तब साउंड प्रूफ स्टूडियो नहीं था. फिल्म आलम आरा की रिकॉर्डिंग और डबिंग का काम देर रात उस वक्त होता था. जब मुंबई के सारे लोकल बंद हो जाते थे और स्टूडियो स्टेशन से पास ही था. सो, शोर शराबे की वजह से गाने की रिकॉर्डिंग नहीं हो पाती थी. यहां तक कि स्टूडियो में भी सबको एक चू की भी आवाज नहीं निकालने की हिदायत दी जाती थी. उस वक्त गाने ज्यादातर पेड़ पौधों के आसपास फिल्माये जाते थे. ताकि संगीत निर्देशक पेड़ के पीछे छुप कर संगीत दें और गायक गा सकें. उस वक्त गानों की अलग से रिकॉर्डिंग नहीं होती थी. यही वजह थी कि ऐसे कलाकारों का चुनाव होता था. जो अभिनय के साथ साथ गा भी सकें. तब फिल्मों का प्रोमोशन चिल्ला चिल्ला कर करते थे. हाथी , बैलगाड़ी पर फिल्मों के पोस्टर्स रख कर फिल्म का प्रचार किया जाता था. लेकिन आज के दौर में फिल्मों की मेकिंग से अधिक खर्च व ध्यान प्रोमोशन पर देते हैं. तकनीक में हिंदी सिनेमा ने सबको पीछे छोड़ दिया. लेकिन क्रियेटिविटी कहीं न कहीं चूक भी हो रही है. उस दौर में फिल्मों के क्रेडिट लाइन में फिल्म के गायक गायिकाओं का भी नाम जाया करता था. जबकि अब फिल्मों के गीतकार, संगीत निर्देशक का नाम तो क्रेडिट में होता है. मगर गायक गायिकाओं का नाम नहीं होता. इसके लिए कुछ सालों पहले सोनू निगम ने इस पर आपत्ति भी जताई थी. लेकिन सभी निर्देशकों के अपने अपने तर्क हैं. तब जमाना ग्रामोफोन, फिर आॅडियो कैसेट का था. वीसीपी में फिल्में दिखाई जाती थीं. लेकिन अब डिजाटलाइजेशन का दौर है. अब सीडी व डीवीडी उपलब्ध हैं. तब फिल्मों पर आधारित एक ही पुरस्कार समारोह होते थे. अब तो हर समूह के अपने अपने अवार्ड हैं.वर्तमान में एक दर्जन से भी अधिक फिल्म अवार्ड हैं. तब फिल्मों में नाडिया जैसी स्टंट अभिनेत्री भी थीं. अब वैसी बेकौफ अभिनेत्रियां नहीं.
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20130513
100 साल का सिनेमा : तब और अब
तब साउंड प्रूफ स्टूडियो नहीं था. फिल्म आलम आरा की रिकॉर्डिंग और डबिंग का काम देर रात उस वक्त होता था. जब मुंबई के सारे लोकल बंद हो जाते थे और स्टूडियो स्टेशन से पास ही था. सो, शोर शराबे की वजह से गाने की रिकॉर्डिंग नहीं हो पाती थी. यहां तक कि स्टूडियो में भी सबको एक चू की भी आवाज नहीं निकालने की हिदायत दी जाती थी. उस वक्त गाने ज्यादातर पेड़ पौधों के आसपास फिल्माये जाते थे. ताकि संगीत निर्देशक पेड़ के पीछे छुप कर संगीत दें और गायक गा सकें. उस वक्त गानों की अलग से रिकॉर्डिंग नहीं होती थी. यही वजह थी कि ऐसे कलाकारों का चुनाव होता था. जो अभिनय के साथ साथ गा भी सकें. तब फिल्मों का प्रोमोशन चिल्ला चिल्ला कर करते थे. हाथी , बैलगाड़ी पर फिल्मों के पोस्टर्स रख कर फिल्म का प्रचार किया जाता था. लेकिन आज के दौर में फिल्मों की मेकिंग से अधिक खर्च व ध्यान प्रोमोशन पर देते हैं. तकनीक में हिंदी सिनेमा ने सबको पीछे छोड़ दिया. लेकिन क्रियेटिविटी कहीं न कहीं चूक भी हो रही है. उस दौर में फिल्मों के क्रेडिट लाइन में फिल्म के गायक गायिकाओं का भी नाम जाया करता था. जबकि अब फिल्मों के गीतकार, संगीत निर्देशक का नाम तो क्रेडिट में होता है. मगर गायक गायिकाओं का नाम नहीं होता. इसके लिए कुछ सालों पहले सोनू निगम ने इस पर आपत्ति भी जताई थी. लेकिन सभी निर्देशकों के अपने अपने तर्क हैं. तब जमाना ग्रामोफोन, फिर आॅडियो कैसेट का था. वीसीपी में फिल्में दिखाई जाती थीं. लेकिन अब डिजाटलाइजेशन का दौर है. अब सीडी व डीवीडी उपलब्ध हैं. तब फिल्मों पर आधारित एक ही पुरस्कार समारोह होते थे. अब तो हर समूह के अपने अपने अवार्ड हैं.वर्तमान में एक दर्जन से भी अधिक फिल्म अवार्ड हैं. तब फिल्मों में नाडिया जैसी स्टंट अभिनेत्री भी थीं. अब वैसी बेकौफ अभिनेत्रियां नहीं.
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