20110913

विदेशी फिल्मों के तकनीकी सीख लें न की काल्पनिक सीख


वी श्रीनिवास मोहन, रोबोट( इंदिहरण) फिल्म के वीएफएक्स के प्रमुख


संक्षिप्त परिचय वी श्रीनिवास मोहन. विजुअल इफेक्ट डिजाइनर हैं. वे इंडियन आर्टिस्ट कंप्यूटर ग्राफिक्स प्राइवेट लिमिटेड के फाउंडर भी हैं. पिछले 15 सालों से लगातार वे इस क्षेत्र में काम कर रहे हैं. उन्हें कई बार नेशनल अवार्ड से भी नवाजा जा चुका है. फिल्म शिवाजी, इंदिवरण के लिए भी उन्हें पुरस्कार दिया गया.

वर्ष 2010 के सितंबर में रजनीकांत अभिनीत फिल्म रोबोट( तमिल संस्करण इंदिवरण)रिलीज की गयी. फिल्म में एक साथ कई रोबोट के कारनामे देख कर सिर्फ दक्षिण के दर्शक बल्कि पूरे भारत के दर्शक दंग रह गये. इसकी खास वजह यह रही कि इस फिल्म में हमने विजुअल इफेक्ट्स के माध्यम से वह हर संभव प्रयास करने की कोशिश की थी, जिससे यह फिल्म किसी भी हॉलीवुड की फिल्म से कम लगे इस फिल्म में लगभग 60 दृश्यों में हमने 2000वीएफएक्स शॉट्स का इस्तेमाल किया था. जो बहुत आसान नहीं था. इस फिल्म में जितनी मेहनत रजनीकांत के मेकअप में हुई है. उतनी ही मेहनत उनके रोबोटिक रूप को देने में भी हुई है. दरअसल, सच्चाई भी यही है कि भारत में तकनीकी रूप से दिखाई जानेवाली फिल्मों में बहुत मेहनत करनी पड़ती है. इसकी खास वजह यह है कि हमें दर्शकों की भावनाओं का भी ख्याल रखना पड़ता है. साथ ही मैं मानता हूं कि भारत को अभी भी आउटसोर्सिंग के रूप में बाहरी मदद लेनी ही पड़ती है. इस फिल्म का अधिकतर काम चेन्नई में किया था. इसके अलावा हमने जुरासिक पार्क और टर्मिनेटर जैसी फिल्मों के मेकर्स की भी मदद ली थी. पूरे विश्व से लगभग 15-16 स्टूडियोज की मदद से इसे पूरा किया गया था. गौरतलब है कि जब हम किसी फिल्म को वीजुअल इफेक्ट्स यानी स्पेशल इफेक्ट्स के माध्यम से दर्शकों के सामने लाते हैं तो इसे बनाने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है. यह आम शूटिंग से बिल्कुल अलग होता है. और इसमें बारीकियों की पूरी गुंजाइश होती है. छोटी सी भूल साफ बड़े परदे पर नजर आती है. एक एक फ्रेम पर घंटों काम करना पड़ता है. कलर करेक्शन, वीजुअली अपील, सारी चीजों का ध्यान रखना पड़ता है. यही वजह है कि इस फिल्म को बनने में लगभग डेढ़ साल लग गये थे. पूरी फिल्म में कल्पनाशीलता पर ध्यान देना पड़ता है. कई बार ऐसा होता है कि हमें कई नयी चीजें करनी की इच्छा होती है.लेकिन बजट हमारा साथ नहीं देता. यह यह बताना बहुत जरूरी है कि दरअसल, भारत में अभी भी इस तरह की फिल्में कम बन रही हैं, इसकी वजह यह है कि हम हिंदी सिनेमा में उस हद तक खर्च नहीं कर सकते. और यह स्पेशल इफेक्ट्स खर्चीला माध्यम है. एक एक सेकेंड पर बजट बढ़ता जाता है. इसकी वजह से कई बार हमें समझौता करना पड़ता है. ऐसे में यह बहुत जरूरी है कि हम अपनी फिल्म की स्क्रिप्ट बिल्कुल स्पष्ट रखें.मुझे याद है जब हम यह फिल्म बना रहे थे. हम लगभग हमने पहले प्री प्रोडक्शन पर सोच और कल्पना के स्तर पर बिल्कुल दुरुस्त रखा था. हम पहले कई एनिमेशन शॉट शूट करके रखते थे, ताकि उसके अनुसार हम बाकी के ऑब्जेट की शूटिंग कर सकें. हमने इस पर यानी प्री प्रोडक्शन पर लगभग 6-7 महीने काम किया. मैं मानता हूं कि भारत में टैलेंट्स की कमी नहीं. बस मौके मिलने चाहिए. खासतौर से मैं दक्षिण के बारे में कह सकता हूं कि यहां टैलेंट्स की कमी नहीं है. मैं यह भी कहूंगा कि अगर हम फिलहाल विदेशी फिल्मों से तकनीक को देख रहे हैं या सीख रहे हैं तो इसमें कोई बुराई नहीं है, क्योंकि इससे हमें नयी तकनीकों को जानने का मौका मिल रहा है.फिल्म अवतार में दिखाये गये कई इफेक्टस हमारे लिये चौकानेवाले थे. मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि मैंने फिल्म अवतार में प्रयोग किये गये कुछ नयी तकनीकों का इस्तेमाल अपनी फिल्म में भी किया है. मेरा मानना है कि आप वहां की कल्पना लें. लेकिन वहां की तकनीक से जरूर सीखें, क्योंकि वह अपडेट हैं. हमसे तेज हैं और वह प्रयोगों में विश्वास रखते हैं. जैसे उस फिल्म में पहली बार एक अलग चीज का प्रयोग हुआ था डूम लाइफ स्टेज स्टैनिंग. जिससे किसी के चेहरे के रिजॉल्यूशन की बारीकियों को देखा जा सके. हमने उसका इस्तेमाल अरनी फिल्म में किया. इस तरह की फिल्मों को बनाने में हमें किरदार के टेक्चर, शेडिंग, कलर, किरदार के त्वचा हर चीजों पर बारीकियों से काम करना पड़ता है. खासतौर से तब जब रजनीकांत सर की तरह उम्रदराज किरदार हो तो. लेकिन हमने वह कर दिखाया. और मैं शुभकामनाएं देता हूं कि आनेवाले समय में भी ऐसी फिल्में बनें. फिलहाल मैं भी इस तरह के कुछ और भी प्रोजेक्ट्स पर काम कर ही रहा हूं.

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