फिल्म रिव्यू : बांबे टॉकीज
कलाकार : रानी मुखर्जी, नमन, रणदीप हुड्डा, शाकीब, विनीत कुमार
निर्देशक : जोया अख्तर, अनुराग कश्यप, दिबाकर बनर्जी, करन जौहर
रेटिंग : तीन स्टार
भारतीय सिनेमा को ट्रीब्यूट देने के लिए हिंदी सिनेमा के चार निर्देशकों ने बेहतरीन माध्यम चुना. अपनी फिल्म बांबे टॉकीज के माध्यम से उन्होंने श्रद्धांजलि देने की कोशिश की है. यह अच्छी पहल है. सोच व आइडिया भी बेहद अलग है. हिंदी सिनेमा में लंबे अरसे के बाद कुछ ऐसा प्रयास किया है, जिनके माध्यम से शॉट फिल्में निकल कर सामने आयी हैं. हालांकि अनुराग कश्यप कई वर्षों से ऐसे प्रयास कर रहे हैं, लेकिन फिल्मों को बड़े स्तर पर जिस तरह से रिलीज मिलना चाहिए था. वह नहीं मिल पाया था. सो, सबसे पहले इस प्रयास और पहल की बधाई. बधाई की पात्र आशी दुआ भी हैं, चूंकि बांबे टॉकीज की सोच उनकी ही थी. उन्होंने अदभुत तरीका निकाला भारतीय सिनेमा की सदी के जश्न का. बांबे टॉकीज चार अलग अलग कहानियां हैं और चार अलग अलग किरदारों की जिंदगी को बयां करती है. जिनमें अनुराग कश्यप की फिल्म, दिबाकर और जोया की फिल्में कहीं न कहीं फिल्मों को आम जिंदगी से जोड़ती है. लेकिन करन जौहर की फिल्म की कहानी में कहीं भी सिनेमा नहीं सिवाय गीत लग जा गले...करन जौहर ने फिल्म में रिश्तों के उलझन को उलझने की कहानी दर्शायी है. करन की फिल्म हमें मेट्रो शहर तक ही सीमित रखती है. लेकिन दिबाकर, अनुराग जोया की फिल्म हमें मुंबई से बाहर के आम लोग व सिनेमा पर उनके प्रभाव को दर्शाता है. अनुराग ने अपनी फिल्म के माध्यम से एक बेहतरीन कहानी कही है. इलाहबाद से आया विजय मुंबई आता है और उनका बस एक ही लक्ष्य है. वह अमिताभ से इसलिए नहीं मिलना चाहता क्योंकि वह अमिताभ का फैन है, बल्कि इसके पीछे उसका कोई और उद्देश्य है. बांबे टॉकीज की यह सबसे बेहतरीन कहानियों में से एक है. फिल्म के अंत में विजय के पिता उससे कहते हैं कि अचार के ब्वॉयम में मुरब्बा अच्छा नहीं लगता. यह संवाद ही फिल्म का सार है. अनुराग की अब तक की यह बेस्ट फिल्मों में से एक हैं. अनुराग जो समझाना चाहते हैं. वे इस फिल्म के माध्यम से दर्शकों तक पहुंचाने में कामयाब होते हैं. विनीत कुमार ने बेहतरीन इलाहाबादी अंदाज अपनाया है. गैंग्स आॅफ वासेपुर के बाद यह उनकी दूसरी फिल्म है और उन्होंने साबित कर दिया है कि वह वर्सेटाइल एक्टर हैं और आने वाले समय में हिंदी सिनेमा में श्रेष्ठ कलाकारों में से एक होंगे.
दिबाकर बनर्जी ने अपनी कहानी में एक एक्टर की जिंदगी को बखूबी दर्शकों के सामने प्रस्तुत करने की कोशिश की है. एक एक्टर नाकाम होता है. क्योंकि उसे एक साथ कई काम करने हैं. अगर आप कुछ बनना चाहते हैं तो फिर एक नाव पर ही पैर रखो. यह कहानी यही सिखाती है. फिल्म में नवाजुद्दीन ने जिस तरह किरदार निभाया है. लोगों को वे अपना मुरीद बना देते हैं. उनके चेहरे के एक्सप्रेशन, उनके हाव भाव कमाल के हैं. नवाजुद्दीन दर्शकों को हंसाने, रुलाने, डराने सबमें कामयाब हो रहे हैं. अब वह दिन दूर नहीं जब जल्द ही नवाजुद्दीन शीर्ष सितारों की श्रेणी में शामिल हो जायेंगे.
जोया अख्तर ने अपनी फिल्म में एक बच्चे को अपनी ख्वाहिश पूरी करते दिखाया गया है और उसे दिखाया गया है कि अगर वह अपनी ड्रीम को पूरा करना चाहता है तो उसे अपनी ड्रीम को ही फॉलो करना चाहिए. यह भी एक बेहतरीन मासूम सी कहानी है. नमन ने बेहतरीन किरदार निभाया है. बाल कलाकारों में वे लगातार फिल्मों में नजर आ रहे हैं और अपना श्रेष्ठ दे रहे हैं.
करन जौहर की फिल्म एक अखबार की एडिटर, उसके पति और आॅफिस में काम कर रहे एक इंटर्न के बीच के रिश्ते की कहानी है. फिल्म में रानी मुखर्जी ने बेहतरीन अभिनय किया है. लेकिन करन की यह कहानी कहीं से भी बांबे टॉकीज का हिस्सा न लग कर अलग कहानी लगती है. चूंकि एकमात्र इसी फिल्म में सिनेमा से कोई जुड़ाव नहीं दिखाया गया.
फिल्म के अंत में 100 साल के सिनेमा पर आधारित एक गीत फिल्माया गया है. जिसमें पुरानी फिल्मों के कुछ क्लीप्स दिखाये गये हैं. गीत में जब तक वे पुरानी फिल्मों के क्लीप्स व गुजरे जमाने के कलाकारों की तसवीर आती है. आप ीगीत को एंजॉय करते हैं. लेकिन बाद में जब एक पंक्ति में कलाकारों को दिखाया जाता है, तो वह कुछ खास अपीलिंग नहीं लगता. इस पूरे गाने को और सही तरीके से फिल्माया जा सकता था. कई लोग छूट जा रहे हैं और गाने के बोल भी बेहद हल्के लिख दिये गये हैं.
बहरहाल, हिंदी सिनेमा में जहां पूरी तरह से मसाला फिल्मों का दौर है. ऐसे में बांबे टॉकीज आपको राहत देती है. सिनेमा प्रेमियों को कम से कम एक बार तो यह फिल्म जरूर देखनी चाहिए.
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