निर्देशक हंसल मेहता ने अपनी बातचीत के दौरान इस बात का जिक्र किया कि उन्होंने शुरुआती दौर में जिस तरह की फिल्में बनायी, और जिस तरह वे लगातार फ्लॉप होती गयीं. उन्हें एहसास हुआ कि उन्हें इस बारे में गहन चिंता करनी चाहिए कि आखिर उनकी फिल्मों में कमी क्या रह जा रही है और उस वक्त उन्होंने समझा कि दरअसल, उन फिल्मों में उनका दिल नहीं है. वे जो हैं. वह फिल्म में नजर नहीं आ रहा और उन्होंने सिटिलाइट्स, शाहिद जैसी फिल्में बनाना शुरू की और आज उनके अंदर का निर्देशक कुछ हद तक संतुष्ट है. उनके अंदर के निर्देशक ने ही उन्हें अलीगढ़ जैसी फिल्में बनाने की प्रेरणा दी है. स्पष्ट है कि एक निर्देशक के लिए कई बार पीछे मुड़ना भी जरूरी है. उसे इस बात का भी ज्ञान जरूरी है कि आखिर वे करना क्या चाहते हैं या वे किस तरह की फिल्मों के लिए बने हैं. शायद यही यह वजह थी जिसने इम्तियाज अली को किसी दौर में भट्ट साहब के लिए लिखी जा रही एक फिल्म करने से रोक दिया था. चूंकि इम्तियाज समझ गये थे कि वे उस फिल्म के साथ न्याय नहीं कर पायेंगे. बाद में सोचा न था से उन्होंने पहली शुरुआत की. अक्सर ऐसा होता है कि कामयाबी मिलने के बाद पीछे लौट पाना और अपनी दिल की बातों को सुनना कठिन होता है. यह हकीकत है कि संजय लीला के दिल में खामोशी, ब्लैक, गुजारिश जैसी फिल्में रहीं. लेकिन उन्हें महसूस हुआ कि राउडी से उन्हें धन प्राप्त होगा तो बतौर निर्देशक वह राउडी जैसी फिल्मों की तरफ मुड़े. लेकिन यह भी हकीकत है कि उन्हें संतुष्टि तो बाजीराव मस्तानी जैसी फिल्मों से ही मिलती है. हर निर्देशक, हर कलाकार के लिए दरअसल, एक बार पीछे मुड़ना व आत्म मंथन जरूरी है कि क्या वे जिस राह पर हैं, जो वह कर रहे. उससे आत्म संतुष्ट है या नहीं. तभी अलीगढ़ जैसी फिल्मों का निर्माण हो सकता.
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20160217
निर्देशक का पीछे लौटना
निर्देशक हंसल मेहता ने अपनी बातचीत के दौरान इस बात का जिक्र किया कि उन्होंने शुरुआती दौर में जिस तरह की फिल्में बनायी, और जिस तरह वे लगातार फ्लॉप होती गयीं. उन्हें एहसास हुआ कि उन्हें इस बारे में गहन चिंता करनी चाहिए कि आखिर उनकी फिल्मों में कमी क्या रह जा रही है और उस वक्त उन्होंने समझा कि दरअसल, उन फिल्मों में उनका दिल नहीं है. वे जो हैं. वह फिल्म में नजर नहीं आ रहा और उन्होंने सिटिलाइट्स, शाहिद जैसी फिल्में बनाना शुरू की और आज उनके अंदर का निर्देशक कुछ हद तक संतुष्ट है. उनके अंदर के निर्देशक ने ही उन्हें अलीगढ़ जैसी फिल्में बनाने की प्रेरणा दी है. स्पष्ट है कि एक निर्देशक के लिए कई बार पीछे मुड़ना भी जरूरी है. उसे इस बात का भी ज्ञान जरूरी है कि आखिर वे करना क्या चाहते हैं या वे किस तरह की फिल्मों के लिए बने हैं. शायद यही यह वजह थी जिसने इम्तियाज अली को किसी दौर में भट्ट साहब के लिए लिखी जा रही एक फिल्म करने से रोक दिया था. चूंकि इम्तियाज समझ गये थे कि वे उस फिल्म के साथ न्याय नहीं कर पायेंगे. बाद में सोचा न था से उन्होंने पहली शुरुआत की. अक्सर ऐसा होता है कि कामयाबी मिलने के बाद पीछे लौट पाना और अपनी दिल की बातों को सुनना कठिन होता है. यह हकीकत है कि संजय लीला के दिल में खामोशी, ब्लैक, गुजारिश जैसी फिल्में रहीं. लेकिन उन्हें महसूस हुआ कि राउडी से उन्हें धन प्राप्त होगा तो बतौर निर्देशक वह राउडी जैसी फिल्मों की तरफ मुड़े. लेकिन यह भी हकीकत है कि उन्हें संतुष्टि तो बाजीराव मस्तानी जैसी फिल्मों से ही मिलती है. हर निर्देशक, हर कलाकार के लिए दरअसल, एक बार पीछे मुड़ना व आत्म मंथन जरूरी है कि क्या वे जिस राह पर हैं, जो वह कर रहे. उससे आत्म संतुष्ट है या नहीं. तभी अलीगढ़ जैसी फिल्मों का निर्माण हो सकता.
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