20120927

गन, गोली गैंगस्टर के बगैर फिल्म



अनुराग बसु की हाल ही में प्रदर्शित हुई फिल्म बर्फी को बेहतरीन सफलता मिली है. फिल्म को समीक्षकों के साथ साथ आम दर्शकों ने भी पसंद किया है. जाहिर है किसी अच्छी फिल्म के सबसे अहम पहलू यही होते हैं. फिल्म अगर वाकई अच्छी हो तो वे निश्चित तौर पर दर्शकों को प्रभावित करती है. इस साल पान सिंह तोमर, कहानी व विकी डोनर उन चंद अच्छी फिल्मों में से एक है जिसकी लोकप्रियता व सफलता माउथ पब्लिसिटी की वजह से हुई. स्पष्ट है कि फिल्मी प्रमोशन के तमाम हथकंडों के बावजूद फिल्में वही प्रभावित करती हैं. जो अच्छी है. बर्फी ने इस बात की सार्थकता को और मजबूत कर दिया है. हाल ही में अक्षय कुमार की फिल्म जोकर रिलीज हुई और असफल रही. लोगों ने इसका दोष अक्षय कुमार पर मढ़ा. चूंकि अक्षय ने इस फिल्म का प्रमोशन किया ही नहीं था.लेकिन अक्षय ने इस बारे में साफतौर पर कहा कि प्रमोशन का फायदा फिल्मों को केवल पहले दिन मुनाफा दिला सकता है. शेष तो फिल्म अगर अच्छी होगी तभी दर्शक देखेंगे. दरअसल, हकीकत भी यही है कि हिंदी फिल्मों के दर्शकों को समझ पाना बेहद कठिन है. उन्हें कब किस तरह की फिल्में पसंद आयेंगी और कब उन्हें फिल्में नापसंद आयेंगी. यह आकलन संभव नहीं. लेकिन इसके बावजूद बर्फी की लोकप्रियता व सफलता एक तसवीर तो स्पष्ट करती है कि हिंदी फिल्मों के दर्शक अब भी फिल्मों में सकारात्मक और खुशियां बांटते लम्हों को ढूंढती है. पिछले लंबे दौर के बाद कोई फिल्म बिना द्विअर्थी संवाद, गालियों के प्रयोग या यूं कह लें. गन गोली गैंगस्टर की अनुपस्थिति में आयी है और हिट रही है. स्पष्ट है कि दर्शक अब भी फिल्मों को कलात्मक रूप से देखना पसंद करते हैं. बेहतर हो कि रियलिज्म के साथ साथ आनेवाले समय में निर्देशक फिल्मों में कलात्मक पुट बरकरार रखे.

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