हंसल मेहता ने शुरुआती दौर में जो फिल्में बनायीं. उन्होंने महसूस किया कि वे उनमें अपना दिल नहीं दे पा रहे हैं. वे वैसी फिल्में नहीं हैं, जैसी वे बनाना चाहते थे और वे पीछे मुड़े. स्थिर हुए. मंथन किया कि आखिर वजह क्या है. इस आत्ममंथन में वे इस बात से अवगत हो गये कि उन्हें ऐसी नहीं शाहिद, सिटीलाइट्स जैसी फिल्में बनानी हैं. चूंकि वे ऐसी ही कहानियों को पसंद करते हैं. सो, एक बार फिर वे अलीगढ़ के माध्यम से समलैंगिकों को लेकर समाज का नजरिया दिखा रहे हैं.
इस विषय को चुनने की खास वजह क्या रही?
मुझे इस फिल्म में एक कहानी दिखी. एक नया कैरेक्टर दिखा. जिसको हम दुनिया के सामने पेश कर सकते थे.जैसे कहानी डेवलप करते गये तो न सिर्फ प्रोफेसर सीरास का बल्कि उनका एक जर्नलिस्ट से अटूट रिश्ता भी दिखा. तो उस कैरेक्टर को भी तय किया कि दिखाऊंगा. हमने ऐसी बहुत कम फिल्में बनायी हैं, जिसमें इतना रियलिस्टिक चीजों को एक्सप्लोर कर पाते हैं. इस फिल्म के बारे में मुझे एक मेल आया था. ईशानी बनर्जी का इमेल था. उन्होंने मुझे कहानी के साथ एक इमेल भेजा था. तो मैंने अपने एडिटर से शेयर किया और अपूर्वा ने पढ़ा तो उन्होंने कहा कि मैं इस कहानी के बारे में जानता हूं. तो मैंने पूछा कि क्या तुम इस कहानी के बारे में लिखोगे. तो वह तैयार हो गये, इसके 6 महीने के बाद हमने फिल्म बनानी शुरू कर दी. मैं हमेशा कहता हूं कि कहानी को मैं नहीं ढूंढता. कहानी मुझे ढूंढ लेती है.
फिल्म इंडस्ट्री में आमतौर पर किसी निर्देशक में इतनी पारदर्शिता नहीं दिखती, कि वह अपनी बात दावे से कर सकें. और अपना नजरिया बिना किसी पक्षपात के रख पाये. आप उनमें से एक हैं, तो कितनी मुश्किलें आती हैं कि आप अलग राय रखते हैं?
मेरे लिए मुश्किल है अपनी राय न रख पाना. मैं दो इंसान बन कर तो नहीं घूम सकता. मेरी पिछली फिल्मों में जो मेरी नाकामयाबी रही. वह शायद इसलिए हुई थीं, क्योंकि वहां मैं दो अलग इंसान के रूप में काम कर रहा था. एक इंसान जो निजी तौर पर बहुत लिबरल था. जिसकी पॉलिटिकल थिंकिंग एक तरफ झूकती थी.जो जस्टिस जैसी चीजों को लेकर सोचता था. वह इंसान जब फिल्में बना रहा था. तो कोई ऐसी बात ही नहीं थी. इसलिए वे फिल्में भी नाकामयाब रहीं, क्योंकि वहां मैं था नहीं. फिर मुझे महसूस हुआ और हालात ने सोचने पर मजबूर किया कि आखिर क्यों फिल्में नहीं चल रहीं. तो मुझे लगा कि मुझे अपने अंदर झांकना होगा.मंथन करनी होगी. आत्मा में झांकना होगा कि आखिर मैं फिल्म क्यों बना रहा हूं. किसके लिए बना रहा हूं. वही से लगा कि मैं जो हूं, वह मेरी फिल्में नहीं हैं. तो अब मैं कोशिश करता हूं. कि अब मैं अपनी सच्चाई अपनी फिल्मों में दिखाऊं. इसके जरिये में अब मैं खुद को संतुष्ट करता हूं.
तो सिटीलाइट्स और शाहिद जैसी फिल्मों से अपने अंदर के निर्देशक को संतुष्ट कर पाये?
हां, यह हकीकत है कि सफलता आपको आगे बढ़ने का हौसला देती है, चूंकि मेरी फिल्में नहीं चलीं. तभी मैंने खुद पर मंथन किया. मुझे लगता है कि अगर मैं नाकामयाब नहीं होता तो मैं शाहिद नहीं बना पाता. मैं अपनी नाकामयाबी को ही श्रेय देता हूं कि यह फिल्म बना पाया. शाहिद लेकिन अगर लोगों को पसंद नहीं आती तो मैं वाकई असमंझस में फंस जाता कि आखिर लोगों को क्या चाहिए. तो मैं रिटायर हो जाता. छोड़ देता फिल्में बनाना.
ऐसी फिल्में जैसी आप बनाते हैं. आपको एक इंसान के रूप में, एक निर्देशक के रूप में कितना सिखाती है?
मेरा मानना है कि हर फिल्म से आप ग्रो करते हैं. शाहिद की वजह से मेरी जिंदगी में डर खत्म हुआ. मैं फीयरलेस हो गया. निडर होकर सोचने लगा. अपनी बात कहने में मैं निडर हो गया. शाहिद आजिमी के कैरेक्टर ने मुझे बहुत प्रेरणा दी. आज भी मैं उससे बहुत प्रेरित होता हूं. मेरी कोशिश हर बार यही होती है कि मैं मार्जिनलाइज्ड लोगों की कहानी पर काम करूं. क्योंकि मैं सोचता हूं कि जिस देश की माइनॉरोटी खुश न हो. जिनके अधिकार देश की सरकार संभाल न पाये, तो वह देश कभी भी सुखी नहीं हो सकता. तो, वह मानवधिकार के बारे में सोचता हूं. वह लोगों तक कहानी के माध्यम से कहना चाहता. दिखाना चाहता कि ये आपके हक हैं.ये आपसे छीने जा रहे हैं, आपको इनके बारे में जानना जरूरी है.
समलैंगिकता को प्राय: फिल्मों में मजाकिया अंदाज में दिखाया जाता रहा है. आप इसे किस नजरिये से देखते हैं?
मुझे लगता है कि फनी दिखाने में दिक्कत नहीं हैं. लेकिन गलती यह है कि आप उसको स्टिरियो टाइप मत दिखाइये. समलैंगिकता को एक ही तरह से दिखाना कि मुसलीम हैं तो नाम रहीम चाचा ही होगा. कुत्ता है तो टॉमी ही होगा. तो इस तरह दिखाना गलत है.स्टिरियोटाइपिंग दिखाने से उस कॉम को दिक्कत होती है. उनका नुकसान होता है. फिर लोग उन्हें एक ही नजरिये से देखने लगते हैं.जबकि वह हकीकत नहीं है. उसे हर तरह से दिखायें. खुद पर हंसना जरूरी है. हंस कर सीखना जरूरी है. मुझे लगता है कि बॉलीवुड का इस विषय को मजाक बनाने में छोटा सा ही हाथ है. लेकिन हां, वह इसे मजाक से बाहर ले जाने के दायरे में ज्यादा कुछ नहीं कर पायी है, क्योंकि फिल्में कम बनी है. कुछ 20 साल में 8-10 फिल्में बनी हैं. लेकिन यह कम हैं.
आपको लगता है कि इस तरह की फिल्मों की वजह से बदलाव होंगे?
नहीं बिल्कुल नहीं. मुझे नहीं लगता कि कोई भी फिल्म कुछ बदलाव करती है. मुझे बस इतना लगता है कि हां, ऐसी फिल्में सोचने पर आपको मजबूर जरूर करती है. और जब आपको सोचने पर मजबूर होंगे तो कम से कम आप बदलेंगे. दिक्कत यह है कि लोगों ने सोचने पर ही रोक लगा दी है. यह कह कर कि ये बिगाड़ने वाली फिल्में हैं. तो हम लोग दोबारा जागरूक करने की कोशिश कर रहे हैं कि कम से कम सोचिये. बाद में सही गलत का फैसला आप की िजए. जो मूड देखा है हमने. फिल्म अलीगढ़ को लेकर जो रिस्पांस मिला है, इससे लग रहा है कि लोगों का सपोर्ट है 377 को हटाने में तो सरकार का सपोर्ट क्यों नहीं है. अलीगढ़ में हमने कोई सनसनी फैलाने की कोशिश नहीं की है. फिल्म नदी की तरह है. शांत. जिसे देख कर आपको मेडिटेशन जैसी भावना महसूस होगी. यह फिल्म उकसायेगी नहीं, सोचने पर मजबूर करेगी. करन जौहर ने जब फिल्म देखी तो एक दिन बाद फोन करके बात की. हमने फिल्म शूट की है. बरेली में. वहां कई लोग मिले आकर. उन्होंने आकर कहा कि बहुत अच्छा विषय है. तो यह छोटा सा शहर है. सोचें. लेकिन वहां से लोग कहते हैं तो खुशी होती है कि लोगों तक बात पहुंच रही है.
सेलिब्रिटीज लेकिन इस मुद्दे को लेकर एक ठोस आवाज उठाते नजर नहीं आते?
नहीं मुझे लगता है कि सेलिब्रिटीज के साथ परेशानी है कि उनके हर कदम को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत किया जाता है. इसलिए खुलेतौर पर वह सामने नहीं आते, मगर मुझे लगता है कि फिल्म इंडस्ट्री सबसे खास जगह है, जहां सबसे ज्यादा खुले विचारों के लोग हैं और यहां सभी को एकरूप में देखा जाता. काम की डिमांड हैं. फिर आप कोई भी हों. इस बात पर काम दिया या रोका नहीं जाता कि आप समलैंगिक हैं कि नहीं..आदि आदि.
प्रोफेसर सीरास की जिंदगी को कितना वास्तविक दिखा पाये हैं?
सिनेमेटिक लिब्रर्टी लिया है. पार्ट फिक् शन हैं. पार्ट रियलिटी. मैं कैरेक्टर की जर्नी दिखाई है फिल्म में. हमने फिल्म में उनके अकेलेपन को दिखाया है. वह व्यक्ति लता मंगेशकर, विस्की अपना अकेलापन कितना पसंद था. उनके कलिग ने फिल्म देखी तो उनकी आंखें भर आयी थी, उनकी पत् नी ने हमसे बात की थी तो उनकी आंखें भर आयी थी.
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