकि यह राष्ट्रभाषा है. बावजूद इसके इसका प्रयोग तो सरकारी भाषा के रूप में भी नहीं होता है. मैं अंग्रेजी के विरोध में नहीं हूं. लेकिन मैं यह जरूर कहना चाहूंगा कि अब हिंदी केवल बोलचाल की भाषा रह गयी है. संपर्क की भाषा रह गयी है. मुंबई में तो खासतौर से इसे केवल संपर्क की भाषा ही समझा जाता है. वरना, ऐसी कोई जगह नहीं बची. जहां अगर आप हिंदी का प्रयोग करें तो लोग आपको हीन भावना से नहीं देखेंगे. जिनकी हिंदी अच्छी है. उन्हें तो गंवई ही समझा जाता है. मैं जब भी फ्लाइट से सफर करता हूं. तो हर बार मेरी कोशिश यही रहती है कि मैं एयर होस्टेस या केबिन क्रू से हिंदी में बात करूं. लेकिन जब भी मैं ऐसा करता हूं. तो तो एयर होस्टेस मेरी हिंदी समझ पाती है. और बगल में बैठा व्यक्ति मुझे कुछ इस कदर देखता है. मुझे ऐसा लगने लगता है जैसे मैंने कुछ पाप कर दिया हो. आप गौर करें तो एयर होस्टेस अगर हिंदी में बोलती भी है तो वह भी अंग्रेजियत हिंदी होती है. यानी हिंदी और अंग्रेजी का मिश्रण होता है उसमें. मुझे उस वकत् बेहद खुशी होती थी कि कम से कम एयर इंडिया एक मात्र ऐसा एयरलाइन था, जहां कि एयरहोस्टेस जाने पर आपको गुड मॉर्निंग की जगह नमस्कार कहती थी. लेकिन इन दिनों देखता हूं या तो वह बड़े बोझिल मन से नमस्कार कहेगी या फिर कहेगी ही नहीं. तो मैंने तो खुद ही उन्हें नमस्कार कहना शुरू कर दिया. हाल ही में यात्रा के दौरान जब मैंने एक राजस्थानी व्यक्ति को देखा वह अपने पूरे पारंपरिक लिबाज धोती, सिर पर टोपी लगा रखा था. वह मेरे पास की सीट पर आकर बैठा तो सामने बैठी सीट पर एक व्यक्ति में अंग्रेजी बखारते हुए कहा कि क्या एलएस लोग जाते हैं. मैंने उन्हें कहा कि क्या आप केवल उसके परिधान के आधार पर यह अनुमान लगा सकते हैं. सच्चाई यही है कि आज हिंदी भाषी लोगों को या फिर उन लोगों को जो अपनी परंपरा को साथ लेकर चलना चाहते हैं उन्हें गंवार या पंडित बन रहा है. कह कर चुप करा दिया जाता है. बात अगर अब बॉलीवुड की करें, तो मैं इस बात से बिल्कुल इत्तेफाक रखता हूं और मेरा मानना यही है कि बॉलीवुड ने हिंदी को बचा कर रखा है, यह सोच रखना बिल्कुल बंद कर दें. खुद मैं मानता हूं कि हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा जरूर है. लेकिन उसे भारतीय फिल्म जगत कहना कहीं से उचित नहीं. इसके पीछे मेरा तर्क यही है कि मैं जानना चाहूंगा कि क्या दक्षिण में हिंदी फिल्में देखी जाती है, क्या भारत के हर राज्य में हिंदी फिल्में देखी जाती है. क्या उन्हें मान्यता है. अगर नहीं तो फिर हम कैसे कह सकते हैं कि हिंदी फिल्म जगत भारतीय फिल्म इंडस्ट्री है. भारत में इन दिनों कई फिल्म इंडस्ट्री है. उसी तरह हिंदी फिल्म इंडस्ट्री भी है. दूसरी बात मैं बिल्कुल इस बात का विरोध करता हूं कि हिंदी सिनेमा ने हिंदी को बचा रखा है. यह अपमान है हिंदी क्षेत्र में प्रकाशित होनेवाले अखबारों का संचार माध्यम का. दरअसल, हिंदी सिनेमा ने नहीं बल्कि हिंदी भाषी राज्यों के साहित्य, वहां के अखबारों माध्यमों की वजह है ही वहां की हिंदी जीवित है. दरअसल, वजह यह है कि हिंदी फिल्में चलती ही वही हैं. जहां हिंदी भाषी हैं. अगर वहां भी चले तो फिल्म का व्यवसाय कैसे होगा. फिर मुझे तो इस बात पर भी आपत्ति है कि हम हमेशा कुंठित होते रहते हैं कि फिल्में इन दिनों समाज की जिम्मेदारी नहीं निभा रही. वह सिर्फ व्यवसाय हो गयी है. मैं तो कहता हूं कि वह सिर्फ व्यवसाय ही है. उसे जिम्मेदारी समझने की भूल हम कर रहे हैं. इसलिए हम दुखी हो रहे हैं. हमें बॉलीवुड को व्यवसायिक रूप से ही देखना चाहिए. जिम्मेदारी के रूप में नहीं. चूंकि वे दावा करते हैं कि वह वही दिखा रहे हैं जो दर्शक देखना चाहते हैं. मैं यहां एक बात और भी कहना चाहूंगा कि यह पूरी इंडस्ट्री भले ही हिंदी भाषा में फिल्में बनाती हो. लेकिन आप गौर करें तो अमिताभ बच्चन, आशुतोष राणा, मनोज बाजपेयी और कुछेक पुराने कलाकारों को छोड़ दें तो किसी की हिंदी भाषा पर उस तरह से कमांड नहीं. अमिताभ बच्चन एक मात्र ऐसे कलाकार हैं, जिनका हिंदी और अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं पर समान अधिकार है. इसलिए वह टिके हुए हैं. वही आप अन्य कलाकारों को देख लें. वह मेहनती हैं. अच्छे कलाकार हैं. लेकिन चूंकि वह अंग्रेजी पर कमांड नहीं रखते. उन्हें कई बार परेशानियां होती है. अब हालत यह हो चुकी है कि यह कलाकार भी टूटी फूटी अंग्रेजी भाषा बोलने की कोशिश करने लगे हैं. वाकई मुझे लगता है कि किसी भाषा को समृध्द होने में हजारों साल हो जाते हैं. लेकिन हम उनके अस्तित्व को चुटकी में खत्म कर देते हैं. फिल्में अगर शेख्सपीयर की कहानियों पर बने तो उसे वाहवाही मिलती है और अगर कबीर पर बने तो उसे गंवईपन समझा जाता है. क्या शेख्सपीयर से बुध्दिमता के लिहाज से कबीर कहीं भी कम थे. दर्शकों की नजर में हिंदी की गुणवता को कम करने में धारावाहिकों में प्रयोग किये जा रहे हिंदी के अलग ही रूप का भी दोष है. वे हिंदी को टूटी फूटी और इस अंदाज में पेश करते हैं कि अधिकतर लोगों को लगता है कि हिंदी है ही गांव की भाषा. वे मानने लगते हैं कि जो ठेठ है. वह निम्न स्तर के हैं. यह हमारी ही विवशता है कि हमें किसी व्यक्ति की सफलता का मापदंड ही अंतरराष्ट्रीय स्तर फर अंग्रेजियतनुमा रखा है. वही सफल है जो विदेश जाता है. जो फर्राटेदार अंग्रेजी बोलता है. हिंदी सिनेमा में केवल परदे पर ही हिंदी नजर आती है. शेष अगर सेट पर चले जायें, सेट के लोगों से बात कर लें आपको अंग्रेजी या रोमन हिंदी देखने को मिलेगी. मैं जब फिल्में लिखता हूं तो मेरे निदर्ेशकों को इस बात से आपत्ति थी कि मैं देवनागिरी में लिखता हूं. लोगों का मानना है कि अंग्रेजी सरल भाषा है. उनसे बस एक ही प्रश्न है कि अगर अंग्रेजी इतनी सरल होती तो क्या हर बच्चा अब तक अंग्रेजी सीख लेता. अंततः मैं बस इतना ही कहना चाहूंगा कि अंग्रेजी का प्रचार प्रसार करें लेकिन इस तर्क पर नहीं कि वह सरल है और हिंदी नहीं. हिंदी को नीचा दिखा कर अंग्रेजी को आगे बढ़ाने की कोशिश करें.


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