20120908

नाटकों के एके हंगल



बीते 26 अगस्त को अवतार कृष्ण हंगल साहब ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया. उनका जाना केवल फिल्मों के किसी चरित्र अभिनेता का जाना नहीं, बल्कि एक महान नाटय़कार और सामाजिक कार्यकर्ता का भी जाना है. उनके देहांत के बाद अखबारों और टेलीविजन में केवल उनकी फिल्मों की चर्चा की गयी, जबकि सच तो यह है कि वे फिल्मों के अभिनय से जबरन जुड़े थे. उनकी आत्मा तो हमेशा नाटकों ही में रही. इस लिहाज से उनके थियेटर के सफर से रूबरू होना जरूरी है. इसी संदर्भ में उनके बेटे विजय हंगल के नजरिये से अनुप्रिया अनंत ने नाटकों के एके हंगल को जानने की कोशिश की.
कुछ भी हो जाये, द शो मस्ट गो ऑन : शबाना आजमी
मेरा जुड़ाव हंगल साहब से बचपन से रहा है. मेरी मां शौकत और पिता कैफी आजमी उनके काफी करीब थे. इसलिए, मैं उन्हें हमेशा से जानती थी. इप्टा ने हमारे संबंध और गहरे कर दिये. मैं सिर्फ 9 साल की थी जब हैदराबाद में एक शो होने वाला था. प्ले का नाम था ‘अफ्रीका जवान परेशान’. उसमें मेरी मां शौकत लीड किरदार में थीं और हंगल साहब का भी अहम रोल था. शो के दिन जब हम वहां पहुंचे, तो हमने देखा कि वहां सिर्फ 8 लोग थे. इसके बावजूद हंगल साहब ने कहा कि वह प्ले करेंगे, क्योंकि ‘द शो मस्ट गो ऑन.’ उतनी छोटी उम्र में ही मैंने उनसे यह सीख किया कि कुछ भी हो, कोई आये या न आये, आपको अपना काम करते रहना है.
के हंगल के करीबी मानते हैं कि वे तत्कालीन सोवियत संघ के थियेटर आर्टिस्ट और निर्देशक कोनस्टेनटिन स्तानीस्लेवस्की के सिद्धांत को अपना आदर्श मानते थे. थियेटर के प्रति उनके लगाव, समर्पण और थियेटर की उनकी गंभीर समझ से इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है. इप्टा के साथ जुड़ कर उन्होंने लगभग 50 साल तक थियेटर में अपना योगदान दिया. उनके बेटे विजय हंगल बताते हैं कि इप्टा उनका पहला परिवार था. उनके नाटकों के विषय भी आंदोलनकारी होते थे. वे व्यंग्यात्मक नाटकों में माहिर थे. उन्होंने इप्टा के लिए लगभग 50 से भी अधिक नाटकों में अभिनय किया और सभी उल्लेखनीय रहे.
बकौल विजय हंगल, ‘बाबू’, ‘इलेक्शन का टिकट’, ‘अफ्रीका जवान परेशान’, ‘शंतरज के मोहरे’, ‘तन्हाई’, ‘आखिरी सवाल’ उनके प्रमुख नाटक रहे. विजय हंगल बताते हैं कि पिता जी ने ‘डमरू’ नामक नाटक में संजीव कुमार को एक बूढ़े का किरदार दिया था. उस वक्त संजीव कुमार फिल्मों में नहीं आये थे. यह हंगल साहब की पारखी नजर ही थी, जिसने संजीव कुमार की प्रतिभा को पहचान लिया था. नाटकों में उनके साथ रहे साथी बासु भट्टाचार्य और बासु चटर्जी ने ही उन्हें बाद में फिल्मों से जोड़ा.
इप्टा से जुड़ना
बकौल विजय हंगल, अपनी ऑटोबायोग्राफी में हंगल साहब ने खुद इसकी व्याख्या की है कि जब वे कराची में थे, उस वक्त से ही उन्हें जानकारी मिल गयी थी कि इप्टा नामक एक संस्था है, जो थियेटर के माध्यम से आंदोलन कर रही है. वे इप्टा को केवल परफॉर्मिग आर्ट का जरिया नहीं, बल्कि आंदोलन मानते थे. किस तरह वह ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ और लोगों के अमन चैन के लिए काम कर रहे हैं. इन बातों ने हंगल साहब को प्रभावित किया, क्योंकि हंगल साहब के सिद्धांत भी ऐसे ही थे. इसलिए, जब वे मुंबई आये तो उन्होंने इप्टा से जुड़ने की सोची. एक दिन जब वे टेलर शॉप में थे, दो अजनबी आये.
उन्होंने हंगल साहब को बताया कि वे इप्टा से जुड़े हैं और इप्टा इन दिनों बिखर रहा है. लोगों के बीच राजनीति हो रही है. बलराज साहनी, दीना गांधी, केए अब्बास जैसे दिग्गजों ने इप्टा छोड़ दिया है. उसी वक्त हंगल साहब ने तय किया कि वे इप्टा को बरकरार रखने की हर मुमकिन कोशिश करेंगे. उसी दिन से उन्होंने नियमित रूप से रिहर्सल करना शुरू कर दिया. एक घर किराये पर लिया और सबसे पहले उन लोगों को जोड़ना शुरू किया जो इप्टा छोड़ चुके थे.
आरके स्टूडियो में काम कर रहे शैलेंद्र ने वापसी की. सलिल चौधरी, कनु घोष ने फिर से थियेटर ज्वॉइन किया और इस तरह फिर से काम शुरू हो गया. इसके बाद ‘बाबू’ का निर्माण हुआ. आंध्र प्रदेश के नॉन-गजटेड ऑफिसर, जो उस वक्त स्ट्राइक पर चले गये थे, की दशा पर आधारित था वह नाटक. नाटक कामयाब रहा और फिर से इप्टा में नाटकों का दौर शुरू हो गया.
बलराज साहनी-हंगल का जुड़ाव
बकौल विजय, बलराज साहनी से हंगल साहब के जुड़ाव की वजह दोनों के सिद्धांत एक जैसे होना थी. दोनों ने कई नाटकों में साथ अभिनय किया. एक नाटक था, उसमें बलराज साहनी लीड किरदार किया करते थे. लेकिन किसी वजह से उन्होंने मना कर दिया. तब हंगल साहब ने वह किरदार किसी और को दे दिया. जिस दिन वह प्ले होना था, उससे कुछ दिन पहले बलराज ने आकर कहा उन्हें रोल करना है. उन्हें बताया गया कि मुख्य किरदार तो किसी और को दिया जा चुका था. हंगल साहब ने उन्हें कोई छोटा-सा किरदार दिया. मैंने घर आकर पूछा कि आखिर बलराज इतनी लोकप्रिय फिल्मी हस्ती हैं, सामान्य-सा किरदार क्यों निभाया. उस वक्त पिताजी ने कहा था कि क्योंकि यह उनका नाटक के प्रति समर्पण था

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