निखिल आडवाणी ने हाल ही में फिल्म दिल्ली सफारी का निर्माण किया है. यह फिल्म उन्होंने विशेष कर अपनी बेटी के लिए बनाया है. लेकिन काफी लंबे समय के बाद हिंदी फिल्मों में किसी एनिमेशन फिल्म में क संभावना नजर आयी है. चूंकि इस फिल्म ने तो पौराणिक कथाओं का और न ही किसी धार्मिक विषयों का इस्तेमाल किया है. पिछले कई सालों से हिंदी फिल्मों में दर्शक राम-सीता, कृष्ण, हनुमान, गणेश की एनिमेटेड कहानियां देख कर बोर हो चुके हैं. इस लिहाज से निखिल ने क नयी पहल की है. दरअसल, हिंदी फिल्मों की यह विडंबना रही है कि यहां एक दूसरे की नकल या एक ही ढर्रे पर चलने की बुरी लत है. हिंदी फिल्म के निर्देशकों को लगता है कि अगर एक फिल्म हिट हो गयी तो वे दूसरी फिल्म भी उसी तर्ज पर बनाते हैं. लेकिन दिल्ली सफारी एनिमेशन के उस सफर में एक सुखद अनुभव कराती है. दरअसल, पिछले कई सालों से हिंदी फिल्मों के एनिमेशन फिल्मों के विषयों में पौराणिक कथाओं का चलन भी इसलिए बढ़ता रहा है कि निर्माता इसी बहाने न सिर्फ बच्चों को बल्कि बच्चे के पूरे परिवार को भी फिल्म से जोड़ना चाहते हैं. ताकि इसका सीधा फायदा उनके व्यवसाय पर हो. यही वजह है कि वे भावनाओं को धार्मिक किरदारों से जोड़ कर दिखाते रहे हैं.दिल्ली सफारी में जानवरों के किरदारों में आम जिंदगी की कहानी कहने की कोशिश की गयी है. बच्चों को एक बार फिर से जंगलबुक के मोगली की याद आ जायेगी लेकिन हिंदी फिल्मों में दिल्ली सफारी जैसी एनिमेशन फिल्म नयी सोच को दर्शाती है. अक्षय कुमार द्वारा निर्मित फिल्म ओह माइ गॉड भी इस लिहाज से एक बेहतरीन पहल है कि कम से कम अब भगवान के नाम पर हो रहे ढोंग से कुछ हद तक लोगों की आंखें खुल रही हैं. फिल्में माध्यम बन रही हैं. लोगों को बेफिजूल के अंधविश्वास से दूर रखने के लिए. हालांकि अब भी हिंदी सिनेमा जगत में अंधविश्वास का पलरा भारी है. लेकिन फिर भी इस पहल से सकारात्मक संकेत मिल रहे हैं. दरअसल, हिंदी सिनेमा को अभी वाकई इससे उबरने की जरूरत है और नये विषयों पर सोचने की जरूरत है. एनिमेशन के क्षेत्र में भी हम अभी भी बहुत बेहतरीन काम नहीं कर पाये हैं. इस लिहाज से जरूरत है कि निर्देशक नयी सोच के साथ एनिमेशन फिल्मों पर भी सोचें. वे नये विषयों के साथ फिल्मों का निर्माण करे. तभी हिंदी सिनेमा भी तकनीकी रूप से विश्व सिनेमा में कहीं कोई स्थान बना पायेगी. और एनिमेशन फिल्में बच्चों के वर्ग से निकल कर बुजुर्गों को भी प्रभावित कर पायेगी
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20121022
धार्मिक बंधनों से मुक्त सफारी
निखिल आडवाणी ने हाल ही में फिल्म दिल्ली सफारी का निर्माण किया है. यह फिल्म उन्होंने विशेष कर अपनी बेटी के लिए बनाया है. लेकिन काफी लंबे समय के बाद हिंदी फिल्मों में किसी एनिमेशन फिल्म में क संभावना नजर आयी है. चूंकि इस फिल्म ने तो पौराणिक कथाओं का और न ही किसी धार्मिक विषयों का इस्तेमाल किया है. पिछले कई सालों से हिंदी फिल्मों में दर्शक राम-सीता, कृष्ण, हनुमान, गणेश की एनिमेटेड कहानियां देख कर बोर हो चुके हैं. इस लिहाज से निखिल ने क नयी पहल की है. दरअसल, हिंदी फिल्मों की यह विडंबना रही है कि यहां एक दूसरे की नकल या एक ही ढर्रे पर चलने की बुरी लत है. हिंदी फिल्म के निर्देशकों को लगता है कि अगर एक फिल्म हिट हो गयी तो वे दूसरी फिल्म भी उसी तर्ज पर बनाते हैं. लेकिन दिल्ली सफारी एनिमेशन के उस सफर में एक सुखद अनुभव कराती है. दरअसल, पिछले कई सालों से हिंदी फिल्मों के एनिमेशन फिल्मों के विषयों में पौराणिक कथाओं का चलन भी इसलिए बढ़ता रहा है कि निर्माता इसी बहाने न सिर्फ बच्चों को बल्कि बच्चे के पूरे परिवार को भी फिल्म से जोड़ना चाहते हैं. ताकि इसका सीधा फायदा उनके व्यवसाय पर हो. यही वजह है कि वे भावनाओं को धार्मिक किरदारों से जोड़ कर दिखाते रहे हैं.दिल्ली सफारी में जानवरों के किरदारों में आम जिंदगी की कहानी कहने की कोशिश की गयी है. बच्चों को एक बार फिर से जंगलबुक के मोगली की याद आ जायेगी लेकिन हिंदी फिल्मों में दिल्ली सफारी जैसी एनिमेशन फिल्म नयी सोच को दर्शाती है. अक्षय कुमार द्वारा निर्मित फिल्म ओह माइ गॉड भी इस लिहाज से एक बेहतरीन पहल है कि कम से कम अब भगवान के नाम पर हो रहे ढोंग से कुछ हद तक लोगों की आंखें खुल रही हैं. फिल्में माध्यम बन रही हैं. लोगों को बेफिजूल के अंधविश्वास से दूर रखने के लिए. हालांकि अब भी हिंदी सिनेमा जगत में अंधविश्वास का पलरा भारी है. लेकिन फिर भी इस पहल से सकारात्मक संकेत मिल रहे हैं. दरअसल, हिंदी सिनेमा को अभी वाकई इससे उबरने की जरूरत है और नये विषयों पर सोचने की जरूरत है. एनिमेशन के क्षेत्र में भी हम अभी भी बहुत बेहतरीन काम नहीं कर पाये हैं. इस लिहाज से जरूरत है कि निर्देशक नयी सोच के साथ एनिमेशन फिल्मों पर भी सोचें. वे नये विषयों के साथ फिल्मों का निर्माण करे. तभी हिंदी सिनेमा भी तकनीकी रूप से विश्व सिनेमा में कहीं कोई स्थान बना पायेगी. और एनिमेशन फिल्में बच्चों के वर्ग से निकल कर बुजुर्गों को भी प्रभावित कर पायेगी
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