नीलिमा मिश्र, मुंबई से 375 किलोमीटर की दूरी पर स्थित जलगांव का बहारदरपुर गांव पर इन दिनों पूरी दुनिया की नजर है. वजह है यही की एक आम महिला नीलिमा मिश्रा को मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित किया जाना. उन्हें यह अवार्ड ग्रामीण इलाके में दिये गये अपने योगदान के लिए दिया जा रहा है. नीलिमा मिश्रा इस बात से बेहद उत्साहित हैं. इसलिए नहीं कि उन्हें यह अवार्ड मिला है, बल्कि इसलिए क्योंकि इस सम्मान से उनका मनोबल बढ़ा है. क्योंकि नीलिमा मानती हैं कि कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता है. आपकी सोच बड़ी होनी चाहिए.
बकौल नीलिमा मुझे लोग यहां दीदी के नाम से पुकारते हैं. बहुत अच्छा लगता है. जब मुझे यहां के लोग इतना प्यार देते हैं. दरअसल, जब मैंने यह काम शुरू किया था. उस वक्त मेरे दिमाग में बस यही बात थी कि मुझे बड़ा प्रयास नहीं बल्कि छोटी सी शुरुआत करनी है. मैंने कभी किसी अवार्ड प्राप्ति के लिए यह सबकुछ नहीं किया था. चूंकि मैं यह करना चाहती थी. इसलिए किया. पुरस्कार मिलना तो मेरे लिए भी एक सरप्राइज की तरह था.मैगसेसे संस्था ने एक महीने पहले मुझे बताया कि मेरा नाम मनोनित किया गया है. लेकिन उन्होंने मुझे यह भी कह रखा था कि मुझे यह खबर अन्य लोगों को नहीं बतानी है. सो, मैंने नहीं बतायी. लेकिन मैं खुश हूं कि अब बहारदरपुर गांव की समस्याएं पूरी दुनिया के लोगों को नजर आयी है. यहां के लोगों को भला होगा. यह जानकर खुशी होती है. मैं मानती हूं कि अगर आपमें चाहत हैं तो आप किसी भी काम को आसान बना सकते हैं. साथ ही अगर आप बहुत आगे बढ़ना चाहते हैं तो आपको टीम को साथ में लेकर चलना होगा. मेरे इस सम्मान की हकदार मैं अकेली नहीं हूं, बल्कि वह सभी लोग हैं, जिन्होंने लघु समूह बना कर प्रयास किये. हमारी कोशिश यही थी, कि हम कुछ बड़ा न कर सकें, तो न सही. छोटे से ही शुरुआत करें. हमने पर्यावरण का ध्यान रखते हुए तय किया कि हम सभी मिल कर कम से कम एक पेड़ तो अपने घर में जरूर लगायेंगे. इस गांव की एक बड़ी समस्या जो महिला होने के नाते मैंने खुद महसूस की थी, वह यही थी कि यहां औरतों के लिए शौचालय का खास इंतजाम नहीं हैं. महिलाओं को आज भी गांव के खेतों में जाना पड़ता है. अपने गुप्र का निर्माण करने के बाद मैंने सबसे पहले इस काम की ओर ध्यान दिया. जाहिर सी बात है कि किसी भी काम के शुरुआत में पैसों की बड़ी भूमिका होती है. हम कोई बड़े एनजीओ तो थे नहीं जो सरकार हमें मदद करती. फिर भी हमने इसी बीच से एक रास्ता निकाला. शुरुआती दौर में चूंकि महिलाएं अनपढ़ हैं, उन्हें समझाने में मुश्किलें होती थीं. लेकिन फिर मैंने उन्हीं के परिवार का उदाहरण देकर उन्हें समझाना शुरू किया. वे कई बार झल्ला भी जातीं. मुझे घर से बाहर जाने को भी कह देतीं. वे तैयार हो जाती, तो उनके पति तैयार नहीं होते. वे खरी-खोटी सुनाते. कई बार मारने की धमकी भी दे जाते. लेकिन जहां चाह है वहां राह है. जहां कुछ ऐसे पुरुष मिले, वहां कुछ भले भी मिले. विनोद तोमर उनमें से एक थे. चूंकि वह भी जानते थे कि सिर्फ सरकार को दोष देने से हल नहीं निकलनेवाला. वे आगे आये. हाथ मिलाया. और धीरे धीरे महिलाओं को हम अपने साथ जोड़ने में कामयाब हुए. हमने खुद से मिल कर महिलाओं के साथ लघु फिनाशियल हेल्प गुप्र भी बनाया. जिसके माध्यम से इस तरह के कामों के लिए खर्च निकलने लगे. हमारे गुप्र की महिलाएं ही छोटी छोटी जमा राशि करतीं और जब पैसे इक्ट्ठे हो जाते. हम एक दूसरे की मदद करते. माइक्रो फिनांस की वजह से कितने लोगों की मदद हुई है. नीलिमा बताती हैं कि उन्होंने 13 साल की उम्र से ही इस तरह के कामों में अपना ध्यान केंद्रित कर लिया था. उन्होंने शुरुआती दौर में पुणे आधारित एक समूह के ासथ काम भी किया. बकौल नीलिमा, मैं मानती हूं किसी भी नये काम की शुरुआत के लिए आपमें लगन होना चाहिए और साथ ही अगर आपको अनुभव मिल जाये. तो काम करने में और आसानी हो जाती है. पुणे में मैंने जिस संस्था के साथ काम किया. उनके साथ पूरे देश में सफर करने का मौका मिला. खासतौर से भारत के ग्रामीण इलाके में. वहां जब मैंने वहां की स्थिति देखी, तो उस स्थिति ने मुझे अंदर से झकझोर दिया था. इसी दौरान मेरी मुलाकात भागिनी निवेदिता से हुई थी. वह सुप्रसिध्द समाज सुधारक हैं. और उन्होंने अपने छोटे प्रयासों से बहुत सारे बड़े काम किये हैं. उन्हीं से प्रेरित होकर मैंने अपने गुप्र का नाम निवेदिता ग्रामीण विद्या निकेतन रखा. चूंकि मैं खुद बहारदरपुर की रहनेवाली हूं. इस बात से अच्छी तरह से वाकिफ थी कि वहां की स्थिति क्या है. सो., मैंने शुरुआत वही से की. वर्ष 2000 में मैंने इसकी नींव रखी. निस्संदेह काम शुरू किया है और कुछ नेक काम की शुरुआत हुई है तो परेशानियां आयेंगी. मुझे भी धमकियां मिली. लेकिन मेरे गुप्र के लोगों ने अपनी एकता दिखायी. शुरुआत अपने गांव से की थी और आज हमारा गुप्र लगभग 200 गांवों की सहायता करता है. खासतौर से जलगांव व धुले इलाके के कई गांवों तक हमारी कोशिश है कि लोगों की मदद करें. कभी 150 से शुरुआत किये गये गुप्र का आज अपना 1800 सेविंग गुप्र है. और इनमें से लगभग 255 गुप्र से मुनाफा भी मिल रहा है. पूरे संस्था का वार्षिक टर्नओवर लगभग 1 करोड़ रुपये तक आ पहुंचा है. यह कामयाबी सिर्फ और सिर्फ सोच को बड़ी रखने की वजह से हुई है. छोटे छोटे प्रयासों, वहां के लोगों की समस्याओं को भावनात्मक रूप से समझते हुए उन्हें अपने साथ काम करने के लिए प्रेरित करना और टीम के रूप में काम करने की वजह से ही हमें कामयाबी मिली है. मेरा मानना है कि भारत से गरीबी हटाने व बेरोजगारी हटाने का यही एकमात्र उपाय है कि आप खुद कैसे छोटे से प्रयास शुरू करें. खुद अपने लिए रोजगार के विकल्प इजात करें. हम सिर्फ सरकार को या किसी को भी दोष देकर जैसे तैसे जिंदगी नहीं गुजार सकते. हमें खुद से पहल करनी होगी. तभी हम जिंदगी में अपने होने का अर्थ खोज सकते हैं. हमारी संस्था आज इतनी काबिल हो चुकी है कि उसके माइक्रोफिनांस यूनिट द्वारा महिलाओं को उनके छोटे छोटे कामों के लिए लोन दिया जाता है. जो उन्हें किसी सरकारी बैंक से उपलब्ध नहीं हो सकता था. इसी लोन से वह अपना खुद का कोई व्यापार शुरू कर रही हैं और खुद को रोजगार उपलब्ध करा रही हैं. अगर आप किसी की मदद कर पाने में सक्षम हैं तो इससे अधिक आपकी जिंदगी सामर्थ क्या होगी. मेरा मानना है कि जिंदगी में अगर कोई आर्थिक परेशानी से निजाद पा ले तो वह बेहद खुश हो सकता है. यही वजह है कि हमने यह काम शुरू किया. खासतौर से महिलाओं का आर्थिक रूप से स्वतंत्र होना बेहद जरूरी है. अगर वे आर्थिक रूप से मजबूत हो जायें तो किसी घर की व पूरे गांव की समस्या का हल जल्द ही निकल आता है. मैं मानती हूं कि मैंने एक बीज बो दिया है, अब अगर सलीके से काम किया गया तो यह पूरा पेड़ कई आनेवाली पीढ़ियों को फल देगा. कोशिश यही है कि हर गांव में महिलाओं समेत हर व्यक्ति को शिक्षा व रोजगार मिले, ताकि वह अपनी जिंदगी को खुशहाल तरीके से जी सके. एक लौ जला दी है. आगे मशाल कब तक जलेगी यह तो यहां के गांववालों की एकता व लगन पर ही निर्भर करता है. क्योंकि लौ तो छोटी ही होती है, लेकिन उसके प्रकाश का फैलाव बहुत होता है.
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