शायर पीके नायर न होते तो दिलीप कुमार 20 सालों के बाद अपनी फिल्म मुगलएआजम नहीं देख पाते. पीके नायर साहब न होते तो जया बच्चन फिल्मों में न आतीं, पीके नायर साहब न होते तो एफटीआइआइ पुणे में सिनेमा देखना एक धर्म नहीं बन जाता. चूंकि वह पीके नायर साहब ही हैं जिन्होंने सिनेमा को अपनी सभ्यता का हिस्सा मान कर फिल्मों के संरक्षण की पहल की. वे फिल्मों को जीते हैं. वे फिल्मों के लिए जीते हैं. वे फिल्मों में जीते हैं. हिंदी सिनेमा के 100 साल के अवसर पर पीके नायर साहब के योगदान को अनदेखा नहीं किया जा सकता. जितनी तवज्जो आज भारतीय सिनेमा के अन्य निर्देशकों व कलाकारों को मिल रही है. उससे कहीं कम पीके नायर को नहीं मिलनी चाहिए. चूंकि पीके नायर ही इन सब के गुरु हैं. यह अफसोस की बात है कि इतने सालों के बाद एफटीआइआइ के ही एक विद्यार्थी रह चुके शिवेंद्र सिंह डुंगारपुर के जेहन में यह बात आयी कि वे अपने गुरु को समर्पित एक फिल्म का निर्माण करें. बेशक वह सेलोलॉयड मैन हैं. यह फिल्म 3 मई को रिलीज हो रही है. फिल्मों को जीनेवाले यह सख्स भी सम्मान के हकदार हैं और पीके नायर साहब को भी भारतीय सिनेमा के सर्वोच्च सम्मान दादा साहेब फाल्के से नवाजा जाना ही चाहिए. दादा साहेब फाल्के को भारतीय सिनेमा का पितामह बनाने का श्रेय भी नायर साहब को ही जाता है.
लाइट आॅफ एशिया रील नंबर 8, कालिया मर्दान रील नंबर 6,श्रीराज रील नंबर 7, ब्लू एंजल रील नंबर 7... ये किसी फिल्म का संवाद नहीं, बल्कि एक ऐसे शख्स के दिलो दिमाग पर छाया सिनेमा के प्रति पागलपन का ही नतीजा है. वे फिल्में नहीं बनाते, लेकिन फिल्मों को सहेजने के लिए हमेशा तत्पर रहे. बात हो रही है पीके नायर की, जिन्होंने भारत में सबसे पहली बार फिल्मों के संरक्षण की परंपरा को शुरू किया. नेशनल फिल्म आर्किइव आॅफ इंडिया के पहले संरक्षक पीके नायर के योगदान को भूला नहीं जा सकता. भारतीय सिनेमा के 100 साल के जश्न में पीके नायर के योगदान को भी बिल्कुल नजरअंदाज नहीं कर सकते. आज भारतीय सिनेमा के ऐसे कई निर्देशक हैं, जिन्होंने फिल्में बनाना या फिल्मों से रूबरू होना पीके नायर से ही सीखा. एफटीआइआइ, पुणे शुरुआती दौर से ही भारतीय सिनेमा को बेहतरीन निर्देशक व कलाकार देता रहा है. भारतीय सिनेमा के 100 साल के जश्न में जितने सम्मान के हकदार अन्य शख्सियत हैं, उतने ही पीके नायर भी. निर्देशक शिवेंद्र सिंह डुंगारपुर ने कुछ ऐसी ही अहमियत समझ कर पीके नायर पर सेलोलोइड मैन नामक एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म का निर्माण किया है. जिसे इसी वर्ष दो राष्टÑीय पुरस्कार भी दिये गये हैं. साथ ही यह फिल्म कई फिल्मोत्सव में भी सराही व पुरस्कृत हो चुकी है. सेलोलॉयड मैन भारतीय सिनेमा की एक महत्वपूर्ण डॉक्यूमेंट्री है, जिन्हें सिनेमा से प्यार करनेवाले हर शख्स को अवश्य देखना चाहिए. चूंकि इस फिल्म को देखने के बाद ही हम पीके नायर साहब के योगदान को समझ पायेंगे. पीके नायर साहब की वजह से आज भारतीय सिनेमा का अपना अर्काइव है. बावजूद इसके कि आज भी सिनेमा के विकास को लेकर सरकार बहुत अधिक तत्पर नहीं, पीके नायर साहब जैसे शख्स ने कई फिल्मों को जिंदा रखा. न सिर्फ भारतीय फिल्में बल्कि वर्ल्ड की भी कई फिल्में पीके नायर साहब की वजह से ही है. इस फिल्म को देखने के बाद एफटीआइआइ से बाहर के छात्र भी इस बात से अवगत हो पायेंगे कि आखिर क्या वजह है कि एफटीआइआइ पुणे के बच्चे सिनेमा की इतनी अच्छी समझ रख पाते हैं. इस फिल्म को देखने के बाद ही आप महसूस कर पायेंगे कि एक व्यक्ति जो फिल्म नहीं बनाता. लेकिन फिर भी कैसे उसे अपने जिंदगी का अहम हिस्सा मानता है. सिनेमा के लिए पागलपंती क्या होती है. यह फिल्म देखने के बाद ही आप इस बात का एहसास कर पायेंगे. चूंकि वहां फिल्मों को कल्चर का एक हिस्सा माना जाता है और वहां अधिक से अधिक दुनियाभर की फिल्में दिखाई जाती हैं. ये फिल्में भारत तक इसलिए पहुंच पायी हैं चूंकि पीके नायर साहब जैसे शख्स ने अपनी धुन से इसे संवारा है. यह पीके नायर साहब का ही प्रयास है कि उन्होंने भारत की पहली बोलती फिल्म से लेकर दादा साहेब फाल्के की अधिकतर फिल्मों को बकायदा रील में संरक्षित किया है.यह पीके नायर साहब का ही कमाल है, जिसकी वजह से दिलीप कुमार साहब ने 20 सालों के बाद अपनी फिल्म मुगलएआजम देखी. पीके नायर साहब की वजह से आज सिनेमा कल्चर का हिस्सा बनी. अभिनेता अशोक कुमार एक बार जब एफटीआइआइ आये तो उन्होंने पीके नायर से पूछा कि क्या आपके पास अछूत कन्या के रील होंगे. नायर साहब का जवाब था कि न सिर्फ अछूत कन्या बल्कि उससे पहले की अशोक कुमार की फिल्में भी उनके पास हैं. अशोक कुमार चकित थे और खुश भी.
बकौल जया बच्चन अगर पीके नायर साहब न होते तो शायद मैं दुनिया की तमाम बेहतरीन फिल्में नहीं देख पाती. मुझे याद है. जब मैं एफटीआइआइ पुणे में थी. उस वक्त सिर्फ मुझे रात में फिल्में देखने की छूट मिली थी और वह नायर साहब ही थे, जिन्होंने हॉस्टल से मुझे परमिशन दिलवाई थी. चूंकि उन्हें अच्छा लगता था कि उनके विद्यार्थी फिल्में देख रहे हैं. मैं मानती हूं कि पीके नायर साहब ने भारत में जितने फिल्मोत्सव करवाये होंगे. शायद ही किसी ने करवाया होगा.
बकौल राजकुमार हिरानी
हम होली के दिन मौजमस्ती करने के लिए सारे गानों की लिस्ट पीके नायर साहब को देते थे और वह फौरन वे सारी फिल्में अपने खजाने में से निकाल कर दे देते थे. हमने नायर साहब की वजह से ही तमाम फिल्में देखीं और देश दुनिया की फिल्मों से रूबरू हुए. मैं फिल्म निर्देशक बन पाया तो उनकी वजह से ही.
बकौल नसीरुद्दीन शाह पीके नायर साहब की वजह से हमने वे फिल्में भी देखीं जो उस दौर में सेंसर हो जाया करती थीं. उनकी वजह से हमें नजरिया मिला. फिल्म देखने का थॉट मिला.
ेबॉक्स में : कौन हैं पीके नायर
नायर साहब बचपन से ही फिल्मों के शौकीन थे और वे निर्देशक ही बनना चाहते थे. उन्होंने अपनी पहली फिल्म त्रिवेंद्रम में बालू पर बैठ कर देखी थी. और उस वक्त जब उन्होंने पहली फिल्म देखी थी. उस वक्त से ही उन्होंने फिल्मों के टिकट एकत्रित करने शुरू कर दिये थे. इसके बाद उन्हें जहां भी सिनेमा या सिनेमा से जुड़ी चीजें नजर आतीं. वे उसे एकत्रित कर लेते. भारत में लगभग 1700 साइलेंट फिल्में बनीं. लेकिन उनमें केवल 9 फिल्मों के रील ही सुरक्षित हो पाये तो सिर्फ नायर साहब की वजह से. वे फिल्मों के केन की खोज में भारत के कई सुदूर इलाकों में चले जाया करते थे. भारतीय सिनेमा के इतिहास में वे एक महत्वपूर्ण शख्सियत हैं.
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