मैं ने फिल्में देखने का तरीका सीखा बाइसाइकिल थीफ से. इसी फिल्म से मैंने फिल्में देखने का नजरिया सीखा. न सिर्फ सीखा बल्कि यह भी जानने की कोशिश की, कि फिल्में सिर्फ एंटरटेनमेंट का जरिया नहीं होती हैं, बल्कि उससे बढ़ कर भी बहुत कुछ होती है. निस्संदेह इस फिल्म में एंटरटेनमेंट भी है. लेकिन ह्मुमन इमोशन भी है और इसी वजह से यह फिल्म आपको एक अलग ही दुनिया में पहुंचा देती है. एक सीन में जहां एक आदमी साइकिल चुराता है और फिर उसे सभी पीटते हैं और खड़ा बच्चा देख कर रोता रहता है. वह सीन मेरे जेहन में हमेशा जिंदा रहता है. उस बच्चे को देख कर लगता है कि वह खुद मैं हूं. उस पूरे सीन में जो इमोशन है. एक पिता और बच्चे का वह फिल्म के बाद भी आपके साथ रहता है. मुझे यह सीन देख कर अपने पिता की याद आती है. जिस तरह वह इमरजेंसी के वक्त भूख हड़ताल पर बैठे थे और आंदोलन कर रहे थे. पता नहीं क्यों वह सीन देखता हूं तो मुझे उन्हीं दिनों की याद आती है. यह फिल्म एक पिता पुत्र के रिश्ते पर बनी सबसे बेहतरीन फिल्म थी. इस फिल्म के इमोशन को देख कर ही मैंने सीखा कि फिल्मों में इमोशन का कितना अहम रोल होता है.यह फिल्म मैंने न जाने कितनी बार देखी होगी, लेकिन जब भी देखता हूं. आज भी रोता हूं. यह मेरे लिए सबसे अहम हिस्सा है. जिंदगी का. फिल्में बनाने की धुन शायद मैंने इसी फिल्म से सीखी है. एक फिल्मकार बाइसाइकिल थीफ जैसी फिल्म तभी बना सकता है, जब वह आम जिंदगी के जीवन से प्रभावित हो. फैंटेसी दुनिया में न जी रहा हो. और यही फिल्में आपको एक अलग लीक की फिल्में बनाने के लिए प्रेरित भी करती है. इसी फिल्म को देखने के बाद मैंने दो महीने के बाद अपना बैग पैक किया और निकल गया फिल्मों को जीने के लिए. और आ गया मुंबई में. आज मैं जो कुछ भी हो. इसी फिल्म की वजह से हूं. आज भी जब यह फिल्म देखता हूं तो नोस्कोलोजिक हो जाता हूं. बीते दिनों की याद आने लगती है. किसी सफल फिल्म की यही खूबी तो है कि उसके दर्शक उससे हमेशा जुड़े रहें अनुप्रिया
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20130513
बाइसाइकिल थीफ हर किसी की प्रेरणा
मैं ने फिल्में देखने का तरीका सीखा बाइसाइकिल थीफ से. इसी फिल्म से मैंने फिल्में देखने का नजरिया सीखा. न सिर्फ सीखा बल्कि यह भी जानने की कोशिश की, कि फिल्में सिर्फ एंटरटेनमेंट का जरिया नहीं होती हैं, बल्कि उससे बढ़ कर भी बहुत कुछ होती है. निस्संदेह इस फिल्म में एंटरटेनमेंट भी है. लेकिन ह्मुमन इमोशन भी है और इसी वजह से यह फिल्म आपको एक अलग ही दुनिया में पहुंचा देती है. एक सीन में जहां एक आदमी साइकिल चुराता है और फिर उसे सभी पीटते हैं और खड़ा बच्चा देख कर रोता रहता है. वह सीन मेरे जेहन में हमेशा जिंदा रहता है. उस बच्चे को देख कर लगता है कि वह खुद मैं हूं. उस पूरे सीन में जो इमोशन है. एक पिता और बच्चे का वह फिल्म के बाद भी आपके साथ रहता है. मुझे यह सीन देख कर अपने पिता की याद आती है. जिस तरह वह इमरजेंसी के वक्त भूख हड़ताल पर बैठे थे और आंदोलन कर रहे थे. पता नहीं क्यों वह सीन देखता हूं तो मुझे उन्हीं दिनों की याद आती है. यह फिल्म एक पिता पुत्र के रिश्ते पर बनी सबसे बेहतरीन फिल्म थी. इस फिल्म के इमोशन को देख कर ही मैंने सीखा कि फिल्मों में इमोशन का कितना अहम रोल होता है.यह फिल्म मैंने न जाने कितनी बार देखी होगी, लेकिन जब भी देखता हूं. आज भी रोता हूं. यह मेरे लिए सबसे अहम हिस्सा है. जिंदगी का. फिल्में बनाने की धुन शायद मैंने इसी फिल्म से सीखी है. एक फिल्मकार बाइसाइकिल थीफ जैसी फिल्म तभी बना सकता है, जब वह आम जिंदगी के जीवन से प्रभावित हो. फैंटेसी दुनिया में न जी रहा हो. और यही फिल्में आपको एक अलग लीक की फिल्में बनाने के लिए प्रेरित भी करती है. इसी फिल्म को देखने के बाद मैंने दो महीने के बाद अपना बैग पैक किया और निकल गया फिल्मों को जीने के लिए. और आ गया मुंबई में. आज मैं जो कुछ भी हो. इसी फिल्म की वजह से हूं. आज भी जब यह फिल्म देखता हूं तो नोस्कोलोजिक हो जाता हूं. बीते दिनों की याद आने लगती है. किसी सफल फिल्म की यही खूबी तो है कि उसके दर्शक उससे हमेशा जुड़े रहें अनुप्रिया
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