चीनी कम और पा जैसी यादगार फिल्में एक साथ दे चुकी अमिताभ बच्चन और आर बाल्की की जोड़ी फिल्म षमिताभ से वापस आ रही हैं. सदी के महानायक अमिताभ बच्चन बाल्की को खास निर्देशक करार देते हैं. उनका मानना है कि बाल्की हमेशा उनके सामने एक नयी चुनौती रखते हैं.
षमिताभ किस तरह की फिल्म है. धनुष का ष अमिताभ का मिताभ मिलकर षमिताभ बना है. फिल्म का यह शीर्षक रखने की क्या वजह थी.
ये अद्भुत फिल्म की कहानी है. अजीब सी कहानी है. हिंदी फिल्म जगत में पहली बार ऐसी फिल्म बनी है. ऐसा मुझे जहां तक मालूम है. वैसे षमिताभ नाम सिर्फ इसलिए नहीं रखा गया है कि सेशेंनल हो.आमतौर पर लोग सेशेंनल क्रिएट करने के लिए ऐसा नाम रखते हैं. ये शीर्षक फिल्म की कहानी है. कहानी बनाते समय ही यह तय हो गया था कि फिल्म का यही नाम होगा. जब आप फिल्म देखेगी तब आपको पता चलेगा कि यही शीर्षक होना चाहिए था. फिल्म की कहानी धनुष और अ्िमताभ की है. दोनों में अलग अलग खूबियां है. एक में जो है. दूसरे में नहीं लेकिन दोनों मिलकर अच्छा कर सकते हैं. अक्षरा जो कि एक जर्नालिस्ट का किरदार निभा रही है.इस बात को समझती है दोनों को साथ में लाने का प्रयत्न करती है. किस तरह से एक हो जाने पर वो ऊंचाइयों को छूते हैं लेकिन फिर अहम आ जाते हैं. इगो आ जाते हैं. उसी पर फिल्म है. अभी के लिए आपको इतना ही बता सकता हूं.
आपने इस फिल्म में एक गीत भी गाया है. एक गायक के तौर पर भी आप सशक्त उपस्थिति दर्शा रहे हैं.
अरे तौबा, गायकी के बारें में कुछ नहीं पता. मुझे गाना वाना आता नहीं है. कुछ ऐसी परिस्थितयां बन जाती है. जब निर्माता निर्देशक मुझसे कहते हैं कि आप ही गाईए. अच्छा लगेगा. इस फिल्म में जो मैंने गाया है इसकी भी एक कहानी है.आप जब फिल्म देखेंगी तब आपको मालूम होगा कि मेरी आवाज परफेक्ट थी.
संगीत से आपका कितना जुड़ाव है.
प्रत्येक शख्स के अंदर संगीत होता है. आपके भीतर भी है. मैं बस सीखने की कोशिश करता रहता हूं.
इस फिल्म में आपके साथ धनुष और अक्षरा जैसे युवा कलाकार है. रजनीकांत और कमल हसन के साथ आप काम कर चुके हैं.
धनुष सुपरस्टार हैं. अक्षरा का अलग ही व्यक्तिव है. उनकी यह पहली फिल्म है. उन्हें थोड़ा और समय दीजिए कुछ भी फैसला करने से पहले. नयी पीढ़ी से मैं बहुत आकर्षित हूं. लगन से उनकी क्षमता से. सभी बहुत प्रबल है. उनके काम को देखता हूं तो चकित रह जाता हूं. हमारे सेट पर जो आम उम्र होती है. वो पच्चीस से तीस होती है. वहां मैं ७२ का हूं. किस तरह का काम करते हैं. सभी से मैं सीखने की कोशिश करता हूं. वैसे कैमरा आॅन होते ही हम एक्टर हो जाते हैं. फिर उम्र मायने नहीं रखती है. क्यों नहीं जब हम काम करते हैं तो मै ंफादर फिगर हूं. हम सब कलाकार है. कैमरा जब शुरु होते हैं.
पा में आपका लुक चर्चा का विषय बना हुआ था इस फिल्म में आपने अपने लुक के लिए क्या किया था.
बाल्की ने इस फिल्म में भी मेरे लुक के साथ एक्सपेरिमेंट किया है. अमिताभ चिडचिड़ा सा शराब में लिप्त रहता है. इस तरह का इंसान ऐसा ही दिखेगा. बाल्की की यह धारणा थी. जिसके बाद ही मेरा लुक तैयार हुआ. वैसे पा में मेरे मेकअपमैन डोमिनी ने इस फिल्म में भी लॉस एंजिल्स से खास मेरे लिए आए थे. मेरे मेकअप मैन दीपक सांवत के साथ मिलकर उन्होंने मेरा मेकअप किया. पा में पांच घंटे मेकअप के लिए लगते थे इस फिल्म में ढाई घंटे लगे.
चीनी कम और पा दोनों ही फिल्मों में आप अभिनय के सर्वेश्रेष्ठ मुकाम को छूते दिखे क्या आपको लगता है कि एक निर्देशक के तौर पर बाल्की आपसे सर्वश्रेष्ठ अभिनय करा जाते हैं.
नहीं ऐसा नहीं कहूंगा. कई निर्देशकों ने मुझे ऐसा मौका दिया है. हां यह जरुर है कि बाल्की ऐसी भूमिकाएं देते हैं. जो हमने कभी पहले नहीं किया है. एक्टर होने का यही लुत्फ है कि आपको कुछ अलग करने का मौका मिले. हम ब्लोटिंग पेपर की तरह है. हम चाहते हैं कि हम पर कोई स्याही फेकें. हम उसे अपने अंदर खींच सके.
यह बाल्की के साथ आपकी तीसरी फिल्म है. ऐसे में क्या इस बार कंफर्ट लेवल ज्यादा होता है.
बाल्की के साथ मैंने जब काम शुरु किया था तब वे एड फिल्ममेकर थे. तब से ही एक लगाव था. एक कंफर्ट लेवल था. जब फिल्मों में आए तो वही चलता रहा वैसे एक डायरेक्टर के साथ वो लगाव होना चाहिए. लगाव होने से आपकी पहचान बन जाती है. जो भी आपके भीतर उस किरदार से मिलता जुलता छिपा है. वो बाहर आ जाता है. इसके साथ ही व्यक्तित्व से जुड़ी भी कई बातें जानने को मिल जाती है. जो शूटिंग के दौरान जरुरी होती है. जैसे मुझे सेट पर ज्यादा लोग पसंद नहीं है. मैं ज्यादा भीड़ के सामने शूटिंग करने में सहज नहीं हो पाता हूं. यह बात बाल्की समझते हैं. वैसे सेट पर कम लोग होते हैं तो इसका फायदा यह मिलता कि हम आराम से सिंक साऊंड में फिल्म की शूटिंग कर ली. सिंक साऊंड जरुरी है क्योंकि कई बार हम शूटिंग के वक्त अपने किरदार में इस कदर रच बस जाते हैं कि जरुरी नहीं कि डबिंग के वक्त भी हम उसी मोड़ में चले जाए.
फिल्म से जुड़ने से पहले कितना होमवर्क करना पड़ता है.
बहुत सारा. आपको लगेगा कि मैं झूठ बोल रहा हूं लेकिन यह सच है. मैं कई बार अपने किरदार को नहीं समझ पाता हूं. क्या एक्सप्रेशन हो यह नहीं समझ पाता. इस फिल्म के दौरान मैं बाल्की से पूछता.जब हम स्क्रिप्ट डिश्कसन पर बैठते हैं. काफी समय बिताया. किस तरह का किरदार है. कैसे डायलॉग बोलेगा. वैसे आजकल तो बहुत अच्छी मैनेजमेट टेक्निक हो गयी है. वर्कशॉप होती है. एक जगह बैठकर स्क्रिप्ट रिडिंग होती है. सबकुछ क्लीयर हो जाने के बाद यह सब अंत में कैमरा शुरु होता है. फिर जो भी छोटी मोटी चीजें होती है. उन्हें निर्देशक शूटिंग के दौरान चेंज कर देता है. वैसे षमिताभ की पूरी स्क्रिप्ट को मैंने रिकॉर्ड किया है. रिकॉड करने के बाद सुनकर हमने परफॉर्म र् किया .कई बार हमें पता नहीं होती कि हमारी मुद्रा क्या होगी. इस तरह से रिकॉर्ड सुनकर करने से आसानी होती है.
बाल्की की फिल्म में ह्यूमर के साथ साथ एक संदेश भी निहित होता है. इस फिल्म में ऐसा अलग क्या है.
षमिताभ से संबधित यह बात है कि कई बार हम सोच लते हैं. हमारे पास जो है. वो कम है. उसका मूल्य हम नहीं पहचान पाते हैं. जब वो चला जाता है तभी हमें कीमत का एहसास होता है. मोबाइल आपके पास है तो आप इधर उधर रख दे. खो जाएगा तो उसके खास होने का एहसास होगा. मैं यहां पर अपना एक उदाहऱण देना चाहूंगा. एक बार मेरा हाथ उठ गया था. बम में. पूरा मांस का ढेर.तंदूर चिकन सा बन गया था. ये कुछ नहीं था. अंगुलिया बी नहीं थी. प्रतिदिन मांस काट काट के सब ये धीरे धीरे बनाया गया. मेरे हाथ का वेब देखिए पिघल गया. जब यह चला गया तब मैंने महसूस किया कि यह कितना जरुरी है. मैं इसके बिना शर्ट पैंट नहीं पहन सकता है. टॉयलेट तक नहीं जा सकता हूं. मुझे किसी की मदद चाहिए. शुक्र है मैंने अपना हाथ फिर से पा लिया. ऐसा मौका जिंदगी बहुत कम लोगों को देती है. सो जो भी आपके पास है. उसका मूल्य पहचानिए.
आपके सामाजिक कार्यो में इन दिनों क्या नया हो रहा है.
सबसे बड़ा कार्य पोलियो का था. आठ साल का प्रयत्न था. भारत अब पोलियो मुक्त हो गया है लेकिन इसका श्रेय मुझे नहीं उन वर्करों को जाता है. जो तमाम विपरित परिस्थितियों में हर बच्चे तक पहुंच कर उन्हें दो बूंद जिंदगी की पिलायी. इस पर एक डॉक्यूमेंट्री भी बनी है. जिससे आपको मालूम होगा कि वर्कर असली हीरो है. हम लोग प्रचार करते हैं.हमारे चेहरे और आवाज की वजह से ज्यादा मानते हैं लेकिन उसका एक्चुल प्रैकिट्ल कैसे होता है. यह किसी वर्कर से जानए. जो विरोध का भी सामना किया है. कोई कहता है कि जहर है बच्चे खराब है. एक कम्युनिटी बोलती है हमारे यहां नहीं चलती है. ऐसे में भारत को पोलियो मुक्त होना बहुत बड़ी उपलब्धि है. वैसे आसपास के पड़ोसी देश जो है. उनकी वजह से खतरा अभी पूरी तरह से टला नहीं है. पोलियो के अलावा मैं डायबिटिज, टीबी और हेपिटाइटिस के बारे में भी काम कर रहा हूं. टीबी और हेपिटाइटीज बी के लिए इसलिए भी आकर्षित हुआ हूं क्योंकि मैं खुद इनसे ग्रसित रह चुका हूं. मैं इसलिए बता रहा हूं कि यह किसी को भी हो सकता है. हेपिटाइटिस स मैं उस वक्त ग्रसित हु्आ जब मेरा १९८२ में एक्सीडेट हुआ था. ६० से १०० बोतल खून गया था. जो उस वक्त डिटेक्ट नहीं हो पाया था. कुछ तीस साल के बाद वो डिटेक्ट हुआ. ये मुझे दस साल पहले मुझे पता चला कि मेरा लीवर ७५ प्रतिशत खराब हो गया है २५ प्रतिशत पर जीवित हूं. अगर आप सही समय पर पक़ड सके और इळाज करे तो लीवर आप पांच प्रतिशत पर भी जीवित रह सकते हैं. मैं महान हूं यह बताने के लिए नहीं कह रहा. मैं इसलिए कह रहा हूं ताकि समय रहते आप अपनी बीमारी का इलाज कराएं.
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