(बल्ला मेरा. गेंद मेरी, पिंच और स्टंप भी मेरे हैं.मैं यहां कभी आउट नहीं हो सकता.- साभार : दुर्गेश सिंह )
रिलीज से दो दिनों पहले अनुराग बसु की फिल्म बर्फी देखने के बाद मैंने सबसे पहले अपनी मां को फोन किया. प्राय: मेरी मां जिन्हें फिल्मों में मुझसे भी ज्यादा रुचि है. बुधवार, गुरुवार को एक बार जरूर पूछ लेती हैं. शाम होते होते. कौन सी फिल्म देखी आज़. फिल्म के नाम और कैसी है फिल्म. मेरे जवाब के साथ कि अच्छी या बुरी. फिल्म की चर्चा वही खत्म हो जाती है. लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ. चर्चा थोड़ी आगे बढ़ी. वह भी थोड़े अलग अंदाज में. मां डायबिटिक हैं. लेकिन मीठा उन्हें बेहद पसंद है. (अफसोस, उन्हें मजबूरन मिठाईयों से दूरी बनानी पड़ी है. )लेकिन उस दिन जब मां ने पूछा कौन सी फिल्म देखी..आज़. मैंने बताया बर्फी. अच्छा रणबीर वाला न..हां अच्छा दिख रहा है. फिल्म कैसी है.? इस फिल्म की चर्चा दो मिनट में खत्म नहीं हुई. मैंने मां से कहा मां बस समझ लो ये बर्फी इतनी मीठी है.. कि हर डायबिटिक व्यक्ति को इस मिठाई का भरपूर आनंद लेना चाहिए. तुम भी जम के लुत्फ उठा सकती हो. बेपरवाह होकर. भरपेट़
शुक्रिया अनुराग बसु. आपकी बर्फी ऐसे वक़्त पे आयी है. जब माँ आँख की परेशानी से जूझ रही है और ऐसे में बर्फी जैसी फिल्म उनका मनोबल बढ़ाने में मददगार साबित होगी.
शुक्रिया अनुराग़, इस बर्फी की प्लेट के लिए.जो चांदी की बरक के बगैर भी उतनी ही स्वादिष्ट और चमकीली है. उतनी ही शुद्ध है. आपकी इस बर्फी का स्वाद मीठी होने के बावजूद हर डायबिटिक व्यक्ति चखनी ही चाहिए. निस्संदेह वे अपनी सारी परेशानियां व तनाव को भूल जायेंगे. मेरे लिए यह फिल्म मेरी मां के लिए एक खास तोहफा है. फिल्म की डीवीडी आने का इंतजार है मुङो. ताकि मैं अपनी मां को यह फिल्म गिफ्ट कर सकूं. क्योंकि मां भी कई बीमारियों से परेशान रहती हैं. कई तरह के तनाव हैं. कई बार वे हंसना भी भूल जाती है. खुश होना भूल जाती है. निश्चित तौर पर फिल्म बर्फी उन्हें थोड़ी देरे के लिए खुशियां जरूर दे जायेगी. दरअसल, अनुराग की यह बर्फी जिंदगी की मिठास से भरा एक ऐसा फैमिली पैकेज है जिसे हर डॉक्टर ko रिकमंड करना चाहिए.
यकीनन मैं जानती हूं कि बर्फी न तो डायबिटिज की बीमारी और न ही किसी डायबिटिज पेसेंट पर आधारित फिल्म है. लेकिन यहां इसका जिक्र इसलिए किया क्योंकि बर्फी उस हर मर्ज की दवा है. एक फिल्म के रूप में. उन हर व्यक्ति के लिए. जो बेहद तनाव में हैं. दुखी हैं अपनी कमियों को लेकर. जिनकी जिंदगी से जश्न का नाम मिट चुका है. जो खुश होना भूल गये हैं.
निस्संदेह, जिंदगी में प्रैक्टिकल अप्रोच रखनेवाले लोगों को फिल्म खास न लगे. लेकिन रिश्तों को अहमियत देनेवाले, भावनाओं को समझने वालों को यह फिल्म बेहतरीन लगेगी.
हिंदी सिनेमा की चॉकलेटी ( ग्लैमर, एकशन, आयटम सांग) प्लेट पर दरअसल
बर्फी ने एक अरसे के बाद वापसी की है. सादगी,खूबसूरत सी दुनिया में प्यार करनेवाले तीन बेपरवाह. लेकिन अपने रिश्तों के लिए फिक्रमंद लोगों की इस दुनिया में कदम रखते ही आप एक अलग दुनिया में आ जाते हैं. यह दुनिया आपको तड़क भड़क दे न दे. लेकिन एक सुकून भरी दुनिया में ले चलती है. एक ऐसी दुनिया, जहां निर्देशक आपसे आग्रह कर रहा है कि आइए, अपने जीवन के केवल 2 घंटे 45 मिनट मुङो दे दीजिए. भूल जाइए. सब कुछ. जी लीजिए सुकून के कुछ पल.
पिक्चर शुरू ..
मेरे दोस्त दुर्गेश सिंह ने अपने फेसबुक स्टेटस में एक पंक्ति में निर्देशक अनुराग के उद्देश्य की
सटीक व्याख्या की है. दुर्गेश अनुराग को ध्यान में रखते हुए लिखते हैं कि बर्फी मेरे बचपन का क्रिकेट है. बल्ला मेरा. गेंद मेरी, पिंच और स्टंप भी मेरे हैं.मैं यहां कभी आउट नहीं हो सकता. वाकई, दुर्गेश आपने सटीक कहा है. जिस तरह अनुराग ने फिल्म को ठीक उसी तरह संवारा है. जैसे बचपन में लड़के खुद अपना पिच, बल्ला तैयार करते थे और हम लड़कियां अपनी गुड्डे गुड्डियों का श्रृंगार करती थीं. फिर उनका व्याह रचाती थीं. एक प्रोसेस की तरह. स्टेप बाय स्टेप.बिना चूक़.पूरे धैर्य के साथ. ठीक उसी तरह एक परिपक्व हलवाई की तरह अनुराग ने खुशबू से ही लोगों को यह अहसास करा दिया कि बर्फी का स्वाद कैसा है. लंबे अरसे में शायद ही इतनी बेहतरीन और अलग शुरुआत मैंने किसी फिल्म में देखी है. अनुराग ने एक हलवाई की तरह ही फिल्म में बराबर मात्र में मेवा, काजू,किशमिश और सबसे अहम स्वाद का ख्याल रखा. दरअसल, बर्फी देखने के लिए भी अनुराग एक माहौल तैयार करवाते हैं. आप थियेटर में आते हैं. स्क्रीन पर कुछ विज्ञापन आते हैं. और अचानक पिक्चर शुरू होती है. लेकिन दरअसल, यहां पिर शुरू नहीं होती. ट्रेलर शुरू होता है. फिल्म का. किसी हिंदी फिल्म में ऐसा प्रयोग मैंने पहली बार देखा. बेहद दिलचस्प. एक गीत के माध्यम से स्वानंद किरकिरे की आवाज में अनुराग अपनी बात आप तक पहुंचाते हैं. कि पिर शुरू हो रही है.अपने आजू बाजू का ख्याल रखना..मोबाइल को ऑफ रखना..व कई निर्देश दिये जाते हैं. लेकिन प्यार से मुस्कुराके. गीत के साथ ही थियेटर में बैठे ऑडियंस ठहाकों की आवाज आती है. यह निर्देशक की सृजनशीलता का कमाल है कि वह शुरुआत के 2 मिनट में ही वह अपने उद्देश्य में कामयाब हो जाते हैं. चूंकि उन 2 मिनटों में ही निर्देशक ने दर्शकों को इंगेज कर लिया है. ऑडियंस की तालियों की गूंज इस बात का सबूत थी. आगे की पंक्तियों में अनुराग बताते हैं क़ि..आज का प्यार कैसा द ो मिनट नूडल्स जैसा..फेसबुक पे शुरू हुआ. कोर्ट में जाके गया मर..शब्दों में दो मिनट में बननेवाले नूडल्स के बहाने दरअसल, अनुराग ने फटाफट पनपते , फिर जुड़ते फिर टूटते बिखरते मैगी प्रेम की सच्चाई को बयां किया है.
इस बर्फी के काजू,किशमिश
अनुराग ने अपनी इस बर्फी की रेसेपी में जम कर मेवा डाला है.काजू, किशमिश, इलायची डाला है. लेकिन अनुराग के ये काजू किशमिश हैं. फिल्म के खूबसूरत दृश्य, उन्हें कलात्मक तरीके से फिल्माने का तरीका, किरदारों के बीच कागज की कस्ती सी प्रेम कहानियां. एक पिता और बेटे के दोस्तीवाले रिश्ते की कहानी.पंक्षियों की तरह मदमस्त खुले आसमां में घूमते मतवाले बर्फी की कहानी. फिल्म के दृश्य जैसे जैसे आपकी आंखों के सामने गुजरते हैं. हर दृश्य आपको निर्देशक की एक पेंटिंग की तरह लगते हैं. किसी चित्रकला प्रदर्शनी में जिस तरह एक के बाद एक नायाब कला हमें देखने को मिलती है. बर्फी के भी हर दृश्य कलात्मक नजर आते हैं. यह अनुराग की कलात्मक सोच व जिंदगी के प्रति उनकी बारीक व सकारात्मक नजरिये का अनुमान लगाया जा सकता है. इस रिदमिक सफर को और खूबसूरत बना दिया है स्वानंद किरकिरे, नीलेश मिश्र, सईद कादरी जैसे गीतकारों के बोल ने और प्रीतम के संगीत ने. इस फिल्म में जितने प्यारे प्यारे और जिंदगी से जुड़े बेमतलब की चीजों में भी जो संवाद भरा है निर्देशक ने. वह सिर्फ वही निर्देशक कर सकता है. जो निजी जिंदगी में भी बेमतलब की दुनिया में मतलब तलाशता हो. अनुराग ने इस फिल्म के जरिये कई बेमतलब की चीजों को जुगाड़ कर प्यार रच दिया है. जिसे किसी कैंडी पैकिंग की या ब्रांड की जरूरत नहीं. रणबीर कपूर ने अपनी बातचीत में कहा है कि वे उन फिल्मकारों की फिल्में करना चाहते हैं जो कुछ कहना चाहते हैं अपनी फिल्मों से. निश्चित तौर पर रणबीर ने निर्देशक की इस मनसा को भांप लिया होगा. तभी उन्होंने बतौर बर्फी अनुराग की सोच को पूरा किया. यह अनुराग के निर्देशन का ही कमाल है कि फिल्म में वे आपकी मुलाकात द रणबीर कपूर या प्रियंका चोपड़ा से होने ही नहीं देते. वह आपको ङिालमिल और बर्फी और श्रूति की दुनिया में ऐसे शामिल कर देते हैं. जैसे 2 घंटे 45 मिनट के लिए आप निर्देशक की सम्मोहन की दुनिया में हैं. सूकून से भरी सम्मोहन की दुनिया. जहां सबकुछ हैप्पी हैप्पी है. लाइफ इन मेट्रो के बाद अनुराग ने इस फिल्म से साबित कर दिया है कि उलङो रिश्तों की उन्हें परख है. समझ है.
उलझे रिश्तों की कहानियों को सुलझे निर्देशक के रूप में दर्शाने में वे माहिर हैं. रॉकस्टार के जॉर्डन के बाद अब बर्फी के रूप में रणबीर ने चौंका दिया है. न जाने इस रणबीर की जेब में और कितने सरप्राइज हैं. बस देखते जाइए, वह आनेवाले समय में और कैसे कैसे करामात कर हमें चौंकाते हैं.
किसने कहा बर्फी गूंगा है
यहां से निर्देशक हमें सीधे दाजर्लिंग की खूबसूरत वादियों में लिये चलते हैं. जहां हमारी मुलाकात बर्फी से होती है. किसने कहा, बर्फी बोल नहीं सकता. सुन नहीं सकता. जबकि हकीकत यह है कि बर्फी प्यार की भाषा बोलता है. और प्यार की भाषा ही सुनता भी है. उसे हंसना पसंद है. हंसाना पसंद है. वे खुद से इतना प्यार करता है. और अपने जिंदगी में उतना ही मस्त और एट्टीटयूड के साथ रहता है. जितना कोई आम व्यक्ति रहता हो. कोई उसकी कमी का मजाक उड़ाएं तो वह उनसे दोस्ती का हाथ आगे बढ़ाता है. अपने प्यार का इजहार भी वह बेहद खास अंदाज में करता है. उधर बर्फी सांकेतिक भाषा बोलता है और इधर आप उसकी मासूमियत, उसके चेहरे के भाव देख कर खिलखिलाते हैं. उधर वह प्यार का इजहार करता है और इधर आपको बर्फी से प्यार हो जाता है. बर्फी आपके दिलों में दस्तक देता है और आप कहते हैं हाउ स्वीट..आप बर्फी की उपस्थिति, उसकी हर हरकत को महसूस करते हैं. तो भला कैसे हम बर्फी को गूंगा घोषित करें.
दोस्ती-प्यार के बीच फंसी श्रूति
श्रूति के बहाने निर्देशक ने दरअसल, वास्तविक जिंदगी के उन वास्तविक किरदारों का परिचय दिया है. जो अपने पहले प्यार को भूल नहीं पाती. प्यार के पहले अक्षर की तरह यह प्यार पूरा नहीं होता. लेकिन फिर भी ताउम्र कोई भी अपने पहले प्यार को भूल नहीं पाता. फिर जिंदगी में जब भी मौके आते हैं. वे उन मौकों को खोना नहीं चाहती. फिर चाहे उसे प्यार की बजाय दोस्ती का हाथ ही क्यों न बढ़ाना पड़े.
बर्फी-
झिलमिल के सितारों का आंगन
बर्फी अपने पहले प्रेम श्रूति के घरवालों के पास निवेदन पत्र लेकर जाता है.जिसमें वह लिखता है कि
झिलमिल सितारों का आंगन होगा..बर्फी भी आम लोगों की तरह ही अपनी जीवनसाथी के साथ अपनी दुनिया बसाना चाहता था. उसका वह सपना तो पूरा नहीं हो पाता. लेकिन उसके
झिलमिल सितारों का आंगन बनता है. जब उसे मिलता है
झिलमिल का साथ. निर्देशक ने निश्चित तौर पर सोच समझ कर किरदार का नाम ङिालमिल रखा होगा. चूंकि बर्फी की जिंदगी में ङिालमिल के आने के बाद वाकई उसकी जिंदगी सितारों से भर जाती है. एक ऐसे सितारों की दुनिया जिसमें दो अधूरी जिंदगी मिल कर एक पूरी जिंदगी बनती है. और बर्फी खुद को पूर्ण समझता है. ङिालमिल उसकी जिंदगी की पहली शख्स बनती है,जो उसकी दोस्ती की अगिA परीक्षा में पास होती है. निर्देशक ने बर्फी द्वारा दोस्तों की परीक्षा लेने का भी बेहद दिलचस्प अंदाज चुना है. तुम कहो, तो मैं जान देने को तैयार हूं. दिल हथेली पर लेकर घूमने का दावा करनेवाले मजनूओं और लैलाओं की परख का यह नायाब तरीका है. दाजर्लिंग से शुरू हुई दोस्ती. सफर में पनपते प्यार और फिर कोलकाता में ङिालमिल सितारों का आंगन बना कर एक अलग दुनिया बसानेवाले ङिालमिल और बर्फी की प्रेम कहानी की खूबसूरती को शब्दों में बयां करना बेहद कठिन है. आप इस प्यार की खूबसूरती को देख कर ही महसूस कर सकते हैं. इस प्यारे से जोड़े के लिए प्यार की परिभाषा छोटे छोटे पल की खुशियां इकट्ठी करने में है. मुंह से बजाये जानेवाले बाजे, कागज के बने नाव, चिड़ियां उनके प्यार के नजराने हैं. दीवारों पर यूं ही कुछ भी लिखना, ङिालमिल को शादी के वक्त बर्फी द्वारा दिये गया सरप्राइज दर्शाता है कि बर्फी ङिालमिल की खुशियों की गहराई से समझता है. वही दूसरी तरफ बर्फी का श्रूति से लगाव से ईष्र्या करना दर्शाता है कि एक ऑटिज्म से पीड़ित लड़की के दिल में ही एक आम लड़की की तरह ही दिल है जो कि अपने प्रेम को किसी से बंटते देख दुखी होती है. निर्देशक ने इस ईष्र्या को भी खूबसूरती से दर्शाया है. अनुराग ने फिल्म को जवानी के दिनों में कॉमा लगाकर कहानी को बुढ़ापे तक पहुंचा कर एक और यह भी नजरिया प्रस्तुत करने की कोशिश की है कि बुढ़ापे में भी कैसे वे एक दूसरे के पूरक हैं . ताउम्र उनका प्यार जवां रहा. दरअसल, उनकी बेतरतीब दुनिया ही उनकी हसीन दुनिया है. दोनों के प्यार. सलीकेदार प्रेम कहानियां और एक दूसरे की खातिर मर मिटनेवाली प्रेम कहानियों की दुनिया में यह एक बेहद ही खूबसूरत व निश्चछल प्रेम कहानी का उदाहरण है.बर्फी और ङिालमिल का एक दूसरे के लिए प्यार समर्पण देख कर आप इस कदर मोहित हो जायेंगे कि आप खुद चाहेंगे कि आपको जीवन की प्रेम कहानी कुछ ऐसी ही हो.
पिता की मौत पर म्यूट में आंसू बहाये बर्फी
फिल्म का एक खास पहलू यह भी है कि इस फिल्म में एक बेटे और बाप के रिश्ते की कहानी को भी बखूबी दर्शाया गया है. पिता की मौत से दुखी है बर्फी. लेकिन वह आंसू नहीं बहाता. दरअसल, निर्देशक ने दर्शाया है कि दुखी होने के बावजूद बर्फी कैसे मातम नहीं मनाता. जबकि वह अंदर से रो रहा है. लेकिन बर्फी के आंसू स्क्रीन पर न छलकाते हुए बर्फी के जीवन के एक और मजबूत पहलू को भी दर्शाता है कि तमाम दुख के बावजूद खुश रहना मुश्किल है. लेकिन फिर भी हर परेशानी से जूझना ही जिंदगी का दूसरा नाम है. खुद अनुराग भी अपनी जिंदगी में एक बड़ी बीमारी से लड़ कर आगे बढ़े हैं. और जीवन के प्रति उन्होंने अपने इसी सकारात्मक नजरिये को फिल्म में भी दर्शाया है.
वाह. बर्फी की पूरी रेसिपी का मार्मिक मूल्यांकन. आपकी समीक्षा अनुराग बासू के हृदय में झांकती है फिर उनके किरदारों के अंदर...और अंतर्संबंधों की अनुपम व्याख्या. मैं प्रभावित हूं. आपकी पुरानी पोस्ट भी पढ़ना चाहूंगा.
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