20121022

जीत का जश्न है चिटगांव : बेदव्रत




 
दिल्ली यूनिवर्सिटी में ग्रेजुएशन के दौरान महसूस किया कि कई लोगों को चिट्टगांव के स्वतंत्रता सेनानी सूर्य सेन के बारे में जानकारी नहीं है. यहां तक कि केबीसी में पूछे गये सवाल पर भी किसी ने इसका जवाब नहीं दिया. उस वक्त बेदाब्राता पेन के जेहन में आया कि स्वाधीनता संग्राम की एक ऐसी कहानी जहां 50 बच्चों ने मिल कर अंगरेजों को खदेर दिया था. इनकी कहानी परदे पर कही जानी ही चाहिए और उनकी इसी कोशिश को उन्होंने फिल्म चिट्टगांव का रूप दिया. चिट्ट्रगांग को न सिर्फ दर्शकों से बल्कि क्रिटिक व कई अंतरराष्टÑीय फिल्मोत्सवों में भी काफी सराहना मिल रही है. पेश है फिल्म के निर्देशक बेदव्रत पेन से हुई बातचीत के मुख्य अंश 

बेदव्रत को शुरू से ही परफॉर्मिंग आर्ट्स में दिलचस्पी थी. लेकिन पढ़ाई में होनहार होने के कारण उन्होंने साइंस का क्षेत्र चुना और नासा गये. वहां 15 सालों के कार्यकाल के दौरान तकनीकों को बदलते और आविष्कारों को होते देखा. उस वक्त महसूस किया कि यह जरूरी है कि वे इस तकनीक का और अपने अंदर के टैलेंट्स का इस्तेमाल सही तरीके से करे. सो, वे फिल्म मेकिंग में आये और शुरुआत भी एक बेहद संवेदनशील और इतिहास की महत्वपूर्ण घटना के साथ की.

चिट्ट्रगांग की कहानी में ऐसी कौन सी खास बातें थी. जिसने आपको इस छोटे से गांव पर फिल्म बनाने की प्रेरणा दी?
मैं कोलकाता से हूं और शुरुआती दौर से ही मुझे ऐतिहासिक विषयों में रुचि रही है. मैं चिट्टगांव का इतिहास जानता था और मैं हमेशा यहां की कहानियां सुनता रहता था. सूर्य सेन जैसे आम आदमी ने किस तरह 50 बच्चों की मदद से एक आंदोलन फैलाया. और वे कामयाब भी रहे. मुझे इसी बात से प्रेरणा मिली. आप खुद गौर करें तो इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में भी चिट्टगांव पर ऐसा कुछ खास अध्याय या जानकारी या बहुत अधिक व्याख्या नहीं है. जबकि  यहां के लोगों का भी योगदान स्वाधीनता संग्राम में अहम रहा है. अब तक जब भी किसी स्वतंत्रता संग्राम की कहानी दिखाई गयी है. उनमें प्राय: सभी नायक की मौत हो जाती है. फिर चाहे वह मंगल पांडे हो, झांसी की रानी हो या फिर भगत सिंह की कहानी हो. यही कारण है कि मैंने इस विषय को चुना .चूंकि  िचट्ट्रगांग जीत की कहानी है. एक ऐसी विक्टरी की कहानी है. जहां आम लोगों ने मिल कर अपनी मेहनत से किस तरह से एकता के साथ अंगरेजों को खदेर दिया. मेरे फिल्म का किरदार झुंकू जो कि केवल पढ़ाई में होनहार था. किस तरह स्वाधीनता के लिए वह बंदूक उठाता है और लड़ता है. इसका जिक्र कहीं भी नहीं मिला करता था. यहां तक कि केबीसी में जब इस पर सवाल किया गया था. कि 1930 में आमी लीड का रिडर कौन था चिट्टगांव में. उस वक्त भी किसी ने इसका जवाब नहीं दिया था. मैं उस वक्त दिल्ली में था और मेरे हिस्ट्री के प्रोफेसर ने भी इसका जवाब नहीं दिया था. उन्हें खास जानकारी नहीं थी. मुझे लगा कि यह बेहद जरूरी है कि ऐसी किसी कहानी को दर्शकों के सामने लाया जाये और यही से मैंने फिल्म की नींव रखीं.
लेकिन कोई भी पीरियड फिल्म बनाना न सिर्फ स्क्रिप्ट के लिहाज से बल्कि बजट के लिहाज से भी बहुत कठिन होता है.
 फिर कैसे लिया निर्णय. और प्राय: ऐसी फिल्मों को निर्माता नहीं मिलते और आपकी तो यह पहली शुरुआत थी. तो आपने किस तरह संभावनाएं पैदा की.
जी हां, आपने बिल्कुल सही कहा. शुरुआती दौर में जब मैं यह फिल्म बना रहा था. तब सारे पैसे मेरे खुद के लगे. मैं उस वक्त किसी निर्माता के पास नहीं गया. बजट वाकई बहुत ज्यादा था. लेकिन सबकुछ मैंने खुद से मैनेज किया. हां, लेकिन फिल्म बनने के बाद जब अनुराग कश्यप को मैंने दिखाया तो उन्होंने मेरी फिल्म को सपोर्ट किया, और बाद में बाकी निर्माता भी जुटे. वरना, मैं हर दिन पेन ड्राइव में अपनी फिल्म लेकर घूम ही रहा था. चूंकि कोई भी इस पीरियड फिल्म में हाथ लगाने को तैयार नहीं था.

ऐसे विषयों पर गंभीर शोध और समझ की जरूरत होती है. आपने किस किस माध्यम से शोध किये? साथ ही लोकेशन को तलाशने में कितनी मुश्किलें आयीं. 
 पीरियड फिल्म बनानी थी और वह भी फिल्म में 1930 का चिट्टगांव नजर आना चाहिए,लेकिन अब चिट्टगांव पूरी तरह बदल चुका है. ऐसे में अगर हम वर्तमान के चिट्टगांव को दर्शाने लगते तो कहानी में कोई वास्तविकता नहीं रहती. सो, हमारे सामने एक बड़ी जिम्मेदारी यह थी कि हमें कोई ऐसा स्थान चाहिए था. जो भूगोल के दृष्टिकोण और कलाकृति में चिट्टगांव की तरह ही दिखे. इस लिहाज से हमें लाटागुड़ी नामक जगह मिली. वही एक गांव दिखा. उस गांव का नाम भी चिट्टगांव था. और वह मेरी कहानी की मुताबिक बिल्कुल फिट बैठ रहे थे. सो, हमने तय किया कि हम यही शूट करेंगे. आपको विश्वास नहीं होगा. फिल्म की कहानी में जिस तरह का आर्किटेक्चर है. वह हूबहू वास्तविक चिट्टगांव से मेल खाता है. यहां तक कि हमने जिस तरह के पेड़ पौधे दिखाये हैं. वह भी उस दौर के हैं. हमने फिल्म की शूटिंग भी 1910 में बने स्कूल में किया है. और इससे उस दौर का माहौल अच्छे तरीके से तैयार हुआ है. हालांकि उस दौर में इतना फाइन कॉटन के कपड़े नहीं मिलते थे. लेकिन हमने अपने किरदारों को फाइन कॉटन कपड़ों में दिखाया है. उस दौर के जो जहाज हुआ करते थे. वैसे जहाज आज मिल पाना संभव नहीं है. सो, वहां भी थोड़ी कमी रह गयी है. साथ ही   हमने जो यूरोपियन क्लब फिल्म में दिखाया है. वह जितना बड़ा है. उतना विशाल क्लब नहीं है. लेकिन उसे दिखाना जरूरी इसलिए था, क्योंकि परदे पर फिर वह खास नजर नहीं आ पाता. पीरियड फिल्में बनाने में ये सारी परेशानी आती है कि आप हर छोटी से छोटी चीज को भी उस दौर के अनुसार तैयार करना पड़ता है. िक्रयेट करना पड़ता है. किरदारों के हेयर स्टाइल को लेकर भी हमने काफी बारीकी बरतने की कोशिश की है. उस दौर में किस तरह के हथियार इस्तेमाल होते थे. बाजार में किस तरह के सामान मिलते थे. इन सभी चीजों का ख्याल  रखा है.  लेकिन माहौल और आर्किटेक्चर के दृष्टिकोण से 1930 का चिट्टगांव ने हमने पूरी तरह दिखाया है. न सिर्फ आर्ट के रूप से बल्कि उस दौर में जो जो घटनाएं हुई हैं. किस तरह हुई हैं. सब दिखाने की कोशिश की गयी है. जहां तक बात है शोध कि तो...चिट्टगांव के आंदोलन के बारे में इतिहास के किताबों में बहुत ज्यादा जानकारी नहीं दी गयी है. वहां आंदोलन का तो जिक्र है. लेकिन किरदारों के बारे में जिक्र नहीं है कि किरदार किस तरह के थे. किस तरह वे बोलते थे. व्यवहार कैसा था. चूंकि मेरी फिल्म डॉक्यूमेंट्री नहीं थी. सो, यह मेरे लिए बेहद जरूरी था कि मैं किरदारों को दिलचस्प बनाऊं. सो, उस लिहाज से मुझे मुख्य काम अपनी स्क्रिप्टिंग में सारे किरदारों की कहानी व उनके कैरेक्टर स्केच को गढ़ने में हुई. साथ ही हमने फिल्म में सारे बच्चों को नाटागुड़ी से ही चुना है. ताकि हम 1930 का फील दे पायें. मैंने अपनी इस स्क्रिप्ट के लगभग 36 ड्राफ्ट्स बनाये. ताकि मैं अपनी पूरी कहानी के साथ न्यायसंगत कर पाऊं.
चिट्टगांव जैसी फिल्में आज के दौर में कितनी प्रासंगिक हैं?
मुझे लगता है कि ऐसी फिल्में हिंदी में कम बनती हैं. लेकिन इसके दर्शक हैं. हमें अपने इतिहास को जानने में बेहद दिलचस्पी शुरू से रही है. लेकिन िफल्में कम बनती हैं. चूंकि पीरियड फिल्में बनाने में न सिर्फ स्क्रिप्ट बल्कि बजट भी बहुत ज्यादा होना चाहिए. सो, निर्माता ऐसी फिल्मों पर खर्च नहीं करते. दूसरी बात है कि हिंदी सिनेमा में केवळ गिने चुने स्वतंत्रता संग्राम के नायकों की कहानी बार बार दोहरायी जाती है. ऐसा नहीं होना चाहिए. फिल्में ही मेरे ख्याल से सबसे अच्छा हिस्ट्री लेशन बन सकती है. फिल्मों के माध्यम से ही ऐसे अनकहे नायकों की कहानी भी परदे पर आनी चाहिए.

आशुतोष ग्वारिकर की फिल्म खेले हम जी जान से की कहानी भी चिट्टगांव की कहानी से बहुत मेल खाती थी. विषय भी एक था. लेकिन इसके बावजूद आपकी फिल्म को खेले हम जी जान से अधिक पसंद किया गया. क्या कारण हो सकते हैं इसके? क्या क्या खूबियां रहीं चिट्टगांव की?
सबसे खास यह कि हमने जो किरदार में कलाकारों का चयन किया. वह फिल्म की कहानी के साथ न्याय करता है. हम चाहते तो हम भी विज्ञापन से कुछ लड़कों को ले लेते. लेकिन फिर किरदार के साथ न्याय नहीं हो पाता. नवाजुद्दीन सिद्दिकी, मनोज बाजपेयी मेरी फिल्मों की रीढ़ हैं. नवाज से जब मैं एनएसडी में मिला था तो उनसे मिलते ही कहा था कि वे मेरी फिल्म का हिस्सा होंगे. मनोज को जब मैंने एक फिल्म के सेट पर जाकर कहानी सुनायी तो उन्होंने तुरंत हां, कह दी थी. इससे स्पष्ट था कि कहानी में कुछ तो बात है. दूसरी बात हमने फिल्म में उस दौर की कहानी को पूरी तन्मयता और वास्तविकता से परोसने की कोशिश की है. शायद यही वजह रही कि कई वाक्या जो वाकई हुए हैं उन्हें सतही तौर पर न दिखा कर उसे हमने गंभीरता से दिखाया है. सपाट न दिखा कर उसे खास बनाने की कोशिश की. शायद यही वजह रही कि दर्शकों को फिल्म ने अपील किया है. हालांकि आशुतोष जब इस विषय पर फिल्म बना रहे थे. मैंने उनसे आग्रह किया था कि वह इस पर फिल्म न बनाये, क्योंकि उनके पास तो कई विकल्प हैं. लेकिन मैं इस कहानी को लेकर बहुत ज्यादा पैशिनेट था. लेकिन जवाब में मुझे आशुतोष ने कहा कि इसमें कोई परेशानी नहीं कि एक विषय पर दो फिल्में बने. और बाद में फिर उन्होंने फिल्म बनायी. मेरी ख्वाहिश थी कि मेरी फिल्म खेले हम जी जान से पहले रिलीज हो. सिर्फ इसलिए क्योंकि मेरा इस विषय पर टेक भी बिल्कुल अलग था. मैं अपने महत्वपूर्ण किरदार झूनकू रॉय और उसके स्वतंत्रता के लिए उठाये गये कदम. एक आम लड़के से स्वतंत्रता सेनानी में तब्दील होना और फिर किस तरह देश के लिए आंदोलन का हिस्सा बनना , झूनकू रॉय के किरदार को भी मैं उसी अहमियत से दर्शाना चाहता था. जबकि खेले हम जी जान की कहानी मास्टर दा के देहांत पर ही खत्म हो जाती है. लेकिन मुझे अपनी कहानी में स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों की जीत को दिखाना था.

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