चांद तन्हा है और आसमां तन्हा, दिल मिला है कहां कहां तन्हा..गजल की यही दो पंक्तियां इसे गढ़नेवाले के दर्द को साफ साफ बयां कर रहे हैं. बूझ गयी आस...छुप गया तारा...उनके लिखे एक एक शब्द दरअसल, उनकी जिंदगी के अफसानों को बयां करते हैं. उनके पास दौलत थी. शोहरत थी. चांद से उनका खास नाता था. शायद इसलिए चूंकि वह खुद चांद सी सुंदर थीं जो रातों में भी जगमगाती थीं और दूसरों के घरों को भी रोशन करती थी. ये और बात है कि उनके खुद के जीवन में कभी रोशनी ने एक बार भी झांकने की कोशिश नहीं की. फिल्मों के भारी कॉस्टयूम उस वक्त पहनना शुरू कर दिया, जब उन्हें खुद कपड़ें पहनने का सहुर भी न था.देखते देखते वह हिंदी सिनेमा की मीना बन गयी. हां, उस मीना पत्थर की तरह ही. चमकदार, खूबसूरत, शक्ल और सुरत भी ऐसी जैसे कुदरत ने खुद उन्हें फुर्सत से गढ़ा हो. फिल्म पाकीजा का गीत चलो दिलदार चलो, चांद के पार चलो दरअसल, मीना कुमारी की जिंदगी के ही एक हिस्से को दर्शाता है. किस्मत तो ऐसी कि रुपहले परदे पर उनकी वजह से फिल्मों ने खूब धन बटोरा. लेकिन असल जिंदगी में उनके पास तन्हाई के सिवा कुछ न था. जिस वक्त उनके हाथों में लेमन चुस होना चाहिए था और दुल्हन सी सजी गुड़ियां वाले खिलौने होने चाहिए थे. उस वक्त वह फिल्मों में कैमरे के सामने आ गयीं. अपने रंगमिजाज पिता अली बख्श की वजह से उन्हें मजबूरन केवल चार साल की उम्र से ही फिल्मों में प्रवेश करना पड़ा. बस फिर क्या था. एक बार जो परिवार को सोने की चिड़िया मिली. फिर वह चिड़िया उड़ती गयी, लेकिन सोना मिला परिवार को. फिल्म लेदरफेस में पहली बार मीना कुमारी ने बेबी मीना के नाम से बाल कलाकार के रूप में काम किया था. फिल्म बैजू बावरा ने उन्होंने पहली बार फिल्मी दुनिया में कदम रखा. इससे पहले वह माहजबीं बानो के नाम से जानी जाती थीं. लेकिन विजय भट्ट ने महजबीं को मीना कुमारी बना दिया. ये मीना फिल्मी दुनिया में खूब चमकी. खूबसूरत होने के साथ साथ अभिनय में उनका कोई सानी नहीं था. फिल्म पाकीजा, साहेब बीवी और गुलाम जैसी फिल्में उनके करियर की माइलस्टोन फिल्में साबित हुई. दिल एक मंदिर, नूरजहां, बहारों की मंजिल, मेरे अपने जैसी फिल्में उनके जीवन की महत्वपूर्ण फिल्में रहीं. फिल्मों से इतर मीना कुमारी का व्यक्तित्व बेहद प्रभावशाली था. मीना ने भले ही अपनी जिंदगी में बहुत गम देखे. लेकिन वे दूसरों की जिंदगी में हमेशा खुशियां भरने की कोशिश किया करती थीं. उन्होंने ही सबसे पहली बार बलराज साहनी को कहा था कि वह बेहतरीन अभिनेता हैं और उन्हें यूं साइड किरदार करके अपनी प्रतिभा का दुरोपयोग नहीं करना चाहिए. बलराज साहनी ने स्वयं इस बात की चर्चा अपनी आत्मकथा में की है. धर्मेंद्र भी फिल्मों में मीना कुमारी की वजह से ही आये. नरगिस मीना कुमारी के बेहद करीब थी. जब नरगिस काम पर जाती थीं तो वे मीना कुमारी के पास अपने बच्चों को छोड़ कर जाया करती थी. मीना नरगिस के बच्चों का ख्याल एक मासी की तरह रखती. तब्बसुम भी बताती हैं कि मीना कुमारी बेहद नेक दिल की बंदी थीं. उनसे किसी और का दर्द देखा नहीं जाता था. वे पैसों की लालसा नहीं रखती थीं. उनकी जिंदगी में जो रिक्त स्थान था. उसे सिर्फ प्यार से भरा जा सकता था. लेकिन सिर्फ वहीं न भर पाने की वजह से वे हमेशा तन्हाई में जीती रहीं. मीना कुमारी और निर्देशक कमाल अमरोही ने किसी दौर में निकाह किया. कमाल उस वक्त मीना के प्यार में पागल थे. लेकिन बाद में धीरे धीरे मीना कमाल के लिए भी केवल सोने की चिड़िया बन कर रह गयीं. चूंकि मीना कमाल की जिन फिल्मों में होतीं. वे फिल्में कामयाब होतीं. बाकी फिल्में नहीं. सो, कमाल ने मीना का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. ये बातें मीना को खलती थीं. लेकिन वह बेबस थी. मजबूर थीं. लोगों का मानना है कि पाकीजा फिल्म के निर्माण में उस वक्त 17 साल का समय लगा था. और इसकी वजह से ही मीना और कमाल दूर हुए . कमाल से अलग होने के बाद मीना ने धर्मेंद्र व प्रदीप कुमार में एक साथी की तलाश की. लेकिन वे यहां भी नाकामयाब रहीं. उस दौर में अशोक कुमार होमियोपैथी का इलाज करते थे. मीना के वे अच्छे दोस्त थे. उन्हें यह बर्दाश्त नहीं होता था. सो, वे मीना कुमारी को कई बार होमियोपैथी की दवाई दिया करते थे. लेकिन मीना जिंदगी से निराश हो चुकी थी. उनके जीवन का एकमात्र साथी शराब ही बन कर रह गया. उन्होंने बाद के दौर में फिल्मों के सेट पर भी शराब पीनी शुरू कर दी थी. मीना ने एक नायिका के रूप में हर तरह के किरदार निभाये. और उनकी अदाकारी का यह जादू था कि लोग उस दौर में केवल मीना के नाम से फिल्में देखने चले आते थे. उस दौर के पोस्टर्स में खासतौर से मीना कुमारी की तसवीरों को केंद्र में रख कर पोस्टर्स बनाये जाते थे. ताकि ज्यादा से ज्यादा दर्शक आ सकें. मीना कुमारी एक बार महाबलेश्वर से लौट रही थीं. उस वक्त एक दुर्घटना की शिकार हो गयी थीं. उस वक्त मीना कुमारी की उंगली कट गयी थी. लेकिन उन्होंने परदे पर यह कभी जाहिर नहीं होने दिया. उन्होंने लगभग हर फिल्म में इस अंदाज में दुपट्टा पकड़ा कि उनकी वह कटी उंगली कभी नजर ही नहीं आयी. मीना कुमारी की आंखें बचपन में काफी छोटी थी. तो उनके परिवार वाले उन्हें पहले चीनी कह कर बुलाते थे. इस बात से मीना काफी चिढ़ जाया करती थी. मीना को कमाल प्यार से मंजू कह कर बुलाया करते थे. और इसलिए मीना को अपना यह नाम काफी प्रिय था. मीना को बचपन से ही शेरो शायरी का भी शौक था. सो, वह जब शायर बनती तो खुद को नाज बना लेती थीं. उन्होंने एक दौर में कई गजल व नगमें लिखें और उन्हें खुद आवाज भी दी. आज भी आप यू टयूब पर उनकी आवाज में सुन सकते हैं. अपने फिल्मों की किरदारों की वजह से फिल्म इंडस्ट्री ने उन्हें ट्रेजेडी क्वीन माना. दरअसल, उनकी वास्तविक जिंदगी भी हमेशा ट्रेजेडी से भी भरी रही. मीना कुमारी की जिंदगी का सफर कुछ ऐसा ही रहा, कि चांद कुछ इस तरह तन्हाई में निकला और तन्हाई में ही ढल गया. तमाम बातों के बावजूद उनकी मदहोश कर देनेवाली सशक्त अभिनय का हिंदी सिनेमा जगत हमेशा कायल रहेगा. जब वह फिल्मों में रोती थी तो परदे के इधर बैठे दर्शक भी रो उठते थे. लेकिन फिर इस दुनिया ने कभी मीना के जीवन के दर्द को समझने की कोशिश नहीं की. वह अकेली जीती रहींं और अकेली ही तन्हाईयों से जूझ कर इस दुनिया से विदाई ले ली. वर्ष 1972 में पाकीजा रिलीज हुई और उसी वर्ष मीना ने दुनिया को अलविदा कह दिया.
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20130513
तन्हाई में निकला चांद तन्हाई में ही ढल गया
चांद तन्हा है और आसमां तन्हा, दिल मिला है कहां कहां तन्हा..गजल की यही दो पंक्तियां इसे गढ़नेवाले के दर्द को साफ साफ बयां कर रहे हैं. बूझ गयी आस...छुप गया तारा...उनके लिखे एक एक शब्द दरअसल, उनकी जिंदगी के अफसानों को बयां करते हैं. उनके पास दौलत थी. शोहरत थी. चांद से उनका खास नाता था. शायद इसलिए चूंकि वह खुद चांद सी सुंदर थीं जो रातों में भी जगमगाती थीं और दूसरों के घरों को भी रोशन करती थी. ये और बात है कि उनके खुद के जीवन में कभी रोशनी ने एक बार भी झांकने की कोशिश नहीं की. फिल्मों के भारी कॉस्टयूम उस वक्त पहनना शुरू कर दिया, जब उन्हें खुद कपड़ें पहनने का सहुर भी न था.देखते देखते वह हिंदी सिनेमा की मीना बन गयी. हां, उस मीना पत्थर की तरह ही. चमकदार, खूबसूरत, शक्ल और सुरत भी ऐसी जैसे कुदरत ने खुद उन्हें फुर्सत से गढ़ा हो. फिल्म पाकीजा का गीत चलो दिलदार चलो, चांद के पार चलो दरअसल, मीना कुमारी की जिंदगी के ही एक हिस्से को दर्शाता है. किस्मत तो ऐसी कि रुपहले परदे पर उनकी वजह से फिल्मों ने खूब धन बटोरा. लेकिन असल जिंदगी में उनके पास तन्हाई के सिवा कुछ न था. जिस वक्त उनके हाथों में लेमन चुस होना चाहिए था और दुल्हन सी सजी गुड़ियां वाले खिलौने होने चाहिए थे. उस वक्त वह फिल्मों में कैमरे के सामने आ गयीं. अपने रंगमिजाज पिता अली बख्श की वजह से उन्हें मजबूरन केवल चार साल की उम्र से ही फिल्मों में प्रवेश करना पड़ा. बस फिर क्या था. एक बार जो परिवार को सोने की चिड़िया मिली. फिर वह चिड़िया उड़ती गयी, लेकिन सोना मिला परिवार को. फिल्म लेदरफेस में पहली बार मीना कुमारी ने बेबी मीना के नाम से बाल कलाकार के रूप में काम किया था. फिल्म बैजू बावरा ने उन्होंने पहली बार फिल्मी दुनिया में कदम रखा. इससे पहले वह माहजबीं बानो के नाम से जानी जाती थीं. लेकिन विजय भट्ट ने महजबीं को मीना कुमारी बना दिया. ये मीना फिल्मी दुनिया में खूब चमकी. खूबसूरत होने के साथ साथ अभिनय में उनका कोई सानी नहीं था. फिल्म पाकीजा, साहेब बीवी और गुलाम जैसी फिल्में उनके करियर की माइलस्टोन फिल्में साबित हुई. दिल एक मंदिर, नूरजहां, बहारों की मंजिल, मेरे अपने जैसी फिल्में उनके जीवन की महत्वपूर्ण फिल्में रहीं. फिल्मों से इतर मीना कुमारी का व्यक्तित्व बेहद प्रभावशाली था. मीना ने भले ही अपनी जिंदगी में बहुत गम देखे. लेकिन वे दूसरों की जिंदगी में हमेशा खुशियां भरने की कोशिश किया करती थीं. उन्होंने ही सबसे पहली बार बलराज साहनी को कहा था कि वह बेहतरीन अभिनेता हैं और उन्हें यूं साइड किरदार करके अपनी प्रतिभा का दुरोपयोग नहीं करना चाहिए. बलराज साहनी ने स्वयं इस बात की चर्चा अपनी आत्मकथा में की है. धर्मेंद्र भी फिल्मों में मीना कुमारी की वजह से ही आये. नरगिस मीना कुमारी के बेहद करीब थी. जब नरगिस काम पर जाती थीं तो वे मीना कुमारी के पास अपने बच्चों को छोड़ कर जाया करती थी. मीना नरगिस के बच्चों का ख्याल एक मासी की तरह रखती. तब्बसुम भी बताती हैं कि मीना कुमारी बेहद नेक दिल की बंदी थीं. उनसे किसी और का दर्द देखा नहीं जाता था. वे पैसों की लालसा नहीं रखती थीं. उनकी जिंदगी में जो रिक्त स्थान था. उसे सिर्फ प्यार से भरा जा सकता था. लेकिन सिर्फ वहीं न भर पाने की वजह से वे हमेशा तन्हाई में जीती रहीं. मीना कुमारी और निर्देशक कमाल अमरोही ने किसी दौर में निकाह किया. कमाल उस वक्त मीना के प्यार में पागल थे. लेकिन बाद में धीरे धीरे मीना कमाल के लिए भी केवल सोने की चिड़िया बन कर रह गयीं. चूंकि मीना कमाल की जिन फिल्मों में होतीं. वे फिल्में कामयाब होतीं. बाकी फिल्में नहीं. सो, कमाल ने मीना का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. ये बातें मीना को खलती थीं. लेकिन वह बेबस थी. मजबूर थीं. लोगों का मानना है कि पाकीजा फिल्म के निर्माण में उस वक्त 17 साल का समय लगा था. और इसकी वजह से ही मीना और कमाल दूर हुए . कमाल से अलग होने के बाद मीना ने धर्मेंद्र व प्रदीप कुमार में एक साथी की तलाश की. लेकिन वे यहां भी नाकामयाब रहीं. उस दौर में अशोक कुमार होमियोपैथी का इलाज करते थे. मीना के वे अच्छे दोस्त थे. उन्हें यह बर्दाश्त नहीं होता था. सो, वे मीना कुमारी को कई बार होमियोपैथी की दवाई दिया करते थे. लेकिन मीना जिंदगी से निराश हो चुकी थी. उनके जीवन का एकमात्र साथी शराब ही बन कर रह गया. उन्होंने बाद के दौर में फिल्मों के सेट पर भी शराब पीनी शुरू कर दी थी. मीना ने एक नायिका के रूप में हर तरह के किरदार निभाये. और उनकी अदाकारी का यह जादू था कि लोग उस दौर में केवल मीना के नाम से फिल्में देखने चले आते थे. उस दौर के पोस्टर्स में खासतौर से मीना कुमारी की तसवीरों को केंद्र में रख कर पोस्टर्स बनाये जाते थे. ताकि ज्यादा से ज्यादा दर्शक आ सकें. मीना कुमारी एक बार महाबलेश्वर से लौट रही थीं. उस वक्त एक दुर्घटना की शिकार हो गयी थीं. उस वक्त मीना कुमारी की उंगली कट गयी थी. लेकिन उन्होंने परदे पर यह कभी जाहिर नहीं होने दिया. उन्होंने लगभग हर फिल्म में इस अंदाज में दुपट्टा पकड़ा कि उनकी वह कटी उंगली कभी नजर ही नहीं आयी. मीना कुमारी की आंखें बचपन में काफी छोटी थी. तो उनके परिवार वाले उन्हें पहले चीनी कह कर बुलाते थे. इस बात से मीना काफी चिढ़ जाया करती थी. मीना को कमाल प्यार से मंजू कह कर बुलाया करते थे. और इसलिए मीना को अपना यह नाम काफी प्रिय था. मीना को बचपन से ही शेरो शायरी का भी शौक था. सो, वह जब शायर बनती तो खुद को नाज बना लेती थीं. उन्होंने एक दौर में कई गजल व नगमें लिखें और उन्हें खुद आवाज भी दी. आज भी आप यू टयूब पर उनकी आवाज में सुन सकते हैं. अपने फिल्मों की किरदारों की वजह से फिल्म इंडस्ट्री ने उन्हें ट्रेजेडी क्वीन माना. दरअसल, उनकी वास्तविक जिंदगी भी हमेशा ट्रेजेडी से भी भरी रही. मीना कुमारी की जिंदगी का सफर कुछ ऐसा ही रहा, कि चांद कुछ इस तरह तन्हाई में निकला और तन्हाई में ही ढल गया. तमाम बातों के बावजूद उनकी मदहोश कर देनेवाली सशक्त अभिनय का हिंदी सिनेमा जगत हमेशा कायल रहेगा. जब वह फिल्मों में रोती थी तो परदे के इधर बैठे दर्शक भी रो उठते थे. लेकिन फिर इस दुनिया ने कभी मीना के जीवन के दर्द को समझने की कोशिश नहीं की. वह अकेली जीती रहींं और अकेली ही तन्हाईयों से जूझ कर इस दुनिया से विदाई ले ली. वर्ष 1972 में पाकीजा रिलीज हुई और उसी वर्ष मीना ने दुनिया को अलविदा कह दिया.
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