20120913

खामोशी के बीच खिलखिलाहट "बर्फी " : अनुराग बसु



जब आप मौत को बेहद नजदीक से देख लेते हैं तो या तो आपको जिंदगी से बेहद प्यार हो जाता है. या फिर आप उससे नाराज हो जाते हैं. लेकिन निर्देशक अनुराग बसु की जिंदगी को इस बीमारी ने पूरी तरह बदल कर रख दिया. उनकी जिंदगी जीने का नजरिया ही बदल दिया.  उनकी फिल्म बर्फी उसी सोच का परिणाम है. अनुराग खुद मानते हैं कि अब वे जिंदगी को अलग नजरिये व अधिक सकारात्मक नजरिये से देखने लगे. अनुराग इस फिल्म को जिंदगी का जश्न मानते हैं. यही वजह रही कि उन्होंने बर्फी के लिए एक ऐसा विषय चुना, जो उनके दिल के बेहद करीब है. दिल से लिखी इस कहानी में मिला रणबीर कपूर से बेहतरीन अभिनेता का साथ और बन गयी स्वादिष्ट बर्फी. खुशियां बिखेरती  इस बर्फी के स्वाद का अनुराग बसु के साथ जायका लिया अनुप्रिया अनंत ने. 

डोंट वरी, बी बर्फी.. रणबीर कपूर इन दिनों यह पंक्ति बार बार दोहराते नजर आ रहे हैं, इस एक  पंक्ति से ही यह स्पष्ट है कि फिल्म की कहानी खुशियों के इर्द-गिर्द घूमती है. आखिर यह सोच भी एक ऐसे निर्देशक के जेहन से निकली है. जो खुद भी बेहद खुशमिजाज हैं. अनुराग बसु से मुलाकात भी रविवार के दिन हुई थी. शायद यही वजह थी कि अनुराग का बर्फियाना( खुशमिजाज) अंदाज देखने को मिला. वे खुद खुशमिजाज हैं. इसलिए उन्होंने फिल्म बर्फी में बहरे गूंगे किरदारों के होने के बावजूद फिल्म को डार्क नहीं बल्कि खुशमिजाजी प्रदान की है. अनुराग न तो टाल मटोल कर बातें करते हैं और न ही बनावटी. शायद इस स्वभाव की  उनका भिलाई जैसे शहर के मध्यमवर्गीय परिवार से जुड़ाव है. बातचीत अनुराग से.
अनुराग, कैसे पकाई आपने बर्फी की यह रेसिपी. मेरा संदर्भ फिल्म की कहानी से है. कैसे आया जेहन में यह विषय 
इस फिल्म की सोच आयी मेरे जेहन से. मेरे दिल से. मेरी जिंदगी बदली. मेरी बीमारी ने. बीमार पड़ा. तो भावनाओं की कद्र करने लगा. वरना, पहले मैं पैसों के बारे में ज्यादा सोचता था. मतलबी था. केवल पैसे कमाने थे मुङो. और चीजों की परवाह नहीं करता था. परिवार की भी नहीं. लापरवाह था. लेकिन मौत को इतने नजदीक से देखने के बाद नजरिया बदला. मैं जिंदगी के प्रति सकारात्मक हो गया. अब बड़े ख्वाब नहीं देखता. संतुष्ट रहता हूं.और इसी संतुष्टि, भावनाओं, परिवार व प्यार की अहमियत ने मुङो बर्फी बनाने के लिए प्रेरित किया. मैं अपनी बीमारी के बाद कई ऐसे एनजीओ से जुड़ा, जो कई स्तर पर बहरे गूंगे बच्चों के लिए काम करते हैं. मेरे होमटाउन भिलाई में भी मुस्कान नाम एक डिस्ऐबिलिटी स्कूल है.  जब मैं उन एनजीओ के स्कूल में जाता. उन्हें देखता तो मुङो लगता कि इनकी जिंदगी कैसे ईशारों की दुनिया है. लेकिन फिर भी वे खुश हैं. दुनिया के तमाम झंझावातों से दूर. वही से तय किया कि कोई ऐसी फिल्म बनाऊंगा.लेकिन एक बात मेरे जेहन में बिल्कुल स्पष्ट थी कि प्राय: लोग बहरे गूंगे का किरदार देखते हैं तो उसे डार्क फिल्म कहने लगते हैं. लेकिन मैं अपने किरदारों को जिंदगी का मातम नहीं जश्न मनाता दिखाऊंगा.  मुझे किरदारों को बेचारा तो बिल्कुल नहीं दिखाना था. आप देखेंगे कि फिल्म साइलेंट भी नहीं है. फिल्म प्रेम कहानी है. लेकिन अलग सी प्रेम कहानी. आम कहानियों से अलग . ये प्रेम कहानी दिल से कही गयी प्रेम कहानी है. जहां बिना कहे प्रेम हो जाता है.
फिल्म का नाम किसी मिठाई के नाम पर रखना है. क्या कुछ ऐसा सोच रखा था? वैसे बंगाल फिल्मों के लिए लोकप्रिय है या आप बंगाल प्रांत से हैं सो, दिल में बर्फी का नाम सबसे पहले आया?
(हंसते हुए ) नहीं नहीं..मिठाई के नाम पर रखना है. ऐसा कुछ तय नहीं किया था. लेकिन हां, यह जरूर सोच रखा था कि चूंकि फिल्म में सेलिब्रेशन है तो कुछ मीठा सा नाम रखा जाये. तो बर्फी से स्वादिष्ट और मीठा क्या होता. वैसे फिल्म के किरदार का नाम भी मरफी है. मरफी की मां को मरफी की तरह बच्चा चाहिए होता है. लेकिन उसी मां रेडियो से शॉक लगने से मर जाती है. इस वजह से मरफी सही तरीके से बोल नहीं पाता. तो वह अलग तरीके से उच्चारण करता है. तो मरफी लोगों को बर्फी की तरह लगता है. सो, वह बर्फी के नाम से ही प्रसिद्ध हो जाता है.
रणबीर ही बर्फी का किरदार निभा सकते हैं. रणबीर की किन फिल्मों या उनके किन स्वभाव से आपको ईशारा मिला कि अरे, मेरा बर्फी तो यही बन सकता है.
रणबीर की मैंने ज्यादा फिल्में नहीं देखी हैं. लेकिन उनके स्वभाव में. उनके चेहरे में अजब सी चंचलता है. मुङो लगता है कि जब भी पुराने दौर की फिल्मों की बात होगी और उसे नये दौर में किसी अभिनेता द्वारा सही तरीके से प्रस्तुत किया जा सकता है तो वह रणबीर कपूर हैं. रणबीर में शरारत, इमोशन, मासूमियत सबकुछ है. और साथ ही वह समर्पित कलाकार हैं. उनका समर्पण हमने रॉकस्टार में देखा है. और मानना ही होगा. क्योंकि जब आप खुद फिल्म देखेंगे तो महसूस करेंगे कि रॉकस्टार के रणबीर का एटीटयूड और बर्फी की मासूमियत दोनों कितने अलग हैं. लेकिन निभानेवाला कोई एक ही है. रणबीर के साथ इस फिल्म में काम करने का बाद मैंने महसूस किया है कि वे निर्देशकों के हीरो हैं. जिस तरह से ढाल दो. ढल जायेंगे. कई शेड्स हैं उनके अभिनय के. धीरे धीरे वे फिल्मों में दिखाते नजर आयेंगे.अगर रणबीर इस फिल्म को करने के  लिए तैयार नहीं होते. तो मैं यह फिल्म नहीं बना पाता.
रणबीर ने तुरंत हां कह दिया था? 
हां, उन्हें कहानी बेहद पसंद आयी थी. मुङो लगता है कि हर वह अभिनेता जो वर्सेटाइल होगा वह ऐसे किरदार निभाना चाहेगा. मैं मानता हूं कि बर्फी बहुत लेयरड फिल्म  है. आप परत द परत फिल्म को खुलते देखेंगे. जाहिर सी बात है किसी अभिनेता के लिए अपने अभिनय को विभिन्न परतों, अंदाज में दिखाने का यह बेहतरीन मौका है. लेकिन एक बात मैं जरूर कहूंगा कि बर्फी की कहानी बहुत सामान्य सी थी. और एक छोटी फिल्म थी. लेकिन पहले रणबीर जुड़े, फिर प्रियंका जुड़ी तो स्टार से जुड़ने से फिल्म बड़ी हो गयी. 
कहानी के बारे में आप कुछ भी स्पष्ट तौर पर बचाने से क्यों बच रहे हैं?
क्योंकि मैंने कहा न फिल्म की कहानी बहुत सामान्य सी है. अगर अभी से कह दूंगा तो सारा मजा किरकिरा हो जायेगा. मैं फिल्म की अंदरूनी परते नहीं खोलना चाहता.वरना आपको मजा नहीं आयेगा. बस यही कहूंगा कि हंसती खेलती फिल्म है.
आप लगातार इस बात को दोहरा रहे हैं कि फिल्म में हंसी मजाक है तो निश्चित तौर पर शूटिंग के दौरान सेट का भी माहौल काफी खुशनुमा रहा होगा.
हां, बिल्कुल वैसे भी जहां रणबीर कपूर और प्रियंका जैसे लोग रहेंगे. सेट पर मस्ती तो होगी ही. मुङो याद है जिस दिन रणबीर का आखिरी शॉट था और मैं घोषणा की थी कि यह आखिरी शॉट है. अचानक पूरे यूनिट में शांति छा गयी थी. इस फिल्म में रणबीर रणबीर की तरह नहीं प्यारा मासूम सा बर्फी बन गया था. तो पूरी यूनिट का चहेता बन गया था. उसकी हरकतें, शरारतें लोगों को हंसाती थी. यही वजह थी कि जब वाइंड अप के दौरान सभी दुखी हो गये थे. वैसे, मैं यही कोशिश करता हूं कि अपने किसी भी फिल्म पर माहौल खुशनुमा बना कर रखूं. हमारे यहां काम करते वक्त सभी एक तरह के होते हैं. स्टार्स के वैनिटी वैन पर स्टार का नहीं किरदार का नाम होता है. तो आप अनुमान लगा सकती हैं कि सेट पर आते हीं कैसे सभी किरदार से जुड़ जाते होंगे. 
फिल्म में दाजर्लिंग के लोकेशन विशेष रूप से नजर आ रहे हैं .दार्जीलिंग चुनने की खास वजह?
फिल्म की कहानी की डिमांड थी कि फिल्म 70 के दौर की है. और  दार्जीलिंग आज भी आम शहरों की तूलना में अलग है. वहां का माहौल अलग है. मैं मानता हूं कि किसी कहानी के लिए उसके किरदार के साथ लोकेशन का जस्टीफाइ होना भी जरूरी है. दाजर्लिंग में वो स्वीटनेस है. वहां के लोगों में वो स्वीटनेस है. छलकपट नहीं है. यही वजह रही कि मैंने वहां का लोकेशन चुना. एक और बात यह भी रही कि मैंने फिल्म की पूरी स्क्रिप्ट   दार्जीलिंग  में रह कर लिखी. क्योंकि मैं मानता हूं कि माहौल आपके लेखन में भी मदद करती है. शोर शराबे से दूर मुङो सुकून मिली   दार्जीलिंग  में. दाजर्लिंग से उत्तर बंगाल सफर से सफर होते हुए फिल्म फिर कोलकाता में आती है. निस्संदेह मैं बांग्ला प्रांत से हूं तो  मुझे  कई चीजें. प्लॉट  माहौल, प्रीमाइस तैयार करने में यह सारी चीजें मदद करती हैं. वहां रह कर लिख पाया तो उम्मीद है कि कहानी, किरदार के साथ पूरी तरह से न्याय कर पाया हूं. म्
रणबीर, प्रियंका के किरदार के लिए तैयारी कैसे हुई? सबके भाव. डांस करने का अंदाज, बातचीत के अंदाज़. किस तरह से ट्रेनिंग या टिप्स दिये. संदर्भ कहां से लिये.
जहां तक संदर्भ की बात है. मैंने मुस्कान एनजीओ में ही एक व्यक्ति से मुलाकात की थी. मैंने देखा कैसे वह एक आदमी सारे बहरे गूंगे बच्चों को एक साथ मैनेज कर ले रहा है. मैंने उनसे बहुत मदद ली. फिल्म के कुछ दृश्यों में तो मैंने भी इनपुट्स दिये हैं. जैसे डांसिंग वाले स्टेप्स. हमने स्पशल टीचर संगीता गाला को भी बुलाया था जिन्होंने रणबीर, प्रियंका को सारी चीजें सिखायीं.

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