शिवकर तलपड़े ने दुनिया का पहला अनमैन्ड प्लेन बनाया था. लेकिन इस बारे में काफी कम लोगों को जानकारी है. ऐसे दौर में जहां बायोपिक भी लोकप्रिय हस्तियों के ही बनाये जा रहे थे. निर्देशक विभु पुरी ने एक अलग विषय चुना और अलग मिजाज से इस फिल्म का निर्माण किया है. ऐसी विषयपरक आमतौर पर मराठी फिल्मों में ही नजर आ रही थी. लेकिन विभु पुरी अपनी पहली ही फिल्म से एक उम्मीद की किरण लेकर आते हैं कि वे अलग मिजाज की फिल्में बनायेंगे. पीरियड फिल्में बनाना आसान काम नहीं. लेकिन जोखिम वही उठाते हैं जो जज्बा रखते हैं.
शुरुआत
मैं दिल्ली से हूं. मैंने जामिया से मास कम्युनिकेशन किया. लेकिन मैं वहां भी बोर होने लगा था. फिर मैंने एडवटाइजिंग में काम किया.लेकिन वहां भी मैं बोर हो गया था. मैं उस वक्त समझ ही नहीं पा रहा था कि दरअसल मैं क्या करना चाहता हूं. मेरे माता पिता को भी समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करना चाहता हूं. मुझे ये नहीं पता था कि मुझे क्या करना है. लेकिन मुझे ये पता था कि मुझे क्या नहीं करना है. लेकिन जब मैं पुणे के फिल्म इंस्टीटयूट में आया. उस वक्त मैंने महसूस किया कि मैं जिस चीज की तलाश में था. वह यही है. मैं यही आना चाहता था. मेरा मानना है कि फिल्म इंस्टीटयूट आपको वह माहौल देता है कि आप फिल्मों के बारे में सोच सकें. आप घंटों सिर्फ फिल्मों की बातें करें. अपने आप से मिलें कि आखिर आप करना क्या चाहते हो. मैं ये सारी चीजें बहुत एंजॉय कर रहा था और यही वजह है कि मैं खुशी खुशी पढ़ाई करने लगा. मैंने डायरेक् शन में कोर्स पूरा किया. आमतौर पर 3 साल में कोर्स पूरा हो जाता है. मगर मैंने 4 साल में पूरा किया ताकि वहां थोड़ा वक्त दे सकूं और सीख सकंू. मैं डेस्टनी में बिलिव करता हूं. मेरा मानना है कि भगवान ने मुझे यह विषय दिया है कि मैं इस पर फिल्म बनाऊं. मैं अब भी अगर कंफ्यूज होता हूं तो मैं इंस्टीटयूट चला जाता हूं और वहां से मुझे फिर से आइडिया मिलता है तो वापस आ जाता हूं. मेरे लिए फिल्म इंस्टीटयूट मेरा क्रियेटिव हाउस है.
मौके मिले
जब मैंने इंटरेंस दिया था. उस वक्त भीड़ बहुत थी डायरेक् शन में. लेकिन काफी भीड़ में मेरा चयन हुआ तो मैंने महसूस किया कि मैं यह काम अच्छे तरीके से कर सकता हूं. फिर उसी दौरान विशाल भारद्वाज आये थे वह ब्लू अंब्रेला बना रहे थे. मैंने उनसे कहा कि मैं आपको अस्टिट करना चाहता हूं. तो उन्होंने कहा आ जाओ. मैं चला गया. वहां काफी सीखा. फिर संजय लीला भंसाली आये थे कॉलेज़. वहां उन्होंने मेरा काम देखा था तो उन्होंने कहा कि कोर्स खत्म करने के बाद मेरे पास आ जाओ. उस वक्त मेरे दोस्तों को भी लगा कि अरे वाह इसे तो अब मुंबई में जाकर स्ट्रगल भी नहीं करना होगा. मंै रातों रात वहां का स्टार बन गया था. जहां सब सोच रहे थे कि उन्हें जाकर स्ट्रगल करना होगा. वहां पांच लोग एक साथ रहेंगे. वैसे में मुझे मौका मिल चुका था. मैं भी कहूंगा कि मुझे उस तरह से स्ट्रगल नहीं करना पड़ा. मैंने भंसाली सर के साथ काफी काम किया. सांवरिया में मैंने पोस्ट अस्टिेंट काम किया था. मैंने उनके साथ फिल्म लिखी. फिर गुजारिश के डॉयलॉग और उसके गाने लिखे. फिर शीरीन फरहाद लिखी. मैंने अपनी भी एक स्क्रिप्ट लिखी थी चनाब गांधी. लेकिन वह फिल्म बन नहीं बन पायी. लेकिन एक वक्त के बाद मुझे लगा कि मुझे अपने कंफर्ट जोन से निकल कर अपने आकाश की तलाश तो करनी ही होगी. मुझे लगा कि अगर बरगद बनना है तो बरगद के नीचे रह कर नहीं बन सकते. तभी मैं अच्छा निर्देशक कहला सकंूगा. जो मैं करना चाहता हूं.कर सकूंगा. मैं नहीं चाहता था कि भंसाली सर से कहूं कि वह मेरी फिल्म बना दें. मैं चनाब गांधी पर फिल्म बनाना चाहता था. लेकिन उस वक्त बात नहीं बन पायी. फिल्म बन नहीं पायी. हालांकि मैं उस विषय से बहुत जुड़ा हुआ था. मैं अपने तरीके से कुछ करना चाहता था और उसी दौरान मेरे मन में बस यह ख्याल आया कि कोई व्यक्ति है जो हवाई जहाज बना देता है. लेकिन लोगों को इसके बारे में पता ही नहीं. मैं इस फिल्म के माध्यम से उन्हें बस ट्रीब्यूट देने की कोशिश कर रहा हूं. शेष कुछ नहीं. मैं इस बहसबाजी में नहीं पड़ना चाहता कि क्या मैं जो दिखा रहा सही है या नहीं. बस मैं एक बात जानता हूं कि एक व्यक्ति ने इतना बड़ा काम किया. लेकिन उन्हें वह सम्मान हासिल नहीं हुआ. बस इसी भाव से मैंने यह फिल्म बनाई है.
पीरियड फिल्म
पीरियड फिल्म बनाना मुश्किल काम है. निश्चित तौर पर.चूंकि शिवकर तलपड़े के बारे में काफी कम जानकारी थी. इसलिए हम इसे फिक् शन बायोपिक बोल रहे. चूंकि हमने खुद कई चीजें जोड़ी हैं फिल्म में. उस दौर में कैसा माहौल होता होगा. लोग कैसे बातें करते होंगे. घोड़ा व तांगा कैसा होगा. कपड़े कैसे होंगे. हमने कई कॉस्टयूम खुद से भी बनाये. काफी कुछ खुद क्रियेट किया. तो इन चीजों में काफी वक्त लगा मुझे. लेकिन मुझे संतुष्टि है कि आखिरकार इस विषय को मूल रूप दे पाया.
क्रियेटिव काम
मुझे पढ़ना लिखना बहुत अच्छा लगता है और पढ़ाई लिखाई के दौरान ही यही विषय मुझे मिला और मुझे लगा कि मुझे इस पर फिल्म बनानी चाहिए. चनाब गांधी पर फिल्म नहीं बनी तो मुझे बहुत दुख हुआ था. मैं अपनी किसी फिल्म को वेंचर नहीं कहता. मैं उसे अपना बच्चा कहता हूं. मेरी इच्छा थी कि मैं जेआरडी टाटा पर फिल्म बनाऊं. मैंने कहीं पढ़ा था कि हिंदुस्तान में जो पहला लाइसेंस इश्यू हुआ था वह जेआरडी टाटा को हुआ था तो मुझे यह विषय रोचक लगा. मुझे यह भी जानकारी मिली कि उस वक्त मुल्क एक था और जो पहला जहाज उन्होंने उड़ाया था वह कराची से बांबे के लिए के लिए था. मेरे लिए यह दिलचस्प था. लेकिन िकसी ने उसी दौरान शिवकर तलपड़े के बारे में ये अदभुत जानकारी दी. तो मैं चौका. उसके बाद मैंने इस विषय पर रिसर्च शुरू किया और मुझे लगा कि ये कहानी लोगों तक पहुंचानी ही चाहिए. मेरे लिए अब यही चुनौती थी कि जो नहीं हैं. उनकी पूरी कहानी लोगों तक पहुंचानी है. और इस विषय पर काफी कम दस्तावेज थे. लेकिन मैंने लोगों से मिलना शुरू किया. रिसर्च किया और तब जाकर यह फिल्म बनी.
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